Thursday, September 6, 2007

पवनसुत स्टेशनरी मार्ट


पवनसुत स्टेशनरी मार्ट एक गुमटी है जो मेरे घर से 100 कदम की दूरी पर है. इसमें पानमसाला, सिगरेट, गुटका, च्यूइंगम का भदेस संस्करण, चाय, रोजगार के पुराने अंक (और थोड़ी कॉपियां-कलम) बिकते हैं. गुमटी के साइड में कुछ बैंचें लगी हैं, जिनपर कुछ परमानेण्ट टाइप के बन्दे जिन्हे भद्र भाषा में निठल्ले कहा जाता है, विराजमान रह कर तोड़ने का सतत प्रयास करते हैं.

इस स्टेशनरी मार्ट का प्रोप्राइटर पवन यादव नामका हनुमान भक्त है. गुमटी पर जो साइनबोर्ड लगा है, उसपर एक ओर तो गदाधारी हनुमान हैं जो तिरछे निहार रहे हैं. जिस दिशा में वे निहार रहे हैं, उसमें एक दूसरी फोटो क्षीण वसना लेटेस्ट ब्राण्ड की हीरोइन (अफीम वाली नहीं, रिमिक्स गाने वाली) की फोटो है जो हनुमान जी को पूर्ण प्रशंसाभाव से देख रही है. ये फोटुयें ही नहीं; पूरा पवनसुत स्टेशनरी मार्ट अपने आप में उत्कृष्ट प्रकार का कोलाज नजर आता है.

पवन यादव शिवकुटी मन्दिर के आसपास के इलाके का न्यूज एग्रीगेटर है. उसकी दुकान पर हर 15 मिनट में न्यूज अपडेट हो जाती है. मैं जब भरतलाल (मेरा बंगला-चपरासी) से ताजा खबर पूछता हूं तो वह या तो खबर बयान करता है या कहता है कि आज पवनसुत पर नहीं जा पाया था. यह वैसे ही है कि किसी दिन इण्टरनेट कनेक्शन डाउन होने पर हम हिन्दी ब्लॉग फीड एग्रीगेटर न देख पायें!

पवन यादव ने दुकान का नाम पवनसुत स्टेशनरी मार्ट क्यों रखा जबकि वह ज्यादा तर बाकी चीजें बेचता है. और मैने किसी को उसकी दुकान से पेन या नोटबुक खरीदते नहीं देखा. बिकने वाला Hello (Cello ब्राण्ड का लोकल कॉपी) बाल प्वॉइण्ट पेन कौन लेना चाहेगा! पवन यादव से पूछने पर उसने कुछ नहीं बताया. यही कहा कि दुकान तो उसकी किताब(?) कॉपी की है. पर अपने प्रश्न को विभिन्न दिशाओं में गुंजायमान करने पर उत्तर मिला पवन यादव शादी के लायक है. अगर यह बताया जायेगा कि वह गुटका-सिगरेट की दुकान करता है तो इम्प्रेशन अच्छा नहीं पड़ेगा. शायद दहेज भी कम मिले. लिहाजा स्टेशनरी मार्ट चलाना मजबूरी है भले ही कमाई गुटका-सिगरेट से होती हो.

पवनसुत स्टेशनरी मार्ट पूर्वांचल की अप-संस्कृति का पुख्ता नमूना है. यहां सरकारी नौकरी - भले ही आदमी को निठल्ला बनाती हो बहुत पसन्द की जाती है. अगर दुकान भी है तो पढ़ने लिखने की सामग्री की दुकान की ज्यादा इज्जत है बनिस्पत चाय-गुटखा-सिग्रेट की दुकान के. लिहाजा पवन यादव सम्यक मार्ग अपना रहा है. दुकान का नाम स्टेशनरी मार्ट रख रहा है जिससे इज्जत मिले, पर बेच चाय-गुटका-सिगरेट रहा है जिससे गुजारा हो सके!

बाकी तारनहार पवनसुत हनुमान तो हैं ही!

लिखना कितना असहज है!


ब्लॉग लेखन कितना असहज है. लेखन, सम्पादन और तत्पश्चात टिप्पणी (या उसका अभाव) झेलन सरल जीवन के खिलाफ़ कृत्य हैं. आपका पता नहीं, मैं तनाव महसूस करता हूं. विशेषकर चिकाई लेखन (इस शब्द को मैने शब्दकोष और समान्तर कोश में तलाशने का प्रयास किया, असफ़लता हाथ लगी. अत: अनुमान के आधार पर इसका प्रयोग कर रहा हूं. जीतेन्द्र से अनुरोध है कि सरल हिन्दी में इसका शब्दार्थ और भावार्थ स्पष्ट करें) तो तनाव उत्पन्न करता है. पर आप साथ-साथ वर्चुअल (ब्लॉग) जगत में रह रहे हैं तो परस्पर हास-परिहास के बिना क्या रोज रोज भग्वद्गीता पर टीका लिख कर ब्लॉग चला लेंगे?

लेकिन लोग उनपर की गयी टीका-टिप्पणी पर असहज हैं. अथवा उत्तरोत्तर असहजतर होते जा रहे हैं. लोगों में मैं भी शामिल हूं. मैं असहज होने पर आस्था चैनल चलाने का प्रयास करता हूं. उससे लोगों की अण्डरस्टैण्डिंग तो नहीं मिलती; थोड़ी सहानुभूति शायद मिल जाती हो! और लोग कच्छप वृत्ति से काम लेते होंगे. कुछ लोग शायद ब्लॉग बन्द करने की कहते हों. कुछ अन्य टेम्पररी हाइबरनेशन में चले जाते हों. पर कोई सही-साट समाधान नजर नहीं आता. आप गालिब की तरह "बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं" का अध्यात्मवाद ले कर नहीं चल सकते. राग-द्वेष आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे. आप "नलिनी दलगत जल मति तरलम..." वाला शंकराचर्य वाला मोहमुद्गर श्लोक नहीं गा सकते अपने मन में या टिप्पणियों में.

समीर लाल न जाने कैसे इतनी टिप्पणियां कर ले जाते हैं. ब्लॉग पोस्ट लिखने में जितना आत्मसंशय होता है, उतना ही टिप्पणी लेखन संशय भी है. कल ही कम से कम ६ टिप्पणियां पूरी तरह लिख कर मैने पब्लिश बटन न दबाने का निश्चय (या अनिश्चय?) किया है. अब लोगों को कैसे यकीन दिलाया जाये कि आपके ब्लॉग पर टिप्पणी का भरसक यत्न किया है, पर आपकी प्रतिक्रिया के प्रति अनाश्वस्तता के कारण पैर (या कलम या की बोर्ड के बटन) रोक लिये हैं. कुल मिला कर लगता है - यह अधिक दिन नहीं चल सकता. अपने नाम से एक ब्लॉग चलाना और अपनी पूरी आइडेण्टिटी के साथ नेट पर अपने विचारों को रखना शीशे के घर में रहने जैसा है.

आगे देखें क्या होता है?!

Wednesday, September 5, 2007

उम्रदराज (और जवान) लोगों के लिये व्यायाम


आजकल मैं वजन कम करने, रोल माडल बनने/बनाने और स्वास्थ्य के प्रति बहुत सजग हूं. सामान्यत: व्यायाम के लिये या तो आपको घर के बाहर सैर पर या जिम जाना होता है. अथवा उपकरण खरीदने होते हैं. पर निम्न विधि से आप घर पर उपलब्ध सामान्य साधनों से सहजता से व्यायाम कर सकते हैं:
एक समतल जगह पर सहजता से खड़े हो जायें. अपने दोनो बाजू में पर्याप्त जगह रखें. फिर दोनो हाथों में पांच-पांच किलो के आलू के थैले ले कर अपने हाथ सीधे साइड में फैलायें. जितनी देर हो सके हाथ साइड में जमीन के समांतर रखें. यह एक मिनट तक करने का यत्न करें. फिर आराम करें.

हर रोज समय बढ़ाने का प्रयास करें.

कुछ सप्ताह बाद 5 से बढ़ा कर दस किलो के थैलों से यह प्रक्रिया करें.

फिर जब उससे सहज महसूस करें तो 25 किलो और अंतत: 50 किलो के आलू के थैलों के साथ यह व्यायाम करने का प्रयास करें. उसमें एक मिनट तक रुकने की दक्षता हासिल करें (मैं इस स्थिति तक पहुंच चुका हूं).

जब आप इस अवस्था में सहज महसूस करने लगें, तो दोनो थैलों मे एक-एक आलू डाल कर यह व्यायाम करें.

मैं इस व्यायाम पर कोई दावा नहीं कर रहा कि यह मेरा ईजाद किया है. यह मुझे नेट पर अध्ययन के दौरान माइक ड्यूरेट नामक सज्जन के माध्यम से ज्ञात हुआ. यह सरल सहज और प्रभावी है, इस लिये मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. आपको भी इस प्रकार के व्यायाम आते हों तो सर्वजन हिताय बताने का कष्ट करें. धन्यवाद.

Tuesday, September 4, 2007

"रोल माडल" और वजन कम करने की बमचक पर रपट


बड़ी बमचक मची है. आलोक ९--११ ने एक नयी अनुगून्ज का ऐलान किया है. एक महीने में अपनी पोस्ट सबमिट करनी है. विषय है सन २००७-८ में हिन्दी ब्लॉगरी में मेरा रोल माड़ल. यह लेख अधिकाधिक १२५ शब्दों का होना चाहिये - आलोक ९--११ की माइक्रो पोस्टों के अनुकूल. एक ब्लॉगर एक ही एन्ट्री दे सकता है. आधादर्जन ब्लॉग वाले भी केवल एक एन्ट्री दे सकेंगे. पोस्ट पर अनुगूंज-४२० लिखा होना चाहिये और उसे पोस्ट कर फ़लाने टेक्नोआरती (टेक्नोराती नहीं - विपुल जैन का नया फ़ीडपोर्टल जो फ़ीडबर्नर की दलाली खतम करने को लाया गया है) पेज पर जा कर पिंग कर देना है. रोल माडल एक हिन्दी ब्लॉगर ही होना चाहिये. जिस ब्लॉगर के पक्ष में ज्यादा एन्ट्री होंगी वह आदर्श रोल माडल घोषित होगा.

रोल माडल वह होना चाहिये जो हिन्दी के हिज्जों की गलतियां न करता हो, उसका चेहरा फ़ोटोजेनिक हो, उसका बाडी-मास-इण्डेक्स (BMI@) आदर्श अर्थात 20-24 के बीच हो.... बड़ी सारी कण्डीशन हैं जो आपको अनुगूंज के पन्ने पर मिलेंगी.

यह घोषणा होते ही समीर लाल ने अपनी शादी की वर्षगांठ के बहाने एक माह के टिप्पणी अवकाश की घोषणा कर दी है. सुना है कि वे वन्दना लूथरा स्लिमिंग कोर्स ज्वाइन कर गये हैं; जिसका नया फ़्रेन्चाइजी सेण्टर कनाडे में खुला है और जो कन्शेसनल रेट पर पहला स्लिमिन्ग बैच चला रहा है. सुकुल ने कन्फ़र्म किया है कि फोन करने पर उनकी आवाज ऐसे आ रही थी जैसे ट्रेडमिल पर हांफ़ रहे हों. समीर लाल को भरोसा है कि अगर वजन कम हो जाये तो चेले तो सबसे ज्यादा हैं उनके जो उन्हे रोल माड़ल मानेंगे. छत्तीसगढ़ से संजीत और संजीव तो बारी-बारी से समीर लाल जी का पिछले घण्टे का वजन पूछने ई-मेल/चैट का उपयोग कर रहे हैं और समीर लाल हर उत्तर में अपनी कविता भी ठेल देते हैं.

जीतेन्द्र चौधरी ने साफ़ कर दिया है कि भले ही उनका ब्लॉग चिठ्ठाजगत में एक नम्बर पर है - वे किसी रेस में नहीं हैं. (वे मायूस हैं कि उनका वजन केवल 700 ग्राम ही कम हो पाया है और कुवैत में फिजिकल काम इतना नहीं है कि और गुंजाइश हो.) पर उन्होने पूरी खड्डूसियत से कह दिया है कि अगर किसी ने रोल माडल का सपोर्ट मांगते हुये उन्हे ई-मेल किया तो वे उसे स्पैम में डाल देंगे.

सुकुल ने अपनी पोस्ट की लम्बाई १ गज से बढ़ा कर १.७५ गज कर दी है. पांच धरम कांटों पर अपना वजन करा कर उनकी वजन दिखाने वाली रसीदें अपने इन्क ब्लॉग पर पोस्ट कर दी हैं. बाडी-मास-इण्डेक्स (BMI) का फ़ार्मूला लिख कर यह समझा भी दिया है कि उनका वजन लिमिट में है.

पन्गेबाज (अरुण अरोड़ा) ने देबाशीष के हिन्दी ब्लॉगरी में नारद बिरादरी के बताये उनके कद का हवाला देते हुये यह कहा बताया है कि उनका वजन इतना कम है कि वे BMI की लोअर लिमिट में भी नहीं आते.

प्रियन्कर ने अपना वजन कम करने में रुचि नहीं दिखाई है, पर सतर्कता बरतते हुये अनहद नाद पर कविताओं को हटा कर हायकू लिखना चालू कर दिया है और कहा है कि महीने भर वे हायकू पर जिन्दा रहेंगे.

पुराणिक अपना ब्लॉग वर्डप्रेस से लाइवजर्नल पर ले जा रहे हैं. अभी व्यस्त हैं. वैसे भी उनको पूरा भरोसा है कि वे ब्रह्माण्ड के रोल माडल हैं - टुच्चे ब्लॉगजगत की क्या बात!

नीरज रोहिल्ला ने साफ़ कर दिया है कि इस बमचक से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है. पर अपने शोध का विषय नॉन-टेक कर "वजनदार कव्वालों का वास्तविक वजन" रखा है. विषय कांख में दबाये वे १६०० मील की पदयात्रा पर निकल गये हैं.

दर्द हिन्दुस्तानी ने अपनी एक पोस्ट में डेढ़ दर्जन अपने लेखों के लिंक भर दिये हैं जो यह बताते हैं कि बाडी-मास-इण्डेक्स एक विकृत अवधारणा है और इससे भारत के पर्यावरण पर बहुत बुरा असर होगा. इसकी बजाय उन्होने ब्लॉगरों को शीतोपलाद चाटने की सलाह दी है.

ज्ञानदत्त पाण्डेय तो वैसे भी रेस में नहीं थे. पर घोर उहापोह में हैं कि यूनुस को वोट दें या श्रीश को. फ़ुरसतिया भी उनको रोज फ़ोन करते हैं पर खुल कर नहीं कहते कि उन्हे रोल माडल वाला पिंग करें. वे रेण्डम नम्बर जेनरेटर वाली साइट पर जा कर अपना मत तय करने की सोच रहे हैं.

अजित वडनेरकर ने कहा है कि वे ५ शब्दों पर एक शृंखला लिखने जा रहे हैं. शब्द अंग्रेजी के होंगे जिनका मूल इण्डो-आर्यन है. ये हैं - रोल, माडल, बाडी, मास, इण्डेक्स. इसके बाद वे ब्लॉगिंग छोड़ देंगे जिससे कि उन्हे कोई रोल माडल न चुनना पड़े. बोधिसत्व ने उन्हे चवन्नी शब्द की व्युत्पति और विकास पर एक पोस्ट लिखने का अनुरोध किया है. पर अजित का कहना है कि वे किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते.

ममता जी ने भी एक सामयिक पोस्ट खतरनाक हेडिंग - हट बे रो(ल मा)डल" के साथ लिखी है. जिसमें हट बे एक द्वीप और रोडल वहां पाया जाने वाला चौपाया जीव है.

शिव कुमार मिश्र ने तो साफ़ कर दिया है कि वे नीरज गोस्वामी जी से २९ दिन में ब्लॉग बनवा देंगे और तीसवें दिन उन्हे ही अपना रोल-माडल पिंग करेंगे.

अजदक ने चीन में सॉफ़्टवेयर वालों को पकड़ा है जो उनका फ़ोटो छरहरा और जवान बना दें; जिससे वे एंगरी यंग-मैन से लगें जिसे गुस्सा बहुत आता है. उन्हे अभय तिवारी के पिंग का तो भरोसा है ही. बाकी कुछ शायद साम्यवादी पार्टी ह्विप जारी कर दिलवा दे.

बस भैया. औरों का भी कच्चा चिठ्ठा अपने पास है - पर पोस्ट बहुत लम्बी हो जायेगी.


@- बीएमआई (BMI) = [Body Weight शरीर का वजन Kg कि.ग्रा.]/[Height ऊंचाई meter मीटर]2

Monday, September 3, 2007

शवयात्रा


अभी सवेरे दफ्तर आते समय मेरा वाहन झटके से रुका. चौराहा था. ड्राइवर ने आड़ी सड़क पर एक कारवां के चलते वाहन रोका था. उस कारवां में सबसे आगे एक मल्टी-यूटिलिटी-वेहीकल का पीछे वाला ऊपर की ओर उठ कर खुलने वाला दरवाजा खुला था. वेहीकल में लम्बाई में एक फूलों से लदा शव रखा था. वह वेहीकल गंगा किनारे रसूलाबाद के श्मशान घाट की तरफ जा रहा था. उसके पीछे 8-10 कारें थीं. सबके शीशे चढ़े हुये थे. गाड़ियों का कारवां धीमी रफ्तार से चल रहा था.

पहले का जमाना होता तो जुलूस सा जाता. "रामनाम सत्त है" बोलता हुआ. शव को कन्धा देने वाले बदलते रहते. आधे रास्ते में शव का सिर घुमाकर उल्टी दिशा में ले आया जाता. धीरे-धीरे चलते लोग वैराज्ञ महसूस करते. पर यहां तो मामला दूसरे प्रकार का था.

गाड़ियां निकल गयीं. पर नहीं. केवल एक बची थी. थोड़ा अंतर पर एक अंतिम गाड़ी आ रही थी. उसमें एक शीशा खुला था. उसमें से एक आदमी हल्का सा बाहर मुंह निकाल कर बोल रहा था - "राम-नाम सत्त है."

मुझे लगा कि यह व्यक्ति मेरे प्रकार का है. तकनीकी विकास के युग में रह रहा है, पर अपने संस्कारों का सलीब भी ढो रहा है. मुझे उससे भाईचारे का अहसास हुआ.

शवयात्रा का कारवां अपने रास्ते गया और मेरा वाहन अपने रास्ते. पर यह प्रकरण मुझे सोचने का मसाला दे गया.

अपने आप पर व्यंग का माद्दा और दुख पर फुटकर विचार


परसों मैने लिखी ज्ञानदत्त मोनोपोली ध्वस्त होने की आशंका से परेशान वाली पोस्ट. किसी भी कोण से उत्कृष्टता के प्रतिमान पर खरी तो क्या, चढ़ाई भी न जा सकने वाली पोस्ट. ऐसा खुरदरा लेखन केवल ब्लॉग पर ही चल सकता है. उसमें केवल एक ध्येय था सिर्फ यह देखना कि अपने पर निशाना या व्यंग किया जा सकता है या नहीं. अगर हम अपने पर भी हंस सकते हैं तो शायद मजबूती की एक पायदान और चढ़ लेते हैं. दूसरों पर व्यंग करना सबसे सरल है. दूसरों का व्यंग झेलना कठिन है. यह दोनो ब्लॉगरी में मैने कर देख लिये. और तब भी आज लिख ले रहा हूं. तीसरा महत्वपूर्ण मुकाम था परसों वाला काम अपने पर हंस लेने का. वह भी कर देख लिया.

उस पोस्ट पर टिप्पणी में अनूप शुक्ल और बोधिसत्व ने ब्लॉगिंग में निहित दुख की बात कही. यह दुख तभी हैं, जब आप कुछ सोच समझ कर लिखने का यत्न करते हैं. उसमें भी तब नहीं जब आप बहुत न जाने गये हों. वे दुख तभी हैं जब आपमें जीवंतता है. हर काम में खतरे निहित हैं. अगर आप लेथ मशीन पर काम करते हैं तो आपको चोट लगने की सम्भावना रहती है. आप स्टेशन मास्टर या टीटीई हैं तो यात्रियों की भीड़ और उनका गुस्सा आपको झेलना ही है. आपको जो तनख्वाह मिलती है; उसमें इस खतरे का आकलन निहित है. ठीक उसी तरह ब्लॉगिंग के सुख और दु:ख का आकलन सतत होता है. इसमें केवल दुख ही दुख हैं ऐसा भी नहीं है. अन्यथा यह विधा कब की समाप्त हो गयी होती. पर इस विधा का प्रयोग व्यक्ति की राग और प्रवृत्ति के अनुसार ही होता है. जो भी पोस्टें दिखती हैं; उनमें वैराज्ञ और निवृत्ति की वृत्ति तो नहीं दीखती.

और जब लेखन के दुख पर आस्था चैनल चला ही रखा है, तब विष्णु प्रभाकर जी के मैथिलीशरण गुप्त जी पर लिखे संस्मरण के कुछ अंश भी खिसका दूं (पूरा-पूरा लेख ठेलने की क्षमता तो है नहीं!). आप सब के दद्दा का यह अंश देखें:

मैने उनकी (गुप्त जी की) विनम्रता की चर्चा की है. आज के युग में इस विनम्रता के कारण उनके आलोचक कुछ कम नहीं हैं. उनका मान-सम्मान भी नयी पीढ़ी के मन में उतना नहीं था. बहुत पहले श्री अरविन्द ने इस पीढ़ी के लिये लिखा था, कि वह अपनी पुरानी पीढ़ी के प्रति हिटलर से भी अधिक निर्दय होगी. राष्ट्रकवि के प्रति यह निर्दयता काफी मुखर रही है. लेकिन स्वयम वह उससे रंच मात्र भी प्रभावित नहीं हुये. अपने को सदा पीछे आने वालों का जय-जयकार ही मानते रहे. यही नहीं सात्विक गर्व से भर कर उन्होने यह भी कहा, मैं अतीत ही नहीं, भविष्यत भी हूं आज तुम्हारा.

याद आता है एक बार मैने उनसे कहा था, लोग आपकी भाषा की बड़ी आलोचना करते हैं. उसमें बड़ा अटपटा पन रहता है.

वह किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे थे. पास ही श्री सियारामशरण गुप्त और डा. मोतीचन्द्र बैठे थे. उन्होने सहज भाव से सियारामाशरणजी की ओर देख कर कहा, हां, यह बात तो हमें भी लगी है. इधर हम भाषा पर अधिक ध्यान नहीं देते.

देखता रह गया. कोई कटुता नहीं, कोई गर्व-जन्य उपेक्षा नहीं. जिस सहज भाव से उन्होने उत्तर दिया, वह उन्ही के अनुरूप था. जो स्वयम सहज ही रहता है वही तो सब कुछ सहज भाव से ग्रहण करता है. गुप्तजी की यह सहजता ही उनके बड़प्पन की सीमा थी.

तो मित्रों, ब्लॉगरी में (और जीवन में) सब तरह के रंग उसके केलिडोस्कोप में आते जाते रहते हैं. पर केलिडोस्कोप खिलौना ही तो है – कभी, कभी टूट जाता है! फिर बनाना पड़ता है!

Sunday, September 2, 2007

ब्लॉगिंग, वजन और उस पर मनन


पूरी निष्ठा से यत्न करने के बाबजूद ब्लॉगिंग छूट नहीं पा रही है. इधर अंग्रेजी के एक ब्लॉग ने एक (छद्म ही सही अंग्रेजी का छद्म भी हिन्दी के लिये ब्रह्मवाक्य है!) स्टडी में बताया है कि ब्लॉगरी से वजन में शर्तिया बढ़ोतरी होती है. अब लगता है कुछ न कुछ करना होगा. वजन तो हमारा भी बढ़ा है - कम्प्यूटर पर काउच-पोटैटो की तरह निहारते बैठने और बरसात के कारण सवेरे की सैर बन्द कर देने से. अत: निम्न स्टेप्स पर मनन चल रहा है:

  1. ब्लॉगिंग को बाय-बाय. पर जितनी बार सोचते हैं, उतनी बार एक पोस्ट और सरका देते हैं.
  2. दो साल पहले एक्सरसाइजर जो पैसे की किल्लत होने पर भी पूरी गम्भीरता से खरीदा गया था और उसके कुछ महीने बाद आंखों से ओझल हो गया, उसे खोज निकालना और उसका पुनरुद्धार. वैसे यह मालुम है कि वह घर की अधिष्ठात्री ने स्टोर में कबाड़ के साथ रख दिया है. उसके पुनरुद्धार में घर में कलह मचना स्वाभाविक है - पर स्वास्थ के लिये यह गृह युद्ध झेलना ही होगा.
  3. वजन लेने वाली मशीन जो अपनी झेंप और कुत्ते के जान बूझ कर उसपर पेशाब करने की आदत के चलते दीवान के अन्दर के बक्स में डाल दी गयी थी; अगर कालान्तर में कबाड़ी के हवाले न कर दी गयी हो तो उसे घर के प्रॉमिनेण्ट स्थान पर स्थापित कर देना, जिससे बार-बार वजन ले कर वैसा ही मोटीवेशन हो जैसा गूगल एडसेंस की कमाई निहारते होता है. यह अलग बात है कि न तो एड सेंस की कमाई देखने से बढ़ रही है और न वजन की मशीन देखने से वजन कम होगा! पर दिमाग में हमेशा रहेगा तो कि वजन कम करना है.
  4. इंक-ब्लॉगिंग, या डिक्टाफोन पर बोल कर रिकार्ड किये को कच्चेमाल के रूप में सीधे ब्लॉग पर ठेलने की सम्भावनायें तलाशना, जिससे पीसी या लैपटॉप के सामने बैठे रहने की मजबूरी न रहे और पाठक/श्रोता भी अस्पष्ट लिखा पढ़ कर या सुन कर सिर खुजायें. एडसेंस के विज्ञापनों में रेफरल प्राडक्ट के रूप में सैनी हर्बल ऑयल छाप विज्ञापन रखे जायें जिसे पाठक सिर खुजाते हुये अपने बालों के स्वास्थ के लिये क्लिक करें.
  5. माउस पर क्लिक करने की ज्यादा प्रेक्टिस करना - उसमें भी कुछ केलोरी तो खर्च होंगी.
  6. खाना-बनाना, खाना-खजाना और रत्ना की रसोई छाप सभी ब्लॉगों पर अपने को जाने से भरसक रोकना. इससे कोई लालच बनने की स्थिति पैदा ही न होगी! (इसे आप ज्यादा गम्भीरता से न लें - मैं भी नहीं लेता!)
  7. अपने ब्लॉग पर अगर चित्र लगाने हों तो छरहरे लोगों के चित्र ही लगाना. अपने कम्प्यूटर के वालपेपर और स्क्रीन सेवर तक में छरहरे लोगों को वरीयता देना बनिस्पत रीछ और ह्वेल के चित्रों के.
  8. ब्लॉगिन्ग में समीर लाल की बजाय सुकुल को रोल माडल बनाना. जीतेन्द्र चौधरी भी नहीं चल पायेंगे वजन कम करने के अभियान में. वैसे तो राजीव टण्डन ठीक रहते पर आजकल उनकी ब्लॉगिंग तो क्या, टिप्पणी तक नहीं दीखती! (काकेश कहां हैं आजकल!) पं‍गेबाज जरूर छरहरे लगते हैं.
बस, आठ प्वाइण्ट बहुत हैं. बाकी सुकुल सोचेंगे - रोल माडल जो बना रहे हैं!

Saturday, September 1, 2007

ज्ञानदत्त मोनोपोली ध्वस्त होने की आशंका से परेशान!!!


ज्ञानदत्त बड़े परेशान हैं. उस क्षण को कोस रहे हैं, जब संजय कुमार ने उनसे कहा था कि उन्होने हलचल वाला ब्लॉग खोज लिया है और टिप्पणी कैसे की जाये? ज्ञानदत्त जी को लग रहा है कि सही रिस्पॉंस होना चाहिये था बन्धु, कल राजधानी एक्सप्रेस 20 मिनट टुटुहूंटूं स्टेशन पर खड़ी रही थी ब्रेक बाइण्डिंग में. उसकी जांच-वांच कायदे से कराओ. काम-धाम देखो. ब्लॉग और टिप्पणी का चक्कर छोड़ दो.

पर जैसा होता है; विनाशकाले विपरीत बुद्धि:! अब देखो ट्रांसलिटरेशन औजार भी इसी मौके के लिये ब्लॉग पर चस्पाँ किया था. संजय ने क्या मस्त टिप्पणी कर दी. बात वहां भी खतम हो जाती. पर मति मरती है तो कम थोड़ी मरती है. पूरी तरह से मरती है. अगले दिन ज्ञानदत्त महोदय ने स्वत: स्फूर्त संजय के गुण गान में पोस्ट बनाई-छापी.

संजय छा गये. ज्ञानदत्त की ब्लॉग जगत में रेल-मोनोपोली ध्वस्त होने के कगार पर गयी. और बुरा हो नीरज रोहिल्ला का, जिन्होने स्पष्ट शब्दों में इसकी मांग भी कर डाली. खुद तो सात समन्दर पार बैठे हैं यहां ज्ञानदत के छोटे से गांव की मिल्कियत पर भी कुदृष्टि गड़ाये हैं.

अरे समझ में तो उसी दिन जाना चाहिये था, जिस दिन संजय को अपने ब्लॉग पर गुणगान हेतु चुना. यह तो मालूम था कि संजय रागदरबारी की समझ रखने वाले "गंजहे" हैं और गंजहा किसी भी दशा में किसी से उन्नीस नहीं होता! वैसे भी उनका दफ़्तर सूबेदारगंज जा रहा है, जिसमेनाम में ही "गंज" है. अब, जब संजय की लखनवी अन्दाज की दूकान की शम्मा हर रंग में जलेगी सहर होने तक, तब ज्ञानदत्त के पास जल भुन कर राख होने के सिवाय क्या बचेगा?

अरुण, संजय बेंगानी, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, प्रेमेन्द्र, शिव, आलोक (ब्रह्माण्ड) पुराणिक, श्रीश, संजीत, रचना और प्रियंकर - सब ने संजय कुमार को मात्र एक मस्त टिप्पणी के बल पर हाथों हाथ लिया. किसी ने यह नहीं कहा: "बन्धु क्या करोगे ब्लॉगरी कर के. वैसे भी वेकेंसियां टिप्पणी करने वालों की हैं. ब्लॉगर बनना बेकार है."

देर रात को समीर लाल और दर्द हिन्दुस्तानी और दर्द दे गये. उन्होने संजय के लिये और भी जोश दिलाऊ टिप्पणियाँ कर दी. संजय कुमार ने इण्टरकॉम पर कहा है कि वे ब्लॉग डिजाइन के लिये अब ज्ञानदत्तजी के पास आने ही वाले हैं. अपना ब्लॉग चमकदार और धासूं बनाना चाहते हैं. यानी ज्ञानदत्त अपनी मोनोपोली खुद सलाह दे कर खत्म करें! ज्ञानदत्त वर्तमान युग के कालिदास हैं जिस डाल पर बैठे हैं, वही काट रहे हैं.

और दर्द हिन्दुस्तानी को देखें संजय को सलाह दे रहे हैं कि अपना इंजन बिना पटरी के चलाना. मार्डन रखना. यह भी जले पर नमक है. ज्ञानदत्त के पुराने स्टीम इंजन वाला लोगो; जो बिना पटरी के मटकता चलता है; जिसने रवि रतलामी और ममताजी को मोहित कर लिया था; को एक झटके में दर्द हिन्दुस्तानी जी ने कण्डम कर दिया. ठीक है पुराने को भूलने और नये माडल को सराहने की दुनिया है!

फुरसतिया सुकुल की नामवर सिंह छाप ईर्ष्या का मर्म समझ में रहा है ज्ञानदत्त को. फुरसतिया तो पॉलिश्ड ब्लॉगर हैं. नन्द के आंगन से कंटिया, कंटिया से पतंग, पतंग से इण्टरनेट और वहां से दफ्तर तक का प्रपंच रच अपनी ईर्ष्या को हाइटेक जामा पहनाने में सफल रहे. टिप्पणीकार भी ही-ही-ही फी-फी-फी कर बढ़िया टिपेर गये उनकी पोस्ट पर. पर 7 महीने के ब्लॉगर ज्ञानदत्त को तो वह भाव मिलने से रहा; और ही वे इतना हाई बैण्डविड्थ का लेखन भी कर पायेंगे पौराणिक युग से इण्टरनेटीय युग तक वाया हिन्दी साहित्य!

पर भैया, जो हो गया सो हो गया. अब संजय कुमार के ब्लॉग का इंतजार किया जाये! मोनोपोली गयी सो गयी.


चलते-चलते: बहुत देर बाद नीरज जी (खपोली, बम्बई वाले) की ज्ञानदत्त जी को सुकून देती टिप्पणी मिली संजय कुमार पर लिखी पोस्ट पर. टिप्पणी बहुत मस्त है; पर इतनी लेट है कि संजय कुमार तो इसपर गौर करने से रहे!
जरा टिप्पणी देखें:
संजय कुमार जी
देख रहे हैं की बहुत से लोग आप को ब्लॉग लेखन के लिए उत्साहित कर रहे हैं लेकिन हम उनमें से नहीं है हम कहते हैं की आप तिपिआते रहो ब्ल्गों पर लेकिन ख़ुद इस क्षेत्र मैं कूदो. कारण? अरे भाई सुने नहीं हैं क्या आप की "किंग मेकर कैन नोट बी किंग"
इन सारे महाराजा अकबर जैसे ब्लोगियों को आप सा बीरबल भी तो चाहिए. वरना तो ये कुछ भी लिख जायेंगे.
एइसे ब्लॉग लिखने के प्रलोभन हम को हमारे "सो काल्ड " शुभचिंतकों ने कई बार हमें दिया लेकिन हम अपने इरादों से विचलित नहीं हुए. अरे भाई जो मज़ा किसी के घर बंधी भैंस का दूध चुरा कर पीने मैं है वो भला और कहाँ? ब्लॉग लिखने वाला दिमाग लगता रहे हम तो अपना कमेंट लिखा और फ्री हो जाते हैं .
आप और हम गलती से तकनिकी क्षेत्र से हैं ,लोहे से दो दो हाथ करते हुए ३५ वर्ष हो गए लेकिन लोहा हमारा कुछ बिगाड़ पाया और लोहे का कुछ हम तो फ़िर ये ब्लॉग लिखने को कहने वाले आप का और हमारा क्या बिगाड़ पाएंगे ? नहीं ?? अगर आप फिर भी ब्लॉग लिखना चाहें तो भला हम आप को रोकने वाले हैं कौन? लिखो हम तब ये कहेंगे की " चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे " हालांकि इतिहास गवाह है की राम ने कभी किसी सूली पे चढे का भला नहीं किया है .

नीरज