उत्तर-मध्य रेलवे के हिन्दी पखवाड़ा समारोह से आ रहा हूं. पखवाड़ा समारोह माने एक राजभाषा प्रदर्शनी, गायन का कार्यक्रम, भाषण, एक प्लेट (पर्याप्त) अल्पाहार, पनीली कॉफी और पुरस्कार वितरण का समग्र रूप. हर साल की तरह इस साल का कार्यक्रम.
मुख्य अतिथि के लिये अशोक वाजपेयी जी को बुलाया गया था. वे लपेट-लपेट कर हिन्दी प्रयोग/हिन्दी विभाग की दिशा, दशा, महादशा और दुर्दशा पर ४० मिनट बोल गये. जब कर्ता धर्ता थे तब तो हिन्दी विभाग चलाते रहे. अब कहते हैं (और माकूल कहते हैं) कि हिन्दी प्रपंच का यह विभाग बंद कर देना चाहिये जो शब्दकोष देख कर हिन्दी अनुवाद करता हो.
मस्त भाषण झाड़ा वाजपेयी जी ने. हमें भी लग रहा है कि हिन्दी की सरकारी राशन की दूकान बन्द हो; असहज लेखन की बाध्यता समाप्त हो. हिन्दी राजभाषा रहने और बनने के टेन्शन से मुक्त हो. वैसे भी आजादी से पहले कौन सा सरकारी संरक्षण से हिन्दी फली फूली और आजादी के बाद भी सरकारी पत्र-पत्रिकाओं या फ़ाइलों से हिन्दी का कितना विकास हुआ? विकास में योगदान में तो शायद हिन्दी फिल्में और हिन्दी टेलीवीजन ज्यादा प्रभावी रहे हैं.
हिन्दी के मन माफिक प्रयोग पर आज भी कोई बैन नहीं है! पर हिन्दी की प्यूरिटी वाले टांय-टांय जरूर करते हैं. जैसा वाजपेयी जी ने कहा कई-कई ईंग्लिशेज (Englishes) हैं; उसी तरह कई-कई हिन्दियां बनें!
हमारी घरेलू हिन्दी का पुरोहित तो भरत लाल (हमारा बंगला चपरासी) है. जो आज कल परेशान है कि "एक रिंगटोनवा के लिये मोबैलिया पर टीप दिहा त भक्क से १५ रुपिया निकरि गवा"! (एक रिंग टोन के लिये मोबाइल पर बटन दबा दिया तो भक्क से १५ रुपया निकल गया प्री-पेड खाते से!) अब इससे मस्त हिन्दी भला क्या बतायेंगे आप.
देखिये, अब भरतलाल के आने पर हम विषयान्तर कर रहे हैं; जो ब्लॉग पर जायज है.
भरतलाल खिड़की के सामने खड़ा हो कर बहती हवा और फुहार का मजा ले रहा था. कन्धे पर डस्टिंग का कपड़ा. काफी देर आनन्द लेने पर उसे लगा कि आनन्द शेयर किया जाये. तो वहीं खड़े खड़े बोला - "हवा बहुत मस्त चलतबा. झिंचक! कि नहीं बेबी दीदी!"
"कि नहीं बेबी दीदी" उसका तकिया कलाम है. बेबी दीदी यानी मेरे पत्नी. जब भी उसे किसी बात पर हुंकारी भरानी होती है तो बात बता कर जोड़ता है - "कि नहीं बेबी दीदी"!
और बेबी दीदी अगर प्रसन्न हुईं तो कहती हैं - "हां, किनहे!" और अगर मूड नहीं जम रहा तो कहती हैं - "ढ़ेर मठ्ठरबाजी मत कर. काम जल्दी कर. नहीं तो तेरा सिर तोड़ दूंगी." दोनो ही एक तरंगित हिन्दी का पाल लगाते हैं दैनिक चर्या के जहाज पर! जहाज मस्त डोलता लहराता चलता है. न जाने दिन में कितनी बार टूटता है भरतलाल का सिर. सिर तोड़ने को भरतलाल ऐसे प्रसन्न मन से लेता है जैसे राजभाषा शील्ड प्राप्त कर रहा हो.
खैर, मित्रों, अगर राजभाषा विभाग बंद कर दिया गया तो हम भरतलाल छाप हिन्दी की वकालत और प्रयोग करेंगे. एक आध पीएचडी-एलएसडी भी ठोक देंगे भरतलाल ब्राण्ड हिन्दी पर!
(यह पोस्ट शुक्रवार शाम को लिखी गयी. पाइपलाइन में थी. छपने का नम्बर आज लगा.)
एक रिंगटोनवा के लिये मोबैलिया पर टीप दिहा त भक्क से १५ रुपिया निकरि गवा
ReplyDelete---वाह, क्या हिन्दी का निखार है, सच में.
वैसे बेबी दीदी को सादर प्रणाम... और आपके लिए:
"ढ़ेर मठ्ठरबाजी मत कर. काम जल्दी कर. नहीं तो तेरा सिर तोड़ दूंगी."
काहे से कि इस पखवाड़ा समारोह में कवि सम्मेलन काहे नहीं रखे...कवियों से का परेसानी बा हो??
हिन्दी को संपर्क भाषा ही रहने दिया जाए. राजभाषा के चक्कर में इसकी बहुत मिट्टी पलीद बुई है.
ReplyDeleteसही है जी, यही हिन्दी रसमयी है। यही रस हिन्दी को जिन्दा रखेगा हमेशा।
ReplyDeleteजिस तरह कोटा-परमिट राज खत्म किया जा रहा है, उसी तरह राजभाषा विभाग को तत्काल बंद कर देना चाहिए। भाषा में जिंदगी में लहक कर बढ़ती है न कि सरकारी फाइलों और बाबुओं की कोशिश से।
ReplyDeleteसरकारी हिन्दी हमें भी हजम नहीं होती, तो हर दुसरा शब्द अंग्रेजी का हिन्दी के विकास के नाम पर भी मंजुर नहीं. देसज शब्द ज्यादा से ज्यादा आये यही कामना है.
ReplyDeleteसहमत। जब तक हिन्दी के ठेकेदार रहेंगे तब तक समस्या बनी रहेगी।
ReplyDeleteअगर देखा जाए तो हिन्दी को मृत दशा तक पहुँचाने के लिए ये सरकारी भाषा ही जिम्मेदार है, इतनी क्लिष्ठ लिखते है कि लिखने वाला भी अगर दो हफ़्ते बाद पढे तो ऊपर से निकल जाए। हिन्दी मे लिखी फाइल मिलते ही आफिसर लोग दन्न से अपने बाबू को फोन करके बोलते है, अरे यार! इसके ऊपर अंग्रेजी वाली चिप्पी लगाकर भेजा करो,तभी कुछ समझ आएगा।
ReplyDeleteऊपर से ये हिन्दी दिवस वाले, हर साल ऐसे मनाते है जैसे मातम करते हो, हिन्दी का हर साल, श्राद्द टाइप का, खा-पीकर टुन्न रहते है, और हिन्दी का रोना अलग से। दो दिन बाद सभी फिर वापस अपने ढर्रे पर लौट आएंगे, फिर ये लोग इकट्ठा होंगे, अगले श्राद्द पर।
जी हिंदी के पंडों को, मुस्टडों को दंड पेलने के लिए जो पखवाड़ा मिलता है, उसे हिंदी पखवाड़ा बोलते हैं। और हिंदी विभागों, राजभाषा अनुभागों को बंद करने के पक्ष में अपन एकैदम नहीं है। इसलिए कि भारत सरकार बहुत तरीके से पैसा वेस्ट कर रही है,इसमें थोड़े रोचक च चौंचक तरीके से हो जाता है। हम जैसे एकाध हजार मार कर ले आते हैं। सीनियर हो जायेंगे, तो ज्यादा मार कर लायेंगे। चलने दीजिये,आईएएसआफीसर जहां करोड़ों मारे पड़े हैं,वहां लेखक टाइप लोग एकाध हजार मार लें, तो क्या हर्ज है जी।
ReplyDeleteबाकी हिंदी चल रही है भरत लालजी और बेबीदीदीजी के सहारे ही।
हिंदी पखवाड़ा को तर्पण के रूप में लेता हूँ। इसे चलने दें भाई। कितने तथाकथित दिव्य लोगों की आत्मा के इसी पखवाड़े का इंतजार रहता है। भाषा के नाम पर यह बेजोड़ प्रहसन है पर्दा न गिराएँ चालू रहने दें। यह सरकारी खेल....।
ReplyDeleteबहुत सरस लिख रहे हैं....और मुझे मिर्च लग रही है....अँगुली तोड़ा के बैठोल भया हूँ....
जिए जिए भरतलात और उसके जैसे अन्य जो झिंचक कहते रहते हैं!!
ReplyDeleteजी हिंदी के पंडों को, मुस्टडों को दंड पेलने के लिए जो पखवाड़ा मिलता है, उसे हिंदी पखवाड़ा बोलते हैं। और हिंदी विभागों, राजभाषा अनुभागों को बंद करने के पक्ष में अपन एकैदम नहीं है। इसलिए कि भारत सरकार बहुत तरीके से पैसा वेस्ट कर रही है,इसमें थोड़े रोचक च चौंचक तरीके से हो जाता है। हम जैसे एकाध हजार मार कर ले आते हैं। सीनियर हो जायेंगे, तो ज्यादा मार कर लायेंगे। चलने दीजिये,आईएएसआफीसर जहां करोड़ों मारे पड़े हैं,वहां लेखक टाइप लोग एकाध हजार मार लें, तो क्या हर्ज है जी।
ReplyDeleteबाकी हिंदी चल रही है भरत लालजी और बेबीदीदीजी के सहारे ही।
हिंदी पखवाड़ा को तर्पण के रूप में लेता हूँ। इसे चलने दें भाई। कितने तथाकथित दिव्य लोगों की आत्मा के इसी पखवाड़े का इंतजार रहता है। भाषा के नाम पर यह बेजोड़ प्रहसन है पर्दा न गिराएँ चालू रहने दें। यह सरकारी खेल....।
ReplyDeleteबहुत सरस लिख रहे हैं....और मुझे मिर्च लग रही है....अँगुली तोड़ा के बैठोल भया हूँ....
अगर देखा जाए तो हिन्दी को मृत दशा तक पहुँचाने के लिए ये सरकारी भाषा ही जिम्मेदार है, इतनी क्लिष्ठ लिखते है कि लिखने वाला भी अगर दो हफ़्ते बाद पढे तो ऊपर से निकल जाए। हिन्दी मे लिखी फाइल मिलते ही आफिसर लोग दन्न से अपने बाबू को फोन करके बोलते है, अरे यार! इसके ऊपर अंग्रेजी वाली चिप्पी लगाकर भेजा करो,तभी कुछ समझ आएगा।
ReplyDeleteऊपर से ये हिन्दी दिवस वाले, हर साल ऐसे मनाते है जैसे मातम करते हो, हिन्दी का हर साल, श्राद्द टाइप का, खा-पीकर टुन्न रहते है, और हिन्दी का रोना अलग से। दो दिन बाद सभी फिर वापस अपने ढर्रे पर लौट आएंगे, फिर ये लोग इकट्ठा होंगे, अगले श्राद्द पर।
जिस तरह कोटा-परमिट राज खत्म किया जा रहा है, उसी तरह राजभाषा विभाग को तत्काल बंद कर देना चाहिए। भाषा में जिंदगी में लहक कर बढ़ती है न कि सरकारी फाइलों और बाबुओं की कोशिश से।
ReplyDeleteसहमत। जब तक हिन्दी के ठेकेदार रहेंगे तब तक समस्या बनी रहेगी।
ReplyDeleteहिन्दी को संपर्क भाषा ही रहने दिया जाए. राजभाषा के चक्कर में इसकी बहुत मिट्टी पलीद बुई है.
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