यह श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की उनकी कैलीफोर्निया यात्रा के दौरान हुये ऑब्जर्वेशन्स पर आर्धारित तीसरी अतिथि पोस्ट है:
सफ़ाई और कचरे का निस्तारण (garbage disposal)
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एक और बात आप वहाँ (कैलीफोर्निया) पहुँचते ही नोटिस करेंगे और वह है वहाँ का साफ़ वातावरण।
रास्ते में कहीं भी कूड़ा-कचरा देखने को नहीं मिलेगा।
जरा देखिए इस तसवीर को। यह है घर से बाहर निकलकर रास्ते और कोलोनी का एक दृश्य।
इतना साफ़ कैसे रखते हैं ? मैने कोई सफ़ाई कर्मचारी सड़क को साफ़ करते हुए देखा नहीं।
इसका राज है वहाँ के नागरिकों का सहयोग। हर परिवार को म्युनिसिपैलिटी से तीन किस्म के डिब्बे दिये जाते हैं।
यह डिब्बे अलग रंग के होते हैं। एक में रसोई से निकला कूड़ा (organic waste); दूसरे में प्लास्टिक का कूड़ा जो recyle हो सकता है और तीसरा बाग/बगीचे से पैदा हुआ कूड़ा (जैसे सूखे पत्ते, टूटी हुई टहनियाँ वगैरह)। (चित्र देखिए)
हर बृहस्पतिवार को ये डिब्बे सुबह सुबह घर के सामने रास्ते के एक छोर पर रखे जाते हैं और सफ़ाई कर्मचारी (बस एक ही आदमी) अपने ट्रक में आता है और उन्हे खाली करके डिब्बों को वहीं छोड जाता है। चित्र में देखिए ट्रक कैसे उन डिब्बों को उठाता है। ट्रक का ड्राईवर ट्रक के बाहर निकलता ही नहीं। बस केवल आधे घंटे में कोलोनी के सभी घरों को निपटा लेता है। डिब्बे का साईज़ देखिए। एक आदमी उसमें घुस सकता है। पूरे हफ़्ते का मैल उसमें जमा हो जाता था।
सड़कें और ट्रैफ़िक
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मुख्य सड़कें इतनी चौड़ी थीं, कि पूछो मत। शायद २०० फ़ुट से भी ज्यादा । हमने ऐसी सडकें भारत में कहीं नहीं देखी। न कोई गड्डे, न कोई स्पीडब्रेकर।
कहीं कोई आबादी दिखती ही नहीं। लगता था सभी लोग या तो अपने घर के अन्दर, या कार्यालय के अन्दर या अपनी कार के अन्दर हैं। सारा शहर एक भूतों की बस्ती (Ghost Town) लगता था। भारत के शहरों का भीड़ भाड़, शोरगुल, मैल, धूल, रास्ते में चलती गाएं, दुकानें, भिखमंगे, कुत्ते, कुछ भी वहाँ देखने को नहीं मिले। यदि लोगों को देखना हो तो किसी मॉल जाना पडता था। रास्ते में चलते वक्त हम अपनी मर्जी से कहीं भी रास्ता पार नहीं कर सकते थे। केवल नियुक्त स्थानों पर ही पार कर सकते थे। भारत में तो हम बडी मुस्तैदी से, यहाँ वहाँ उछल कूद करके ट्रैफ़िक के बीच वाहनों से बचते बचते सडक पार करते हैं। वहाँ ऐसा करना jay walking कहलाता है जो जुर्म है और पुलिस हमें अन्दर कर देगी! नियुक्त स्थानों पर पैदल चलने वाले ट्रैफ़िक लाईट स्वयं चला सकते हैं। एक खंबे में स्विच दबाने से कुछ देर बाद गाडियों के लिए लाल बत्ती जलने लगती है और सभी गाडी प्यादे के लिए रुकती है।
पानी, बिजली, गैस
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आप नल का पानी बेहिचक पी सकते हैं। इतना शुद्ध होता था वहाँ का पानी।
कहीं कोई ओवरहेड (overhead tank) देखने को नहीं मिला। पानी सीधे पंप होता था घर के सभी नलों तक।
पूरे महीने में एक भी दिन, एक क्षण के लिए भी बिजली चली नहीं गई। २४ घंटे पानी और बिजली का इन्तजाम था।
घर में कोई वोल्टेज स्टेबलाइज़र (voltage stabilizer) भी नहीं दिखे।
गैस का सिलिन्डर भी देखने को नहीं मिला। गैस सीधे नलियों से रसोई घर तक पहुँचता थी। गैराज में मीटर था जिसके हिसाब से गैस का बिल चुकाना पडता था।
फ़्रिज (refrigerator) तो इतना बडा था की हमें लगा कि कोई अलमारी है। (चित्र देखिए) । दस पन्द्रह दिन का दूध, तरकारी, वगैरह उसमें भर कर रखते थे। ताजा खाना तो इन बेचारों को नसीब ही नहीं। दोनों (मियाँ बीबी) काम पर जाते थे । किसके पास समय है? हफ़्ते भर के लिए पका कर फ़्रीज़र में रख देते थे। हमें तो यह अच्छा नहीं लगा और जब तक हम थे, पत्नी रोज पकाती थी। बेचारे दामाद को तो यह ताजा पकाया खाना बैठ कर खाने की फ़ुरसत भी नहीं मिलती थी। सुबह सुबह खड़े खड़े या घर के अन्दर चलते फ़िरते ही अपना नाश्ता करता था और वह भी रोज वही मेनु (cornflakes, cereal, दूध के साथ)। शनिवार/रविवार को ही उसे हमारे साथ प्यार से बनाया गया ईड्ली/डोसा वगैरह आराम से और बडे चाव से खाने का अवसर मिलता। यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं पर कभी सोचता हूँ आखिर किस के लिए। अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।
इण्टर्नेट (Internet)
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इंटर्नेट की गति तो मेरे यहाँ बेंगळूरु से चार गुणा अधिक थी। पहली बार You Tube के विडियो हम बिना buffering देख कर आनन्द उठा सकते थे। वेब साइट पर जाकर अपनी पसन्दीदा फ़िल्में चुन सकते थे और यह फ़िल्में अपने टी वी पर इंटर्नेट से direct streaming करके देख सकते थे। मात्र १० डॉलर प्रति महीने का शुल्क था इस सुविधा के लिए।
घर में सभी खिडकियों में केवल काँच का शटर था। लोहे के ग्रिल कहीं नहीं देखे। रसोई घर का चित्र देखिए। बेटी से पूछा क्या डर नहीं लगता? कोई भी अन्दर घुस सकता है? security का क्या इन्तजाम है? उसने जवाब दिया " कोई इन्तजाम नहीं. यहाँ अब तक कोई घटना नहीं घटी। सभी घर ऐसे ही हैं। यहाँ घर आराम से रहने और जीने के लिए बनते हैं, सुरक्षा के लिए नहीं। लोग घर बदलते रहते हैं और घर से उनका कोई स्थाई लगाव (attachment) नहीं होता। उन्हें अगली पीढी के लिए विरासत छोडने का खयाल ही नहीं आता।
आगे अगली किस्त में।
शुभकामनाएं
श्री विश्वनाथ जी की मेल से प्राप्त प्रति-टिप्पणिया:
@Mrs Asha Joglekar और वाणी गीतजी,
यहाँ भारत में हम मजबूर होकर बचा हुआ खाना फ़्रिज में रखते हैं क्योंकि हम यह नहीं चाहते कि खाना खराब होकर बर्बाद हो जाए। अगले दिन उसे गर्म करके या कुछ जुगाड करके उसे खाते हैं। पर अमरीका में अधिक मात्रा में पकाना और फ़्रिज में रखना पूर्वनियोजित हो गया हैं। Canned Food बहुत ही ज्यादा खाते हैं ये अमरीकी लोग।
@प्रवीण पाण्डेजी,
"कम्पोस्ट" पर आप विस्तृत "पोस्ट" "compose" करने जा रहे हैं। इन्तजार रहेगा। इस बहाने आपकी श्रीमतिजी से भी सभी मित्र परिचित हो जाएंगे। इन्तजार रहेगा
@अजीत गुप्ताजी,
flexitime की सुविधा हर एक को नसीब नहीं होता। उनके काम की विशेषता पर निर्भर होता है। जिनका काम अन्तरजाल से संबन्धित है उन्हें कभी कभी देर रात को भी तैयार रहना पडता है। Networking Web Site maintenance या networking web site programming का काम तो २४ घंटे चलता रहता है क्योंकि किसी भी समय, दुनिया के किसी भी कोने से लोग वहाँ पहुँचते हैं। "Networking" कभी भी "not working" नहीं बनना चाहिए।
@धीरु सिंह्जी, शोभाजी, अन्तर सोहिलजी, ghost buster जी, और विष्णु बैरागीजी
मामला रोचक है। क्या चीन की आबादी हमसे भी ज्यादा नहीं? बेजिंग और शैंघाई के चित्र हमने देखी थी और बहुत प्रभावित हुआ था। यहाँ भारत में भी कई ऐसी जगह मिल जाएंगे जहाँ आबादी कम है पर मैल/गन्दगी की कोई कमी नहीं। स्वच्छता और आबादी के आपसी सम्बंध पर शायद कोई अच्छा पोस्ट लिखा जा सकता है।
@पंकज उपाध्यायजी,
आपका quotation अच्छा लगा। आप सही कह रहे हैं। कई लोग इस सोफ़्टवेयर लाईन को समझ नहीं पा रहे हैं।
मेरे ससुरजी भी बार बार हमसे पूछते हैं कि यह सोफ़्टवेयर बला क्या होता है। कंप्यूटर तो समझ में आ गई। हमने समझाने की कोशिश की, टीवी और रेडियो का उदाहरण देकर। हमने कहा टीवी/रेडियो hardware होता है और टी वी प्रोग्राम software होता है। सुना है श्री लालू प्रसाद यादवजी ने भी एक बार किसी से पूछा था "यह IT/Wyti क्या होती है?"
@रश्मि रवीजाजी,
आप ठीक कह रही हैं। Weekends का पूरा मजा लेते हैं यह अमरीकी लोग। आपने कहा "जबकि यहाँ सातों दिन काम करने में ही लोग तारीफ़ समझते हैं." पर हमारे यहाँ कुछ लोग तो सातों दिन आराम चाहते हैं।
@रंजनाजी, e pandit जी, मनोज कुमार जी, प्रवीण त्रिवेदीजी, विनोद शुक्लाजी
टिप्प्णी के लिए धन्यवाद
cmpershad jee,
आखिर कितना segregation कर सकते हैं? कोई सीमा तो होनी चाहिए। नहीं तो घर के सामने केवल डिब्बे ही डिब्बे नज़र आएंगे। शायद जो recycle हो सकते हैं या जिसे dry waste कहा जा सकता हैं ,उसके लिए एक ही डिब्बा नियुक्त होता है।
कभी कभी तो हम भी सोच में पडते थे कि फ़लाँ कूडा किस डिब्बे में डाला जाए।
@राज भाटिया जी,
आप की बात से सहमत हूँ। ज्ञानजी भी यही कह रहे हैं। आबादी को हमें एक बहाना नहीं बनाना चाहिए।
@डॉक्टर महेश सिन्हाजी,
"यहाँ तो लोग कचरे का डब्बा भी गायब कर दें"
यह आपने मज़ेदार बात कही। हाँ आपका यह भी बात सही है कि भारत में लोहे का ग्रिल से भी हमें सुरक्षा की कोई गारन्टी नहीं। आजकल अमरीकी लोगों को चोरों से डर नहीं लगता। आतंकवाद का डर है। कभी कभी कुछ लोग paranoid behaviour का प्रदर्शन करते हैं।
@अनिताजी,
मैं तो वापस आ गया हूँ। केवल एक महीने के लिए वहाँ गया था। आप बेंगळूरु आई थीं।
इस बार आप हमसे बच निकले। अब आगे कोई बहाना नहीं चलेगा। अगली बार जब आप बेंगळूरु आएंगे, आशा है आप से मुलाकात होती।
@भारतीय नागरिक जी,
आप से सहमत हूँ। उन लोगों की अच्छाईयोंको हमें अपनाना चाहिए। उनका work culture प्रशंसनीय है। किसी भी काम में गुणवत्ता पर जोर देते हैं। समय का भी पूरा खयाल रखते हैं। Schedules उनके लिए sacred होते हैं जिसे वे बहुत seriously लेते हैं।
@अभिषेक ओझा जी,
न्यू यॉर्क तो बिलकुल अलग है। उससे कोई comparison व्यर्थ है। इस बार हम वहाँ जा नहीं सके। अगली बार जाएंगे।
@स्मार्ट इन्डियन्जी,
अगली बार हम international licence लेकर जाएंगे। पर बेटी और दामाद कहते हैं की मुझे वहाँ कार नहीं चलानी चाहिए। वे तो यह मानते हैं की भारत का chaotic Traffic का हम इतने आदि हो चुके हैं कि हम orderly traffic से adjust नहीं कर पाएंगे!
सभी मित्रों को धन्यवाद। बस कुछ ही दिनों में ज्ञानजी को चौथी किस्त भेजूँगा। ज्ञानजीने मुझे यहाँ जगह दी उसके लिए आभारी हूँ।
शुभकामनएं
जी विश्वनाथ
यही अनुभव हमारा भी है। जब तक हम यहां होते हैं बच्चों को ताजा खाना ही खिलाते हैं । वही उनके लिये सबसे बडा उपहार है । अच्छी लगीये पोस्ट ।
ReplyDeleteरोचक जानकारी!
ReplyDeleteएक चीज़ और मैंने नोट की है कि वहां के घरों के बाहर कोई चारदीवारी नहीं होती. घर सड़क के लेवल से थोडा ऊपर होता है, बस. वहां गाय, कुत्ता, भिखारी और, सेल्समेन छुट्टा नहीं घूमते, शायद इसलिए.
ReplyDeleteपत्नी तो इन डिब्बों को देखकर बोले 'सुबह-सुबह दैत्य जैसे इन डिब्बों को घर के बाहर देखो तो पूरा दिन ख़राब!' घर के ठीक सामने रखे इतने बड़े-बड़े कचरा डब्बे तो मुझे भी नहीं सुहा रहे. वैसे तो अमेरिकी अपना कूड़ा तीसरी दुनिया के देशों की ज़मीनों में दफ़न करने के लिए बदनाम हैं.
अमेरिका वाकई बहुत बड़ा भूत है. भूतों की बस्ती, मज़ा आ गया यह लाइन पढ़कर.
अमेरिकन्स पूरे अनासक्त हो गए हैं. खुद को छोड़कर किसी से मोह नहीं, किसी से लगाव नहीं... घोर दंभी अनासक्त.
यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं पर कभी सोचता हूँ आखिर किस के लिए। अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।
ReplyDeleteनही जी ऐसा भी नही है ! हम तो खूब मौज करते है ! सुबह नौ से छः(कभी कभी सात बजे ) तक काम और फीर आराम ! सप्ताह के पांच दिन काम करने के बाद पूरे दो दिन भी तो होते है धिन्गा मस्ती के लिए ! वैसे भी काफी कुछ निर्भर करता है कि आप समय का उपयोग कैसे करते है ! जैसे मै व्यायाम के लिए जीम नही जाता लेकिन ओफ्फिस पैदल जाता आता हूँ , पूरे तिन किलोमीटर, सिड्नी हार्बौर पूल पार कर :)
! कपड़े धोने जैसे काम जो सप्ताहान्त मे होते है, वह शुक्रवार की रात मे फिल्म देखाते हुए कर लेते है ! सुबह समाचार पढने के लिए छोटा वाला कमरा है ना ! एक साथ् दो काम !
नाश्ते के टेबल पर हम और बीवी ! कोइ और काम नही , सिर्फ नास्ता !
शाम का खाना , ओफ्फिस से आने के तुरन्त बाद ! उसके बाद पूरी फुरसत ! पूरा समय अपने लिए ! टी वी नही खरीदा है इसलिए !
यहाँ की रेलवे कॉलोनी में केवल दो डब्बों से ही काम चल रहा है, उसमें से केवल प्लास्टिक वाला कचरे का डब्बा ही बाहर जाता है। ऑर्गेनिक वेस्ट व पत्ती आदि को कॉलोनी में ही एक डम्प में डालकर खाद में बदल दिया जाता है और पुनः बागवानी के लिये उपयोग कर लिया जाता है।
ReplyDeleteएक विस्तृत पोस्ट शीघ्र ही लिखूँगा, श्रीमती जी से के सहयोग से क्योंकि वही इस पर कार्य कर रही हैं।
वहाँ के इंजीनियर बहुत अधिक नहीं कमाते। आजकल भारत में भी बहुत अच्छा वेतन मिलता है। वहाँ नौकरी पर समय की बहुत अधिक पाबन्दी नहीं है, इसलिए व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह आराम से खाना खाए या चलते फिरते। आपके अनुभव हमारे जैसे ही हैं, इसलिए मनोयोग पूर्वक पढे जा रहे हैं।
ReplyDeleteअगर अमेरिका मे १२५ करोड लोग रहने लगे तो यह सब व्यव्स्था धरी की धरी रह जायेंगी .
ReplyDelete"यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं पर कभी सोचता हूँ आखिर किस के लिए। अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।"
ReplyDeleteजो मेरा अनुभव है उससे यह कह सकता हूँ कि कम से कम भारत के छोटे शहरों से आये लोग इससे (सॉफ़्टवेयर जॉब) अभीतक रिलेट नहीं कर पाते मसलन आप घर पर इससे जुडी बातें नहीं कर पाते.. अपनी रोजमर्रा की दिक्कतों को डिसक्स नहीं कर पाते और एक गैप आता जाता है..
जिंदगी तो खूब जी लेते हैं ये लोग भी.. बस शायद इनका जीने का तरीका सबकी समझ में न आता हो.. कुल मिलाकर ये स्पीसीज यहाँ रहते हुये भी एक एलीयन टाईप ज़िंदगी जीती है..
एक एसएमएस की कुछ पंक्तियाँ यूं थीं-
Years ago.... People sacrificing their friends, family, fun, food, laughter, sleep & other joys of life were called SAINTS...
Nowadays they are called 'Software Engineers'
बाकी बहुत अच्छी पोस्ट..
अमेरिका का क्षेत्रफल भारत से ४ गुना ज्यादा और आबादी १/४ है. ये तथ्य वहां की व्यवस्था का एक मुख्य कारण है.
ReplyDelete@ शोभा - जमीन पर जनसंख्या का दबाव एक गणक हो सकता है। पर कूड़े-कचरे के प्रति स्नेह और सहिष्णुता के लिये तो भारत शीर्षस्थ माना ही जायेगा। थोड़ी सी बेहतर हैबिट्स और कितना जबरदस्त बदलाव आ सकता है - लोग प्रयास ही नहीं करते!
ReplyDeleteआबादी कम हो तो हम भी अपने देश में इन सभी सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं।
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करें
चौबीसों घंटे बिजली, वोल्टेज स्टेबलाइज़र की अनुपस्थिति, गैस पाइप लाइन तो मुंबई में भी है पर गंदगी का ये आलम है कि कोई गाँव भी यहाँ से कई गुणा साफ़ होगा....और वजह वही है, जनसँख्या और अशिक्षा...जबतक इनमे सुधार नहीं होगा....एक साफ़-सुथरे शहर का सपना बस सपना ही बना रहेगा.
ReplyDeleteवहाँ के लोग पांच दिन तो बहुत काम करते हैं..खाने-पीने तक कि सुध नहीं रहती पर वीकेंड्स पर सारी कसर पूरी कर लेते हैं, घूमना, कैम्पिंग, पिकनिक...जबकि यहाँ सातों दिन काम करने में ही लोग तारीफ़ समझते हैं.
रोचक ....
ReplyDeleteएक हफ्ते का बासी खाना ...इन लोगों की पाचन क्षमता से ईर्ष्या हो रही है ..
यहाँ रहते तो यह सब कल्पना में भी ठीक ठीक नहीं आ पाता...सब स्वप्नवत लगता है...
ReplyDelete`यह डिब्बे अलग रंग के होते हैं"
ReplyDeleteहमने तो अखबार और प्लास्टिक एक ही डब्बे में गिरते हुए देखा है.... शायद वहां के लोग कलरब्लाइंड हैं :)
रुचिकर अनुभव। अगली कड़ी का इन्तजार है।
ReplyDelete@निशांत मिश्राजी,
ReplyDeleteडिब्बे केवल बृहस्पतिवार को सुबह सुबह कुछ समय के लिए वहाँ रखे जाते थे।
ट्रक जाने के बाद उन्हें गैराज में या घर के पीछे रखते थे।
@आशीष श्रीवासतवजी,
काश सब की जिन्दगी आप की जिन्दगी जैसी होती।
मेरा दामाद तो कभी रात के दो बजे तक कंप्यूटर से लगा रहता था!
फ़िर सुबह सुबह उठकर दफ़्तर जाना पढ़ता था।
हाँ, कम से कम, शनिवार और रविवार को उसे पूरी राहत मिलती थी।
इन्हीं दो दिनों घर में एक सुखी परिवार का माहौल रहता था
सोमवार से लेकर शुक्रवार तक हम दो (पत्नि और मैं) अकेले एक five star जेल के कैदी बन कर रहते थे।
बाहर अकेले कहीं जा भी नहीं सकते थे सिवाय टहलने के।
अन्य मित्रों की टिप्पणी के उत्तर कल लिखूँगा।
आदरणीय विश्वनाथ जी की अमेरिका प्रवास स्मृतियों का पूरा आनन्द ले रहा हूं.
ReplyDelete-------------------
अपने देश की सभी समस्याओं की जिम्मेदारी जनसंख्या पर डालने से सहमत नहीं हूं. वो भी हमारी अपनी निर्मित की गयी समस्या है. कहीं से इम्पोर्ट होकर तो नहीं आये लोग.
हजारों वर्षों से लुटते पिटते रहे हैं हम. कहीं कुछ तो गड़बड़ रही होगी चरित्र/विचारधारा/कर्म (या उसके अभाव) में.
भारत मै अगर लोग जागरुक हो तो हमारा देश भी ऎसा ही बन सकता है, आबादी की बात कोई मायने नही रखती,
ReplyDelete@ (पंकज उपाध्याय) "यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं शायद आप उन भारतियो की बात कर रहे हि जो नये नये यहां आते है, ओर उन कि आदते भी भारत जेसी ही होती है, वो १८,२० घंटे काम करते है, शनि इतवार को भीकि शायद बास खुश हो जाये, लेकिन जो लोग यहा जन्मे है वो ऎसा नही सोचते, वो इन लोगो की तरह से ही मस्ती से काम करते है, ओर बास कोई बडी चीज नही इन लोगो के लिये, बहुत फ़र्क है सोच का भी
"लोहे के ग्रिल कहीं नहीं देखे "
ReplyDeleteयहाँ तो ग्रिल लगा के भी सुरक्षित नहीं हैं लोग । व्यक्तिगत सुरक्षा भी शायद एक कारण है लोगो का वहाँ टिके रहने के लिए ।
यहाँ तो लोग कचरे का डब्बा भी गायब कर दें ।
अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।
ReplyDeleteयही हाल अब भारत में भी है। ताजा खाना यहां भी नसीब नहीं होता, हां ये बात अलग है कि यहां ताजा खाना नसीब न होने का कारण अलग है। तस्वीरें बढ़िया हैं। वापस कब आने वाले हैं?
हम भारतीय तुरन्त दूसरों में दोष खोजने लगते हैं. अमेरिकियों की अच्छी चीजों को तो ग्रहण कर सकते हैं. यदि वे अपने हितों की पूर्ति करते हैं तो क्या गलत करते हैं. एक हम ही हैं जो पाकिस्तान को मदद देते हैं यह जानते हुये कि एके-४७ भी उसी रुपये से खरीद कर आतंकवादियों को दी जायेंगी. हमारे नेता आरोप सिद्ध होने के बाद भी कहते हैं कि जनता की अदालत बाकी है. उनसे बड़ा नैतिक व्यक्ति तो क्लिंटन है जिसने यह स्वीकार किया कि उसने अपनी कर्मचारी के साथ संबंध बनाये. हम लोगों ने सरकार पर दबाव डाला कि दो बच्चों की नीति बनाये. अच्छी चीजें तो ग्रहण की ही जा सकती हैं, किसी से भी...
ReplyDelete,,,,बस पढ़े जा रहे हैं ....इतने रोचक अनुभव !
ReplyDeleteबाकी सब तो ठीक लेकिन ये सुनसान वाली बात शहरों में नहीं है, कम से मक न्यूयोर्क में तो नहीं :) . हाँ थोड़ी दूर जाने पर जरूर है.
ReplyDelete@अभिषेक ओझा (के बहाने...)
ReplyDeleteनगरों में (वह भी न्यूयॉर्क जैसे महानगरों में) दिन क्या रातें भी गुलज़ार रहती हैं। विश्वनाथ जी स्पष्टतः उपनगरीय/आवासीय (सबर्बन/रेज़िडेंशल) क्षेत्र की बात कर रहे हैं। यद्यपि आम अमेरिकन के लिये वहाँ भी घास काटने, बागवानी करने आदि के बहाने अपने पडोसियों से बातचीत (स्माल टाक) करना सामान्य जीवन का हिस्सा है। अलबत्ता भारतीय यहाँ भी अक्सर एक दूसरे से नज़रेन चुराते फिरते हैं। हाँ भारत से आये बुज़ुर्गों के लिये परिवहन की जानकारी/क्षमता न होना एक बडी सामाजिक बाधा बनकर सामने आती है। क
रोचक और ज्ञानवर्धक संस्मरण। साफ सफाई, नागारिक सुविधायें, काम के प्रति जिम्मेदारी, यह सब कुछ है वहां परन्तु किसी शायर द्वरा - "कुछ तो है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी, रख दे कोई जरा सी खाक-ए-वतन कफन में" यूं ही नहीं कहा गया है। अपना देश, अपनी जमीन की मिट्टी...शायद आने वाले दिनों में हम भी अपनी पीढी को कुछ नया दें जायें।
ReplyDeleteछोटी-छोटी किन्तु बडे मायनोंवाली बातें। ज्ञानजी का कहना बिलकुल सही है - जनसंख्या के कम या ज्यादा होने से रहने की आदतों का कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं।
ReplyDeleteछोटी-छोटी किन्तु बडे मायनोंवाली बातें। ज्ञानजी का कहना बिलकुल सही है - जनसंख्या के कम या ज्यादा होने से रहने की आदतों का कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं।
ReplyDeleteरोचक और ज्ञानवर्धक संस्मरण। साफ सफाई, नागारिक सुविधायें, काम के प्रति जिम्मेदारी, यह सब कुछ है वहां परन्तु किसी शायर द्वरा - "कुछ तो है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी, रख दे कोई जरा सी खाक-ए-वतन कफन में" यूं ही नहीं कहा गया है। अपना देश, अपनी जमीन की मिट्टी...शायद आने वाले दिनों में हम भी अपनी पीढी को कुछ नया दें जायें।
ReplyDelete@अभिषेक ओझा (के बहाने...)
ReplyDeleteनगरों में (वह भी न्यूयॉर्क जैसे महानगरों में) दिन क्या रातें भी गुलज़ार रहती हैं। विश्वनाथ जी स्पष्टतः उपनगरीय/आवासीय (सबर्बन/रेज़िडेंशल) क्षेत्र की बात कर रहे हैं। यद्यपि आम अमेरिकन के लिये वहाँ भी घास काटने, बागवानी करने आदि के बहाने अपने पडोसियों से बातचीत (स्माल टाक) करना सामान्य जीवन का हिस्सा है। अलबत्ता भारतीय यहाँ भी अक्सर एक दूसरे से नज़रेन चुराते फिरते हैं। हाँ भारत से आये बुज़ुर्गों के लिये परिवहन की जानकारी/क्षमता न होना एक बडी सामाजिक बाधा बनकर सामने आती है। क
हम भारतीय तुरन्त दूसरों में दोष खोजने लगते हैं. अमेरिकियों की अच्छी चीजों को तो ग्रहण कर सकते हैं. यदि वे अपने हितों की पूर्ति करते हैं तो क्या गलत करते हैं. एक हम ही हैं जो पाकिस्तान को मदद देते हैं यह जानते हुये कि एके-४७ भी उसी रुपये से खरीद कर आतंकवादियों को दी जायेंगी. हमारे नेता आरोप सिद्ध होने के बाद भी कहते हैं कि जनता की अदालत बाकी है. उनसे बड़ा नैतिक व्यक्ति तो क्लिंटन है जिसने यह स्वीकार किया कि उसने अपनी कर्मचारी के साथ संबंध बनाये. हम लोगों ने सरकार पर दबाव डाला कि दो बच्चों की नीति बनाये. अच्छी चीजें तो ग्रहण की ही जा सकती हैं, किसी से भी...
ReplyDelete@निशांत मिश्राजी,
ReplyDeleteडिब्बे केवल बृहस्पतिवार को सुबह सुबह कुछ समय के लिए वहाँ रखे जाते थे।
ट्रक जाने के बाद उन्हें गैराज में या घर के पीछे रखते थे।
@आशीष श्रीवासतवजी,
काश सब की जिन्दगी आप की जिन्दगी जैसी होती।
मेरा दामाद तो कभी रात के दो बजे तक कंप्यूटर से लगा रहता था!
फ़िर सुबह सुबह उठकर दफ़्तर जाना पढ़ता था।
हाँ, कम से कम, शनिवार और रविवार को उसे पूरी राहत मिलती थी।
इन्हीं दो दिनों घर में एक सुखी परिवार का माहौल रहता था
सोमवार से लेकर शुक्रवार तक हम दो (पत्नि और मैं) अकेले एक five star जेल के कैदी बन कर रहते थे।
बाहर अकेले कहीं जा भी नहीं सकते थे सिवाय टहलने के।
अन्य मित्रों की टिप्पणी के उत्तर कल लिखूँगा।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteआभार, आंच पर विशेष प्रस्तुति, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पधारिए!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
चौबीसों घंटे बिजली, वोल्टेज स्टेबलाइज़र की अनुपस्थिति, गैस पाइप लाइन तो मुंबई में भी है पर गंदगी का ये आलम है कि कोई गाँव भी यहाँ से कई गुणा साफ़ होगा....और वजह वही है, जनसँख्या और अशिक्षा...जबतक इनमे सुधार नहीं होगा....एक साफ़-सुथरे शहर का सपना बस सपना ही बना रहेगा.
ReplyDeleteवहाँ के लोग पांच दिन तो बहुत काम करते हैं..खाने-पीने तक कि सुध नहीं रहती पर वीकेंड्स पर सारी कसर पूरी कर लेते हैं, घूमना, कैम्पिंग, पिकनिक...जबकि यहाँ सातों दिन काम करने में ही लोग तारीफ़ समझते हैं.
@ शोभा - जमीन पर जनसंख्या का दबाव एक गणक हो सकता है। पर कूड़े-कचरे के प्रति स्नेह और सहिष्णुता के लिये तो भारत शीर्षस्थ माना ही जायेगा। थोड़ी सी बेहतर हैबिट्स और कितना जबरदस्त बदलाव आ सकता है - लोग प्रयास ही नहीं करते!
ReplyDelete"यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं पर कभी सोचता हूँ आखिर किस के लिए। अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।"
ReplyDeleteजो मेरा अनुभव है उससे यह कह सकता हूँ कि कम से कम भारत के छोटे शहरों से आये लोग इससे (सॉफ़्टवेयर जॉब) अभीतक रिलेट नहीं कर पाते मसलन आप घर पर इससे जुडी बातें नहीं कर पाते.. अपनी रोजमर्रा की दिक्कतों को डिसक्स नहीं कर पाते और एक गैप आता जाता है..
जिंदगी तो खूब जी लेते हैं ये लोग भी.. बस शायद इनका जीने का तरीका सबकी समझ में न आता हो.. कुल मिलाकर ये स्पीसीज यहाँ रहते हुये भी एक एलीयन टाईप ज़िंदगी जीती है..
एक एसएमएस की कुछ पंक्तियाँ यूं थीं-
Years ago.... People sacrificing their friends, family, fun, food, laughter, sleep & other joys of life were called SAINTS...
Nowadays they are called 'Software Engineers'
बाकी बहुत अच्छी पोस्ट..
वहाँ के इंजीनियर बहुत अधिक नहीं कमाते। आजकल भारत में भी बहुत अच्छा वेतन मिलता है। वहाँ नौकरी पर समय की बहुत अधिक पाबन्दी नहीं है, इसलिए व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह आराम से खाना खाए या चलते फिरते। आपके अनुभव हमारे जैसे ही हैं, इसलिए मनोयोग पूर्वक पढे जा रहे हैं।
ReplyDeleteयहाँ की रेलवे कॉलोनी में केवल दो डब्बों से ही काम चल रहा है, उसमें से केवल प्लास्टिक वाला कचरे का डब्बा ही बाहर जाता है। ऑर्गेनिक वेस्ट व पत्ती आदि को कॉलोनी में ही एक डम्प में डालकर खाद में बदल दिया जाता है और पुनः बागवानी के लिये उपयोग कर लिया जाता है।
ReplyDeleteएक विस्तृत पोस्ट शीघ्र ही लिखूँगा, श्रीमती जी से के सहयोग से क्योंकि वही इस पर कार्य कर रही हैं।
एक चीज़ और मैंने नोट की है कि वहां के घरों के बाहर कोई चारदीवारी नहीं होती. घर सड़क के लेवल से थोडा ऊपर होता है, बस. वहां गाय, कुत्ता, भिखारी और, सेल्समेन छुट्टा नहीं घूमते, शायद इसलिए.
ReplyDeleteपत्नी तो इन डिब्बों को देखकर बोले 'सुबह-सुबह दैत्य जैसे इन डिब्बों को घर के बाहर देखो तो पूरा दिन ख़राब!' घर के ठीक सामने रखे इतने बड़े-बड़े कचरा डब्बे तो मुझे भी नहीं सुहा रहे. वैसे तो अमेरिकी अपना कूड़ा तीसरी दुनिया के देशों की ज़मीनों में दफ़न करने के लिए बदनाम हैं.
अमेरिका वाकई बहुत बड़ा भूत है. भूतों की बस्ती, मज़ा आ गया यह लाइन पढ़कर.
अमेरिकन्स पूरे अनासक्त हो गए हैं. खुद को छोड़कर किसी से मोह नहीं, किसी से लगाव नहीं... घोर दंभी अनासक्त.