हिन्दू मन्दिरों में बहुत पिचिर पिचिर होती है। ढ़ेर सारे फूल-मालायें सड़ती हैं। उसपर जल, अक्षत, रोली, सिन्दूर, काजल, कड़ुआ तेल और जानबूझ कर बनाये गये संकरे रास्ते - जिससे पण्डा-पुजारी अपनी वैल्यू बना-बेंच सकें। कमोबेश सब मन्दिरों में है यह। अमूमन जितना बड़ा मन्दिर उतना ज्यादा गन्द!
इलाहाबाद में सिविल लाइंस/बस अड्डे के पास हनुमत निकेतन का मन्दिर इस मामले में बहुत साफ सुथरा है। इसको बनाने में पण्डित रामलोचन ब्रह्मचारी जी ने कुछ वैसा ही किया था, जैसे महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने के लिये किया था। अपनी साइकल पर गली कस्बे छाने थे उन्होने। लोगों ने कहा कि वे बड़ा दान दे कर बनवा देते हैं मन्दिर। पर रामलोचन जी को वह गवारा नहीं था। लोगों से एक दो रुपये चंदे के इकठ्ठे किये। इलाहाबाद के सन सत्तर के आसपास के लोगों को याद होगा अपना चन्दा देना।
और वहां पण्डितजी की साइकल और खड़ाऊं रखी है।
पण्डित रामलोचन ब्रह्मचारी जी, 1 जुलाई 1985 को निर्वाण। प्रतिमा हनुमत निकेतन मन्दिर परिसर में है।)
मेरे सीनियर ट्रांसपोर्टेशन मैनेजर, श्रीयुत श्रीमोहन पाण्डेय यहां अक्सर आते जाते रहते हैं। शायद छात्र जीवन में कुछ त्याग कर चन्दा भी दिया था मन्दिर निर्माण में। वे बेहतर इनपुट दे सकते हैं। उन्होने बताया:
मैं मन्दिर में गया तो एक कोने में प्रसाद-पेड़े की दुकान वालों के ढ़ेरों ताड़/नारियल के पत्तों के बने दोने रखे दिखाई दिये। इन दोनो के साथ वे ढ़क्कन नहीं, मात्र महुये/छियुल/बरगद (या किसी अन्य पेड़ का) सूखा पत्ता देते हैं। मुझे तो मिठाई रखने का पात्र बहुत पसन्द आया - न गत्ता, न पॉलीथीन की कोई बनावटी चीज। बायो डीग्रेडेशन का झमेला ही नहीं!
हनुमत निकेतन देख मन में विचार हो आया है कि यदा कदा दफ्तर से लौटते हुये इस मन्दिर में हो ही आया करूं। प्रसाद के रूप में पेड़ा 120 रुपये किलो है और बुन्दिया का लड्डू 140 रुपये किलो। ज्यादा बोझ नहीं डालेंगे हनुमान जी जेब पर अगर एक पाव प्रसाद लूं तो!
सही रहेगा न?!
इलाहाबाद में सिविल लाइंस/बस अड्डे के पास हनुमत निकेतन का मन्दिर इस मामले में बहुत साफ सुथरा है। इसको बनाने में पण्डित रामलोचन ब्रह्मचारी जी ने कुछ वैसा ही किया था, जैसे महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने के लिये किया था। अपनी साइकल पर गली कस्बे छाने थे उन्होने। लोगों ने कहा कि वे बड़ा दान दे कर बनवा देते हैं मन्दिर। पर रामलोचन जी को वह गवारा नहीं था। लोगों से एक दो रुपये चंदे के इकठ्ठे किये। इलाहाबाद के सन सत्तर के आसपास के लोगों को याद होगा अपना चन्दा देना।
और वहां पण्डितजी की साइकल और खड़ाऊं रखी है।
पण्डित रामलोचन ब्रह्मचारी जी, 1 जुलाई 1985 को निर्वाण। प्रतिमा हनुमत निकेतन मन्दिर परिसर में है।)
मेरे सीनियर ट्रांसपोर्टेशन मैनेजर, श्रीयुत श्रीमोहन पाण्डेय यहां अक्सर आते जाते रहते हैं। शायद छात्र जीवन में कुछ त्याग कर चन्दा भी दिया था मन्दिर निर्माण में। वे बेहतर इनपुट दे सकते हैं। उन्होने बताया:
पण्डित रामलोचन जी उस जमाने (सन 1973-74) में, जब श्रीमोहन इण्टर के छात्र थे, अपनी साइकल पर उनके कालेज में यदा कदा चले आते थे। कभी किसी कक्षा में और कभी किसी लैब में। हर छात्र रुपया अठन्नी उनकी झोली में डाल देते थे। सब में उत्साह था - मन्दिर बनना प्रारम्भ हो गया था और हर छात्र जल्दी से मन्दिर बना देखना चाहता था!पण्डित रामलोचन ब्रह्मचारी जी को भग्वद-प्रेरणा मिली सन 1937 में। सन 1957 से उन्होने चन्दा इकठ्ठा करना प्रारम्भ किया। और अब जब मन्दिर परिसर पूर्ण बन गया है, तब वहां हनुमान जी का मन्दिर, शिवालय, संग्रहालय, पुस्तकालय, योगालय, जिम्नैजियम और आयुर्वेदिक तथा होमियोपैथिक औषधालय हैं।
मैं मन्दिर में गया तो एक कोने में प्रसाद-पेड़े की दुकान वालों के ढ़ेरों ताड़/नारियल के पत्तों के बने दोने रखे दिखाई दिये। इन दोनो के साथ वे ढ़क्कन नहीं, मात्र महुये/छियुल/बरगद (या किसी अन्य पेड़ का) सूखा पत्ता देते हैं। मुझे तो मिठाई रखने का पात्र बहुत पसन्द आया - न गत्ता, न पॉलीथीन की कोई बनावटी चीज। बायो डीग्रेडेशन का झमेला ही नहीं!
ताड़/नारियल के पत्तों के दोनों का ढ़ेर | मिठाई रखा दोना, ऊपर पत्ते का ढ़क्कन |
सही रहेगा न?!
मुझे यह पुराना ब्लॉग इसकी टेम्पलेट की सुविधा के लिये प्रिय है, पर इसमें टिप्पणी व्यवस्था बेकार है।लिहाजा मै डिस्कस का एड-ऑन जोड़ कर इसी ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूं - देखता हूं, मित्रगण आते हैं या नहीं!
डिस्कस की टिप्पणी व्यवस्था का प्रयोग मैँ पहले भी कर चुका हूं -लगभग साल भर पहले और इस साइट का कहना है कि अब यह पहले से बेहतर है! देखिये!