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Saturday, September 22, 2007
श्रीलाल शुक्ल जी के विषय में एक और पोस्ट
मैं आज1 दिल्ली में रहा. रेल भवन में अपने मित्रों से मिला. मैने कुछ समय पहले श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल पर एक पोस्ट लिखी थी जिसमें जिक्र था कि उनका दामाद सुनील मेरा बैचमेट है. मैं रेल भवन में उन सुनील माथुर से भी मिला. सुनील आजकल एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं भारतीय रेल के और स्टील का माल यातायात वहन का कार्य देखते हैं. निहायत व्यस्त व्यक्ति हैं. रोज के यातायात परिचालन के खटराग के अतिरिक्त उनके पास दर्जनों माल-वहन विषयक रिपोर्टें अध्ययन हेतु पड़ी थीं, जिनको पढ़ कर उन्हे भविष्य में आने जा रही रेल परियोजनाओं पर अपनी अनुशंसा देनी थी. इतनी रिपोर्टों के सामने होने पर मैं अपेक्षा नहीं करता था कि सुनील ने श्रीलाल शुक्ल जी का साहित्य पढ़ा होगा.
पर सुनील तो बदले हुये व्यक्ति लगे. ट्रेनिंग के दौरान तो मैं उन्हे रागदरबारी के विषय में बताया करता था. अब उन्होने मुझे बताया कि उन्होनें श्रीलाल शुक्ल जी का पूरा साहित्य पढ़ लिया है. मैने सुनील को अपनी उक्त लिंक की गयी पोस्ट दिखाई तो अपने सन्दर्भ पर सुनील ने जोरदार ठहाका लगाया. उसमें प्रियंकर जी की एक टिप्पणी में यह था कि "सेण्ट स्टीफन" का पढ़ा क्या रागदरबारी समझेगा (सुनील के विषय में यह टिप्पणी थी); रागदरबारी तो समझने के लिये "गंजहा" होना चाहिये - इसपर सुनील ने तो ठहाके को बहुत लम्बा खींचा. उनकी हंसती फोटो मैने उतार ली!
(श्री सुनील माथुर)
श्रीलाल शुक्ल जी के विषय में बात हुई. सुनील ने बताया कि आजकल वे शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं महसूस कर रहे. हृदय सम्बन्धित समस्यायें हैं. पर मानसिक रूप से उतने ही चैतन्य और ऊर्जावान हैं, जितना पहले थे. लेखन जरूर आजकल नहीं चल रहा है. सुनील ने बताया कि उन्होने और उनकी पत्नी ने शुक्ल जी को कई बार दिल्ली आ जाने के लिये कहा पर वे आये नहीं. लखनऊ में इन्द्रा नगर में उनके घर से सटा एक डाक्टर साहब का घर है और डाक्टर साहब के घर से सटा उनका अस्पताल. पिछली बार जब श्रीलाल शुक्ल जी को हृदय की तकलीफ हुई थी तब बगल में डाक्टर साहब के मकान/अस्पताल होने के कारण समस्या का समय रहते निदान हो पाया था.
सुनील ने बताया कि दो वर्ष पहले दिल्ली में श्रीलाल शुक्ल जी के अस्सी वर्ष का होने पर जन्म दिन समारोह हुआ था. उसमें शुक्ल जी आये थे. उस अवसर के बारेमें एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है. सुनील के पास चैम्बर में उसकी प्रति नहीं थी. वे बाद में मुझे भिजवायेंगे यह वादा सुनील ने किया है.
कुल मिला कर सुनील के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल और उनके ग्रन्थों की पुन: याद का अवसर मिला - यह मेरे लिये बहुत सुखद रहा. उस समय सुनील के कमरे में हमारे एक उड़िया मित्र श्री गुरुचरण राय भी आ गये थे. श्री राय ने बताया कि उन्होने रागदरबारी उड़िया अनुवाद में सम्पूर्ण पढ़ा है! श्रीलाल शुक्ल जी के भक्त हिन्दी भाषा की सीमाओं के पार भी बहुत हैं!
1. यह पोस्ट 20 सितम्बर को नयी दिल्ली स्टेशन के सैलून साइडिंग में लिखी गयी थी; विण्डोज़ लाइवराइटर पर. आज पब्लिश कर रहा हूं.
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बढ़िया है।
ReplyDeleteशुक्ल जी और परसाई जी हिंदी व्यंग्य लेखन के दो प्रमुख स्तंभ हैं ।
ReplyDeleteहम इन दोनों के शैदाई हैं । रागदरबारी पर बनाया गया सीरीयल अब डी वी डी पर उपलब्ध है ।
आपको याद होगा । अच्छा सीरीयल बना था ।
मित्रों से इसकी पैरवी की जा सकती है ।
अच्छा चित्र खींचा आपने. गंजहों की यही कामना है की बैद्य जी बने रहें और खन्ना मास्टर के आदमियों का नाश हो.
ReplyDeleteसाल भर पहले शुक्ला जी को देखा था- इंदिरा नगर में ही किसी सरकारी आयोजन में. एकदम tinich लग रहे थे. इश्वर उन्हें स्वस्थ रखे और फ़िर कोई राग सुनवाए.
विवरण बढ़िया है!!
ReplyDeleteपुराने बैचमेट से मिलना और पुराने दिनों की याद ताज़ा करना एक अलग ही सकून/अनुभूति दे जाता है, आशा करता हूं कि आपने भी इसे अनुभव किया होगा!
राग-दरबारी सीरियल की डी वी डी के बारे में युनूस भाई से जानकारी लेनी होगी क्योंकि बड़े भाई को गिफ़्ट करने के लिए सही चीज है यह!
साहित्य, साहित्यकार और जिंदगी के रिश्तों को समझने में मददगार अच्छा संस्मरण। शुक्रिया...
ReplyDeleteआपके प्रयास सराहनीय है और में अपने ब्लॉग पर आपका ब्लॉग लिंक कर दिया है।
ReplyDeleteनमस्कार ज्ञानदत्तजी, श्रीलाल शुक्लजी के बारे में अपडेट हेतु अनेक धन्यवाद। राग दरबारी की स्मृतियाँ तिबारा ताजा हो गईं।
ReplyDeleteज्ञान जी श्रीलाल जी हिंदी के बहु पठित लेखक हैं। मेरी जानकारी में उनके जितना पढ़ा लिखा लेखक और कोई नहीं। साथ ही वे अगर मूड़ में हो तो गपियाते भी खूब हैं। मैं उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना रखता हूँ।
ReplyDeleteप्रणाम स्विकार करें..
ReplyDeleteउस दिन आपकी टिप्पणी पढ कर अच्छा लगा, वो मेरे जैसे शौकिया और नये लेखक के लिये उत्साहवर्धन जसा ही कुछ था।
उस दिन मैं अपने ब्लौग के रंग-रूप पर कुछ काम कर रहा था, जब आपने अपने विचार रखे थे.. अब मेरे ब्लौग के सारे फ़ौन्ट सही है.. कृपया अब आप वहां पढारें, आपको कोई शिकायत नहीं होगी।
क्या किसी ने श्रीलाल जी को बताया है कि वे हिन्दी चिट्ठाजगत में कितने लोकप्रिय हैं?
ReplyDeleteमैंने श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी के साथ और भी कुछ किताबें पढी है पर नाम याद नहीं है.. राग दरबारी इसिलिये याद रह गया क्योंकि पिछले ही साल ये पढा था..
ReplyDeleteश्रीलाल जी का लिखा हुआ बहुत ही रोचक होता है..
मैं उनके जल्द ही अच्छे होने की कामना करता हूं..
श्रीलाल जी हमारे बड़े लेखक हैं . एक-दो बार मिलने का मौका मिला है,पर कार्यक्रम की अफ़रा-तफ़री में कुछ गत की आत्मीय बात हुई हो ऐसा मौका नहीं मिला . लेकिन उनका लिखा इतनी बार पढा है कि मिलने पर किसी भी तरह का अपरिचय नहीं लगेगा . १९८० में जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था और थोड़ी-बहुत साहित्यगीरी छांटता था तब अपने फूफाजी के यहां उनकी 'रिकमंडेशन' पर पहली बार 'राग दरबारी' पढा था . वे भी श्रीलाल जी की तरह पी.सी.एस. में थे . तब से तो मैं ही कई बार 'राग दरबारी' पढ चुका हूं और सैकड़ों लोगों को 'राग दरबारी' पढवा चुका हूं .हिंदी के वे उपन्यास जो मुझे सबसे अच्छे लगते हैं,यानी हिंदी उपन्यास के नाम पर सबसे पहले याद आते हैं, गोदान,मैला आंचल,आधा गांव,राग दरबारी और कसप. और हज़ारी बाबू के अनूठे उपन्यास -- पसंदीदा क्लासिक्स : बाणभट्ट की आत्मकथा और अनामदास का पोथा
ReplyDeleteअपने ससुर साहब की तरह सुनील जी का 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' भी जमताऊ है . वरना अपनी उस टिप्पणी पर मैं तो उनके नाराज होने की आशंका में था . तस्वीर में उनका प्रफुल्लित चेहरा देख कर बहुत अच्छा लगा . साहित्य का टॉनिक मानवीय संवेदना और हंसी को बचाये-बनाए रखता है . वरना तो अफ़सर पायदान पर जितना ऊपर की ओर जाता है 'चिंतामणि' होता जाता है .
सेलून में बैठकर आपने यह बहुत सार्थक कार्य किया कि उनके दामाद जी से भी मुलाकात करवा दी.
ReplyDeleteराग दरबारी का तो खैर क्या कहना-जितनी बार पढ़ो-एकदम नया और ताजा.
युनूस डीवीडी की उपलब्धता पर और प्रकाश डालें.
और ज्ञान जी, आप कोशिश कर ज्यादा समय सेलून में बितायें. सही विचार उठ रहें हैं वहाँ से. शुभकामनायें.
शुक्ल जी शीघ्र स्वस्थ हों, यही कामना है,
Gyan Dutt Ji ke blog ke dwara apne Papa ke itne fans se milne ka mauka mila hai. Stephanian Sunil mere hi pati hain. Jaisa ki Sunil ke batchmate Gyan Dutt Ji ne kaha, Sunil ab Raag Darbari padhne ke baad sahi mayne mein padhe-likhon mein shaamil ho gaye hain aur aaj ye blog padhne ke baad use phir se padhne baith gaye hain!
ReplyDeleteBy the way, Papa ki 80th birthday par unke lekhan aur vyaktitva par jo volume release ki gayi thi vo bikri ke liye nahin thi parantu uski kuchh pratiyan mere paas hain. Us granth mein Papa ke mitron, sahyogiyon, aalochakon aur parivaar ke lagbhag sabhi sadasyon ke sansmaran hain. Saath mein Papa ke kuchh lekh aur kahaniyan bhi hain. Puraani tasveerein bhi hain. Hum sabhi (including Sunil and the grandchildren of the family) ne Papa ke baare mein kuchh na kuchh likha hai.
Ghar ke sabhi bachchon ya naati-poton ke dimaag mein unke baare mein net par likhne ka vichaar to aaya nahin. Sab ke sab computer savvy hain parantu nihaayat aalsi. Main bhi. Par Gyan Dutt Ji ke prayaas se ye sambhav ho saka ki log Papa ke baare mein soch rahe hain, padh rahe hain aur likh rahe hain aur usse mujhe bahut hi garv ho raha hai.
Pandey Ji bahut bahut dhanyavaad.
Ye comment angrezi mein isliye hai kyonki ghar ke computer par Hindi ka koi font uplabdh nahi hai! Agli baar ise theek kar doongi.
विनीता माथुर (सुनील माथुर की पत्नी और श्रीलाल शुक्ल जी की पुत्री) की ऊपर लिखी रोमनागरी में हिन्दी टिप्पणी का देवनागरी लिप्यान्तर:
ReplyDeleteज्ञान दत्त जी के ब्लॉग के द्वारा अपने पापा के इतने फ़ैंस से मिलने का मौका मिला हैं. स्टेफनियन सुनील मेरे ही पति हैं. जैसा की सुनील के बैचमेट ज्ञान दत्त जी ने कहा, सुनील अब राग दरबारी पढने के बाद सही मायने में पढे-लिखों में शामिल हो गए हैं और आज ये ब्लॉग पढने के बाद उसे फिर से पढने बैठ गए हैं!
बाय द वे, पापा की ८०वीं बर्थडे पर उनके लेखन और व्यक्तित्व पर जो वाल्यूम रिलीज की गयी थी वो बिक्री के लिए नहीं थी परंतु उसकी कुछ प्रतियाँ मेरे पास हैं. उस ग्रंथ में पापा के मित्रों, सहयोगियों, आलोचकों और परिवार के लगभग सभी सदस्यों के संस्मरण हैं. साथ में पापा के कुछ लेख और कहानियाँ भी हैं. पुरानी तसवीरें भी हैं. हम सभी (including Sunil and the grandchildren of the family) ने पापा के बारे में कुछ न कुछ लिखा हैं.
घर के सभी बच्चों या नाती-पोतों के दिमाग में उनके बारे में नेट पर लिखने का विचार तो आया नहीं. सब के सब कंप्यूटर सैवी हैं परंतु निहायत आलसी. मैं भी. पर ज्ञान दत्त जी के प्रयास से ये संभव हो सका की लोग पापा के बारे में सोच रहे हैं, पढ़ रहे हैं और लिख रहे हैं और उससे मुझे बहुत ही गर्व हो रहा हैं.
पाण्डेय जी बहुत बहुत धन्यवाद.
ये कमेंट अंग्रेजी में इसलिये हैं क्योंकि घर के कंप्यूटर पर हिंदी का कोई फॉण्ट उपलब्ध नही हैं! अगली बार इसे ठीक कर दूँगी .
ये लीजिये सुनील माथुरजी का संस्मरण जो उन्होंने अपने ससुर श्रीलालजी के बारे में लिखा है।हंसी के साथ-साथ सुनील जी का लेखन भी गजब का है।
ReplyDeleteइतना अच्छा लेख और इतनी सारी आत्मीय टिप्पणियां. पढ कर अभिभूत हो गया हूं
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