विश्व के द्वितीय व एशिया के सर्वाधिक बड़े शिलाखण्ड की विशालकाया को जब अपने सम्मुख पाया तो प्रकृति की महत्ता का अनुभव होने लगा। जमीन के बाहर 400 मी की ऊँचाई व 1500 मी की चौड़ाई की चट्टान के शिखर पर बना किला देखा तो प्रकृति की श्रेष्ठ सन्तान मानव की जीवटता का भाव व सन्निहित भय भी दृष्टिगोचर होने लगा।
बंगलोर से लगभग 110 किमी की दूरी पर स्थित मधुगिरि तुमकुर जिले की एक सबडिवीज़न है। वहीं पर ही स्थित है यह विशाल शिलाखण्ड। एक ओर से मधुमक्खी के छत्ते जैसा, दूसरी ओर से हाथी की सूँड़ जैसा व अन्य दो दिशाओं से एक खड़ी दीवाल जैसा दिखता है यह शिलाखण्ड। गूगल मैप पर ऊपर से देखिये तो एक शिवलिंग के आकार का दिखेगा यही शिलाखण्ड।
तीन तरफ से खड़ी चढ़ाई के कारण ही इसे सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मान गंगा राजाओं ने इस पर किले का निर्माण प्रारम्भ कराया पर विजयनगर साम्राज्य में ही यह अपने वैभव की पूर्णता को प्राप्त हुआ। अपने इतिहास में अभेद्य रहने वाला यह किला केवल एक बार हैदर अली के द्वारा जीता गया। अंग्रेजों के शासनकाल में इसका उपयोग 1857 के स्वतन्त्रता सेनानियों के कारागार के रूप में हुआ।
बिना इतिहास व भूगोल जाने जब हमने चढ़ने का निश्चय किया तो दुर्ग बड़ा ही सरल लग रहा था पर शीघ्र ही दुर्ग दुर्गम व सरलता विरल होती गयी। अब देखिये, 400 मी की ऊँचाई, एक किमी से कम दूरी में। 30 डिग्री की औसत चढ़ाई चट्टानों पर और कई जगहों पर खड़ी चढ़ाई। प्रथम दृष्ट्या इसे पारिवारिक पिकनिक मान बैठे हम अपनी अपनी क्षमताओं के अनुसार बीच मार्ग पर ही ठहरते गये।
इस चट्टानी यात्रा के बीच छह पड़ाव थे जहाँ पर आप विश्राम के अतिरिक्त यह भी निर्णय ले सकते हैं कि अभी और चढ़ना है या आज के लिये बस इतना ही।
जहाँ कई लोग एक ही पड़ाव में अपने अनुभव की पूर्णता मान बैठे थे, हमारे पुत्र पृथु की एकांगी इच्छा थी, हैदर अली की भाँति दुर्ग फतह करने की। दस वर्ष की अवस्था, साढ़े चार फुट की नाप, पर उत्साह अपरिमित। जहाँ हम अत्यन्त सावधानी से उनसे नीचे रहकर आगे बढ़ रहे थे, वहीं वह आराम से बतियाते हुये चट्टानें नाप रहे थे। तीसरे पड़ाव के बाद जब चढ़ाई दुरूह हो गयी और चट्टान पर लगे लोहे के एंगलों को पकड़कर चढ़ने की बात आयी तो हमें मना करना पड़ा। पृथु के लिये दूरी पर लगे एंगलों को पकड़कर सहारा लिये रहना कठिन था। दुखी तो बहुत हुये पर बात मान गये। यहीं मेरे लिये भी यात्रा का अन्त था। वहाँ पर थोड़ा विश्राम ले हम लोगों ने उतरना प्रारम्भ किया।
नीचे देखते हुये बैठकर उतरना बहुत ही सावधानी व धैर्य का कार्य था। एड़ियों को खाँचों में टिकाकर, दोनों हाथों में शरीर का भार आगे की ओर बढ़ाते हुये अगले खाँचे पर बैठना। जिस दिशा में बढ़ना था, संतुलन का इससे अच्छा उपाय न था। बहुत आगे तक नीचे देखने का मन करता है पर बार बार रोकना पड़ता है। चट्टानें गर्म थीं अतः हम लोग हाथ को बीच बीच में ठंडा करते हुये उतर रहे थे । कठिन चट्टानों में उतरने में अधिक समय लगा।
प्रकृति की मौन शिक्षा बिना बोले ही कितना कुछ दे जाती है। अपनी शारिरिक व मानसिक क्षमताओं को आँकने का इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है भला?
मेरे दो युवा श्याले नीलाभ व श्वेताभ, श्री अनुराग (एस डी एम महोदय) के संग अन्तिम पड़ाव तक गये। पीने के पानी की कमी थी, पानी बरसने की संभावना थी, पर यह सब होने पर भी वे लोग रुके नहीं।
श्री अनुराग तिवारी जी मधुगिरि के एस डी एम हैं। एक कन्नडिगा की भाँति सहज व मृदुल। स्थानीय भाषा व परिवेश में अवलेहित। अगले दिन 16 मुकद्दमों का निर्णय लिखने की व्यस्तता होने के बाद भी पथप्रदर्शक बनने को सहर्ष मान गये और सपत्नीक हमारे साथ चले। जिस आतिथेय भाव के साथ उन्होने हमारा सत्कार किया, कठिन चढ़ाई पर उत्साहवर्धन किया और स्थान के बारे में प्रमाणिक ऐतिहासिक व्याख्यान दिया, वह उनके समग्र व्यक्तित्व की ऊँचाई का परिचायक है।
बकौल उनके "पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।"
प्रवीण पाण्डेय ने इस बार इस पर्वतारोहण के अनेक चित्र भेजे थे, पर प्रवास में होने के कारण मोबाइल कनेक्शन से उनका स्लाइड शो के रूप में प्रयोग नहीं कर पाया! :(
पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।
ReplyDeleteकितनी सरलता से बात समझा गये हैं आप। ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ था जब हिमालय के हेमकुण्ड शिखर (~१५५०० फ़ीट) पर अपने मित्रों के साथ ट्रेकिंग करने गये थे। या फ़िर पिछले रविवार जब १२ मील के रूटीन दौड में बडे गर्म और उमस भरे मौसम के चलते पैदल चलने की इच्छा हुयी तो ये ही कहकर मन को बहलाया था कि Walk of Shame से मर जाना बेहतर और फ़िर आखिरी दो मील एक एक करके बिजली के खम्बों को पार करने के बहाने दौडे गये थे।
अफ़सोस रहा कि २ साल बंगलौर में रहने के बाद भी हमने कभी इस स्थान का नाम भी न सुना..:(
चित्रों के लिये एक पोस्ट का आगे भी एक भाग आना चाहिये ।
बेहतरीन जानकारी रही और मन में कभी वहाँ घूम आने की लालसा भी जागी. प्रवीण जी का बहुत आभार.
ReplyDeleteComment approved by the blog author :)
ReplyDeleteहाँ मैंनें देखा है, मधुगिरी.. बहुत पहले ।
1993 में, समय मिलते ही ऍलबम टटोलता हूँ । इसके साथ ही मु्दुमुलाई अभयारण्य में एक रात के लिये शरण लेना भी एक रोमाँचक स्मृति है । प्रवीण जी के लिये चित्र को देख कर लगता है कि, अब तक यहाँ प्रगति का कोई विशेष बदलाव नहीं आया है ।
एक आश्चर्यजनक बात मैंनें तब महसूस की, वह थी इसमें स्थानीय निवासियों की इसके प्रति अरुचि, या कहिये कि एक विद्रूप भाव !
पूछता - दारि तोरिसु
टका सा ज़वाब - निमगे एल्लि होगबेकु ?
हमारा अनुयय - फ़ोर्ट इल्लिन्द एष्टु दूर ?
वह उपहासात्मक हँसी बिखेर देते - मुन्दिन तिरुविन्नलि ।
इस प्रकार अगले मोड़ की तलाश में क्लाँत होकर वापस लौट आना पड़ा ।
तब न जानता था, आज इस पोस्ट को पढ़ने के बाद ( एक छँटाक भर ) यही कयास लगा रहा हूँ कि शायद इसका 1857 से जुड़ा होना भी एक कारण हो ? जो भी हो.. आज इसे यहाँ देखना अच्छा लगा ।
दद्दा रे!
ReplyDeleteपृथु को बधाई!
इतिहास को जानते हुए यात्रा करना एक सुखद अनुभव है। बढिया व रोचक जानकारी।
ReplyDeleteबहुत ही जानकारीपूर्ण प्रस्तुति .... आभार...
ReplyDeleteबहुत ही जानकारीपूर्ण सचित्र पोस्ट प्रस्तुति के लिए आभार...
ReplyDeleteमुझे कुछ पौराणिक दृश्य बिम्ब याद हो आये ...स्वर्गारोहण करने में युधिष्ठिर भी कनिष्ठा -भंग होने की प्रतिष्ठा को प्राप्त हो गए थे -आप सकुशल वापस आये इसके अपने निहितार्थ हो सकते हैं -पर्वत पारायण जीवन का अंतिम अभीष्ट होना चाहिए !पृथु तो पृथ्वी जेता हैं ही -पर्वत पहाड़ नदी झरने उनके लिए तो अभी सब पौरुषेय है .मगर उन्हें भी रोकना होगा !प्रकृति के सभी मूक आमंत्रणों को मनुष्य नहीं स्वीकारता -उसके अपने अलग सहज बोध हैं !
ReplyDeleteघर में आपके इस निष्क्रमण की जानकारी है ?
पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।'
ReplyDeleteसटीक
सुन्दर वृत्तांत
नीलगिरी पर प्रवीन जी की पोस्ट ज्ञानमय लगी, तथा इस पोस्ट ने भारत की एक और महान विरासत को जानने के लिये ललक पैदा कर दिया है, कभी मौका मिला तो जाऊँगा।
ReplyDeleteअच्छा लगा मधुगिरी के बारे में जानकर
ReplyDeleteनई जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी है ।धन्यवाद्
ReplyDeleteमधुगिरी को दूर से ही प्रणाम . जिन्होने यह दुर्ग वनवाया था क्या वह भी पैदल जाते थे
ReplyDeleteसच में पर्वतारोहण से स्वयं पर विजय पायी जाती है... बहुत अच्छा लिखा है प्रवीण जी ने... खासकर ये लाइनें प्रकृति से साक्षात्कार के समय मन में उत्पन्न होने वाले विचारों, प्रकृति से स्वयं के एकाकार होने के अनुभवों को बखूबी व्यक्त करती हैं,
ReplyDelete"आपके साथ घूप में चलती आपकी ही छाया, कान में सुनायी पड़ता हवा के आरोह व अवरोह का एक एक स्पष्ट स्वर, अपने में केन्द्रित हृदय की हर धड़कन और मन की एकाग्रता में रुका हुआ विचारों का प्रवाह। ध्यान की इस परम अवस्था का अनुभव अपने आप में एक उपलब्धि थी मेरे लिये"
Sir dhnyabad jaankari hetu.maa vasno devi ki pahado ki chdai yaad aa gayi.
ReplyDelete@2824451754003073632.0
ReplyDeleteकई बार लम्बी दूरी की रेसों भी में भाग लिया है । बीच में कई बार ऐसा लगता कि अब तो अशक्त हो गये हैं, आगे इतनी बड़ी दूरी कैसे पूरी करेंगे । उस समय हर ओर से घ्यान हटा केवल अगले 100 मीटर में केन्द्रित कर देने से ही कई किमी की दूरी निकल जाती है । यही पर्वतारोहण में किया और यही जीवन में भी करता हूँ । जब वातावरण सहयोगी नहीं होता है तो केवल उसी दिन की सोचता हूँ और उसी पर सारा ध्यान व विचार केन्द्रित करता हूँ ।
आप इस प्रक्रिया को तभी समझ सकते हैं जब इससे होकर निकलें । अनुभव बाँटने का ढेर आभार ।
@4736743311621419313.0
ReplyDeleteलालसा को क्रिया में बदलने का मन हो तो आपका बंगलोर में स्वागत है ।
@698568600949387558.0
ReplyDeleteएक कहावत है,
घर की मुर्गी दाल बराबर
इस शिलाखण्ड व किले को यहाँ के निवासी कई सदियों से देखते आ रहे हैं, यह कारण हो सकता है इस पर उत्साह न व्यक्त करने का ।
पर्यटन की दृष्टि से इस शिलाखणेड में अपार संभावनायें हैं ।
@4055445205432822830.0
ReplyDeleteसपरिवार गये थे । बिटिया व श्रीमती जी पहले पड़ाव तक साथ आये थे । प्रकृति के मूक आमन्त्रण मोहक भी हैं और सम्मोहक भी ।
@301569314530788429.0
ReplyDeleteदक्षिणोन्मुखी जब भी हों, सूचित कीजियेगा ।
सुंदर जानकारी
ReplyDelete@621772166741045571.0
ReplyDeleteपैदल चढ़ने के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है । यही कारण था दुर्ग दुर्गम होने का ।
@5021397001299163454.0
ReplyDeleteप्रकृति से साक्षात्कार में आप हर बार कुछ न कुछ सीखते हैं ।
बहुत अच्छी जानकारी मिली। घूमने जाना पड़ेगा। इस आलेख के लिए आभार।
ReplyDeleteमधुमेह पर किये गए शोधों को आन-लाइन कर रहा हूँ| कई पड़ाव बनाए हैं और एक-एक करके उन्हें पार कर रहा हूँ| आज आपका अनुभव पढ़कर मैंने आपके साथ मधुगिरी की कठिन चढाई कर ली|
ReplyDeleteदुर्गम होने के कारण यहां लोगों की आवा-जाही कम है, इसका मतलब यहां की वनस्पतिया भी अनोखी होंगी|
अगली बार ऐसे स्थान पर जाएँ तो कुछ वनस्पतियों की तस्वीरें भी ले आयें| (निज स्वार्थवश कह रहा हूँ)
मन में जोश भरने के लिए धन्यवाद|
मधुगिरी के रोमांचक सफ़र का विवरण प्राप्त हुआ ...
ReplyDeleteEnjoyed reading the post. It reminded me of 'Vaishnav devi temple' and 'China peak' few years ago.
ReplyDeleteHad the pic been taken from a place higher than the group members, it would have looked better. Anyways all are looking cool with their back facing the photographer.
Quite refreshing and rejuvenating post.
JAB GIRI HONGE TO TARIF KE KABIL TO HONGE HI
ReplyDelete"पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।"
ReplyDeleteबिलकुल सही.....
रोचक और रोमांचक पोस्ट...
"प्रकृति की मौन शिक्षा बिना बोले ही कितना कुछ दे जाती है। अपनी शारिरिक व मानसिक क्षमताओं को आँकने का इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है भला?"
ReplyDeleteबहुत सही कहा...सारे भेद खोल देती है...और कई बार अपनी क्षमताओं से अवगत भी करा देती है..कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है..
बहुत ही रोचकता से पूरी जानकारी दे दी...शुक्रिया
@3200561336481610497.0
ReplyDeleteचट्टान पर कोई वनस्पति नहीं थी । कहीं कहीं दीवारों के पास मट्टी इकठ्ठी होने पर केवल घास ही निकली थी ।
@3057383979346138609.0
ReplyDeleteशिखर से लिये हुये चित्र हैं । वहाँ से बहुत ही सुन्दर दृश्य दिखायी पड़ता है । पहला चित्र तो प्रारम्भ ही था, एक चढ़ाई के बाद ।
मधुगिरि की यात्रा का बहिउत ही रोचक और सजीव वर्णन-- अपको और प्रवीण जी को भी बधाई---चित्र इतने सुन्दर कि एक बार यात्रा करने का मन हो रहा है।
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण.
ReplyDeleteमेरा तो पढ़ कर ही सांस फूलने लगा...!
यह विवरण पढ़कर अच्छा लगा ।
ReplyDeletena keval chitra balki vivran bhi pasand aaya.
ReplyDeletepruthu saheb se kahiye ki itni hadbadi ya khilandrapan bhi acchi baat nahi. khair unki umar hai jab sab kuchh khilandrapan hi lagta hai. njoy karte rahein aise hi pruthu sahab....
ek line ne pure lekh me se dil jeet liya, halanki ye line mahaj parvatarohan par hi nai jeevan ke har jagah laagu ho sakti hai bas sandarbh badal diya jaye to, ki "पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।"
aapki is post ko padh kar mujhe lag raha hai ki blore me job kar rahe apne bhatije ko kahna padega ki boss mai aa raha hu mujhe madhugiri jana hai.......lekin kya jaisi barish pichhle 2 din se barish blore me hui vaisi barish me chalega udhar jana?....
are han sabse aakhiri me ye line gyaan ji ke liye, are bhai aap abhi beemari se nijat paaye nai ki nikal liye pravas pe, je ka locha hai, are aaram karna tha na.. lagta hai gharwalo ko vakai bhadkana padega boss....galat hai ye to..
प्रकृति के पास जाना एक निहायत ही अविस्मरणीय़ अनुभव रहता है हमेशा..
ReplyDelete@7310316327939155155.0
ReplyDelete*>Sanjeet Tripathi - प्रवास भी चिकित्सकीय ध्येय के लिये - बीमारी पर सेकेण्ड-ओपीनियन लेने के लिये था, संजीत। अन्यथा यात्रा का कोई कारण न था!
@7778813316602243585.0
ReplyDeleteयात्रा से आने के बाद लगा कि ढीले पेचों को कसा जायेगा पर कुछ दिनों बाद मन का ही पेंच ढीला पड़ जाता है ।
तुरन्त पश्चात तो नहीं पर दो तीन दिन बाद ही उपलब्धि समझ आती है ।
ReplyDelete@7310316327939155155.0
ReplyDeleteबंगलोर व आसपास पानी तो बरसता है पर उस पर भी यह जगह सौन्दर्यपूर्ण है । एक या दो चट्टानों में शायद न चढ़ पायें । हाँ ऊपर पहुँचने के बाद पानी बरसा तो रुक के उतरना पड़ेगा । वैसे शिखर पर जितनी देर रुकने को मिल जाये उतना अच्छा ।
पहले तो देर से आने के लिए बहुत बहुत मांफी प्रवीण जी...वैसे पोस्ट बज्ज़ पर पढ़ ली थी.
ReplyDeleteआपने जिस तरह का वर्णन किया है, उससे में आपकी लेखनी का कायल हो गया हूँ. आनंद आ गया पढ़के...
सच कहूं तो इस जगह को देखने का बहुत मन हो रहा है और आपसे मिलने का भी. आपके सालों को और अनुराग जी को अंतिम पड़ाव तक जाने के लिए बधाईयाँ :)
Prathu ने पापा की बात मान ली, बढ़िया किया अन्यथा वो तो नहीं उसके पापा जरूर पस्त हो जाते. :-)
अंत में सारांश ने बहुत कुछ कह दिया "पर्वतारोहण में शिखरों पर नहीं वरन स्वयं पर विजय पायी जाती है।"
@4073505316977293396.0
ReplyDeleteतब आपके और प्रकृति के बीच कोई मध्यस्त नहीं रहता ।
@856094289973059099.0
ReplyDeleteएक बार यात्रा करने के बाद जीवन भर याद रखे जाने वाला संस्मरण है ।
@7337666198664266951.0
ReplyDeleteरोचक प्रारम्भ, रोमांचक समापन ।
@2263910595860960853.0
ReplyDeleteवर्णन कभी कभी अनुभव को छूने में असफल रहता है, यह उस प्रकार का अनुभव था ।
अनुराग जी, नीलाभ व श्वेताभ के अंगों में थकान पर मुख में विजयजनित सन्तोष था ।
यद्यपि मुझे लग रहा था कि नीचे रह कर कुछ सहारा दे रहा हूँ पर पृथु तो निर्विकार भाव से शिखरोन्मुख थे ।
आप आयें तो इस बार शिखर पर चला जायेगा ।
बहुत बढ़िया जीवन वर्णन ! इस प्रकार के सुदूर जंगलों और पहाड़ की दुर्गम छोटी पर बनें ये अभेद्य किले बेहद रहस्यमय तरीके से बनाये जाते रहे हैं ! इनका भेद जानना अतीत में भी बहुत मुश्किल रहा है, ऐसे किलों में विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अक्सर सुरंगें या आसानी से न दिखने वाले रास्ते बनाये जाते रहे हैं ! आप अपने मित्र को हम पाठकों की तरफ से धन्यवाद कह दीजियेगा जिनकी अगुआई की वजह से इसके बारे में जान सके !
ReplyDelete@6003622921915472821.0
ReplyDeleteयह पूरा का पूरा दुर्ग-व्यूह एक विशालकाय चट्टान पर बना था । या तो ढलानें थीं या उन ढलानों पर सयत्न बनायी गयी दीवारें जो सैनिकों के बैठने की भी जगह होती थी । कुल मिला कर एक ही रास्ता था पहुँचने का । हाँ, शेष दिशाओं से उतरने के लिये शिखर से लगभग 500 मी लम्बी रस्सी की आवश्यकता होगी ।
रोचक, प्रेरक और उत्साहवर्द्धक। कुल मिला कर बढ़िया।
ReplyDelete@ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
ReplyDeleteआपके पूर्ण स्वस्थ होने तक आपसे एक कृत्रिम दूरी बना रखी थी - क्योंकि आपका मन तो मानेगा नहीं, और मानसिक हलचल ऐसे जबरिया एकान्त में और बढ़ जाती है।
सो आप पहले स्वस्थ हो लें, तब्बै भेंटावा जाय।
पढ़ कर ही थक गया मैं तो :) पुणे के सिंहगढ़ पर दो-तीन बार चढ़ाई की है और एक बार स्विट्ज़रलैंड में. अगर वापस आने का रास्ता गाडी का हो तो फिर चढ़ाई करने में डर कम लगता है. वर्ना वापस आने में तो और दिक्कत होती है.
ReplyDeleteपोस्ट तो अच्छी और जानकारीप्रद है ही, साथ ही नीरज रोहिल्ला जी की टिप्पणी और आपकी प्रतिटिप्पणी एक पूरक की तरह लगे।
ReplyDeleteडॉक्टर अमर जी तो छुपे रूस्तम निकले...अब तक तो मैं उन्हें केवल मराठी और कुछ देशज शैली का जानकार ही समझता था....कन्नड देख एक तरह का आनंदमिश्रित आश्चर्य हुआ।
blog ka sadupyog. yah sab to ab patra patrikao se ojhal sa ho gaya hai. irshya sahit badhai.
ReplyDeleteरोचक वर्णन.
ReplyDeleteबाम्बे-पुने के आस पास ऎसे कई दुर्ग है जहा से शिवा जी छापामार युद्ध किया करते थे.. मै भी आस पास के काफ़ी ऎसे किलो को फ़तह कर चुका हू :) लेकिन जिस दुर्ग का जिक्र अभिषेक ने बताया - ’सिंहगढ़’.. उसकी कहानी कुछ ऎसी है शायद कि राजनीतिक दृष्टि से उस किले का बहुत महत्त्व था इसलिए जीजाबाई ने शिवा जी से कुछ ऐसा कहा था कि जब वो दुर्ग जीत लोगे तब मैं तुम्हारी शक्ल देखूंगी...
ReplyDeleteउस किले पर पहुँचने के दो रास्ते थे| एक जिसपर सारे मुगल सैनिकों कि निगाहें रहती थीं और एक जिसे रास्ता कहना ही नहीं चाहिये... शिवा जी ने उसी रास्ते का प्रयोग किया था..
जब मैंने उस किले को फतह किया था तो उसे फतह करने से ज्यादा उत्साह शिवा जी के सैनिकों को आस पास महसूस करने में और उन रास्तों को देखने मे था... जैसे इतिहास मेरे ही सामने था..
आपकी मधुगिरी विजय के ’पड़ावों’ का नक्शा भी कुछ उसी तरीके का उत्साह देता है :)
रोचक वृतान्त और उपयोगी जानकारी। आनन्द आया।
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