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Saturday, September 8, 2007
गड़बड़ रामायण - आम जनता का कवित्त
बचपन से गड़बड़ रामायण सुनते आये हैं. फुटकर में चौपाइयां - जिनको कुछ न दिमाग में आने पर अंत्याक्षरी में ठेला जाता था! पर कोई न कोई वीटो का प्रयोग कर कहता था कि यह तो तुलसी ने लिखा ही नहीं है. फिर वह नहीं माना जाता था. पर होती बहुत झांव-झांव थी.
यह सामग्री ब्लॉग के लिये उपयुक्त मसाला है. जिसे देख कर साहित्य के धुरन्धर और हिन्दी की शुद्धता के पैरोकार सिर धुनें!
लगता है कि अंत्याक्षरी के लिये या पूर्णत पैरोडी रचना के लिये गड़बड़ रामायण के चौपाई-दोहे बनाये गये होंगे. मुझे नहीं मालूम कि इनका कोई संकलन कहीं हुआ है या नहीं. पर एक प्रयास किया जाना चाहिये. कुछ जो मुझे याद है, वह हैं:
1. लंका नाम राक्षसी एका. रामचन्द के मारई चेका.
2. एण्टर सिटिहिं डू एवरी थिंगा. पुटिंग हार्ट कोशलपुर किंगा. (प्रबिसि नगर कीजै..... )
3. आगे चलहिं बहुरि रघुराई. पाछे लछमन गुड़ गठियाई.
4. आगे चलहिं बहुरि रघुराई. पाछे लखन बीड़ी सुलगाई.
5. सबलौं बोलि सुनायेसि सपना. साधउ हित सब अपना अपना.
6. जात रहे बिरंचि के धामा. गोड़े तक पहिरे पैजामा.
7. लखन कहा सुनु हमरे जाना. जाड़े भर न करहु अस्नाना.
8. अंगद कहहिं जाहुं मैं पारा. गिरा अढ़इया फुटा कपारा.
9. अंगद कहहिं जाहुं मैं पारा. मिले न भोजन फिरती बारा.
10. नाक-कान बिनु भगिनि निहारी. हंसा बहुत दीन्हेसि तब गारी.
11. जब जब होहिं धरम कइ हानी. तब तब पुरखा पावहिं पानी.
12. सकल पदारथ हैं जग माहीं. बिनु हेर फेर पावत नर नाहीं.
13. रहा एक दिन अवधि अधारा. गये भरत सरजू के पारा.
14. सुन्हहु देव रघुबीर कृपाला. अब कछु होइहैं गड़बड़ झाला.
आगे तुलसी बाबा के भक्तगण जोड़ने का प्रयास करें!
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बढ़िया.. इनके अलावा कुछ ऐसे भी सुनाए जाते थे.. जिनकी भाषा के भदेस प्रयोग से साफ़ होता था कि वे शुद्ध लोक परम्परा के है.. लेकिन नाम तुलसी बाबा का ही रहता..
ReplyDeleteआज कल आहत भावनाएं वाले लोग उन चौपाइयों पर प्रयोक्ता व्यक्तियों को खुले जुतियाना/लतियाना और दंगा-फ़साद भी कर सकते हैं.. जो बीस साल पहले लोग हँसते-हँसते एक दूजे को सुनाते.. और न राम-सीता-लखन सम्बन्ध पर कोई आँच आती और न बाबा तुलसी पर..
पांडेयजी गड़बड़ करवाइन। आपन कथा आपहि सुनवाइन।
ReplyDeleteसुना रहे बजा बजा के डंका
ReplyDeleteज्ञान भाई पहुचे श्री लंका
लिखत लिखत हम जे दुहराई
इहा नहि कोई,पंगा भाई
:)
..........से लिखा लिलारा, का करिहैं अवधेश कुमारा
ReplyDeleteभी खूब चलता है.
रावण जी अपने चेलों-चपाटों को मुश्किल में छोड़कर रात में लंका से पलायन कर देते हैं.....
ReplyDeleteइहाँ निसाचर रहें सुशंका
जबसे रावण छोड़ा लंका
ये झूंसी में मिलने वाले तरबूज का विज्ञापन हो सकता है...
भूखे पेट फिरे हनुमाना
झूंसी में खाए हरिमाना
कुछ हम अभी सोचे हैं;
ReplyDeleteपता नहीं क्यों, लेकिन ये वाला अपने आप मुँह से निकल आता है;
लंका जारि चले हनुमाना
बाल्मीकि तब भये सायाना
ये वाला शायद अमेरिका के लिए ठीक है;
नाथ सकल संपदा हमारी
सारी दुनिया देती गारी
ये वाला कुछ नास्तिक टाईप लोग कह सकते हैं;
राम नाम कहु बाराम्बारा
गिरे पसेरी फुटे कापारा
इस परंपरा के कई छंद अपने पास हैं, पर वे अछप्य हैं, वाचिक परंपरा के हैं। कभी मुलाकात होगी, तो सुनायेंगे।
ReplyDeleteअभी तो एकाध ये सुनिये
तुलसीदास ने कथा बखानी
कोऊ नृप होय, हमें ही हानी
अरसों पहले गोरखपुर से ही गड़बड़ रमायाण भी छ्पी थी एकदम छोटी सी कुँजी जैसी.
ReplyDeleteअभय जी ठीक कह रहे हैं कि आज तो विवाद ही हो जाये मगर उस वक्त सभी ने खुब मजे ले लेकर हँसी मजाक को हँसी मजाक में ही लिया.
हर घर में तो पढ़ी गई/ या कम से कम कुछ हिस्से तो जरुर सुने गये.
@ आप सब टिप्पणी करने वाले -
ReplyDeleteगड़बड़ रामायण ब्लॉग पर ठूंसना केवल इस ध्येय से था कि स्पष्ट हो सहे - जब तक जनता में भाषायी क्रियेटिविटी है, तब तक हिन्दी के भविष्य को लेकर बहुत ज्यादा चिल्ल-पों की जरूरत नहीं है.
पिछले कुछ दिनों से हिन्दी की पुस्तकें पढ़ रहा हूं - परसाईजी से विभूतिनारायण राय तक. और सब मस्त लग रहा है - गड़बड़ और मस्त!
राम - रवन्ना ,दुई जन्ना,
ReplyDeleteइक ठाकुर , इक बाम्हन्ना ।
इक ने इक की मेहर चुराई ,
इक ने इक को मार गिराई ।
लिखे तुलसीदास पोथन्ना ,
राम-रवन्ना दुई जन्ना ।
मस्त है!!
ReplyDeleteमजा आया पढ़कर । अदभुत है ।
ReplyDeleteकिसी अभद्र व्यक्ति का योगदान यह है:
ReplyDeleteरामचन्द्र दुख द्वन्द निवारन
भैंसि भागि गै बिना केंवारन
वाह वाह ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteई पोस्ट अऊर टिप्पणी पढ़ि के मन परसन्न हुई गवा। तबहीं तो तुलसी बाबा कहत राहें,
रघुकुल रीति सदा चली आई, जनता काटी नेतुआ खाई,
:)
देर से सही एक मैं भी जोड़ देता हूँ :
ReplyDeleteचित्रकूट के घात पर लंठंन की भीर
तुलसीदास सबरी सम्हारें सेन्ही में हले रघुवीर
सियावर रामचंद्र की जय
'गडबड रामायण' श्री कुटीलेष द्वारा रचित छंद काव्य है जो ५० के दशक में कानपूर से प्रकाशित हुई है.
ReplyDeleteJaamvant ke bachan suhai,
ReplyDeletelain afeem lacchman jan dhai,
maarag mein mil gaye hanumaana,
jaat rahe motar par thaana.....