Wednesday, March 18, 2009

लंच-यज्ञ


my lunchमेरी नौकरी की डिमाण्ड रही है  कि मेरा घर रेलवे के नियंत्रण कक्ष के पास हो। लिहाजा मैं दशकों रेलवे कालोनी में रहता रहा हूं और बहुत से स्थानों पर तो दफ्तर से सटा घर मुझे मिलता रहा है। आदत सी बनी रही है कि दोपहर का भोजन घर पर करता रहा हूं। यह क्रम इलाहाबाद में ही टूटा है। यहां मैं पिताजी के मकान में रहता हूं जो दफ्तर से पंद्रह किलोमीटर दूर है। सो दोपहर में घर आ कर भोजन करना सम्भव नहीं।


home घर और दफ्तर के बीच कौव्वाउड़ान की दूरी!

दफ्तर में कुछ दिन ऐसे होते हैं, जब मुझे अकेले अपने कमरे में लंच करना होता है। चपरासी प्लेट-पानी और टिफन-बॉक्स लगा देता है। और मैं काफी तेजी से लंच पूरा करता हूं।

उस दिन मैने तेजी से भोजन तो कर लिया, पर फिर रुक गया। पत्नीजी ने बड़े मन से गुझिया और मठरी साथ में भेजी थी अल्यूमीनियम फॉइल में व्रैप कर। मठरी तो स्पेशल है – चुकन्दर, धनिया और हल्दी के प्राकृतिक रंगों से बनी रंगबिरंगी मठरी।

मैं पुन: प्लेट साफ करता हूं। मठरी और गुझिया को प्लेट में रख कर फोटो लेता हूं। शान्त भाव से दुहराता हूं – “ब्रह्मार्पणम ब्रह्महवि, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम… ।” मैं भगवान को और अपनी पत्नी को धन्यवाद दे कर उदरस्थ करता हूं – मठरी और गुझिया।

अकेले, चुपचाप लंच का नीरस अनुष्ठान भी यज्ञ होना चाहिये, बन्धु! भले ही उसमें एक पोस्ट निचोड़ने की इच्छा निहित हो। 


और यह लीजिये टिर्री का बाप; जुगाड़:

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यह वाटर-पम्पिंग के लिये प्रयुक्त डीजल इन्जन का प्रयोग करता है और बिना रजिस्ट्रेशन के वाहन के रूप में पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय है। कहना न होगा कि समपार फाटक (रेलवे लेवल क्रासिंग) पर बहुत सी दुर्घटनाओं का निमित्त जुगाड़ है।

यह चित्र भी हमारे अलीगढ़ के मण्डल यातायात प्रबन्धक श्री डी. मिंज के सौजन्य से है।  


nishant मेरे और निशान्त मिश्र में क्या साम्य है? शायद कुछ भी नहीं। निशान्त एक दक्ष अनुवादक लगते हैं। उनकी जेन/ताओ/सूफी/हिन्दू प्रेरक कथाओं के अनुवाद मुझे अपने मोहपाश में बांध चुके हैं। इतना सुन्दर अनुवाद --- और मैं अंग्रेजी से हिन्दी बनाने के अटपटे शब्दों से उलझता रहता हूं।

मुझसे बीस साल छोटे निशान्त मुझे ईर्ष्याग्रस्त कर रहे हैं अपनी केपेबिलिटीज से। अपने बौनेपन पर केवल हाथ ही मल सकता हूं मैं! और यह आशा कर सकता हूं कि फुरसतिया इससे मौज न निचोड़ लें!


32 comments:

  1. जब खाने वाला भी वही हो जो खाया जा रहा है तो दुनिया में यज्ञ के सिवा कोई गतिविधि है क्या। मुझे तो लगता है गति, काल और यज्ञ तीनों पर्याय हैं।
    जुगाड़ हमारी व्यवस्था का एक सुंदर नमूना है।

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  2. एक सौजन्यता पूर्ण सुझाव है -लंच पर कभी आमंत्रित कर सकते हैं -अकेले कुछ भी उदरस्थ करना हिंस्र वृत्ति है ! बुलाएं तो आऊँ भी बिन बुलाए यह शख्स भी भगवान् के पास भी न जाये !
    निशांत मिश्र सचमुच डिजर्व करते हैं यह मेरी एक बहुत सम्मानित मित्र की टिप्पणी से भी पूर्व प्रमाणित है !
    फुरसतिया जी बस अपना मन बहलाव कर रहे है वरना सचमुच हिन्दी ब्लोगिंग में कुछ खास अब भी नहीं है !

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  3. ये टिर्री तो बहुते खतरनाक है..धन्य हुए देख कर. निशान्त जी के लेखन के हम भी मुरीद है.

    मठरी, गुजिया दिखा कर ललचवा रहे हैं.

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  4. मठरी गुझिया की फ़ोटो देख कर तो लगा कि आपका कितना सादा खाना है? एक टमाटर की स्लाईस और एक छीली हुई सेव (एपल) का टुकडा लगा हमें तो. वाकई बनाने वाले को बहुत बधाई. और ये जानकर और भी अच्छा लगा की प्राकृतिक रंगो से बनाई गई हैं.

    और जोगाड तो हमारे हरयाणा मे हम काफ़ी समय से देखते आ रहे हैं.

    रामराम.

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  5. ये मठरी और गुझिया देखकर तो जीभ लपलपायी। चुकन्दर और धनिया। वाह क्या बात है।

    आपसे ब्लॉगरी में ‘जुगाड़’ की खोज करने का तरीका सीखेंगे हम। हाइली जुगाड़ात्मक पोस्ट ठेल दी आपने। हें हें हें हें :D

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  6. अकेले भोजन करना तो बहुत ही कठिन है।वैसे ये आपके जुगाड़ ने भी चौंका कर रख दिया।

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  7. ज्यादा मठरी और गुझिया सेहत के लिए हानिकारक हो न हो पर अपने से छोटों से ईर्ष्या जरूर हानिकारक है

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  8. प्रणाम
    गुझिया और मठरी देख कर तो लालच आ गया .
    निशांत जी द्वारा प्रस्तुत की गयी कहानिया बहुत अच्छी और प्रेरणा दायक हैं .

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  9. हम तो खाना खुद ही बनाते है और अकेले में खुद ही उदरस्थ करते है.. मंत्रोच्चारण कि आवश्यकता तो होती ही है.. क्योंकि खाना खुद बना रहे है.. कभी मिर्ची ज़्यादा हो जाती है तो कभी हल्दी.. पर सोचते आयी किस बात कि जल्दी.. तो अब तो सब मसालो से दोस्ती हो गयी.. अब खाना अच्छा बनता है..

    खैर जुगाड़ के बारे तो हमने भी बताया था.. आपने तो फोटो ही चिपका दी.. आप तो बड़े फॉर्वर्ड निकले..

    पर ये ईर्ष्याग्रस्त होने वाली बात जमी नही.. अपने को तो कोई अपने से इक्कीस मिल जाए तो स्‍वस्थ प्रतियोगिता ज़रूर कर लेते है.. खैर आपको क्या समझाए आप तो स्वयं ज्ञानी है..

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  10. खाना हम भी कार्यालय में ही खाते है, घर दूर नहीं मगर समय बचता है.

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  11. पहले यह वाक्य : "मठरी और गुझिया को प्लेट में रख कर फोटो लेता हूं।"
    फिर यह : "शान्त भाव से दुहराता हूं – “ब्रह्मार्पणम ब्रह्महवि, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम… ।”

    कितना विशाल समन्वय है क्रिया के विपरीत स्वभाव का । फोटो न हुई, मंत्रोच्चार के पहले का संस्कार हो गया ।

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  12. सरजी खाने के मामले में मैं एकैदम एकांतप्रिय हूं। पब्लिक सेक्टर खाने में खाने का पता नहीं चलता कि कित्ता खाया गया। कम या ज्यादा का पता नहीं चलता। खाने के साथ पढ़ने की बुरी लत आपको है या नहीं।

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  13. अरे ये तो नई तरह की मठरी पता चली । रीता जी को धन्यवाद कहियेगा ।

    और इस तरह के जुगाड़ तो हमने खूब देखें है ।

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  14. सचमुच अकेले में भोजन करना बड़ा अखर जाया करता है...

    जुगाड़ तो एकदम लाजवाब है...

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  15. अच्छी जानकारी.

    बस लंच का समय और छप जाता तो अच्छा रहता.

    भारत तो जुगाड् से ही चल रहा है .

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  16. एक पोस्‍ट निचोडने की इच्‍छा ही लगती है अन्‍यथा (आप चाहे जो समझें) अकेले भोजन करना मुझे तो किसी कठोर दण्‍ड से कम नहीं लगता।

    पता नहीं क्‍यों सब लोग 'जुगाड' पर इतना इतरा रहे हैं। मेरे कस्‍बे में भी थोक में उपलब्‍ध हैं।

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  17. लंच यज्ञ या यज्ञ लंच?

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  18. ठीक कह रहे है अनुपम जी लंच का समय छाप देते तो इलाहबाद के चक्कर में किसी रोज आपको कम्पनी दे देते....ये गुंजिया क्या आल सीसन अवलेबल रहती है आपके इलाहबाद में ?

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  19. rangeen mathri bananey ki vidhi bhi likiye kripyaa ..

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  20. कलर फुल लंच . आप जैसे अल्पहारी के लिए , इतना तो हम लंच के बाद खाते है

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  21. ग़ज़ब. वैसे आपका जुगाड पूरे उत्तर भारत नहीं, सिर्फ पश्चिमि उत्तर प्रदेश और हरियाणा में चलता है. आपके इलाहाबाद में ही मैने कभी नहीं देखा.

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  22. मठरी और गुझिया को उदरस्त करके आपने भाभीजी के प्रेम का सम्मान रख लिया:) बधाई।

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  23. चलिये खाईये आप, हमे को ललचावा रहे है? बाकी यह जुगाड तो मुझे बहुत ही खतरनाक लगे...

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  24. मठरी और गुझिया को उदरस्त करने का आनंद मै जब तक इलाहाबाद में रहा तरसता ही रह गया क्योंकि वह दौर होस्टल में रहने का था १९८५ से १९९८ तक | फिर होस्टल वाले लड़कों को कौन घर बुलाता है खास करके अपने इलाहाबाद में|आपकी पोस्ट से और मानचित्र से अपना इलाहाबादी जीवन याद आ गया |

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  25. ...और यह आशा कर सकता हूं कि फुरसतिया इससे मौज न निचोड़ लें!
    आपकी आशा का सम्मान करते हुये कुछ नहीं लिख रहा हूं!

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  26. शिव जी ने गुझिया सम्मलेन में कितने टाइप की गुझिया बनवाई थी और एक आप है, खाली फोटो दिखा रहे हैं...भई कम से कम मठरी की recipe तो डाल देते...हम जैसों का कुछ भला हो जाता.

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  27. आप का लंच बस इतना सा![शायद dieting पर हैं??]
    वैसे इतना तो खाने के बाद खाया जाता है...
    'मठरी तो स्पेशल है – चुकन्दर, धनिया और हल्दी के प्राकृतिक रंगों से बनी रंगबिरंगी मठरी।'
    गुजिया और मठ्ठी का चित्र देख कर ही मन खुश हो गया .
    ऐसी मठ्ठी पहले कभी नहीं देखी..इतनी रंग-बिरंगी !वाह!

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  28. भोजन तो अपना भी घर पर ही होता है, दफ़्तर और घर एक ही है! पहले जब अलग थे तो सहकर्मियों के साथ भोजन का अलग मज़ा था, वह मज़ा अकेले भोजन करने में नहीं है लेकिन अब थोड़ी आदत हो गई है। :)

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  29. हम तो लंच में जो खाते हैं ना ही बताएं तो बेहतर है. अभी शुकुलजी ने एक दिन फोन पर कहा : 'क्या मैगी खाने के लिए ही मम्मी-पापा ने पढाया था !' अंट-शंट खाकर परेशान हो चुके हैं. पर हाँ अकेले कभी नहीं करते :-)

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  30. मरफी का नियम फिर सत्य साबित हुआ, आप को आशा में निहित डर लगा और और फुरसतिया ने मौज निचोड़ ही ली - जैसे कि आपने डर को व्यक्त नहीँ किया, वैसे ही प्रोटोकॉल में फुरसतिया ने भी कह दिया कि आपकी आशा का सम्मान है।
    "जुगाड़" को तो हम अप्रशिक्षित भारतीयों के यांत्रिकी कौशल के रूप में देखते थे और सम्मान करते थे। आपने उसके असुरक्षा वाले पहलू की ओर ध्यानाकर्षण करवाया है।
    ज़ेन कथाओं का प्रस्तुतीकरण वास्तव में सराहनीय प्रयास है। यह बात और है कि हम इर्ष्या कर ही नहीँ सकते क्योंकि हम लिखते ही नहीँ है (लगभग) इसलिये कोई इर्ष्या भी नहीँ।

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  31. घर का खाना और मँत्रोच्चार,
    भोजन आरोग्य प्रदायक बना देता है
    निशाँत भाई द्वारा प्रस्तुत की हुई कथाएँ
    बहुत अच्छी हैँ
    - लावण्या

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  32. अरे! हमें प्रसिद्द हुए इतने दिन हो गए और हमें आज पता चल रहा है! धन्यवाद, ज्ञानदत्त जी! मेरे ब्लॉग पर आनेवाले और उसकी प्रशंसा करनेवाले अन्य ब्लॉगर मित्रों का भी मैं आभारी हूँ.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय