Saturday, March 10, 2007

टाटा डकैत तो नहीं है


अज़दक जी बहुत बढ़िया लिखते हैं. हमें तो लिखने का एक महीने का अनुभव है, सो उनकी टक्कर का लिखने की कोई गलतफ़हमी नहीं है. लेकिन सोचने में फर्क जरूर है. अपने चिठ्ठे में अजदक ने सिंगूर में टाटा के प्लान्ट के लिये हो रहे जमीन के अधिग्रहण को बदनीयती, धांधली, "जनता का पैसा लुटा कर जनहित का नाटक", जमीन का हड़पना (पढें - डकैती) आदि की संज्ञा दी है.

अब टाटा डकैत तो नहीं है.

पैसा कमाने के दो तरीके हो सकते हैं. एक है डकैती का. यह तरीका इस सिद्धान्त पर टिका है कि धन finite वस्तु है. अगर आपको पैसा चाहिये तो, वह जिनके पास है (व जो ताकतवर नही हैं), उनसे आपको बल पूर्वक छीनना होगा. अजदक के अनुसार यही हो रहा है. इस सिद्धान्त का प्रयोग चोर, पाकेटमार, डकैत, कालाबाजारी करने वाले और कई देश के नेता लोग (ज्ञात स्रोत से ज्यादा सम्पत्ति के मामले वाले लोग इसका उदाहरण हैं) करते है.

पैसा कमाने का दूसरा तरीका इस सिद्धांत पर टिका है कि पैसा असीमित है. उसी तरह जैसे प्रेम, दया, करुणा, प्रसन्न्ता आदि असीमित हैं. पैसा चाहिये तो वह करना होगा जिससे समग्र रूप से वह बढ़े. बिल गेट, टाटा और कई धनी इस सिद्धान्त से पैसा कमाते हैं.

समाजवाद मेरी समझ में नहीं आता. मान लीजिये आज आप पूरी दुनिया की सम्पदा सभी लोगों मे बराबर बांट दें. क्या होगा? कुछ समय के लिये आमोद-प्रमोद और सीधे consumption से जुडा व्यवसाय जूम कर जायेगा, पर दुनिया की समग्र अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ जायेगी. दो साल बाद समग्र सम्पदा (जो आज की सम्पदा से कम होगी) फिर उसी अनुपात में बंट जायेगी, जिसमें आज है.

जरूरत धन के समाजवादी बंटवारे की नहीं, धन की समग्र मात्रा बढाने वालों की है. किसान को आप सशक्त बनायें पर टाटा को डकैत बता कर नहीं.

(डिस्क्लेमर - मैं टाटा के पे रोल पर नहीं हूं व टाटा मोटर्स के शेयर भी मेरे पास नहीं हैं. मैं मानवीय सहानुभूति किसानों से रखता हूं. पर उनका कल्याण किसमें है - इसका ब्लूप्रिन्ट मुझे स्पष्ट नहीं है.)

10 comments:

  1. आपका दृष्टिकोण विचारणीय है

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  2. मेरे विचार से किसानों के मसले मे गलती दोनो तरफ़ से है। राजनीति भी खूब हो रही है। कोई भी नही चाहता कि दूसरी पार्टी पूरा क्रेडिट ले जाए (दोनो पक्षों को जमीन खिसकने का डर जो है)

    लेकिन राजनीतिक पार्टियों के खेल मे, पिस बेचारा किसान रहा है।

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  3. कुछ लोगों को पूँजीपतियों में बस दोष ही दोष दिखते हैं, उनकी मेहनत नहीं देखते बस उनको कोसने का मूलमंत्र पकड़ रखा है।

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  4. पाण्डेय जी!आपका लिखने का अनुभव सीमित है..साथ साथ सूचनायें भी सीमित हैं..ये मैं किसी दम्भ से नहीं कह रहा..अज़दक यानी कि प्रमोद सिंह ने ये नहीं कहा कि टाटा डकैत है..उनके लेख को ध्यान से पढ़िये..
    और आप टाटा के पक्ष में खड़े हो रहे हैं..मगर दुनिया का कोई भौतिकवादी आपकी इस बात के समर्थन में आपके साथ नहीं खड़ा होगा कि पैसा असीमित है...या संसाधन असीमित हैं..पैसा एक विनिमय मूल्य है..रकम जिससे आप वस्तुएं खरीद सकते हैं..वस्तुएं संसाधन से तैयार होती हैं..जैसे ज़मीन हवा पानी, खनिज और मज़दूर..ये सब सीमित हैं..पैसा किस गणित से असीमित हो जायेगा..सोचिये!
    और प्रेम करुणा दया भी सीमित हैं.. असीमित सिर्फ़ एक वो शक्ति है जिस की तस्वीर आपने अपने ब्लॉग पर लगा रखी है..उनकी गीता को भूल गये आप..

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  5. में लेखक की बात से सहमत नहीं हुं क्युंकि आदिवासी आज समाज देश क सबसे अधिक उपेछित एवं प्रताड़ित समुदाय है।इनकी आजीविका के साधन जंगल छिन गये और अब जमींने भी छिनती जा रहीं है।विकास के नाम पर कदम-कदम पर लुटना और मौन बने रहना इनकी नियति बन गयी है। कोई रहनुमा नहीं,कोई मार्गदर्शक नहीं।समाजनेताओं और राजनेताओं का ये हाल है कि वे आदिवासी हों या गैर-आदिवासी,सारे के सारे आदिवासियों के नाम पर अपनी रोटियां सेंक रहे है।
    विकास का सारा दबाब आज आदिवासियों पर है। और इसका नतीजा उनके विस्थापन के रूप में आ रहा है। इन हालात में यह जरूरी है कि विकास नीति को पुनः परिभाषित किया जा सके,ताकि आदिवासी हितों की सुरक्षा संभव हो सके। देश हित में अदिवासियों से त्याग की अपेक्षा की जाती है लेकिन विकास के नाम पर हुये विस्थापन के बाद उनकी सुध लेने वाला कोई नही होता। बाँध बनाना हो,वन्यजीव अभ्यारण बनाना हो या कोई बिजलीघर लगाना हो, खनन कार्य हो, वन विकास हो या सेना फ़ायरिंग रेंज बनाना हो, हर काम लिये अदिवासी क्षेत्र चुना जाता है।आदिवासी भोलाभाला होता है, विरोध कम होता है, विस्थापन सहज और आसान हो जाता है। विकास की ऐसी नीति के चलते 8 करोड़ आदिवासियों में से डे़ड करोड़ आदिवासी सड़क पर आ गये हैं।विगत बरषों में बडी़ संख्या में विस्थापन हुआ,लेकिन पुनर्वास के अभाव में वे फ़िर से बस नहीं पाये।

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  6. अभय तिवारी जी ने अच्छा लिखा.
    पर "प्रेम करुणा दया भी सीमित" शायद ज्यादा हो गया. गोविन्द व गीताजी भी अपने तर्क के लिये वे ला रहे हैं.
    जरा गीता,अध्याय ३(११) देखें :
    देवान्भावयतानेन ते....
    "तुमलोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें. इसप्रकार निस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुये तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे."
    कृष्ण ने उन्नति की लिमिट नहीं कही है.
    मित्र, law of abundance मे यकीन करें. सच मानें, सभी दैवी गुण असीमित हैं. धन भी उसमें से एक है, जिसे अभी असुरों ने अपहृत कर रखा हैं

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  7. अपनी प्रतिक्रिया लिखने के बाद मैने आपका प्रोफ़ाइल पढ़ा.. आप मुझसे उमर में बड़े हैं.. कोई गुस्ताखी हुई हो तो क्षमा करें.. हो सकता है कि प्रेम करुणा सीमित हैं..या आपको ज़्यादः लग रहे हो..मैं अपनी बात साफ़ करना चाहूँगा..मेरा अध्ययन भी सीमित है..पर जहांतक मैने पढ़ा है..एक ईश्वरीय सत्ता के सिवा शेष सभी चीज़ों की सीमा मानी गई है..प्रेम और करुणा शायद भौतिक पैमानों से नहीं नापे जा सकते.. पर आप कितनी देर तक प्रेम का अनुभव करेंगे.. फिर भूख लगेगी..उठ के खड़े हो जायेंगे.. बहुत हुआ प्रेम अब कुछ खाने को दो..राम को तुलसी ने बार बार करुणा-अयन कहा है..अयोध्या छोड़ते हुये पूरी नगरी उनके पीछे थी.. परेशान हो गये.. हार कर उनको सोते में छोड़कर रात में सुमन्त्र के साथ चुपचाप चले गये.. देखने वाले इसमें भी राम की करुणा के ही दर्शन करेंगे.. शिव जी.. करुणावतारम.. कामदेव को राख कर दिया सोचा तक नहीं बेचारे को देवताओं ने मजबूर कर के भेजा..यहां पर मैं यह भी साफ़ कर दूं कि ये दोनों भगवान मेरे हृदय में वास करते हैं.. मगर मेरी समझ में तो ये भावनाओं की सीमाओं के ही लक्षण हैं.. आपकी समझ में यदि कुछ और है तो विस्तार करें..
    दूसरी बात आपने जिस श्लोक का उल्लेख किया .. उसमें अगर कृष्ण ने ये नहीं कहा कि उन्नति की सीमा नहीं तो यह भी नहीं कहा कि असीम उन्नति होगी.. उन्होने सीमा की चर्चा ही नहीं की.. मगर उसके चार श्लोक पहले एक श्लोक है..यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥..(अध्याय ३ श्लोक ७)
    जो पुरुष मन से इन्द्रिय को वश मे करके अनासक्त भाव से कर्मयोग का आचरण करे वहे श्रेष्ठ है।
    वश मे करना याने कि सीमाओं में रखना.. मेरा गीता की ओर इशार इस संदर्भ में था..
    क्या ये बाज़ारी संस्कृति हमें abundance की ओर ले जा रही है.. या हमें इन्द्रियों में उलझा कर लोभ मोह काम के आगे विवश कर रही है.. भौतिक वस्तुओं को लेकर एक बेकार की होड़.. उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे..
    और अगर टाटा को लगता है कि संसाधन वगैरा असीमित हैं तो सिन्गूर के किसानों के पीछे क्यों पड़ा है.. क्यों बंगाल की वामपंथी सरकार उन्हे मजबूर कर रही है..अपनी ज़मीनें बेचने के लिये.. कहीं और ले ले.. उसके पास असीमित पैसा है.. और दुनिया में असीमित ज़मीन.. एक बार मैं आपसे फिर प्रार्थना करुंगा कि अज़दक के वे लेख आप फिर से पढ़ें..और उसके अलावा अफ़लातून जी के ब्लॉग पर पूंजीवाद के ऊपर एक जारी लेख माला..
    आशा है आप मेरे तर्कों को अन्यथा न लेंगे..

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  8. बहुत अच्छा! छोड़िये अभय जी. कर्मकाण्डी ब्राह्मण इसी तरह शास्त्रार्थ कर लड़ते रहे होंगे. आपको जो अच्छा लगे, मानें. तब भी हममें मैत्री की गुंजाइश रहे, बस. गोविन्द के प्रति मेरी आस्था का आधार बदलने वाला नहीं है. उसमें टाटा या किसान - दोनो ही आड़े नहीं आते. आपने उन्हे (कृष्ण को) भूलने की बात न की होती तो हम आमने सामने नहीं होते.

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  9. Tata ka Singur mein kaarkhaana lagaana aur 'kisaano' ki taraf se uska virodh karna, dono baatein humenin yahi bataati hain ki 'resistance to change' jeevan ke har kshetra mein paaya jaata hai.Ye koi nai baat nahin hai.Samaaj mein is tarah ka dwandwa rahna hi is baat ka parichaayak hai ki hum badlaav ki raah par hain.

    Lekin kya aisa nahin hai ki hum apne sarvjanik vichaaron ko nostalgia aur romanticism ki chaasni mein dubokar saamne rakhte hain?Hum kya apne wahi vichaar sarvjanik karte hain, jinhein hum mann se maante hain?Mujhe lagta hai, hum aisa nahin karte.

    Ek taraf to hum yah kahte hain ki desh ki 70 percent awaadi gaon mein rahti hai aur use arthik pragati ka hissedaar nahin banaaya jaata.Hum achchhi tarah se jaante hain ki vishwa mein kahin bhi arthik pragati ke liye sabse pahle shahrikaran zaroori hai.Udyog ke bina shahrikaran kya sambhav hai?

    Itihaas ke 'gyaata' ko is baat ko saabit karne ke paise aur waahwaahi milti hai ki aadikaal hi swarnkaal tha.Kyonki us samay samaaj dwandwaheen tha.Lekin agar dwandwaheen samaaj hota to hum abhi tak jungle mein rahte aur vanbilaav ko bina bhune huye, kachcha hi khaate.Aadiwaasiyon ke baare mein 'sochne waale' shaayad yahi chahte hain.

    Rahi baat samaajwaadi ki,to samaajwaadi ka bahut saara samay is baat ke calculation mein chala jaata hai ki ek din mein desh ke pradhanmantri ke ooper kitne paise kharch hote hain.Baaki jo samay bachta hai, wah naare likhne mein chala jaata hai.Sapna bhi yahi dekhta hai ki us samay desh dekhne mein kitna sundar lagega, jab saare log ameer ho jaayenge.Ya phir gareeb.

    Poonjiwaad ne hi humein 'positional goods' share karne ka jariya diya.Hamari samasya yah hai ki hum apni khushi bhi poonjipatiyon se maangte hain.Bina yah baat soche huye ki humein khushi uplabhdh karaana uska kaam nahin.Humein apni khushi ko khud hi khojna hoga.

    munna

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  10. Economics in this Global village is an exasperating sub to explain or to understand.
    Professor BHAGWATI and few such do try. TATA has been an honorable institution , but all monied institutions & individuals are looked upon with mixed feelings.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय