Wednesday, September 19, 2007

हे रिलायंस आओ! उद्धार करो!!!


उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में रिलायंस फ्रेश के दस स्टोर बन्द किये तो किसान सड़कों पर उतर आये. वे इन स्टोरों को पुन: खोलने की मांग कर रहे थे. लोग किस व्यवस्था से किस प्रकार त्रस्त हैं और किस उपाय का पक्ष लेंगे - कहना कठिन है. किसान बिचौलियों से त्रस्त है. मण्डी पहुंच कर वह समय बरबाद करता है. सब जगह कट देता फिरता है. फिर पैसा पाने को मण्डी के चक्कर मारता रहता है. उसके लिये आईटीसी या रिलायंस की खरीद - ऑन द स्पॉट और नगद; तो "स्वप्न में बज रहा संगीत" है.

मैं भी त्रस्त हूं नगर की म्युनिसिपालिटी की व्यवस्था से. सड़कों के किनारे फुटपाथ चोक हैं रेड़ी-ठेले और फुटपाथिया दुकानों से. मेरा घर जिस इलाके में है, वहां तो फुटपाथ है ही नहीं. ऑमलेट, चाय, सब्जी आदि के ठेले, रिक्शा, टेम्पो सभी सड़क छेंक कर परमानेण्ट वहीं रहते हैं. सिर्फ यही नहीं, इनपर खरीद करने वालों की भीड़ भी सड़क को हृदय रोग के मरीज की कोलेस्ट्रॉल से संकरी हुई धमनी/शिरा जैसा बनाने में योगदान करती है. नगरपालिका, फ़ूड इन्स्पेक्टर, पुलीस और सरकार के दर्जनों महकमे इस मामले में कुछ नहीं करते.

मुझे भी एक रिलायंस की दरकार है.

हे रिलायंस आओ! अपने वातानुकूलित स्टोर खोल कर उसमें ऑमलेट, भेलपूरी, चाय, समोसा, फलों का रस, दोसा बेचो. ठेले वाले से एक आना सस्ता बेचो. महीने के बन्धे ग्राहक को दो चम्मच-प्लेट बतौर उपहार में दो. अपने इस उपक्रम से सड़कें खाली करवा दो. सड़कें यातायात के लिये उपयोग होने लगें बनिस्पत हाट-बाजार, सामुहिक मिलन स्थल, मूत्रालय आदि के लिये.

हे रिलायंस आओ! जरा चमचमाती नगरीय सेवा की बसें चला दो इलाहाबाद में. किराया टेम्पू वाले से एक आना कम रखो. हर जगह हर लेम्प-पोस्ट पर पेशाब करने वाले कुत्ते की माफिक खड़े होने वाले इन विक्रम टेम्पो वालों से सड़क को निजात दिलाओ. सड़क को पार्किंग स्थल बनने से बचाओ.

हे रिलायंस, मेरे दफ्तर के बाबुओं के लिये भी व्यवस्था करो - जो सबेरे दफ्तर आते ही अपना बस्ता पटक चाय की दुकान पर चल देते हैं. अगर तुम्हारा चाय का कियोस्क दूरी पर हो तो सवेरे दस बजे इन कर्मठ कर्मचारियों को अपनी दुकान तक ले जाने के लिये एक बस भी खड़ी रखो हमारे दफ्तर के सामने. हो सके तो रेलवे फोन भी लगवा लो अपनी चाय की दुकान में - जिससे अगर फलाने बाबू से बात करनी हो तो हम उस फोन पर कर सकें. मेरे दफ़्तर के पास चाय की दुकान की झुग्गियों से निजात दिलाओ.

हे रिलायंसाधिपति, जैसे किसान मुक्त हो रहे हैं बिचौलियों से... वैसे हमें मुक्ति दो!!! नगर की सड़ान्ध भरी व्यवस्था से हमें मुक्ति दो!!!!

मैं जानता हूं कि यह आवाहन बहुतों के गले नहीं उतरेगा. इसे ले कर मेरे घर में ही दो गुट हो गये हैं. पर लचर म्युनिसिपल और स्थानीय प्रशासन व्यवस्था, सड़क और सार्वजनिक स्थानों का जबरन दोहन और व्यापक कार्य-अकुशलता का आपके पास और कोई समाधान है?

15 comments:

  1. कहीँ ऐसा तो नहीँ, कि फिर आप कहें कि हे रिलायंस आओ और हमारे कर्मचारियों के बदले अपने कुशल(?) कम वेतन वाले(?) कोक पीने वाले / (चाय की गुमटी पर न जाने वाले) कर्मचारी भी दे दो या सप्लाई कर दो, अपनी कोक वेण्डिंग मशीन भी दफ्तर में लगा दो


    बाद में..

    हमारे विभाग / मंत्रालय का प्रबंधन कार्यभार भी तुम ही संभालो, अपने कुशल नेतृत्व में!

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  2. राजीव>...हमारे विभाग / मंत्रालय का प्रबंधन कार्यभार भी तुम ही संभालो, अपने कुशल नेतृत्व में!

    आपने सही पकड़ा. अक्षमता के कई द्वीप-महाद्वीप विभाग में भी हैं. अभी कुछ ही दिन पहले, इकनामिक्स टाइम्स के पहले पन्ने पर हाशिये में खबर थी कि रेलवे ने ट्रेन इन्क्वाइरी का बिजनेस प्रासेस आउटसोर्सिन्ग फलानी कम्पनी (मैं नाम भूल रहा हूं) को कर दिया है. सो मेरी पोस्ट वाला रिलायन्सी रुदन/आवाहन प्रारम्भ हो गया है.

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  3. इन तक्लीफ़ों से निजात चाहिये ये मैं भी जानता हूँ और रिलायंस अपनी पीड़ाऎं लेके आएगा वो आप भी जानते हैं..बदलाव होना ही है.. उसे कौन रोक सकता है..लेकिन क्या सड़क की साफ़-सफ़ाई ही इस बदलाव का प्राइम रीज़न होना चाहिये..?

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  4. अभय> ..लेकिन क्या सड़क की साफ़-सफ़ाई ही इस बदलाव का प्राइम रीज़न होना चाहिये..?
    मुझे रिलायंसी कल्चर का पक्षधर न माना जाये. पर सड़क-सफाई-अव्यवस्था हल्के मुद्दे नहीं हैं. सरकारी विभागों में अक्षमता भी हल्का मुद्दा नहीं है. मैं तो मात्र सोच रहा हूं इस पोस्ट के माध्यम से. आपके पास बेहतर विकल्प हैं?

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  5. रिलायंस कंपनी यहां भी आयेगी। रिलायंस नहीं तो भारती आयेगी। भारती नहीं तो कोई और आयेगी। सरकारों के बस का कुछ रहा नहीं। मंत्री माल काट रहे हैं, अफसर छोटे अफसरों की खाल काट रहे हैं. नीचे वाले जैसे-तैसे सर्विस के साल काट रहे हैं। और आप सिर्फ पोस्ट लिखकर बवाल काट रहे हैं।
    चलिये रुदन से पता लगता है कि इलाहाबाद और दिल्ली के हाल में फर्क नहीं है।

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  6. ज्ञान जी, सारा कुछ बेहद नियोजित तरीके से चल रहा है। सरकारी अकर्मण्यता को प्रश्रय दिया जा रहा है ताकि सक्षमता के नाम पर निजी क्षेत्र को लाया जा सके। यूरोप में रहकर आया हूं तो प्रत्यक्ष अनुभव है कि बस से लेकर रेल सेवाएं या तो निजी क्षेत्र को पूरी तरह दी जा चुकी हैं या उनमें उनकी इक्विटी भागीदारी है। हिंदुस्तान में भी देर-सबेर ऐसा ही होना है और कंपनियां डायरेक्ट डीलिंग राज्य सरकारों से ही करेंगी।

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  7. रेलवे कोचेज़ और प्लैटफॉर्मस की साफ सफाई तो सब कंट्रैक्ट हो रहा है न निजी कंपनियों को ?

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  8. हमारी प्रार्थना आप से अलग है । मुंबई में हैं ना ।
    किसी ने प्रार्थना की होगी-हे रिलायंस आओ बिजली दो । रिलायंस ने दे दी ।
    अब बिल इत्‍ता लंबा चौड़ा आता है कि अपन चारों खाने चित्‍त हो जाते हैं ।
    अब हम प्रार्थना कर रहे हैं हे ईश्‍वर भाग्‍यविधाता विघ्‍नहर्ता
    आओ ।
    हमें रिलायंस (के बिल ) से मुक्ति दिलवाओ ।
    ये मुंबई वासियों की प्रार्थना है ।
    ज्ञान जी अब डर जाईये । ऐसा ना हो कि इलाहाबाद में रिलायंस आए ।
    मूत्रालय,हाट, चाट सब दे । और टेंटुआ दबाकर बिल वसूले ।
    डर जाईये साहब ।

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  9. आपके घर में ही दो गुट हो गए.(देश में डेमोक्रेसी जिंदा है).ये रिलायंस और भारती गुटबाजी भी करवाते हैं...
    वैसे आपकी ये पोस्ट किसी रेलवे यूनियन के नेता ने देख ली तो शाम तक दफ्तर के सामने हंगामा होने का चांस है..

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  10. @ यूनुस - डरे तो अभी भी हैं - अव्यवस्था से. एक डर से दूसरा रिप्लेस होगा! :)
    @ प्रत्यक्षा - हां, "क्लीन ट्रेन स्टेशन" के कॉंसेप्ट में यह प्राइवेटाइजेशन है. यूरेका फार्ब और कार्शर ने कई जगह अच्छा काम भी दिखाया है. महंगा है या सस्ता; मुझे नहीं मालूम.
    @ रघुराज - दूर समय के रथ के घर-घर नाद सुनो... निजी क्षेत्र आता है! आपने सही पकड़ा.
    @ आलोक - ब्लॉगरी ने बवाल काटना ही सिखाया है!

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  11. मुक्ति की यह चाह भारी पड़ेगी, आपको नहीं हमारी पीढ़ी को...

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  12. व्यवस्था के प्रति आक्रोश से उपजी यह पोस्ट एक आशा लेकर है कि शायद प्राईवेटाइजेशन से सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा!!

    पर क्या हमारी मानसिकता व्यवस्थित हो पाएगी जिसमे सरकारी या आम सड़क, आम व्यवस्था के प्रति एक लापरवाही है। सरकारी मतलब घर का, आम जन का मतलब घर का, यह सोच तो प्राईवेटाइजेशन से नही बदलेगा ना!

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  13. पंडित जी लिखे तो सही हो, लेकिन रुदन कुछ ज्यादा हो गया है, इसलिए घर वाले बमक गए।

    रिलायंस आए या कोई और एमएनसी, बदलाव तो होके रहेगा। उनकी समस्याएं या उनसे उपजी समस्याएं वो बाद का विषय है, लेकिन बदलाव तो अब होना ही है। ज्यादा दिनो तक रोक नही लग सकती।

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  14. आपके मौलिक चिंतन की एक और शानदार प्रस्तुति..

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  15. गहरा चिंतन, उत्तम चित्रण –चरमराई व्यवस्था से आक्रोशित स्वभाविक मनःस्थिती का. उपाय कितना सफल होगा, क्या पता मगर बदलाव से एक उम्मीद हमेशा ही रहती है भले ही कुछ भुगतान करना पड़े. सो तो अभी भी कर रहे हैं किसी न किसी रुप में.

    एक सहज साहसिक अभिव्यक्ति के लिये साधुवाद और यह तो आपने पहले ही अपने ज्ञान से भांप लिया था कि यह आव्हान बहुतों के गले नहीं उतरेगा. :)

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय