Thursday, September 6, 2007

लिखना कितना असहज है!


ब्लॉग लेखन कितना असहज है. लेखन, सम्पादन और तत्पश्चात टिप्पणी (या उसका अभाव) झेलन सरल जीवन के खिलाफ़ कृत्य हैं. आपका पता नहीं, मैं तनाव महसूस करता हूं. विशेषकर चिकाई लेखन (इस शब्द को मैने शब्दकोष और समान्तर कोश में तलाशने का प्रयास किया, असफ़लता हाथ लगी. अत: अनुमान के आधार पर इसका प्रयोग कर रहा हूं. जीतेन्द्र से अनुरोध है कि सरल हिन्दी में इसका शब्दार्थ और भावार्थ स्पष्ट करें) तो तनाव उत्पन्न करता है. पर आप साथ-साथ वर्चुअल (ब्लॉग) जगत में रह रहे हैं तो परस्पर हास-परिहास के बिना क्या रोज रोज भग्वद्गीता पर टीका लिख कर ब्लॉग चला लेंगे?

लेकिन लोग उनपर की गयी टीका-टिप्पणी पर असहज हैं. अथवा उत्तरोत्तर असहजतर होते जा रहे हैं. लोगों में मैं भी शामिल हूं. मैं असहज होने पर आस्था चैनल चलाने का प्रयास करता हूं. उससे लोगों की अण्डरस्टैण्डिंग तो नहीं मिलती; थोड़ी सहानुभूति शायद मिल जाती हो! और लोग कच्छप वृत्ति से काम लेते होंगे. कुछ लोग शायद ब्लॉग बन्द करने की कहते हों. कुछ अन्य टेम्पररी हाइबरनेशन में चले जाते हों. पर कोई सही-साट समाधान नजर नहीं आता. आप गालिब की तरह "बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं" का अध्यात्मवाद ले कर नहीं चल सकते. राग-द्वेष आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे. आप "नलिनी दलगत जल मति तरलम..." वाला शंकराचर्य वाला मोहमुद्गर श्लोक नहीं गा सकते अपने मन में या टिप्पणियों में.

समीर लाल न जाने कैसे इतनी टिप्पणियां कर ले जाते हैं. ब्लॉग पोस्ट लिखने में जितना आत्मसंशय होता है, उतना ही टिप्पणी लेखन संशय भी है. कल ही कम से कम ६ टिप्पणियां पूरी तरह लिख कर मैने पब्लिश बटन न दबाने का निश्चय (या अनिश्चय?) किया है. अब लोगों को कैसे यकीन दिलाया जाये कि आपके ब्लॉग पर टिप्पणी का भरसक यत्न किया है, पर आपकी प्रतिक्रिया के प्रति अनाश्वस्तता के कारण पैर (या कलम या की बोर्ड के बटन) रोक लिये हैं. कुल मिला कर लगता है - यह अधिक दिन नहीं चल सकता. अपने नाम से एक ब्लॉग चलाना और अपनी पूरी आइडेण्टिटी के साथ नेट पर अपने विचारों को रखना शीशे के घर में रहने जैसा है.

आगे देखें क्या होता है?!

9 comments:

  1. अरे?.. ये क्या बात कर रहे हैं?.. अस्वीकार्य..

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  2. यह अधिक दिन नहीं चल सकता. अपने नाम से एक ब्लॉग चलाना और अपनी पूरी आइडेण्टिटी के साथ नेट पर अपने विचारों को रखना शीशे के घर में रहने जैसा है.
    This is the most important thing of blogging . least tension is when we close the comment section because then we write for our pleasure other read for their pleasure !!!!!!!!

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  3. इतना डरने और सावधानी बरतने पर कैसे चलेगा . यह तो कोई बात नहीं हुई .

    आपमें और शिवकुमार जी में हिंदी ब्लॉग-जगत का आल्हा-ऊदल बनने की क्षमता है . और आप हैं कि इस तरह की अनिश्चय और संशय भरी पोस्ट डालकर मुझे भी भ्रमित किए दे रहे हैं .

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  4. आप क्या कह रहे हैं...हमे तो ब्लोग लिखने से ज्यादा आसान टिप्पणी लिखना लगता है...आप तो बस लिखते रहें..और तनाव से मुक्त रहें।

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  5. सरजी
    आपकी बात सही है।
    रोज रोज कमेंट करना रोज संवाद करने जैसा है। रोज संवाद उन्ही के साथ संभव है, जिनके साथ एक न्यूनतम वैवलेंथ बने। इसलिए टिप्पणियों को पंजीरी की तरह नहीं बांटना चाहिए कि जहां गये, वहां ढरका दी। जब तक अंदर से फील न हो ना करें, ब्लागिंग कोई जबरिया काम तो नहीं है। फुरसतियाजी कहते हैं ना हमतो जबरिया लिखब कोई का कर लैब, आप भी कुछ इस तरह का करें,हम तो कमेंट ना करब, कोई का कर लैब टाइप।
    वैसे एक सामान्य उपाय यह है कि अपनी छवि को इस कदर नान सीरियस टाइप बना लें, इस खाकसार की तरह, कोई सीरियसली ही ना ले, इसके बाद जो जी चाहे कहे जाइए। क्या शिकायत, जब सीरिसयली ही ना ले रहे आपको।
    इस कमेंट को ज्यादा सीरियसली ना लीजियेगा।

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  6. अरे, भाई साहब, यह एकदम चलते चलते बीच में ब्रेक...ऐसा भी क्या..सही तो जा रहे हैं, चलते रहिये, शुभकामनायें. खुल कर रेलगाड़ी दौड़ायें, कोई बीच में आयेगा तो देखी जायेगी. :)

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  7. आलोक पुराणिक की बात को सीरियसली लेकर आप उनको चौंका दीजिये। आप कमेंट के झाम से अपने को मुक्त रखिये। जो होगा देखा जायेगा। वैसे भी हमेशा कमेंट करने से भी लोग बुरा मान जाते हैं। कमेंट करते हैं कि जब देखो तब कमेंट कर जाते हैं।

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  8. सीरियसली बोल रहे हैं कि पुराणिक के असर में नॉन सीरियस होकर रो रहे हैं?.. आस्‍था-पास्‍ता चैनल दर्शन तो ठीक है लेकिन अकेले में कोई मुकेश वाला गाना ट्राई किये या नहीं? तब भी फ़र्क नहीं पड़ रहा? रीयली?

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  9. लीजिये, कीजिये बात ।

    अब समझ में आया कि टिप्पणियों का अकाल क्यों आया हुआ है । सब आपके जैसे हो गये तो चल लिया ब्लागजगत । जितना महत्वपूर्ण प्रवचन होता है, उसके बाद मिलने वाला प्रसाद भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता, हमारे जैसे लोग तो उसी की आस में प्रवचन में चले जाते हैं कभी कभी :-)

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय