हममें से हर एक दान देता है। सब से आसान है रेलवे स्टेशन या हनुमान मन्दिर पर उपलब्ध भिखारी को दान देना। पर वह देते समय मन में यह भाव होता है कि एक आदमी को अकर्मण्य बनाने में हम योगदान कर रहे हैँ। अत: इन भिखारियों को अनदेखा करने की भावना भी मन में स्थाई रूप से आती गयी है। फिर भी इन भिखारियों की बड़ी संख्या को देखते हुये लगता है कि यह फिलेंथ्रॉपी (philanthropy - लोकोपकार) का तरीका बहुत लोकप्रिय है।
शायद यह फिलेंथ्रॉपिक इनवेस्टमेण्ट (पी.आई.) का सबसे सुगम तरीका है। जैसे पी.आई. का म्यूचुअल फण्ड हो! पर मेरे ख्याल से इस इनवेस्टमेण्ट का रिटर्न बहुत कम है। सीधे पी.आई. की इक्विटी में निवेश करना चाहिये।
पी.आई. का रिटर्न इस तरह से मापना चाहिये कि उससे कितने की जान बची, कितने को आपने साक्षर बनाया, कितने को आंखों की ज्योति दी, कितने लोगों को आपने अपने परिवेश के प्रति जागरूक बनाया, आदि...
इस बार मैने कुछ ग्रामीण मुसहरों को कम्बल देने का निर्णय किया। मेरी पत्नीजी का विचार था कि मुसहरों को नहीं, उनकी स्त्रियों को दिये जाने चाहियें ये कम्बल। अन्यथा मुसहर तो तुरंत बेच कर पैसे की दारू पी जायेगा। बहुत सही विचार था। पर क्रिया रूप देना सरल काम नहीं था।एक तरीका तो यह था कि किसी एनजीओ को तलाश कर उसे पैसे दे दिये जायें। इसमें आपको एनजीओ पर विश्वास होना चाहिये। पर गुजरात भूकम्प के दौरान कई फर्जी एनजीओ देखने के बाद उनपर यकीन नहीं होता है। दूसरे यह भावना होती है कि जब आसपास इतने जरूरतमन्द हैं तो एनजीओ तक जाने की क्या जरूरत?!
अत: हमने दूसरा तरीका अपनाया। कटरा जा कर कम्बल खरीदे। फिर हमने अपने साले साहब से फोन पर अनुरोध किया कि वे इन्हे मुसहरों में बंटवा दें। उनका उत्तर था कि उनके गांव से मुसहर पलायन कर गये हैं। और अन्य उतने ही जरूरत मन्द को अगर वें देंगे भी तो (उनके राजनैतिक जीव होने के कारण) लोग यह तोहमद लगायेंगे कि ग्रामविकास का पैसा अपने नाम से बांट कर वे धांधली कर रहे हैं!
भगवान की कृपा से मेरे दूसरे साले जी की पत्नीजी (श्रीमती आराधना दुबे1) ने यह कार्य सम्पन्न कर दिया। वे बनारस के पास एक ग्रामीण प्राइमरी स्कूल की प्रधानाध्यापिका हैं। स्कूल के पास ही नट रहते हैं। अत्यंत विपन्न। उनके लिये वे स्वयं भी पुराने ऊनी कपड़े आदि ले जा कर देती रहती हैं। बहुत आभारी हुये हम उनके।
हमारे पी.आई. का रिटर्न? मेरे ख्याल से बहुत अधिक! चार-पांच साल पहले एक छोटी सी खबर पढ़ी थी कि हमारे ससुराल के गाँव का एक मुसहर सर्दी से मर गया था। ये कम्बल एक भी जिन्दगी बचाते हैं या एक भी नट को बीमार होने से बचाते हैं तो हमारा लाभ बहुत बहुत अधिक हुआ।
1. आराधना दुबे ने यह सहायता की। एक दूसरी आराधना की ब्लॉग पोस्ट पढ़ते समय यह कम्बल देने का विचार आया था! दोनो आराधनाओं को बहुत धन्यवाद।
शिवकुमार मिश्र का कहना है कि वे दुर्योधन की डायरी एक साथ लीक करने के लिये एडिट कर रहे हैं। आपने पढ़ी यह टिप्पणी?
बहुत पुण्य का काम किया है आपने ..बस वे लोग इसे बेचकर अपनी दारू का प्रबंध करने में ना लग जाए ...
ReplyDeleteकुछ जरुरात्मंधों का भला करने में आप की मदद करने के लिए दोनों आराधनाओं को धन्यवाद !
आजकल अपने यू.पी. में पड़ रही कड़ाके की ठंड की खबरें सुनकर सोचता हूँ कि वर्धा बहुत अच्छी जगह है। यहाँ ठंड से ठिठुरते मुसहर भी नहीं हैं।
ReplyDeleteआपने बहुत नेक काम में पी.आई. लगाया। हम भी भविष्य के लिए प्रेरणा ग्रहण करते हैं।
आराधनाओं ने देवीतुल्य कार्य किया है, देवियों की आराधना हो। पीआई में निवेश करना है, ढूढ़ते हैं घर को।
ReplyDeleteफर्जी NGO की बाढ़ सी आई हुई है ...आराधना दुबे जी ने ही सही माने में निवेश किया ..वैसे बिहार में आप कम्बल देते -देते थक जायेगे /
ReplyDeleteनेकी करना आसान नहीं, लेकिन कर बैठे तो 'दरिया में डाल'
ReplyDeleteआपसे औरों को भी प्रेरणा मिलेगी. दरिया में डालना सर्वथा उचित है, लेकिन इससे फिर अच्छे कर्मों का पता नहीं चलता और यह भावना औरों में पनपने का बढ़ावा नहीं मिलता. इसलिये लिखना उचित है..
ReplyDelete@ राहुल सिन्ह और भारतीय नागरिक - यह पोस्ट लिखने के बारे में मैने तब सोची जब मैं कॉर्पोरेट जगत में फिलेंथ्रॉपी इनवेस्टमेण्ट के बारे में पढ़ रहा था। कार्पोरेट जगत में सब कुछ अर्थ से जुड़ा चलता है। फिलेंथ्रॉपी भी उनके विज्ञापन का अंग है।
ReplyDeleteजब व्यक्ति इनवर्ड ड्रिवन न हो तो यह "इनवेस्टमेण्ट" मनोविज्ञान बहुत काम का है।
अब देखिये न; अनुराधा कह रही हैं कि उन्होने कम्बल उन नट औरतों को दिये थे जिनको देखने वाला कोई बालबच्चा नहीं है। और हम भी मोटीवेट हो रहे हैं कि एक इंस्टॉलमेण्ट कम्बल और दिये जायें! :)
एक प्रणाली यह भी है कि रात को गाडी में कम्बल डालकर निकला जाए और देर रात सड़क पर जो सर्दी से ठिठुर रहा हो उसको दे दिया जाए..
ReplyDeleteहां यह बेहतर तरीका होगा।
Deleteबहुत ही नेक कार्य है...भीख देने या कोई डोनेशन देने से लाख दर्जे बेहतर...चीज़ें जरूरतमंदों के पास पहुंचें.
ReplyDeletegood way for p.i investment...
ReplyDeletedadda you are gr8
pranam.
यह लोग कमबल बेच कर दारू ही पीयेगे, क्यो ना हम सब पुरा साल पेसा इकट्टा कर के कही पर सस्ती जमीन ले कर इन सब के रात बिताने का स्थायी टिकना बना दे, जहां यह लोग सर्दी ओर बरसात मे आराम से रह पाये, लेकिन यह काम किसी एक आदमी के बस का नही, अगर शहर के आम आदमी मिल कर सहयोग करे बिना लालच के तो हो सकता हे.
ReplyDelete@ राज भाटिया - आपका सुझाव बहुत सही है भाटिया जी। समस्या यही है कि भारत में गरीबों के प्रति सामुहिक चेतना का अभाव है। प्रॉस्पैरिटी को लोग अभी अपने लाभ के लिये उपयोग कर रहे हैं, समाज के प्रति अपने दायित्व से नहीं जोड़ रहे!
ReplyDeleteबिलकुल सही...
ReplyDeleteयह सबसे सही तरीका है दान का...
यही तो सकारात्मक सत्कार्यवाद है........
ReplyDeleteअच्छा काम किय आपने। बधाई। सुकून मिला होगा। वही बहुत बड़ी उपलब्धि है।
ReplyDeleteकिसी की सहायता करते समय उसकी पात्रता का निर्धारण करने की उलझन हर बार बनी रहती है और सहायता कर देने पर हर बार लगता है - कहीं अपात्र को तो नहीं दे दिया।
ReplyDeleteअब मुसहर गाँवों में रहे नहीं। जो हैं वो भी फाइबर प्लेटों के इस युग में अपना पुश्तैनी काम पत्तल आदि बनाने को छोड़ कर दूसरा काम करने लगे हैं।
ReplyDeleteइस तरह के दान आदि के काम करने पर सूकून तो मिलता ही है, एक तरह की पॉजिटीव एनर्जी भी अंतस् में क्रियेट होती है जिसका हमें पता भी नहीं चलता। वरना तो सिनिसिज्म / नकारात्मक ख्यालों के चलते ही करने वाले भी कुछ नहीं कर पाते।
प्रेरणादायक पोस्ट।
बढ़िया प्रस्तुति. मकर संक्रांति पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ....
ReplyDelete`हमने अपने साले साहब से फोन पर अनुरोध किया.....'
ReplyDeleteअच्छा किया यह काम सलहज को सौंपा, ये साले विश्वस्नीय नहीं होते :)
आपने जो कार्य किया और जिस भावना से किया, उसे नमन॥
sir good human beings do good deeds. Instead of PI it may be repayment of PD(past debts) may be....
ReplyDeletemanoj
Rahul Singh जी की टिप्पणी पर मेरी भी सहमति.
ReplyDeleteपहले गंगा की सफाई और अब यह कम्बल वितरण। आप पर ईश्वर की कृपा रहे और यह कार्यक्रम चलते रहें। इस टिप्पणी के बाद अराधना जी की पोस्ट भी देखता हूँ। इधर रचना चावजी ने भी वन रूपी क्लब बनाया है। जानकारी कदम पर है। आप लोगों का जज़्बा बना रहे और हम जैसे आकस्मिक जनसेवकों (बहानेबाज़ निकम्मों) को भी नियमित कुछ करने की प्रेरणा मिलती रहे।
ReplyDeletesir good human beings do good deeds. Instead of PI it may be repayment of PD(past debts) may be....
ReplyDeletemanoj
अब मुसहर गाँवों में रहे नहीं। जो हैं वो भी फाइबर प्लेटों के इस युग में अपना पुश्तैनी काम पत्तल आदि बनाने को छोड़ कर दूसरा काम करने लगे हैं।
ReplyDeleteइस तरह के दान आदि के काम करने पर सूकून तो मिलता ही है, एक तरह की पॉजिटीव एनर्जी भी अंतस् में क्रियेट होती है जिसका हमें पता भी नहीं चलता। वरना तो सिनिसिज्म / नकारात्मक ख्यालों के चलते ही करने वाले भी कुछ नहीं कर पाते।
प्रेरणादायक पोस्ट।
@ राज भाटिया - आपका सुझाव बहुत सही है भाटिया जी। समस्या यही है कि भारत में गरीबों के प्रति सामुहिक चेतना का अभाव है। प्रॉस्पैरिटी को लोग अभी अपने लाभ के लिये उपयोग कर रहे हैं, समाज के प्रति अपने दायित्व से नहीं जोड़ रहे!
ReplyDelete@ राहुल सिन्ह और भारतीय नागरिक - यह पोस्ट लिखने के बारे में मैने तब सोची जब मैं कॉर्पोरेट जगत में फिलेंथ्रॉपी इनवेस्टमेण्ट के बारे में पढ़ रहा था। कार्पोरेट जगत में सब कुछ अर्थ से जुड़ा चलता है। फिलेंथ्रॉपी भी उनके विज्ञापन का अंग है।
ReplyDeleteजब व्यक्ति इनवर्ड ड्रिवन न हो तो यह "इनवेस्टमेण्ट" मनोविज्ञान बहुत काम का है।
अब देखिये न; अनुराधा कह रही हैं कि उन्होने कम्बल उन नट औरतों को दिये थे जिनको देखने वाला कोई बालबच्चा नहीं है। और हम भी मोटीवेट हो रहे हैं कि एक इंस्टॉलमेण्ट कम्बल और दिये जायें! :)
फर्जी NGO की बाढ़ सी आई हुई है ...आराधना दुबे जी ने ही सही माने में निवेश किया ..वैसे बिहार में आप कम्बल देते -देते थक जायेगे /
ReplyDeleteआजकल अपने यू.पी. में पड़ रही कड़ाके की ठंड की खबरें सुनकर सोचता हूँ कि वर्धा बहुत अच्छी जगह है। यहाँ ठंड से ठिठुरते मुसहर भी नहीं हैं।
ReplyDeleteआपने बहुत नेक काम में पी.आई. लगाया। हम भी भविष्य के लिए प्रेरणा ग्रहण करते हैं।