|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
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|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Wednesday, September 12, 2007
वाह, अजय शंकर पाण्डे!
गाजियाबाद म्यूनिसिपल कर्पोरेशन ने उत्कोच को नियम बद्ध कर म्युनिसिपालिटी का आमदनी बढ़ाने का जरीया बना दिया है. यह आज के टाइम्स ऑफ इण्डिया में छपा है. टाइम्स ऑफ इण्डिया मेरे घर आता नहीं. आज गलती से आ गया. पर यह समाचार पढ़ कर अजीब भी लगा, प्रसन्नता भी हुई और भ्रष्टाचार खतम करने की विधि की इम्प्रेक्टिकेलिटी पर सिर भी झटका मैने.
यह खबर हिन्दी में भी दिखी नवभारत टाइम्स पर, गाजियाबाद में रिश्वत को मिली सरकारी मान्यता के शीर्षक से.
म्यूनिसिपल कमिश्नर अजय शंकर पाण्डे ने दो महीने पहले म्यूनिसिपल कार्पोरेशन ऑफ गाजियाबाद (एमसीजी) के कमिश्नर का पदभार सम्भाला है. उन्होने यह फरमान जारी किया है कि सभी ठेकेदार निविदा स्वीकृति पर 15% पैसा एमसीजी के खाते में जमा कर देंगे! यह रकम सामान्यत: लोगों की जेब में जाती जो अब एमसीजी को मिलेगी.
अजय शंकर पाण्डे मुझे या तो आदर्शवादी लगते हैं या फिर त्वरित वाहावाही की इच्छा वाले व्यक्ति. मैने कई अधिकारियों को - जो निविदा से वास्ता रखते हैं - ठेकेदारों को कम रेट कोट करने पर सहमत कराते पाया है; चूकि वे स्वयम उत्कोच नहीं लेते और विभाग को उतने का फायदा पंहुचाने में विश्वास करते हैं. यह तरीका बड़ी सरलता से और बिना ज्यादा पब्लिसिटी के चलता है. अधिकारी की साख एक ईमानदार के रूप में स्वत: बनती जाती है. पर अजय शंकर जो कर रहे हैं - वह तो आमूल चूल परिवर्तन जैसा है और इससे बहुतों के पेट पर लात लग सकती है. यह भी रोचक हो सकता है देखना कि अजय शंकर कब तक वहां रह पाते हैं और बाद में यह 15% जमा करने के फरमान का क्या होता है!
जहां काम या सर्विस पूरी तरह निर्धारित और परिभाषित है, वहां तकनीकी विकास का लाभ लेकर भ्रष्टाचार कम हो सकता है. उदाहरण के लिये रेलवे तत्काल आरक्षण के माध्यम से वह पैसा जो टीटीई या आरक्षण क्लर्क की जेब में जाता, उसे सरकारी खाते में लाने में काफी हद तक सफल रही है. आईटी में प्रगति भ्रष्टाचार कम करने का सबसे सशक्त हथियार है. जितनी ज्यादा से ज्यादा सामग्री लोगों तक कम्प्यूटर से या इण्टरनेट से पंहुचाई जायेगी, उतना ही भ्रष्टाचार कम होगा! पर निविदा आदि के मामले में, जहां उत्पाद या सेवा की परिभाषा में फेर बदल की गुंजाइश हो - यह तरीका काम कम ही कर पाता है.
फिर भी; अच्छा जरूर लगा अजय शंकर के प्रयास के बारे में पढ़ कर!
मोहम्मद बिन तुगलक की भी बहुत याद आई. वे समय से पहले, बाद के विचारों पर कार्य करने वाले इतिहास पुरुष थे.
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आपके बारे में कुछ इलाहाबादी बता रहे थे कि आप भी बहूत कड़क टाइप अफसर हैं, वैसे रिश्वत नहीं लेते। पर इधर काम करने के बदले हरेक को कम से कम पांच कविताएं सुना रहे हैं। बड़े काम के लिए महाकाव्य सुना रहे हैं।
ReplyDeleteयह सच है क्या। अगर सच है, तो बिलकुल ठीक है, अगर गलत है, इसे सच कर लें। बिलकुल ईमान से रहना इस दुनिया में ठीक नहीं है।
अजय शंकर जी का निर्णय कितना सार्थक सिद्ध होता है या वो स्वंय कितने दिन टिक पाते हैं, यह तो समय ही बतायेगा. मगर प्रयास सराहनीय है और हमारी शुभकामनायें उनके साथ जाती हैं.
ReplyDeleteसमाचार शेयर करने के लिये आपका बहुत आभार.
ये बड़े बचकाने प्रयास हैं। कानून गलत भी। १५% तय किया है तो ठेकेदार १५% ज्यादा कीमत डालेंगे टेडर में। भारत सरकार के खरीददारी के कानून में कितने भी लूप होल हों लेकिन यदि खरीददने और काम कराने वाला अधिकारी तो सब सही हो सकता है। इस तरह के बचकाने प्रयास से कुछ नहीं होने वाला। आपकी यह बात सही है कि कंप्यूटर से काफी नियंत्रण किया जा सकता है गड़बड़ी में। आज की पोस्ट कहां है।
ReplyDeleteमाफ़ करियेगा बीच मे कूद रहा हू.
ReplyDeleteका करियेगा बीच मे कूदना तो हम लोगन का नेशनल शगल है.
ई अजय जी की दूरदर्शिता समझिये या बेबसी कि उनको यह तथ्य अकाट्य लगा कि ई सब रोक पायेगे तो इसको घुमा के
मान्यता दे दिये. वाहवाही बटोरने की क्या बात है ? लालू जी भी तो इस अन्डरहैन्ड खेल का मर्म समझ के घुमा के पब्लिक
के जेब से पइसा निकाल रहे है अउर मैनेजमेन्ट गुरु का तमगा जीत रहे है. पब्लिक के जे्ब से धन तो निकल ही रहा है,
बस खजाना गैरसरकारी से सरकारी हो गया. हम लोग भी दे-दिवा के काम निकलवाने के थ्रिल के आदी पहले ही से थे अब रसीद
मिल जाता है,इतना ही अन्तर है .
गलत करिये ,दे कर छूट जाइये,यही चातुर्य या कहिये कि दुनियादारी कहलाता है.
गाजियाबाद का खेला तो हमारी मानसिकता को परोक्ष मान्यता देता है, और सुविधा कितना है, अब दस सीट पर अलग अलग
चढावा का टेन्शन नही, फ़ारम भरिये १५ % के हिसाब से भर कर काउन्टर पर जमा कर दीजिये . रसीद ले लीजिये . खतम बात !
दत्त जी क्षमा करेगे, ब्लागगीरी की दुनिया मे आपकी हलचल खीच ही लाती है ,
एक आपबीती बयान करना चाहुगा, जब पहले पहले शयनयान चला था, बडी अफ़रातफ़री थी नियम कायदा स्पष्ट नही था ( वैसे अभी भी
कहा है,अपनी अपनी व्याख्याये है ) तो शिमला से एक अधिवेशन से एम०बी०बी०एस० लौट रहा था , अम्बाला से इस शयनयान मे शयन करता हुआ
सफ़र कर रहा था बीबी बच्चे आरक्षण दर्प से यात्रा सुख ले रहे थे, कभी नीचे कभी ऊपर .लखनऊ तक का टिकट था जाना रायबरेली ! बुकिग की गलती, ठीक है भाई
लखनऊ मे टिकट बढवा लेगे परेशान मत करो का रोब मारते हुये लखनऊ तक आ गये, लखनऊ मे महकमा का काला कोट लोग चा-पानी मे इतना बिजी था कि एक लताड
सुनना पडा अपनी सीट पर जाइये न क्यो पीछे पीछे नाच रहे है. चलो भाई ठीके तो कह रहे है ड्युटी डिब्बवा के भीतर है न, घर तक दौडाइयेगा ? बगल से कोनो बोला .
चले आये ,मन नही माना बाहर जा कर चार ठो जनरल टिकट ले आये, प्रूफ़ है लखनऊवे से बैठे है, मेहरारु को अपनी समझदारी का कायल कर दिया.
रायबरेली बीस किलोमीटर रह गया तो काले कोट महोदय अवतरित हुये. टिखट.. कहते हुये हाथ बढाये , टिकट देखते ही भडक गये, इ स्लीपर है अउर रिजर्भ क्लास है
जनरल पर चल रहे है, सर..ये देखिये अम्बाला से बैठे है, लखनऊ से टिकट नही बढा तो ये ले लिया. नाही बढा मतलब, इसमे बढाने का प्रोभिजन नही है जानते नही है का ?
जानते तो शायद वह भी नही थे, असमन्जस उनके चेहरे से बोल रहा था. अपने को सम्भाल कर बोले लिखे पढे होकर गलत काम करते है, टिकटवा जेब के हवाले करते हुए
आगे बढ गये. मेरी बीबी का बन्गाली खून एकदम सर्द हो गया ,मेरी बाह थाम कर फुसफुसाइ- ऎ कैसे उतरेगे ? देखा जायेगा -मै आश्वस्त दिखना चाहते हुये बोला.
करिया कोट महोदय टट्टी के पास कुछ लोगो से पता नही क्या फरिया रहे थे . अचानक हमारी तरफ़ टिकट लहरा कर आवाज़ दिये- मिस्टर इधर आइये...मेरे निश्चिन्त दिखने से
असहज हो रहे थे. पास गया ,सिर झुकाये झुकाये बोले लाइये पचास रूपये ! काहे के ? बबूला हो गये- एक तो गलत काम करते है, फिर काहे के ? बुलाऊ आर पी एफ़ ?
बीबी अब तक शायद कल्पना मे मुझे ज़ेल मे देख रही थी, यथार्थ होता जान लपक कर आयी. हमको ये-वो करने लगी. मै शान्ति से बोला सर चलिये गलत ही सही लेकिन
इसका अर्थद्न्ड भी तो होगा, वही बता दीजिये. एक दम फुस्स हो गये आजिजी से हमको और अगल बगल की पब्लिक को देखा, जैसे मेरे सनकी होने की गवाहो को तौल रहे हो.
धमकाया- राय बरेली आने वाला है पैसा भरेगे ? स्वर मे कुछ कुछ होश मे आने के आग्रह का ममत्व भी था. नही साहब हम तो पैसा ही देगे, रसीद काटिये रेलवे को पैसा जायेगा.
सिर खुजलाते हुये और शायद मेरे अविवेक पर खीजते हुये टिकट वापस जेबायमान करते हुये बोले- ठीक है स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा. उम्मीद रही होगी वहा़ कोइ घाघ सीनियर
इनको डील कर लेगा.. आगे क्या हुआ वह यहा पर अप्रासन्गिक है.
तो मै देने के लिये अड गया और गाजियाबाद के अजय जी सरकार के लिये लेने पर अड गये ..तो इस पर चर्चा क्यो ?
यह सनक ही सही लेकिन आज इसकी जरूरत है...चलता है...चलने दीजिये की सुरती बहुत ठोकी जा चुकी, कडवाने लगे तो थूकना ही तो चाहिये सर !
प्रसन्गवश रेलवे का जिक्र आ गया वरना हर विभाग के, हर क्षेत्र के अनगिनत उदाहरण है..फिर कभी