Sunday, November 18, 2007

गन्ना खरीद के भाव तय करने में कोर्ट की भूमिका


कोटा-परमिट राज में सरकार तय करती थी चीजों के भाव। अब उत्तरोत्तर यह कार्य कोर्ट के हस्तक्षेप से होने लगा है। Bamulahija बामुलाहिजा में कीर्तिश भट्ट का कुछ दिन पहले एक कार्टून था कि मध्यप्रदेश में दूध के भाव सुप्रीम कोर्ट तय करेगा। लगभग उसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तय किया कि उत्तर प्रदेश में गन्ना का खरीद मूल्य 110 रुपये प्रति क्विण्टल रखा जायेगा। चीनी मिलें गन्ने का खरीद मूल्य 60 रुपये मात्र देने को राजी थीं - वर्ष 200708 के लिये। केन्द्र सरकार का वैधानिक न्यूनतम रेट 85-90 रुपये है वर्तमान सीजन के लिये। उत्तर प्रदेश सरकार ने चीनी मिलों को 125 रुपये प्रति क्विण्टल देने को कहा था।

उत्तर प्रदेश सरकार का आदेश इस प्रकार का नहीं था कि अगर चीनी मिलें गन्ना नहीं खरीदतीं तो सरकार उस कीमत पर खरीदेगी - जैसा 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' के मामले में होता है। इस आदेशानुसार चीनी मिलों को ही खरीद करनी थी। चीनी मिलें इस मूल्य पर खरीद की बजाय उत्पादन न करने का विकल्प तलाश रही थीं। अब हाई कोर्ट ने थोड़े घटे मूल्य पर खरीदने को कहा है। Sugar

यह कीमतें तय करने का कृत्रिम तरीका प्रतीत होता है। अगर चीनी मिलें समय पर गन्ना खरीद का पैसा किसान को नहीं देतीं तो कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिये। पर खरीद मूल्य बाजार को ही तय करने चाहियें। मान लें कि किसी दशा में खरीद मूल्य कम रहता है - उस दशा में सभी चीनी उत्पादन में कूदेंगे और प्रतिस्पर्धा के चलते खरीद मूल्य स्वत: ही बढ़ेगा और उस स्तर पर आ जायेगा जिसे स्वस्थ मार्केट कण्डीशन तय करेंगी। और अगर पेट्रोल की दरों में सरकारी नियंत्रण कम हो तो शायद गन्ना वैकल्पिक ऊर्जा का स्रोत बन सके और गन्ना उत्पादकों को बेहतर मूल्य स्वत: मिलें।  

पर यदि भावों को लेकर राजनीति चलती रही तथा चीनी का आयात-निर्यात बाजार की आवश्यकताओं से परे किन्ही अन्य कारणों के आधार पर तय होते रहे तो भाव तय करने में न्यायालय की भूमिका उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी। न्यायालय को भाव तय करने पड़ें - यह बहुत स्वस्थ दशा नहीं है समाज या अर्थव्यवस्था की। और कोई आशा की किरण नजर नहीं आती।     


9 comments:

  1. यदि नेता काम ना करे तो कोर्ट आ जाता है. कहीं ऎसा ना हो कि भारत में पाकिस्तान के सैनिक शासन की तर्ज पर कोर्ट शासन आ जाये और फिर से आपात काल लगा दिया जाये.

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  2. जी हाँ मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ. सरकार को इस सब से बाहर रहना चाहिए. आख़िर डिमांड - सप्लाई नाम की भी कोई चीज़ है !

    वैसे गन्ना उगाने वाले किसानों के साथ ऐसा ही हुआ है. न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादकों ने भी कृषि मंत्री शरद पवार की नाक में दम कर रखा है. ज्ञात हो की पवार जी की कार्यभूमि गन्ना उपजाऊ मराठवाडा बेल्ट है.

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  3. बढिया मुद्दा उठाया है। आप कुछ किसानो से भी मिल लीजियेगा ताकि उनका पक्ष भी सामने आ जायेगा।

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  4. मामला वाकई गंभीर है ज्ञान जी. अगर ऐसा ही चलता रहा तो कानून की मूर्ती कुछ ऐसी होगी - जिसके एक हाथ मे तराजू और दूसरे में भाव-सूची होगी.

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  5. अदालत वाले लोग लगता है आपका ब्लाग पढ़ते हैं। जैसे आपका ब्लाग बहुआयामी है वैसे ही कोर्ट विविधता पूर्ण निर्णयों में लग गया है। वैसे यह अपने समाज का सच है कि हम अपना काम छोड़कर दुनिया भर के काम में लगे रहते हैं। :)

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  6. न्यूनतम समर्थन मूल्य का मौजूदा संदर्भ यह है कि लेफ्ट का न्यूनतम समर्थन मूल्य यह है कि हम न्यूक्लियर पर क्लियरेंस दे देंगे, पर आप नंदीग्राम पर अंधीग्राम हो जाना। न्यूनतम समर्थन मूल्य ने चौपटीरकरण कर रखा है। लेफ्ट जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य कहकर वसूल रहा है, वह अधिकतम समर्थन मूल्य साबित होगा। पर क्या करें, सरकार चलानी है तो मूल्य तो देना ही होगा।

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  7. ज्ञान भईया
    गन्ने और चीनी से हमारा सम्बन्ध मात्र खाने तक रहा है. कीमतों के बारे में सोचा ही नहीं.आप सही मुद्दा उठाएं हैं. हम तो आप के ब्लॉग लेखन पर उठाये गए विभिन्न प्रकार के विषयों को लेकर चकित हैं.ये ही एक ज्ञानी और अज्ञानी(मेरे) के लेखन में अन्तर है.

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  8. दिलचस्प विषय है । जब सब काम अदालत ने ही करने हैं तो कुछ मंत्रालयों की बजाय और अदालतें खोल देनी चाहिये ।
    घुघूती बासूती

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  9. जी हाँ मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ. सरकार को इस सब से बाहर रहना चाहिए. आख़िर डिमांड - सप्लाई नाम की भी कोई चीज़ है !

    वैसे गन्ना उगाने वाले किसानों के साथ ऐसा ही हुआ है. न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादकों ने भी कृषि मंत्री शरद पवार की नाक में दम कर रखा है. ज्ञात हो की पवार जी की कार्यभूमि गन्ना उपजाऊ मराठवाडा बेल्ट है.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय