Friday, November 16, 2007

बम्बई जाओ भाई, गुजरात जाओ


मेरी सरकारी कार कॉण्ट्रेक्ट पर है। ठेकेदार ने ड्राइवर रखे हैं और अपनी गाड़ियाँ चलवाता है। ड्राइवर अच्छा है। पर उसे कुल मिलते हैं 2500 रुपये महीना। रामबिलास रिक्शेवाला भी लगभग इतना ही कमाता है। मेरे घर में दिवाली के पहले पुताई करने वाले आये थे। उन्हें हमने 120 रुपया रोज मजूरी दी। उनको रोज काम नहीं मिलता। लिहाजा उनको भी महीने में 2000-2500 रुपये ही मिलते होंगे।

tailors कल मैं अपनी पत्नी के साथ टेलर की दूकान पर गया। मास्टर ने दो कारीगर लगा रखे थे। उनसे मैने पूछा कितना काम करते हो? कितना कमाते हो? उन्होने बताया कि करीब 10-12 घण्टे काम करते हैं। मास्टर ने बताया कि दिहाड़ी के 100 रुपये मिलते हैं एक कारीगर को। कारीगर ने उसका खण्डन नहीं किया। मान सकते हैं कि इतना कमाते हैं। यह भी पड़ता है 2500 रुपया महीना।

मेरी पत्नीजी का अनुमान है कि अगर घर का हर वयस्क इतना कमाये तो परिवार का खर्च चल सकता है। यह अगर एक बड़ा अगर है। फिर यह भी जरूरी है कि कोई कुटेव न हो। नशा-पत्ती से बचना भी कठिन है।

कुल मिला कर इस वर्ग की आमदनी इतनी नहीं है कि ठीक से काम चल सके।

'ब' बम्बई से मुझे फोन करता है - भैया, बम्बई आई ग हई (भैया बम्बई आ गया हूं)। उसे मैने सीड मनी के रूप में 20,000 रुपये दिये थे। कहा था कि सॉफ्ट लोन दे रहा हूं। साल भर बाद से वह 500 रुपये महीना ब्याज मुक्त मुझे लौटाये। उस पैसे को लेकर वह बम्बई पंहुचा है। बाकी जुगाड़ कर एक पुरानी गाड़ी खरीदी है और बतौर टेक्सी चलाने लगा है। मैं पैसे वापस मिलने की आशा नहीं रखता। पर अगर 'ब' कमा कर 4000-5000 रुपया महीना बचाने लगा तो उसका पुण्य मेरे बहुत काम आयेगा।

'स' मेरे पास आया था। बोला मूंदरा पोर्ट (अडानी का बन्दरगाह, गुजरात) जा रहा है। उसका भाई पहले ही वहां गया था - 8-10 महीना पहले। वह 7000 रुपया महीना कमा रहा है। इसे 3500 रुपया शुरू में मिलेगा पर जल्दी ही यह भी 7000 रुपया कमाने लग जायेगा। Car Driver

मैं तुलना करता हूं। अपने ड्राइवर को कहता हूं कि बम्बई/अहमदाबाद क्यों नहीं चला जाता। भरतलाल के अनुसार खर्चा-खुराकी काट कर एक टेक्सी ड्राइवर वहां 5000 रुपया महीना बचा सकता है। मैं ड्राइवर से पूछता हूं कि वह इलाहाबाद में क्यों बैठा है? वह चुप्पी लगा जाता है। शायद स्थितियाँ इतना कम्पेल नहीं कर रहीं। अन्यथा मैं तो इतने लोगों को देख चुका हूं - यहां इलाहाबाद में और वहां बम्बई गुजरात में - कि सलाह जरूर देता हूं -

भाई, बम्बई जाओ, गुजरात जाओ।

आपके अनुसार यह सलाह उचित है या नहीं? 


19 comments:

  1. आप की सलाह उचित है या नहीं यह तो सलाह प्राप्त्‍ करने वाले ही तय करेंगे। पर इस जिस जीवन को वह यहां जी रहा है वह पीछें जरूर छूट जाएगा। अभी कमाई केवल जीवन के लिए है। बम्बई और गुजरात जा कर जीवन कमाई के लिए तो नहीं हो जाएगा?

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  2. इलाहाबाद में वे लोग दो ढाई हजार में जीवन यापन कर लेते होंगे और शायद खुश भी रहते होंगे.बम्बई या गुजरात जाकर इसके दुगने पैसे में भी कुछ ना हो पायेगा.

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  3. इलाहाबाद से बंबई आकर वो 10,000 भी कमा लेगा तो, शायद दुखी ही जियेगा। अपने ड्राइवर को कहिए अपना स्किल बढ़ाए। खाली समय का थोड़ा औऱ सदुपयोग करे। वहीं सुखी रहेगा। घर-परिवार सब बढ़िया रहेगा।

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  4. 'ब' बम्बई का हाल तो 'अ' अभय अच्छी तरह से बता सकते हैं।

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  5. यदि सलाह चिट्ठेबाजों के लिये है तो यह उचित नहीं है. लेकिन यदि यह घरों मे दिखने वालो नौकरों, ड्राईवरों एवं अडोस पडोस के इस किस्म के कामागारों के लिये है तो अच्छा है. यदि जवानी में उन लोगों को कुछ अतिरिक्त पैसे मिल जायें तो कम से कम कुछ कुटुम्ब और तर जायेंगे. इस नजरिये से मैं हाल ही में ग्वालियर से कुछ मजदूरों को केरल लाने जा रहा हूं क्योंकि यहां मजदूरों की बहुत कमी है एवं मप्र से तिगुनी कमाई हो जाती है -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
    हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
    मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
    लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??

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  6. मेरे खयाल में आदमी कमाता कितना है, यह मह्त्त्वपूर्ण नही है, बचाता कितना है ये ज्यादा महत्वपूर्ण है। मुम्बई जैसी जगह पर खर्चा ज्यादा होगा ये तो पक्का है...सो थोडे बहुत अंतर के लिये तो वहां ना ही जाया जाए तो अच्छा।
    दूसरी बात, वो जो ’अगर’ ऊपर लगाया था...घर से दूर रहेगा, अकेला रहेगा तो कुटेव/नशा-पत्ती की संभावना ज्यादा रहेगी।

    लेकिन..इसके विपरीत, ये भी है, कि अगर वाकई जीवट वाला इंसान होगा, तो बडी जगहों पर संभावनाएं अनंत हैं, १०,००० क्या...१,००,००० भी मिलेगा।

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  7. देखना चाहिए कि गुजरात वाले कहाँ जाते हैं?
    अमरीका, घाना, उगांडा, इंग्लैंड, कीन्या।

    देश के उपजाऊ इलाकों में पारंपरिक रूप से जमीन से एक धर्मांधतात्मक जुड़ाव है जो आज कल आर्थिक - और चारित्रिक (भूखे भजन न होय गोपाला!) रूप से अतर्कसंगत है।

    गुजरात में गाँव के गाँव ऐसे हैं जहाँ लोग आते जाते रहते हैं, गाँव से जुड़े रहते हैं, वहाँ की सुविधाओं को सुधारने में भी मदद करते हैं, बिना सरकार की राह देखे, बिना हाथ पर हाथ धरे। सभी धन्ना सेठ नहीं हैं - झाड़ू पोछा, ड्राइवरी आदि कर के भी पैसे कमाते हैं। उन्हें गद्दार का दर्जा नहीं दिया जाता। क्योंकि समुदाय को भी मालूम है कि इससे सबका भला हो रहा है।

    आपने यह प्रश्न पूछा कि आपकी सलाह सही है या गलत। यह प्रश्न पूछना ही अपने आप में कुछ बताता है।

    मुझे नहीं लगता कि गुजरात के लोग ऐसे प्रश्न बहुत बार पूछते होंगे, पर इसपर अधिक प्रकाश तो गुजरात निवासी ही डाल सकेंगे।

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  8. आलोक> 'आपने यह प्रश्न पूछा कि आपकी सलाह सही है या गलत। यह प्रश्न पूछना ही अपने आप में कुछ बताता है।'
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    मैं आपसे कहे से पूरी तरह सहमत हूं। सही गलत का सवाल पूछना संशय की अवस्था में होना नहीं; पाठक को टटोलने के लिये है। और आप देख भी रहे हैं - कोई आम राय सी नहीं बन रही!

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  9. देखिये सर परिस्थिति जटिल है. समस्या गंभीर है. बहुत चिंतन करना पड़ेगा. हो सकता है एक आध प्रयोग भी करना पड़े. एक बार बम्बई और गुजरात जा आऊं फ़िर ही कुछ बता पाऊंगा.

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  10. यह तो अपना-अपना नजरिया है अपनी-अपनी सोच है। सिर्फ पैसे के नजरिये से देखना ठीक नही जान पडता। मेरा ही उदाहरण ले हर्बल की तो दुनिया दीवानी है। दुनिया भर के शोध संस्थानो और कम्पनियो से आमंत्रण है। पर समस्त उपेक्षा और भारी भ्रष्टाचार के बाद भी भारत मे ही रहने का जी करता है। लगता है कुछ भी है यहाँ अपने लोग है और हम अपनी क्षमता से इनकी सहायता नही करेंगे तो कौन करेगा। विदेशो मे बैठकर भारत के बारे मे स्वप्न देखना आसान है पर यहाँ रूककर काम करना मुश्किल।

    फिर वापस लौटे। मेरे क्षेत्र मे पैसे विदेशो की तुलना मे बहुत कम है फिर भी मै बम्बई जाओ और गुजरात जाओ के नारे अनसुना करना पसन्द करता हूँ।

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  11. आप हमारे ब्लॉग पर पोस्ट की ग़ज़ल का ये शेर तो पढे ही होंगे :
    "वो ना महलों की झूटी शान में है
    जो सुकूं गावं के मकान में है "
    मुम्बई या गुजरात में पैसा कमाया जा सकता है लेकिन उसकी बहुत भारी कीमत अदा करनी होती है. हर कोई इलाहबाद से आके "अमिताभ" नहीं बन जाता.
    बाकि नसीब अपना अपना, कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं .
    नीरज

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  12. जहां कमाई की संभावनाएं वहां जाना चाहिए। वैसे बंबई क्यों, दुबई, या अमेरिका की सलाह दी जा सकती है। छोटे शहरों के अपने आनंद हैं, अपने सुख हैं, अपने दुख हैं। मुंबई दिल्ली खासी परीक्षा लेते हैं, पर इस परीक्षा में जो पास हो लेता है, वह कम से कम इस दुख से बच जाता है कि वह सिर्फ ढाई हजार कमाता है। पर इन शहरों में अलग किस्म के दुख घेर लेते हैं। बात ये है जी लाइफ ससुरी दुखों का एक्सचेंज आफर है, इलाहाबाद के दुखों का एक्सचेंज मुंबई के दुखों से कर लो। मुंबई के दुखों का एक्सजेंट टोरंटो के दुखों से कर लो। नये दुख कुछ समय तक सताते हैं, फिर आदत हो जाती है।
    वैसे व्यावहारिक सलाह यही है कि जहां चार पैसे ज्यादा मिलें, बंदे को चला जाना चाहिए।
    जेब में पैसे हों, तो कुछ दुख झेलेबल हो जाते हैं। घर-परिवार-नाते-रिश्तेदारों की नजदीकी फालतू की बात है, जहां बंदा चार पैसे कमाता है, सब कुछ वहीं बन जाता है।

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  13. अपन ज्ञानी है न सेंटीं हुए जा रहे है. आदमी खुद ही तय करे की उसे क्या चाहिए? और फिर अपना गंतव्य तय करे. ज्यादा मजूरी चाहिए तो वैसी जगह जाये, शांति चाहिये तो वैसी जगह जाये. यहाँ बात ज्यादा कमाने की हो रही है तो ज्ञानजी ने सही सलाह दी है.

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  14. पहले ऐसा सलाह देने लायक बन तो जाऊं!! अभी तो खुद ही सलाहें झेलता रहता हूं!!

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  15. मैं तो बम्बई भी रह चुका और गुजरात में भी... बस इतना क्हना चाहूंगा कि दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं।

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  16. ज्ञानदत्त जी नमस्कार ,
    हिन्दी ब्लोगिंग के क्षेत्र मैं थोड़ा नौसिखिया हूँ. काकेश जी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियां पढीं तो खिंचा आया. आपके सवाल को यदि थोड़ा व्यापक बना कर मैं अपने ऊपर लागू करूँ तो यही कहूँगा कि पैसा तो है मगर वो घर वो गलियारा कहाँ ? व्यापक बनाने की बात इसलिए क्योंकि मैं थोड़ा "हाई एंड" का वर्कर हूँ :)

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  17. ये सही है कि २५०० रूपये महीना कम है पर कम से कम अपनों के साथ तो रह रहा है।

    और जैसा कि आपकी पत्नी ने कहा वैसा भी आम तौर पर होता है। मतलब एक घर मे कई कमाने वाले।

    और पैसा तो ऐसी चीज है कि अगर है तो भी आदमी परेशान और नही है तो भी आदमी परेशान ही रहता है।

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  18. ज्ञान जी मैं पिछले कई दशकों से मुम्बई हूँ, मेरे घर में तीन सदस्य और सब कमाऊ, 2500 से कही कहीं ज्यादा, मजे की जिन्दगी, पर ये कहना की इतनी बचत हो सकेगी जितनी आप हिसाब लगा रहे है तो गलत हैं। आलोक जी सही कह रहे है कि हर शहर के अपने दु:ख हैं और सागर जी भी सही कह रहे है कि दूर के ढोल सुहावने लगते है। हमसे पूछिए हम छोटी जगह जा कर बस जाने का सपना देखते हैं जो कभी पूरा नहीं होगा,

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  19. हम क्या बोलें, देश से दूर विदेश में .... अब तो बस जो उत्तरदायित्त्व उठाएँ हैं उन्हें निभाना कर्तव्य मानकर चलते जा रहे हैं.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय