गर्मियां आने को हैं। दस्तक दे ही दी है। बिजली की किल्लत आसन्न है। हर गली कूचे के किनारे लगे ट्रांसफार्मर गर्म हो कर बम बोलेंगे। फिर निठल्ले लोगों की फौज खड़ी हो कर घण्टों देखेगी कि कैसे ठीक करते हैं उनको बिजली कर्मी। बहुधा ट्रांसफार्मर बदले जाते हैं। उनका तेल रिसता है या चोरी जाता है!
और भी कई तरह की चीजें खराब होंगी। थर्मल या हाइडल (निर्भर करता है कि आपके इलाके के पास कौन सा बिजली का जेनरेशन सोर्स है) से बिजली जायेगी। कई बार अण्डरग्राउण्ड केबल पंक्चर हो जाया करेगी। कई बार बे मौसमी आन्धी-पानी से बिजली बन्द होगी। कई बार लगेगा कि बिजली यदा कदा जाती है तो कई दिन ऐसे लगेंगे कि बिजली यदा कदा आती है!
पर एक चीज कंटियाफंसाऊ यूपोरियन वातावरण में तय है, वह है एक्सेस कंटिया फंसाने की बदौलत बिजली के तार टूटने या बिजली जाने का नियमित खेल। यहां शिवकुटी में पिछले पांच साल से रहते हुये मैं यह खेल यूं देखता रहा हूं, जैसे धृतराष्ट्र की सभा में सभासद आये दिन शकुनि को पासे फैंकते देखते रहे होंगे - बोर होते, पर असहाय!
कंटिया फंसने के कारण जब बिजली जाती है, तब गली मुहल्ले का भलण्टियर दल सक्रिय हो जाता है। वही दल पहले कंटिया फंसाता है और बिजली फेल होने पर बिजली के दफ्तर पर धरना देता है। वे अंततोगत्वा बुला लाते हैं बिजली कर्मियों को।
अगर भलण्टियर गण न होते तो इस प्रांत का क्या होता? थीसिस बन सकती है - राज्य के बिकास (स्पैलिंग?) में भलण्टियरों का योगदान।
खैर, बिजली कर्मी आते हैं - दो साइकल सवारों का एक मल्टीपल सेट। दोनो साइकलों के बीच लम्बी सीढ़ी होती है और वे हटो हटो की आवाज लगाते चलते हैं, जिससे उनका यह जुगाड़तंत्र साइकल मल्टीपल धराशाई न हो जाये!
गंतव्य पर आ कर वे सीढ़ी खम्भे के साथ टिकाते हैं। बिजली काटी जाती है और तार जोड़े जाते हैं। लोग तमाशबीन बने देखते हैं। आधे पौने घण्टे में बिजली आती है। फिर इन तमाशबीनों में सक्षम लोग इन बिजली कर्मियों को चायपानी की दक्षिणा देते हैं। खेला खतम।
गर्मी आने लगी है और यह खेला शुरू हो गया है!
और भी कई तरह की चीजें खराब होंगी। थर्मल या हाइडल (निर्भर करता है कि आपके इलाके के पास कौन सा बिजली का जेनरेशन सोर्स है) से बिजली जायेगी। कई बार अण्डरग्राउण्ड केबल पंक्चर हो जाया करेगी। कई बार बे मौसमी आन्धी-पानी से बिजली बन्द होगी। कई बार लगेगा कि बिजली यदा कदा जाती है तो कई दिन ऐसे लगेंगे कि बिजली यदा कदा आती है!
पर एक चीज कंटियाफंसाऊ यूपोरियन वातावरण में तय है, वह है एक्सेस कंटिया फंसाने की बदौलत बिजली के तार टूटने या बिजली जाने का नियमित खेल। यहां शिवकुटी में पिछले पांच साल से रहते हुये मैं यह खेल यूं देखता रहा हूं, जैसे धृतराष्ट्र की सभा में सभासद आये दिन शकुनि को पासे फैंकते देखते रहे होंगे - बोर होते, पर असहाय!
कंटिया फंसने के कारण जब बिजली जाती है, तब गली मुहल्ले का भलण्टियर दल सक्रिय हो जाता है। वही दल पहले कंटिया फंसाता है और बिजली फेल होने पर बिजली के दफ्तर पर धरना देता है। वे अंततोगत्वा बुला लाते हैं बिजली कर्मियों को।
अगर भलण्टियर गण न होते तो इस प्रांत का क्या होता? थीसिस बन सकती है - राज्य के बिकास (स्पैलिंग?) में भलण्टियरों का योगदान।
खैर, बिजली कर्मी आते हैं - दो साइकल सवारों का एक मल्टीपल सेट। दोनो साइकलों के बीच लम्बी सीढ़ी होती है और वे हटो हटो की आवाज लगाते चलते हैं, जिससे उनका यह जुगाड़तंत्र साइकल मल्टीपल धराशाई न हो जाये!
गंतव्य पर आ कर वे सीढ़ी खम्भे के साथ टिकाते हैं। बिजली काटी जाती है और तार जोड़े जाते हैं। लोग तमाशबीन बने देखते हैं। आधे पौने घण्टे में बिजली आती है। फिर इन तमाशबीनों में सक्षम लोग इन बिजली कर्मियों को चायपानी की दक्षिणा देते हैं। खेला खतम।
गर्मी आने लगी है और यह खेला शुरू हो गया है!
अरे सर, यह भी भला कोई परेशान होने की चीज है. यह तो रोज का काम है, बिल्कुल अनिवार्य दैनिक कार्यों की तरह. भारत है तो जुगाड़ क्यूं न होगा.
ReplyDeleteएक बार, कुछ समय मैंने रायबरेली—इलाहाबाद के बीच उंचाहार में बिताया था. तब मैं पोर्टेबल टी.वी. 12 वोल्ट की कार बैटरी पर चलाया करता था...लगता है बिजली की स्थिति में आज भी कोई ख़ास सुधार नहीं ही हुआ है
ReplyDeleteराम-कृष्ण-बुद्ध-शिव के यूपी के दो साइकल बीच सीढी के यह दृश्य मुझे भी याद हैं। कुछ बदला है कुछ बदलेगा परंतु बहुत कुछ शायद वैसा ही रहने को अभिशप्त है।
ReplyDeleteइसे विडम्बना ही कहा जायगा कि यदि किसी के पास पैसा है, संसाधन है तो वह चाहे जितनी बिजली अपने बिल्डिंग, कमरों या बंगलो को चकाचक दिखाने में बरबाद कर देगा....ऐसी लाइटें लगायेगा जो कि डायरेक्ट आँखों पर न पड़े और किसी डेकोरेटिव पीस के पीछे लाइटें छुपी हों और उनके रिफ्लेक्शन से ही कमरा रोशन हो....(भले ही डेकोरेटिव पीस के पीछे लाइट अपने पूरी क्षमता से और पूरे वोल्टेज के साथ उर्जा खर्च करे)
ReplyDeleteदूसरी ओर ऐसे लोगों की तादाद करोड़ों में है जो इनडायरेक्ट लाइट तो क्या डायरेक्ट लाइट के उजाले को तरसते हैं, पैसा देने पर भी पावर कट झेलते हैं। ऐसे में कंटिया लगाना एक तरह से सरकारों के खिलाफ ढके छुपे आक्रोश को अभिव्यक्त करने का माध्यम ही समझूंगा ....ऐसा आक्रोश जिसमें कि वंचित वर्ग की जरूरतों के पूरे होने का जुगाड़ हो।
मुंबई में ऐसी ढेरों इमारतें हैं जिनकी बाहरी दीवारों पर असंख्य लाइटें रातभर जलती बुझती रहती हैं, भले ही उन इमारतों की खूबसूरती को कोई देखने वाला हो या न हो.
(संभवत: देर रात में लाइटें बुझा देने पर इमारत की बेइज्जती खराब होने का खतरा है :)
दो साइकिलों में अटकी सीढ़ी की ही तरह हमारी व्यवस्थायें भी चल रही हैं, पहले से चिल्ला चिल्ला कर सचेत करना पड़ता है सबको।
ReplyDeleteटिकठी का आभास कराती पहली तस्वीर.
ReplyDeleteअगर भलिण्टर को तार लग गया तो लेने के देने पड जाएंगे :)
ReplyDeleteअगर सरकार बिजली का सही और सुचारू वितरण कम दरों पर सुनिश्चित करे तो ये कंटिया समस्या अपने आप खत्म होगी.. और ज्यादा गरीब लोगों को मुफ्त बिजली देने में भी कोइ अरबों-खरबों डॉलर का बोझ नहीं पड़ने वाला सरकार पर.. एक-दो तो कमरे होते हैं अधिकाँश कंटिया वालों के पास...
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने - यह खेला चलता रहेगा। हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता की तरह। सनातन से प्रलय तक।
ReplyDeleteयह पोस्ट wordpress पर क्यों नहीं आई?
ReplyDeletemast likha hai sahab.bade dino baad hindi padhi hai.aanand aa gaya
ReplyDelete