Tuesday, September 25, 2007

रेलवे का सबसे बड़ा सिरदर्द - लेवल क्रॉसिन्ग की दुर्घटनायें


जब मैं गोरखपुर में पूर्वोत्तर रेलवे की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहा था, तब जिस खबर से मुझे अत्यधिक भय लगता था वह था - रेलवे के समपार फाटकों (level crossings) पर होती दुर्घटनायें. अधिकतर ये घटनायें बिना गेटमैन के समपार फाटकों पर होती थीं. उनपर रेलवे का बहुत नियन्त्रण नहीं होता. हम लोग लेवल क्रासिन्ग की सड़क को समतल रखने, उसपर सड़क के चिन्ह ठीक से लगवाने, विज्ञापन जारी करने कि लोग समपार फाटक दोनो ओर देख समझ कर पार करें और विघ्न विनाशक विनायक का स्मरण करने के अलावा विशेष कुछ नहीं कर पाते थे. उत्तर प्रदेश और बिहार की जनता माथे पर कफन बांध कर सड़कों पर चलती है. रेल से आगे निकल जाने की एक जंग जीतने को सदैव तत्पर रहती है. कई-कई जगहों पर जहां रेल और सड़क समान्तर चलते हैं - वहां वाहन लहक-बहक कर रेल पर चले आते हैं. जब खडे़ हो जाते हैं पटरी के बीचों बीच तो ड्राइवर और अन्य लोग तो सटक लेते हैं (मौका मिल पाया तो) और आने वाली रेलगाड़ी को वाहन से निपटने को छोड़ जाते हैं. कई बार इस तरह से अवपथन के मामले हुये हैं. पर तकलीफ तब होती है जब वाहन में सवार लोगों की जानें जाती हैं. एक बार तो एक ही कार में ८ लोग काल के ग्रास में चले गये थे, जब उनकी कार अन-मैन्ड रेलवे क्रासिंग पर ४०० मीटर तक ट्रेन इन्जन से घिसटती गयी थी.

मेरे पास आंकड़ों के चार्ट है - कुल दुर्घटनाओं और रेलवे के लेवल क्रॉसिन्ग्स पर हुई दुर्घटनाओं के उनमें हिस्से के. जरा उसके चित्र पर नजर डालें:

भारतीय रेलवे पर दुर्घटनायें उत्तरोत्तर कम हुई हैं; बावजूद इसके कि नेटवर्क और यातायात बढा़ है.

Level crossing

पर लेवल क्रासिंग दुर्घटनाओं का प्रतिशत (कुल में) पिछले एक दशक में बढ रहा है.

समपार फाटकों की दुर्घटनायें कम करने में लोगों में जागरूकता लाने के साथ साथ समपार फाटकों पर गेटमैन उपलब्ध कराना, समपारों को अन्तर्पार्शित करना, उनपर ट्रैन-एक्चुयेटेड वार्निन्ग डिवाइस लगाना, समपार की सड़क की गुणवत्ता में सुधार करना आदि उपाय काम में लाये जा रहे हैं. पर ये सभी उपाय खर्चीले हैं. और इन उपायों को भी जनता अगर तुल जाये तो विफल कर देती है. गेटमैन से जबरन गेट खुलवाने और न खोलने पर मारपीट करने के मामले बढ़ते जा रहे हैं. लोग इतने खुराफाती या अपराधिक मनोवृत्ति के हो गये हैं कि अन्तर्पार्शन (interlocking) से छेड़-छाड़ करने से बाज नहीं आते. इसके साथ साथ सड़क यातायात का दबाव बढ़ता जा रहा है. उत्तरप्रदेश और बिहार के मैदानी भाग में सड़कों का जाल बढ़ता जा रहा है और लोग समपार फाटकों को कम करने की बजाय, उत्तरोत्तर बढाने की मांग करते हैं. लोग पर्यावरण के नाम पर लोग सेतुसमुद्रम का विरोध करेंगे; पर सुरक्षा के नाम पर अगले रोड-ओवर ब्रिज से जाने की बजाय सीधे रेल लाइन पर स्कूटर कुदाते पाये जायेंगे.

जन-जागरण की बहुत जरूरत है समपार दुर्घटनाओं से बचाव के लिये.


Monday, September 24, 2007

अमरीकी हाथ गन्दे होते जा रहे हैं


यह न्यूक्लियर डील, आतंकवाद, केपिटलिस्ट दादागिरी या इसी तरह के अमेरिका विरोधी मुद्दे से सम्बन्धित कोई पोस्ट नहीं है. यह विशुद्ध हाइजीन का मामला है.

आप के हाथ गन्दे रहते हैं? भोजन के बाद आप हाथ नहीं धोते? टॉयलेट के बाद नहीं धोते? शर्माने की बात नहीं - 23% अमेरिकी भी नहीं करते. अब इतना साधन सम्पन्न होते हुये भी अमेरिकी गन्दे रहते हैं तो आपको काहे की परेशानी!

रायटर ने खबर दी है कि अमेरिकन व्यक्ति साफ हाथों के विषय में लापरवाह होते जा रहे हैं. और तो और वे झूठ भी बोलते हैं कि अपने हाथ धोते हैं! टेलीफोन सर्वे में 92% अमेरिकी लोगों ने कहा कि वे सार्वजनिक स्थानों पर हाथ धोते हैं. पर जब पब्लिक रेस्ट रूमों में अध्ययन किया गया तो केवल 66% आदमी और 88% औरतें ही अपने हाथ साफ करते दीखे.

इस सर्वे में 6000 लोगों का सैम्पल लिया गया था. उसमें 77% हाथ धोते पाये गये. ऐसा ही सर्वे सन 2005 में किया गया था. तब से अब 6% की गिरावट आयी है हाथ धोने वालों में.

मैं तो हाथ धोता हूं. आप धोते हैं तो ठीक. नहीं धोते तो भी परेशान न हों!


Sunday, September 23, 2007

रावण गणित में कमजोर होने के कारण हारा था क्या?


सेतु नहीं बना था तब तक. भगवान राम की सेना लंका नहीं पंहुची थी. विभीषण ने पाला बदल लिया था. राम जी ने समुद्र तट पर उनका राजतिलक कर दिया था. पीछे आये रावण के गुप्तचर वानरों ने थाम लिये थे और उनपर लात घूंसे चला रहे. लक्ष्मण जी ने उन्हे अभयदान दे कर रावण के नाम पत्र के साथ जाने दिया था. वे गुप्तचर रावण को फीडबैक देते हैं:

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ।।
अर्थात; हे दशानन रावण, ऐसी खबर है कि राम की सेना में अठारह पद्म बन्दर हैं. (गुप्तचर निश्चय ही लक्ष्मण जी ने फोड़ लिये थे और वे रावण को डबल क्रॉस कर रहे थे!).

रावण को जरूर झुरझुरी आयी होगी. अनन्त जैसी संख्या है यह. पर जरा तुलसी बाबा की इस संख्या पर मनन करें. अठारह पद्म यानी 1.8x1018 बंदर. पृथ्वी की रेडियस है 6400 किलोमीटर. यह मान कर चला जाये कि एक वर्ग मीटर में चार बन्दर आ सकते है. यह लेकर चलें तो पूरी पृथ्वी पर ठसाठस बन्दर हों - समुद्र और ध्रुवों तक में ठंसे - तब 2.06x1015 बन्दर आ पायेंगे.
अर्थात अठारह पद्म बन्दर तब पृथ्वी पर आ सकते हैं जब सब पूरी पृथ्वी पर ठंसे हों और वर्टिकली एक पर एक हजार बन्दर चढ़े हों!
आप समझ गये न कि रावण ने कैल्कुलेशन नहीं की. उसने आठवीं दर्जे के विद्यार्थी का दिमाग भी नहीं लगाया. यह भी नहीं सोचा कि उसके राज्य का क्षेत्रफल और एक बन्दर के डायमेंशन क्या हैं. वह अपने अनरिलायबल गुप्तचरों के भरोसे नर्वसिया गया और नर्वस आदमी अन्तत: हारता है. वही हुआ.
तो मित्रों रावण क्यों हारा? वह मैथ्स में कमजोर था! आप को मेरा शोध पसन्द आया? नहीं?

अरे ऐसे ही "साइण्टिफिक शोध" से तो आर्कियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया प्रमाणित कर रहा है कि राम नहीं थे. ऐसे ही वाल्मीकि रामायण से अंश निकाल-निकाल कर काले चश्मे वाले राजनेता प्रमाणित कर रहे हैं कि राम नहीं थे; या थे तो सिविल इन्जीनियरिंग में अनाड़ी थे. आप हैं कि मेरी थ्योरी पर अविश्वास कर रहे हैं!
खैर, जब आस्था के साथ गणित/साइंस घुसेड़ेंगे तो ऐसे ही तर्क सामने आयेंगे! तुलसी बाबा के काव्य-लालित्य को स्केल लेकर नापेंगे तो जैसा शोध निष्कर्ष हमने निकाला है, वैसा ही तो निकलेगा!

कल देर शाम श्रीमती विनीता माथुर, जो श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल जी की पुत्री हैं, ने अपनी टिप्पणी श्रीलाल शुक्ल जी के बारे में मेरी कल की पोस्ट पर की. उन्हे बहुत अच्छा लगा कि "उनके पापा के इतने फैन्स हैं हिन्दी ब्लॉग जगत में और लोग उनके पापा के बारे में सोच रहे हैं, पढ़ रहे हैं और लिख रहे हैं. उससे उन्हें बहुत ही गर्व हो रहा हैं." आप कृपया उस पोस्ट पर विनीताजी की टिप्पणी पढ़ें.

Saturday, September 22, 2007

श्रीलाल शुक्ल जी के विषय में एक और पोस्ट


मैं आज1 दिल्ली में रहा. रेल भवन में अपने मित्रों से मिला. मैने कुछ समय पहले श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल पर एक पोस्ट लिखी थी जिसमें जिक्र था कि उनका दामाद सुनील मेरा बैचमेट है. मैं रेल भवन में उन सुनील माथुर से भी मिला. सुनील आजकल एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं भारतीय रेल के और स्टील का माल यातायात वहन का कार्य देखते हैं. निहायत व्यस्त व्यक्ति हैं. रोज के यातायात परिचालन के खटराग के अतिरिक्त उनके पास दर्जनों माल-वहन विषयक रिपोर्टें अध्ययन हेतु पड़ी थीं, जिनको पढ़ कर उन्हे भविष्य में आने जा रही रेल परियोजनाओं पर अपनी अनुशंसा देनी थी. इतनी रिपोर्टों के सामने होने पर मैं अपेक्षा नहीं करता था कि सुनील ने श्रीलाल शुक्ल जी का साहित्य पढ़ा होगा.
पर सुनील तो बदले हुये व्यक्ति लगे. ट्रेनिंग के दौरान तो मैं उन्हे रागदरबारी के विषय में बताया करता था. अब उन्होने मुझे बताया कि उन्होनें श्रीलाल शुक्ल जी का पूरा साहित्य पढ़ लिया है. मैने सुनील को अपनी उक्त लिंक की गयी पोस्ट दिखाई तो अपने सन्दर्भ पर सुनील ने जोरदार ठहाका लगाया. उसमें प्रियंकर जी की एक टिप्पणी में यह था कि "सेण्ट स्टीफन" का पढ़ा क्या रागदरबारी समझेगा (सुनील के विषय में यह टिप्पणी थी); रागदरबारी तो समझने के लिये "गंजहा" होना चाहिये - इसपर सुनील ने तो ठहाके को बहुत लम्बा खींचा. उनकी हंसती फोटो मैने उतार ली!
GDP(026)
(श्री सुनील माथुर)
श्रीलाल शुक्ल जी के विषय में बात हुई. सुनील ने बताया कि आजकल वे शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं महसूस कर रहे. हृदय सम्बन्धित समस्यायें हैं. पर मानसिक रूप से उतने ही चैतन्य और ऊर्जावान हैं, जितना पहले थे. लेखन जरूर आजकल नहीं चल रहा है. सुनील ने बताया कि उन्होने और उनकी पत्नी ने शुक्ल जी को कई बार दिल्ली आ जाने के लिये कहा पर वे आये नहीं. लखनऊ में इन्द्रा नगर में उनके घर से सटा एक डाक्टर साहब का घर है और डाक्टर साहब के घर से सटा उनका अस्पताल. पिछली बार जब श्रीलाल शुक्ल जी को हृदय की तकलीफ हुई थी तब बगल में डाक्टर साहब के मकान/अस्पताल होने के कारण समस्या का समय रहते निदान हो पाया था.
सुनील ने बताया कि दो वर्ष पहले दिल्ली में श्रीलाल शुक्ल जी के अस्सी वर्ष का होने पर जन्म दिन समारोह हुआ था. उसमें शुक्ल जी आये थे. उस अवसर के बारेमें एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है. सुनील के पास चैम्बर में उसकी प्रति नहीं थी. वे बाद में मुझे भिजवायेंगे यह वादा सुनील ने किया है.
कुल मिला कर सुनील के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल और उनके ग्रन्थों की पुन: याद का अवसर मिला - यह मेरे लिये बहुत सुखद रहा. उस समय सुनील के कमरे में हमारे एक उड़िया मित्र श्री गुरुचरण राय भी आ गये थे. श्री राय ने बताया कि उन्होने रागदरबारी उड़िया अनुवाद में सम्पूर्ण पढ़ा है! श्रीलाल शुक्ल जी के भक्त हिन्दी भाषा की सीमाओं के पार भी बहुत हैं!


1. यह पोस्ट 20 सितम्बर को नयी दिल्ली स्टेशन के सैलून साइडिंग में लिखी गयी थी; विण्डोज़ लाइवराइटर पर. आज पब्लिश कर रहा हूं.

Friday, September 21, 2007

यह चलती ट्रेन में लिखी गयी पोस्ट है!


मुझे २३९७, महाबोधि एक्स्प्रेस से एक दिन के लिये दिल्ली जाना पड़ रहा है1. चलती ट्रेन में कागज पर कलम या पेन्सिल से लिखना कठिन काम है. पर जब आपके पास कम्प्यूटर की सुविधा और सैलून का एकान्त हो - तब लेखन सम्भव है. साथ में आपके पास ऑफलाइन लिखने के लिये विण्डोज लाइवराइटर हो तो इण्टरनेट की अनुपलब्धता भी नहीं खलती. कुल मिला कर एक नये प्रयोग का मसाला है आज मेरे पास. शायद भविष्य में कह सकूं - चलती ट्रेन में कम्प्यूटर पर लिखी और सम्पादित की (कम से कम हिन्दी की) ब्लॉग पोस्ट मेरे नाम है!

आज का दिन व्यस्त सा रहा है. दिमाग में नयी पोस्ट के विचार ही नहीं हैं. पर ट्रेन यात्रा अपने आप में एक विषय है. स्टेशन मैनेजर साहब ने ट्रेन (सैलून) में बिठा कर ट्रेन रवाना कर मेरे प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है. ट्रेन इलाहाबाद से रात आठ बज कर दस मिनट पर चली है. अब कल सवेरे नयी दिल्ली पंहुचने तक मेरे पास समय है लिखने और सोने का. बीच में अगर सैलून अटेण्डेण्ट की श्रद्धा हुयी तो कुछ भोजन मिल जायेगा. अन्यथा घर से चर कर चला हूं; और कुछ न भी मिला तो कोई कष्ट नहीं होगा.

अलीगढ़ के छात्र अपने अपने घर जा चुके. गाड़ियां कमोबेश ठीक ठीक चल रही हैं. मेरी यह महाबोधि एक्स्प्रेस भी समय पर चल रही है. रेलवे वाले के लिये यह सांस लेने का समय है.

रेलवे वाले के लिये ट्रेन दूसरे घर समान होता है. जब मैने रेलवे ज्वाइन की थी तो मुझे कोई मकान या कमरा नहीं मिला था. रतलाम स्टेशन पर एक मीटर गेज का पुराना सैलून रखा था जो चलने के अनुपयुक्त था. मुझे उस कैरिज में लगभग २०-२५ दिन रहना पड़ा था. तभी से आदत है रेल के डिब्बे में रुकने-चलने की. हां, अधिक दिन होने पर कुछ हाइजीन की दिक्कत महसूस होती है. एक बार तो बरसात के मौसम में त्वचा-रोग भी हो गया था ४-५ दिन एक साथ सैलून में व्यतीत करने पर.

पर तब भी काम चल जाता है. मेरे एक मित्र को तो बम्बई में लगभग साल भर के लिये मकान नहीं मिला था और वह बम्बई सेण्ट्रल स्टेशन पर एक चार पहिये के पुराने सैलून में रहे थे. बाद में मकान मिलने पर उन्हें अटपटा लग रहा था - डिब्बे में रहने के आदी जो हो गये थे!

मेरे पास कहने को विशेष नहीं है. मैं अपने मोबाइल के माध्यम से अपने इस चलते फ़िरते कमरे की कुछ तस्वीरें आप को दिखाता हूं (वह भी इसलिये कि यह पुराने सैलून की अपेक्षा बहुत बेहतर अवस्था में है, तथा इससे रेलवे की छवि बदरंग नहीं नजर आती).

१. मेरे मोबाइल दफ़्तर की मेज जिसपर लैपटॉप चल रहा है:

GDP(017)

२. मेरा बेडरूम:

GDP(019)

ऊपर सब खाली-खाली लग रहा है. असल में मैं अकेले यात्रा कर रहा हूं. जब मैं ही फोटो ले रहा हूं तो कोई अन्य दिखेगा कैसे? खैर, मैने अपनी फोटो लेने का तरीका भी ढ़ूंढ़ लिया.

३. यह रही बाथ रूम के शीशे में खींची अपनी फोटो! :

GDP(020)

पचास वर्ष से अधिक की अवस्था में यह सब खुराफात करते बड़ा अच्छा लग रहा है. कम्प्यूटर और मोबाइल के युग में न होते तो यह सम्भव न था.

बस परसों सवेरे तक यह मेरा घर है. सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से चलता फिरता घर!


1. यह पोस्ट सितम्बर १९’२००७ की रात्रि में चलती ट्रेन में लिखी गयी. यह आज वापस इलाहाबाद आने पर पब्लिश की जा रही है.
बहुत महत्वपूर्ण - शिवकुमार मिश्र ने आपका परिचय श्री नीरज गोस्वामी से कराया था, जिनकी कविताओं की उपस्थिति सहित्यकुंज और अनुभूति पर है. आज नीरज जी को शिवकुमार मिश्र ब्लॉग जगत में लाने पर सफल रहे हैं. आप कृपया नीरज जी का ब्लॉग जरूर देखें और टिप्पणी जरूर करें. यह इस पोस्ट पर टिप्पणी करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है!

Wednesday, September 19, 2007

हे रिलायंस आओ! उद्धार करो!!!


उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में रिलायंस फ्रेश के दस स्टोर बन्द किये तो किसान सड़कों पर उतर आये. वे इन स्टोरों को पुन: खोलने की मांग कर रहे थे. लोग किस व्यवस्था से किस प्रकार त्रस्त हैं और किस उपाय का पक्ष लेंगे - कहना कठिन है. किसान बिचौलियों से त्रस्त है. मण्डी पहुंच कर वह समय बरबाद करता है. सब जगह कट देता फिरता है. फिर पैसा पाने को मण्डी के चक्कर मारता रहता है. उसके लिये आईटीसी या रिलायंस की खरीद - ऑन द स्पॉट और नगद; तो "स्वप्न में बज रहा संगीत" है.

मैं भी त्रस्त हूं नगर की म्युनिसिपालिटी की व्यवस्था से. सड़कों के किनारे फुटपाथ चोक हैं रेड़ी-ठेले और फुटपाथिया दुकानों से. मेरा घर जिस इलाके में है, वहां तो फुटपाथ है ही नहीं. ऑमलेट, चाय, सब्जी आदि के ठेले, रिक्शा, टेम्पो सभी सड़क छेंक कर परमानेण्ट वहीं रहते हैं. सिर्फ यही नहीं, इनपर खरीद करने वालों की भीड़ भी सड़क को हृदय रोग के मरीज की कोलेस्ट्रॉल से संकरी हुई धमनी/शिरा जैसा बनाने में योगदान करती है. नगरपालिका, फ़ूड इन्स्पेक्टर, पुलीस और सरकार के दर्जनों महकमे इस मामले में कुछ नहीं करते.

मुझे भी एक रिलायंस की दरकार है.

हे रिलायंस आओ! अपने वातानुकूलित स्टोर खोल कर उसमें ऑमलेट, भेलपूरी, चाय, समोसा, फलों का रस, दोसा बेचो. ठेले वाले से एक आना सस्ता बेचो. महीने के बन्धे ग्राहक को दो चम्मच-प्लेट बतौर उपहार में दो. अपने इस उपक्रम से सड़कें खाली करवा दो. सड़कें यातायात के लिये उपयोग होने लगें बनिस्पत हाट-बाजार, सामुहिक मिलन स्थल, मूत्रालय आदि के लिये.

हे रिलायंस आओ! जरा चमचमाती नगरीय सेवा की बसें चला दो इलाहाबाद में. किराया टेम्पू वाले से एक आना कम रखो. हर जगह हर लेम्प-पोस्ट पर पेशाब करने वाले कुत्ते की माफिक खड़े होने वाले इन विक्रम टेम्पो वालों से सड़क को निजात दिलाओ. सड़क को पार्किंग स्थल बनने से बचाओ.

हे रिलायंस, मेरे दफ्तर के बाबुओं के लिये भी व्यवस्था करो - जो सबेरे दफ्तर आते ही अपना बस्ता पटक चाय की दुकान पर चल देते हैं. अगर तुम्हारा चाय का कियोस्क दूरी पर हो तो सवेरे दस बजे इन कर्मठ कर्मचारियों को अपनी दुकान तक ले जाने के लिये एक बस भी खड़ी रखो हमारे दफ्तर के सामने. हो सके तो रेलवे फोन भी लगवा लो अपनी चाय की दुकान में - जिससे अगर फलाने बाबू से बात करनी हो तो हम उस फोन पर कर सकें. मेरे दफ़्तर के पास चाय की दुकान की झुग्गियों से निजात दिलाओ.

हे रिलायंसाधिपति, जैसे किसान मुक्त हो रहे हैं बिचौलियों से... वैसे हमें मुक्ति दो!!! नगर की सड़ान्ध भरी व्यवस्था से हमें मुक्ति दो!!!!

मैं जानता हूं कि यह आवाहन बहुतों के गले नहीं उतरेगा. इसे ले कर मेरे घर में ही दो गुट हो गये हैं. पर लचर म्युनिसिपल और स्थानीय प्रशासन व्यवस्था, सड़क और सार्वजनिक स्थानों का जबरन दोहन और व्यापक कार्य-अकुशलता का आपके पास और कोई समाधान है?

Tuesday, September 18, 2007

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से छात्रों की निकासी के रेल इन्तजाम


कल सवेरे नेट पर यह खबर देख कि कुलपति का घर ए.एम.यू. छात्रों ने जला दिया है; लगा कि अलीगढ़ अशान्त रहेगा. और हर अशान्ति में रेलवे के प्रति वक्रदृष्टि होना आशंकित होता है - सो मुझे कुछ अन्देशा था. अन्तत: दोपहर ढा़ई तीन बजे दोपहर तक स्पष्ट हो गया कि विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिये बन्द कर दिया गया है और छात्र-छात्राओं से हॉस्टल खाली करने को कहा गया है. हमें इन्तजाम करना है कि जब छात्रों की भीड़ रेलवे स्टेशन पर अपने-अपने घरों को जाने के लिये आये तो हमारे पास उनके लिये ट्रेनों में जगह हो. उत्तर-मध्य रेलवे के हमारे महा प्रबंधक ने सभी विभागों को तुरंत आदेश दिये कि सारे जरूरी इन्तजाम किये जायें और अलीगढ़ स्टेशन पर कुछ अप्रिय न घटे.

पहला प्रश्न था कि कहां के हैं ये अधिकतर विद्यार्थी? स्थानीय प्रशासन ने बताया कि अधिकांश मध्य और पूर्वी उत्तरप्रदेश के हैं. आवश्यकता बताई गयी कि एक विशेष रेल गाड़ी अलीगढ़ से बरास्ते कानपुर-लखनऊ-शाहगंज वाराणसी के लिये चाहिये. रेलगाड़ी का इन्तजाम आधे घण्टे में तय कर लिया गया. हमने रेल डिब्बे दिल्ली और आगरा से चलाने का बन्दोबस्त कर लिया. आगरा से डिब्बे शाम सवा पांच बजे और नयी दिल्ली से शाम सात बजे रवाना हुये. रात नौ बजे हमारे नियन्त्रण कक्ष ने बताया कि छात्रों की भीड़ स्टेशन पर आ चुकी है/आ रही है. गाड़ी रात साढे़ दस - इग्यारह बजे चलनी है. सब व्यवस्थित है. इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबंधक ने अतिरिक्त अधिकारी/कर्मचारी अलीगढ़ में तैनात कर दिये हैं. अगर किसी अन्य स्थान के लिये भी जाने वाले छात्र अधिक हुये और चल रही सामान्य गाड़ियों में जगह कम पड़ी तो डिब्बों और शण्टिंग के लिये इंजन की व्यवस्था कर ली गयी है. यद्यपि इस मौसम में गाडि़यों में भीड़ कम है; और यातायात सामान्यत: उपलब्ध जगह में पूरा समा जाना चाहिये, पर हम छात्रों को किसी भी प्रकार से आक्रोशित होने का मौका नहीं देना चाहते.

पूरी तैयारी का जायजा ले मैं सोने जाता हूं - नियन्त्रण कक्ष को यह हिदायत के साथ कि थोडी़ सी भी जरूरत हो तो जगा दिया जाये.

आज सवेरे यह सूचना मिलती है कि वाराणसी के लिये एक स्पेशल ट्रेन रात बारह बजे के बाद रवाना हो सकी. अभी कानपुर निकल रही है. रेलवे और अलीगढ़ प्रशासन के अधिकारी देर रात तक इस स्पेशल ट्रेन की सकुशल रवानगी की व्यवस्था करते रहे. इस स्पेशल ट्रेन के अतिरिक्त सामान्य गाड़ियों में और अलीगढ़ में न रुकने वाली ३ गाड़ियों को रोक कर छात्रों को एडजस्ट किया गया. कुल मिला कर सभी व्यवस्था शान्ति पूर्ण रही. स्थानीय प्रशासन ने कम दूरी के छात्रों के लिये तो बसों का इन्तजाम किया था, पर लम्बी दूरी के लिये तो रेलवे पर ही भरोसा था. आज भी अगर कहीं के लिये विशेष ट्रैफ़िक जनरेट हुआ तो एक रेक अलीगढ़ मैं और इन्तजाम कर रख लिया गया है.

मैं यह ब्लॉग पर अनौपचारिक रूप से इसलिये लिख रहा हूं कि आप को यह ज्ञात हो सके कि रेलवे इस प्रकार के मुद्दों से कितनी सेन्सिटिव हो कर निपटने का प्रयास करती है.

दोपहर दो बजे, सितम्बर 18'07 : और अब दोपहार तीन बजे एक और स्पेशल गाड़ी छात्रों को अलीगढ़ से ले कर गया तक जायेगी.

Monday, September 17, 2007

अलसाया सप्ताहांत और मुद्दों की तलाश!


सप्ताहांत का अढ़तालीस घण्टे का समय काटना अपने आप में एक प्रॉजेक्ट होता है. लगभग आधा समय तो नियमित कृत्य में व्यतीत हो जाता है. कुछ समय पत्र-पत्रिकायें, पठन सामग्री ले लेती है. मेरे साथ तो कुछ दफ्तर की फाइलें भी चली आती हैं - समय बँटाने को. फिर भी काफी समय बचता है मुद्दों की तलाश में. नीचे का विवरण उसी "मुद्दों की जद्दोजहद" को दर्शाता है. यह जद्दोजहद केवल मैं ही नहीं; परिवार के अन्य लोग भी करते दीखते हैं. शायद आपमें से कई लोगों के साथ वैसा होता हो - या न भी होता हो. हर व्यक्ति अनूठा होता ही है!
कल भरतलाल (मेरा भृत्य) दोपहर भर फड़फडाता फिरा - एलपीजी सिलिण्डर के लिये. शाम को थक कर आया तो सो गया. देर से उठा. मैने पूछा कि एलपीजी की किल्लत है क्या मार्केट में? उसने गुनगुनाती-बुदबुदाती आवाज में जो बताया उससे स्पष्ट न हो पाया कि किल्लत है या नहीं. फिर मेरे पिताजी एक जगह फोन करते दिखे - "राकेश, एक सिलिण्डर भरा है तुम्हारे पास? ... अच्छा भिजवा दो." थोड़ी देर बाद फिर फोन - "राकेश, वो आदमी अभी ले कर पंहुचा नहीं?"

राकेश ने क्या जवाब दिया, पता नहीं. पर जब मैने एलपीजी की स्थिति के बारे में प्वाइण्टेड सवाल किये तो पता चला कि एक सिलिण्डर कल खतम हुआ था. दूसरा भरा लगा दिया गया था. वह लगभग एक महीने से ज्यादा चलेगा. पर किल्लत की मनोवृत्ति ऐसी है कि जब तक भरा सिलिण्डर घर में न आ जाये; व्यथा की दशा से मुक्ति मिलना सम्भव नहीं.

खैर, आज एलपीजी का सिलिण्डर आ गया. उसपर चर्चा भी हो चुकी कि कितना एक्स्ट्रा पे करना पड़ा. सील इण्टैक्ट है या नहीं. सील इण्टैक्ट होने पर भी फलाने को ऐसा सिलिण्डर मिला था कि एक हफ्ते में गैस खतम. बाद में पता चला कि उसमें तीन चौथाई पानी भरा था. इसलिये सिलिण्डर लेना हो तो उलट कर देख लेना चाहिये... अब सिलिण्डर रख दिया गया है. लाने वाले को एक मिठाई-पानी पिला कर विदा किया जा चुका है. अचानक जैसे एक प्रॉजेक्ट खतम हो गया. बड़ी दिक्कत है कि अभी तक दूसरा प्रॉजेक्ट तय नहीं किया जा सका. पर पिताजी लेट गये हैं बिस्तर पर - एक सेन्स ऑफ एचीवमेण्ट के साथ.

अचानक फिर उठते हैं. आवाज लगाते हैं - भरत!

"हां बाबा."

"जरा सिलिण्डर उठा कर देखना, गैस पूरी है या नहीं. कई बार गैस कम होती है." भरतलाल उन्हें आश्वस्त करता है कि उसने उठा कर देख लिया है. बल्कि वही तो घर के अन्दर ले कर आया था. यह मुद्दा भी उठते ही तय हो गया. नया मुद्दा जरूरी है. अभी आधादिन गुजरा है...

मैं इस माहौल से डिटैच हो जाता हूं. पर जब मां-पिताजी के कमरे के पास से थोड़ी देर बाद गुजरता हूं तो मुझे बड़ी आत्मिक शान्ति मिलती है. नया मुद्दा जन्म ले चुका है. आज फाफामऊ से अगले हफ्ते की सब्जी मंगानी है. वहां हाट में सस्ती मिलती है. गोविन्दपुर में आलू १० रुपया किलो है और फाफामऊ में पांच किलो लेने पर साढे़ सात रुपये किलो पड़ता है.... मैं भी प्रॉजेक्ट में शामिल हो जाता हूं - यह गणना करने में कि अगर सब्जी केवल फाफामऊ से आये तो साल भर में ३००० रुपये की बचत हो सकती है...

एक अलसाया सप्ताहान्त; और घर में मुद्दों की तलाश कितना महत्वपूर्ण काम है!


(कल तक की पब्लिश्ड पोस्टों का आर्काइव - १९९ पोस्ट)
नोट - यह पोस्ट कल रविवार के दिन लिखी गयी थी. इसे ले कर २०० पोस्टें हो गयीं. अब लगता है कि ब्लॉगिंग का पेस कम कर देना चाहिये. इण्टरनेट पर आने की फ्रीक्वेंसी और समय तो समय से सेट होगा, पर उसमें परिवर्तन होगा जरूर!

समीर लाल जी ने कल एक पोस्ट लिखने की बात की थी अपनी टिप्पणी में - उसका इंतजार रहेगा.


Sunday, September 16, 2007

किस्सा-ए-टिप्पणी बटोर : देबाशीष उवाच


पिछले दिनो ९ सितम्बर को शास्त्री जे सी फिलिप के सारथी नामक चिठ्ठे पर पोस्ट थी - चिठ्ठों पर टिप्पणी न करें. इस में देबाशीष ने यह कहते हुये कि टिप्पणियां अपने आप में चिठ्ठे की पठनीयता का पैमाना नहीं है; टिप्पणी की थी -

... सचाई यह है कि मैं चिट्ठे समय मिलने पर ज़रूर पढ़ता हूं पर टिप्पणी सोच समझ कर ही करता हूँ और मुझे नहीं लगता कि ये मेरी प्रविष्टि को टिप्पणी न मिलने या चिट्ठाकारों का कोपभाजन बनने का कारक है, मेरे चिट्ठे पर “मेरी पसंद” पृष्ठ पर ऐसे चिट्ठे हैं जो मुझे पसंद हैं पर उन पर खास टिप्पणीयाँ नहीं आईं पर मैं इसे पोस्ट की गुणवत्ता से जोड़ कर नहीं देखता, मसलन अगर मैं महिला चिट्ठाकार होता तो शायद कूड़ा पोस्ट पर भी दो दर्जन कमेंट बटोर लेता। आप क्या सोचते हैं?

यह अपने आप में बड़ा प्रोफ़ाउण्ड रिमार्क है. हम लोग टिप्पणी के लिये कुलबुलाते रहते हैं. बकौल फ़ुरसतिया इस चिन्ता में रहते हैं कि "दस भी नहीं आयीं". पर देबाशीष की माने तो स्टैट काउण्टर से ही प्रसन्न रहना चाहिये.

लेकिन मसला महिला चिठ्ठाकारों का था - सो देबाशीष की टिप्पणी के बाद (ऊपर उद्धृत टिप्पणी पर चर्चा से कतराते हुये) किसी सज्जन ने कुछ नहीं कहा. यद्यपि पोस्ट पर टिप्पणियां १२ आयीं.

मैं सोच रहा था कि क्या वास्तव में ऐसा है कि महिला चिठ्ठाकारों को प्रेफरेन्शियल ट्रीटमेण्ट मिलता है टिप्पणियों में? मेरे विचार से श्री समीर लाल (जो स्त्री नहीं हैं) को अवश्य मिलता है. वे पुरानी पोस्ट भी गलती से ठेल दें तो लोग टिप्पणी करने पंहुच जाते हैं ( :-) ). पर उनके मामले में जायज है - वे स्वयम जोश दिलाने के लिये लोगों के चिठ्ठों पर जा-जा कर इतना सुन्दर टिपेरते हैं कि उनको टिप्पणियां मिलनी ही चाहियें. देबाशीष की टिप्पणी दूससे सन्दर्भ में है. उस में क्या कोई मनोविज्ञान है? क्या अनूप सुकुल अनुपमा सुकुल, आलोक पुराणिक अलका पुराणिक और देबाशीष देवयानी या हम खुद ज्ञानेश्वरी देवी के पेन नेम से अपनी पहचान छुपा कर लिखते तो टिप्पणियां दूनी होतीं?

जरा प्रकाश डालें! :-)


Saturday, September 15, 2007

ब्रॉडबैण्ड/ कापासिटी, नेहरू और उनकी काबीना के मंत्री


आज मेरे यहां ब्रॉडबैण्ड कनेक्शन नहीं आ रहा है. मेरे पास दो लैण्ड लाइन फ़ोन हैं और दोनो पर इण्टरनेट सुविधा है. इसके अतिरिक्त बीएसएनएल की मोबाइल सुविधा पर जीपीआरएस के जरीये भी इण्टरनेट मिल जाता है. आजभोर वेला से ये तीनों नहीं काम कर रहे. अभी शाम के समय यह इण्टरनेट धीरे-धीरे प्रारम्भ हुआ है. लिहाजा दर्ज करने को आज और कल (रविवार) के नाम से यह पोस्ट प्रस्तुत कर देता हूं - अरुण और आलोक जी कृपया इसे मान लें. अब मैं पब्लिश बटन दबाता हूं; इससे पहले कि इण्टरनेट पुन: दगा दे जाये!


स्वतंत्रता के बाद नेहरूजी1 प्रधान मंत्री बने और फलाने जी उनकी काबीना में मंत्री थे. उनको ले कर एक चुटकला रेल के सम्बन्ध में सुनने में आता है. नेहरूजी रेलवे के सैलून में यात्रा कर रहे थे. फलाने जी उनके साथ थे. नेहरू जी ने पूछा कौन सा स्टेशन जा रहा है? फलाने जी ने पर्दा उठा कर देखा और कहा कोई कापासिटी है. कुछ दूर और चलने के बाद नेहरू जी ने फिर वही सवाल किया. फलाने जी ने फिर बाहर झांका और कहा जी, यह भी कापासिटी है!

झल्लाये नेहरू जी ने खुद देखा तो मुस्कुराये बिना नहीं रह सके फलाने जी बार-बार पानी की टंकी पर पढ़ते थे, जो हर स्टेशन पर होती है और जिसपर लिखा होता है

Capacity

***** liters

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि फलाने जी नेहरू जी की काबीना में ज्यादा समय नहीं चल पाये!

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ऐसा ही चुटकला मुझे रीडर्स डाइजेस्ट में फिलर के रूप में पढ़ने को मिला (और इसी ने मुझे ऊपर वाला चुटकला लिखने को प्रेरित किया)

दो अंग्रेज जर्मनी में कोलन शहर में खो गये. उन्होने अपनी किराये की कार Einbahnstrasse नामक गली में पार्क की थी. पर जब वे कार पर पंहुचने के लिये जाने लगे तो देखा कि हर गली Einbahnstrasse गली थी. न्यू यार्क पोस्ट के अनुसार उन्होने पुलीस वाले को रोक कर सहायता मांगी. और तब उन्हें जर्मन भाषा में एक सबक मिला पुलीस वाले ने बताया कि Einbahnstrasse का मतलब होता है वन-वे स्ट्रीट. हर गली वन-वे स्ट्रीट थी! रीडर्स डाइजेस्ट में यह नहीं बताया गया कि उन दो वीरों को उनकी कार कैसे मिली! :-)

यानी Einbahnstrasse हुआ नेहरू जी के काबीना के फलाने जी का कापासिटी!

1. पण्डित नेहरू मेरे आदर्श नहीं हैं. पर उनकी "भारत एक खोज" मुझे बहुत अच्छी पुस्तक लगती है. मन होता है कि यह हिन्दी में नेट पर उपलब्ध हो. यह अलग बात है कि मन तो बहुत सी चीजों का होता है!