Wednesday, April 25, 2007

शिक्षा के क्षेत्र में देश बैक फुट पर है.

सन 2005 में विश्वबैंक ने पड़ताल की थी. उसमें पता चला था कि हमारे देश में 25% प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं. बाकी, जो जाते हैं उनमें से आधे कुछ पढ़ाते ही नहीं हैं. तनख्वाह ये पूरी उठाते हैं. यह हालत सरकारी स्कूलों की है. आप यहां पढ़ सकते हैं इस पड़ताल के बारे में. ऐसा नहीं है कि सन 2005 के बाद हालत सुधर गये हों.

मेरे काम में शिक्षकों से वास्ता नहीं पड़ता. पर समाज में मैं अनेक स्कूली अध्यापकों को जानता हूं, जिनके पास विचित्र-विचित्र तर्क हैं स्कूलों में न जाने, न पढ़ाने और पूरी तनख्वाह का हकदार होने के. उनके सामान्य ज्ञान के स्तर पर भी तरस आता है. अच्छा है कि कुछ नहीं पढ़ाते. अज्ञान बांटने की बजाय स्कूल न जाना शायद बेहतर है!

उच्च शिक्षा का भी कोई बहुत अच्छा हाल नहीं है. सामान्य विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तकनीकी शिक्षा के स्तर भी को भी विश्वस्तरीय नहीं कहा जा सकता. द न्यू योर्कर में छपा यह लेख आंखें खोलने वाला है. भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें. इंफोसिस वाले महसूस करते हैं कि भारत में स्किल्ड मैनपावर की बड़ी किल्लत है. पिछले साल तेरह लाख आवेदकों में से केवल 2% ही उन्हें उपयुक्त मिलें. अमेरिकी मानक लें तो भारत में हर साल 170,000 ईंजीनियर ही पढ़ कर निकलते हैं, न कि 400,000 जिनका दावा किया जाता है. कुकुरमुत्ते की तरह विश्वविद्यालय और तकनीकी संस्थान खुल रहे हैं. उनकी गुणवत्ता का कोई ठिकाना नहीं है. आवश्यकता शायद 100-150 नये आईआईटी/आईआईएम/एआईआईएमएस और खोलने की है और खुल रहे हैं संत कूड़ादास मेमोरियल ईंजीनियरिंग/मेडीकल कॉलेज! उनमें तकनीकी अध्ययन की बुनियादी सुविधायें भी नहीं हैं!

छिद्रांवेषण या दोषदर्शन के पचड़े में फंसना उचित नहीं होगा. पर समाज को बांट कर शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति चलाने की बजाय प्राईमरी-सेकेण्डरी-उच्च सभी स्तरों पर शिक्षा में गुणवत्ता और संख्या दोनो मानकों पर बेहतर काम की जरूरत है. वर्ना अर्थ व्यवस्था की आठ-दस प्रतिशत की वृद्धि दर जारी रख पाना कठिन होगा. एक तरफ बेरोजगारों की कतार लम्बी होती चली जायेगी और दूसरी तरफ कम्पनियों को काम लायक लोग नहीं मिलेंगे.

6 comments:

  1. ्पाण्डेय जी, बहुत सामयिक मुद्दा उठाया है आपने।
    प्राथमिक स्तर पर शिक्षा , और शिक्षा की गुणवत्ता एक ऐसा मुदा है जिस पर चेतने और कार्य करने की बहुत आवश्यकता है।

    बच्चे हैं तो शिक्षक नही, शिक्षक हैं तो स्कूल भवन नही, शिक्षकों का आधा समय भोजन पकाने एवं अन्य सरकारी कामों में बीतता है, साल में २०० दिन भी स्कूल नही चलते ...कई मुद्दे हैं।
    अभी जुलाई का महीना आयेगा, स्कूलों में नामांकन (नाम लिखाने..enrolment) की कवायद होगी, पर ३-४ महीने बीतते बीतते कितने ही बच्चे स्कूल छोड देते हैं।

    समाज और जनता की भागीदारी एक अन्य विषय है।अगर गांव का सरपंच और गांववाले ठान लें तो मजाल है शिक्षक की कि पढाने ना आये...पर सब पोलमपोल है। अभिभावकों में जागरुकता का अभाव भी है (चूंकि अधिकतर बच्चे First Generation Learners होते हैं)।

    पर फिर भी, पिछले १०-१२ साल में शिक्षा के प्रयासों में तेजी आई है, ऐसा मेरा मानना है। बदलाव हो तो रहा है पर उसमें और गति की अवश्यकता है....

    उच्च शिक्षा पर फिर कभी... :)

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  2. Sawaal ye hai ki hum kin baaton ko praathamikta dete hain.Jo shikshak school nahin jaate wahi aapko kumbh ke mele mein 'Kalapvaas' karte huye milenege.Unhein apne is janam ki fikar nahin lekin apne apne agle janam ko sudhaarne mein poori soch aur poora samay laga dete hain.

    Sarkar ka saara samay 'uchcha shiksha' mein OBC ko reservation dene ke tareeke khojne mein lagta hai.Prathamik shiksha ki samasya ka hal khojne mein nahin.

    Hamaare desh mein shiksha ke haalaat ka andaaza is baat se lagaaya ja sakta hai ki 1970 mein hamare gaon mein school ki building thi, lekin aaj nahin hai.Jis kshetra mein baaki ke deshon ne pragati ki, wahan hum nahin kar sake.

    Shiksha ki zaroorat kewal vidyartheeyon ko hai!...Shaayad nahin....Rahul Gandhi ji ko desh ka bhavishya bataane waalon ko bhi hai aur Maanav Vikas ka dhyaan na rakhne waalon ka bhi.

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  3. सही कह रहे हैँ आप ! प्राथमिक शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है । एक बार जड़ें मजबूत कर ली जाएँ और फिर धीरे -धीरे ऊपर के शेक्षिक स्तर को और स्तरीय करने की कोशिश होनी चाहिए ।

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  4. शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की बात है। दुख है कि इसी पर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है।

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  5. सही कह रहे हैँ आप ! प्राथमिक शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है । एक बार जड़ें मजबूत कर ली जाएँ और फिर धीरे -धीरे ऊपर के शेक्षिक स्तर को और स्तरीय करने की कोशिश होनी चाहिए ।

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  6. ्पाण्डेय जी, बहुत सामयिक मुद्दा उठाया है आपने।
    प्राथमिक स्तर पर शिक्षा , और शिक्षा की गुणवत्ता एक ऐसा मुदा है जिस पर चेतने और कार्य करने की बहुत आवश्यकता है।

    बच्चे हैं तो शिक्षक नही, शिक्षक हैं तो स्कूल भवन नही, शिक्षकों का आधा समय भोजन पकाने एवं अन्य सरकारी कामों में बीतता है, साल में २०० दिन भी स्कूल नही चलते ...कई मुद्दे हैं।
    अभी जुलाई का महीना आयेगा, स्कूलों में नामांकन (नाम लिखाने..enrolment) की कवायद होगी, पर ३-४ महीने बीतते बीतते कितने ही बच्चे स्कूल छोड देते हैं।

    समाज और जनता की भागीदारी एक अन्य विषय है।अगर गांव का सरपंच और गांववाले ठान लें तो मजाल है शिक्षक की कि पढाने ना आये...पर सब पोलमपोल है। अभिभावकों में जागरुकता का अभाव भी है (चूंकि अधिकतर बच्चे First Generation Learners होते हैं)।

    पर फिर भी, पिछले १०-१२ साल में शिक्षा के प्रयासों में तेजी आई है, ऐसा मेरा मानना है। बदलाव हो तो रहा है पर उसमें और गति की अवश्यकता है....

    उच्च शिक्षा पर फिर कभी... :)

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय