Monday, September 3, 2007

अपने आप पर व्यंग का माद्दा और दुख पर फुटकर विचार


परसों मैने लिखी ज्ञानदत्त मोनोपोली ध्वस्त होने की आशंका से परेशान वाली पोस्ट. किसी भी कोण से उत्कृष्टता के प्रतिमान पर खरी तो क्या, चढ़ाई भी न जा सकने वाली पोस्ट. ऐसा खुरदरा लेखन केवल ब्लॉग पर ही चल सकता है. उसमें केवल एक ध्येय था सिर्फ यह देखना कि अपने पर निशाना या व्यंग किया जा सकता है या नहीं. अगर हम अपने पर भी हंस सकते हैं तो शायद मजबूती की एक पायदान और चढ़ लेते हैं. दूसरों पर व्यंग करना सबसे सरल है. दूसरों का व्यंग झेलना कठिन है. यह दोनो ब्लॉगरी में मैने कर देख लिये. और तब भी आज लिख ले रहा हूं. तीसरा महत्वपूर्ण मुकाम था परसों वाला काम अपने पर हंस लेने का. वह भी कर देख लिया.

उस पोस्ट पर टिप्पणी में अनूप शुक्ल और बोधिसत्व ने ब्लॉगिंग में निहित दुख की बात कही. यह दुख तभी हैं, जब आप कुछ सोच समझ कर लिखने का यत्न करते हैं. उसमें भी तब नहीं जब आप बहुत न जाने गये हों. वे दुख तभी हैं जब आपमें जीवंतता है. हर काम में खतरे निहित हैं. अगर आप लेथ मशीन पर काम करते हैं तो आपको चोट लगने की सम्भावना रहती है. आप स्टेशन मास्टर या टीटीई हैं तो यात्रियों की भीड़ और उनका गुस्सा आपको झेलना ही है. आपको जो तनख्वाह मिलती है; उसमें इस खतरे का आकलन निहित है. ठीक उसी तरह ब्लॉगिंग के सुख और दु:ख का आकलन सतत होता है. इसमें केवल दुख ही दुख हैं ऐसा भी नहीं है. अन्यथा यह विधा कब की समाप्त हो गयी होती. पर इस विधा का प्रयोग व्यक्ति की राग और प्रवृत्ति के अनुसार ही होता है. जो भी पोस्टें दिखती हैं; उनमें वैराज्ञ और निवृत्ति की वृत्ति तो नहीं दीखती.

और जब लेखन के दुख पर आस्था चैनल चला ही रखा है, तब विष्णु प्रभाकर जी के मैथिलीशरण गुप्त जी पर लिखे संस्मरण के कुछ अंश भी खिसका दूं (पूरा-पूरा लेख ठेलने की क्षमता तो है नहीं!). आप सब के दद्दा का यह अंश देखें:

मैने उनकी (गुप्त जी की) विनम्रता की चर्चा की है. आज के युग में इस विनम्रता के कारण उनके आलोचक कुछ कम नहीं हैं. उनका मान-सम्मान भी नयी पीढ़ी के मन में उतना नहीं था. बहुत पहले श्री अरविन्द ने इस पीढ़ी के लिये लिखा था, कि वह अपनी पुरानी पीढ़ी के प्रति हिटलर से भी अधिक निर्दय होगी. राष्ट्रकवि के प्रति यह निर्दयता काफी मुखर रही है. लेकिन स्वयम वह उससे रंच मात्र भी प्रभावित नहीं हुये. अपने को सदा पीछे आने वालों का जय-जयकार ही मानते रहे. यही नहीं सात्विक गर्व से भर कर उन्होने यह भी कहा, मैं अतीत ही नहीं, भविष्यत भी हूं आज तुम्हारा.

याद आता है एक बार मैने उनसे कहा था, लोग आपकी भाषा की बड़ी आलोचना करते हैं. उसमें बड़ा अटपटा पन रहता है.

वह किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे थे. पास ही श्री सियारामशरण गुप्त और डा. मोतीचन्द्र बैठे थे. उन्होने सहज भाव से सियारामाशरणजी की ओर देख कर कहा, हां, यह बात तो हमें भी लगी है. इधर हम भाषा पर अधिक ध्यान नहीं देते.

देखता रह गया. कोई कटुता नहीं, कोई गर्व-जन्य उपेक्षा नहीं. जिस सहज भाव से उन्होने उत्तर दिया, वह उन्ही के अनुरूप था. जो स्वयम सहज ही रहता है वही तो सब कुछ सहज भाव से ग्रहण करता है. गुप्तजी की यह सहजता ही उनके बड़प्पन की सीमा थी.

तो मित्रों, ब्लॉगरी में (और जीवन में) सब तरह के रंग उसके केलिडोस्कोप में आते जाते रहते हैं. पर केलिडोस्कोप खिलौना ही तो है – कभी, कभी टूट जाता है! फिर बनाना पड़ता है!

8 comments:

  1. ये एक और आस्था चैनल की शानदार ,सहज प्रस्तुति! :)

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  2. केलिडोस्कोप खिलौना ही तो है – कभी, कभी टूट जाता है! फिर बनाना पड़ता है!


    --क्या बात है.

    वैसे अपने आप पर हम आज ही हंसे है पहले की कई बार की तरह:

    http://udantashtari.blogspot.com/2007/09/blog-post.html

    बड़ा ही दिव्य अनुभव है...यहाँ देखें:

    click here

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  3. बात में दम है।
    वैसे भी आप देखें, तो तारीफ, आलोचना विकट सब्जेक्टिव मामले हैं।
    जिस रचना को आप काबिले तारीफ मानें, हो सकता है कि और लोग उसको दो कौड़ी का मानें। या जिस रचना को आप दो कौड़ी का मानें वह रचना परम धांसू मान ली जाये। और परम धांसू भी क्या, अभी मैं एक शोध के सिलसिले में कुछ सन् 40, 50 के आसपास के पत्र-पत्रिकाएं देख रहा था। जो नाम उस दौर के स्टार नाम थे,आज कोई जानता भी नहीं। पचास साठ साल का फर्क सारा धांसूत्व धो सकता है। या अब तो पांच-सात साल का फर्क भी। कालजयी लेखन होता ही कितना है, गालिब, शेक्सपियर, तुलसी जैसा मामला कितनों का जम सकता है। और इसके आगे का सवाल यह है कि क्या कोई सायास बड़ा लेखक बन सकता है। मतलब कि लेखक जब लिखता है, तो उसे क्या इस बात का अंदाज भी होता है कि उसके लिखे का क्या होने वाला है। मुझे लगता है कि लिखते वक्त किसी लेखक को पक्के तौर पर पता नहीं होता कि उसके लिखे का क्या बनने वाला है। लिखे जाओ, लिखे जाओ, जो खुद को अच्छा लगा। बाकी कौन क्या कह रहा है, इसकी ज्यादा फिक्र ना करें। आत्मव्यंग्य बहुत मुश्किल काम है,आप और करें, ऐसी शुभकामनाएं।

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  4. आप वी.वी.आई.पी. की श्रेणी में आ गये हैं ।
    अभी यात्रा के आधे पडाव पर हैं, ११०० मील चल चुके हैं और ६०० मील और बाकी है । बस आधे घंटे का समय मिला इंटरनेट पर तो आपके चिट्ठे की तलब ने बुला लिया । अब चलते हैं दूसरे बन्धु को भी ईमेल बाँचनी है ।

    बाकी समाचार बाद में,

    साभार,

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  5. गुरुवर सत्य वचन हैं आपके. अपने आप पर हंस लेना और व्यंग्य कर लेना सबसे मुश्किल काम है.
    आपने लेखन पर आस्था चैनल चला रखा है. उसमे एमटीवी का भी थोड़ा पुट जरूरी है. लोकल कवि बताता है की आदमी कब लिखता है (ब्लॉग हो या कविता) -
    दर्द पेट में होता है
    अन्दर कोई रोता है.
    भोजन ठीक न पचता है
    कवि तब कविता रचता है.
    आप तो लिखते रहें, द्येय तो बाद में शोध करने वाले ढूंढ ही लेंगे.
    संजय कुमार

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  6. हर बात को इतनी सहजता से स्वीकार करना शायद सबके लिए सम्भव न हो. बहुत सारी बातें होती होंगी जो इंसान को इस स्तर पर पहुँचाती होंगी.अब इनमें से अगर किसी भी बात की कमी हो तो फिर वहाँ तक पहुचना मुश्किल है. गुप्त जी, जिस तरह से हर बात को सहजता से लेते थे, वो करना बड़ा ही मुश्किल काम है. वैसा शायद तभी हो सकता है जब हम जीवन में कुछ भी देखने और सुनने के लिए ख़ुद को तैयार रखें.

    कुछ लोग इसे विनय का अंहकार कह सकते हैं, लेकिन गुप्त जी जैसे लोगों के लिए ये एक सामान्य बात है.

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  7. पुराने लोग ऊंची पर्वतमालाएं हैं और नए लोग बादल . ये नए बादल जब पुरानी पर्वतमालाओं से टकराते हैं,जीवनदायी बरसात तभी होती है . ज़मीन तभी हरियाती है . उर्वरता का उत्सव तभी आयोजित हो पाता है . दोनों का अपना स्वभाव है और अपनी सिफ़त, पर दोनों की टकराहट भी स्वाभाविक और फलदायी ही होती है .

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  8. आपके सभी रंगो को देख्नने और उनमे रंगने को आतुर --- :-) । लगे रहिये।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय