Friday, August 24, 2007

टीटीई की नौकरी के विरोधाभास


ट्रेन के समय पर कोच के टीटीई को निहारें. आप कितने भी लोक प्रिय व्यक्ति हों तो भी आपको ईर्ष्या होने लगेगी. टीटीई साहब कोई बर्थ खाली नहीं है कहते हुये चलते चले जा रहे हैं; और पीछे-पीछे 7-8 व्यक्ति पछियाये चल रहे हैं. टीटीई साहब मुड़ कर उल्टी दिशा में चलने लगें तो वे सभी लोग भी पलट कर फिर पछिया लेंगे.बिल्कुल अम्मा बतख और उसके पीछे लाइन से चलते बच्चे बतखों वाला दृष्य!

टीटीई साहब को गोगिया पाशा से कम नहीं माना जाता. वे आपके सामने पूरा चार्ट फैलादें, पूरी गाड़ी चेक कर दिखादें कि कोई बर्थ खाली नहीं है. पर हर आदमी सोचता है कि वे अगर इच्छा शक्ति दिखायें तो आसमां में सुराख भी कर सकते हैं और एक बर्थ का जुगाड़ भी. उनके पीछे चलने वाली "बच्चा बतख वाली" जनता यही समझती है. इसी समझ के आधार पर अर्थशास्त्र की एक शाखा कार्य करती है. कई उपभोक्ता लोग हैं जिन्हे इस अर्थशास्त्र में पीएचडी है. और वे इस अर्थशास्त्र को गाहे-बगाहे टेस्ट करते रहते हैं.

मेरे पिताजी किस्सा सुनाते है कि उनके छात्र होने के दिनों में फलाना टीटीई था, जिसका आतंक इलाहाबाद से मेजा-माण्डा तक चलने वाले स्टूडेण्टों पर बहुत था. टीटीई-पावर और स्टूडेण्ट-पावर में अंतत: स्टूडेण्ट-पावर जीती. स्टूडेण्टों ने एक दिन मौका पा कर टौंस नदी में उस फलाने टीटीई को झोक कर उसका रामनाम सत्त कर दिया. यह आज से 50 साल पहले की बात होगी.वैसे मैं अपने पिताजी की पुराने समय की बातों को चुटकी भर नमक (पिंच ऑफ सॉल्ट) के साथ ही लेता हूं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने दिनों के जितने वे किस्से सुनाते हैं; उन्हें वैलिडेट करने का मेरा न कोई मन है और न संसाधन. पर फलाने टीटीई के टौंस नदी में झोंकने की जो कथा वे सुनाते हैं, उससे छात्र वर्ग में टीटीई के प्रति गहन अरुचि स्पष्ट होती है.

रेलवे की दुनिया

(रामदेव सिंह के सन 1999 में जनसत्ता में छपे एक लेख के अंश):

रेलवे जनसेवा का एक ऐसा उपक्रम है, जिसकी संरचना वाणिज्यिक है, जिसके रास्ते में हजार किस्म की परेशानियां भी हैं. राष्ट्रिय नैतिकता में निरंतर हो रहे ह्रास से इस राष्ट्रीय उद्योग की चिंता भला किसे है? रेलवे में टिकट चेकिंग स्टाफ की आवश्यकता ही इसलिये हुई होगी कि वह रेलवे का दुरुपयोग रोके और डूब रहे रेलवे राजस्व की वसूली करे. अंग्रेज रेल कम्पनियों के दिनों में ही टीटीई को ढेर सारे कानूनी अधिकार दे दिये गये थे. लेकिन उससे यह उम्मीद भी की गयी थी कि वह "विनम्र व्यवहारी" भी हो. रेल में बिना टिकट यात्रा ही नहीं, बिना कारण जंजीर खींचने से लेकर रेल परिसर में शराब पीना और गन्दगी फैलाना तक कानूनन अपराध है. एक टीटीई की ड्यूटी इन अपराधों को रोकने एवम अपराधियों को सजा दिलाने की है लेकिन शर्त यह है कि होठों पर मुस्कुराहट हो. कितना बड़ा विरोधाभास है यह. अब खीसें निपोर कर तो ऐसे अपराधियों को पकड़ा नहीं जा सकता है. जाहिर है इसके लिये सख्त होना पड़ेगा. सख्त हो कर भी 20-25 के झुण्ड में जंजीर खींच कर उतर रहे "लोकल" पैसेंजर का क्या बिगाड़ लेगा एक टीटीई?@

ब्लॉग पढ़ने वाले 8-10 परसेण्ट लोग परदेस में भी हैं - वहां टीटीई जैसी जमात के क्या जलवे हैं? कोई सज्जन बताने का कष्ट करेंगे?

जलवे तो तभी होते हैं जब डिमाण्ड-सप्लाई का अंतर बहुत हो. यह अंतर टीटीई की "जरूरत" और ग्राहक की "तत्परता" में हो या ट्रेनों में उपलब्ध बर्थ और यात्रा करने वालों की संख्या में हो. आप समझ सकते हैं कि जलवे ग्रीष्मकाल या दशहरा-दिवाली के समय बढ़ जाते हैं. ऐसा कोई अध्ययन तो नहीं किया गया है कि इस जलवे के समय में टीटीई वर्ग छुट्टी ज्यादा लेता है या वर्षा ऋतु के चौमासे में. पर यह अध्ययन किसी रिसर्च स्कॉलर को एच.आर.डी. में पीएचडी की डिग्री दिलवा सकता है.

मैं यहां टीटीई पर केवल व्यंग नहीं करना चाहता. उनकी नौकरी में जोखिम बहुत हैं. बहुत से वीवीआईपी सही-गलत तरीके से यात्रा करते हैं. कभी किसी सही को गलत तरीके से या गलत को सही तरीके से उन्होनें चार्ज कर लिया तो बड़ा हाई-प्रोफाइल मामला बन जाता है - जो बड़ों-बड़ों के सलटाये नहीं सलटता. बेचारे टीटीई की क्या बिसात! उसकी नौकरी तलवार की धार पर है. इसके अलावा उस जीव से दो विरोधी आवश्यकतायें हैं - व्यवहार विनम्र हो और बिना टिकट की वसूली कस के हो. भारत में शराफत से सीधी उंगली कुछ नहीं निकलता. अत: जब टीटीई यात्रियों से जायज पैसे वसूलता है तो उसपर अभद्र व्यवहार, नशे में होने और (अनुसूचित जाति-जनजाति के मामले में) जाति सूचक अपशब्द प्रयोग करने के आरोप तो फट से लगा दिये जाते हैं. हर तीसरा-चौथा टीटीई इस प्रकार की शिकायत का जवाब देता पाया जाता है. और अगर वह जड़भरत की तरह निरीह भाव से काम करता है - तो उसे प्रशासन की लताड़ मिलती है कि वह कसावट के साथ टिकट चैकिंग नहीं कर रहा.

जब टीटीई की बात हो रही है तो मैं एक टीटीई की भलमनसाहत की चर्चा के बिना नहीं रह सकता. हम लोग, एक दशक से भी अधिक हुआ, रेलवे स्टाफ कॉलेज बडौदा में कोई कोर्स कर रहे थे. हमें दो-दो के ग्रुप में बडौदा स्टेशन पर कर्मचारियों की कार्य के प्रति निष्ठा जांचने भेजा गया. चूकि हम लोग लोकल नहीं थे, हमें बतौर यात्री स्वांग रच कर यह जांचने को कहा गया था. मेरे साथ मेरे मित्र थे. हेड टिकेट कलेक्टर के दफ्तर के बाहर मैं अचानक लंगड़ाने लगा. मेरे मित्र मुझे सहारा देकर हेड टीसी के दफ्तर में ले कर गये. मैने पूरी पीड़ा से बयान किया कि फुट ओवर ब्रिज से उतरते हुये सीढ़ियों की चिकनाहट से मेरा पैर स्लिप कर मोच खा गया है. तेज दर्द है. हेड टीसी ने तुरंत मुझे बैठने को कुर्सी दी. मोजा उतार कर मेरा पैर चेक किया और बोला कि फ्रेक्चर नहीं लगता. वह दौड़ कर दवा की दूकान से मूव/आयोडेक्स ले आया. मेरे पैर पर धीरे-धीरे लगाया और कुछ देर आराम करा कर ही मुझे जाने दिया. धन्यवाद देने पर वह हल्का सा मुस्कुराया भर. मुझे हेमंत नाम के उस नौजवान हेड टीसी की याद कभी नहीं भूलेगी.

तो मित्रों टीटीई की नौकरी अलग अलग प्रकार की अपेक्षाओं से युक्त है. टीटीई करे तो क्या करे!


@ रामदेव सिंह जी का यह लेख मेरी ब्लॉग पोस्ट से कहीं बेहतर लिखा गया लेख है. लालच तो मन में ऐसा हो रहा है कि पूरा का पूरा लेख प्रस्तुत कर दिया जाय, पर वह लेखक के साथ अन्याय होगा और शायद चोरी भी.

12 comments:

  1. बढ़िया है। आप रामसिंह जी का लेख पूरा छापिये न! जो होगा देखा जायेगा।

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  2. रामसिंह जी का लेख पूरा छापिये.

    यहाँ हमारी पत्नी मांट्रियल से अकेले आ रही थीं. टी टी साहब उनका सामान चढ़ाने से लेकर उतारने तक में व्यस्त थे और ट्रेन आधे घंटे से ज्यादा लेट हो गई तो खुद लाईन में लग कर आधा रिफन्ड दिलवाये यहाँ के नियम के हिसाब से. ३ घंटे से ज्यादा विलम्ब में पूरा पैसा वापस होता है तब मेरी पत्नी दुखी हुई कि ट्रेन आधे घंटॆ ही लेट क्यूँ हुई. घर जल्दी आकर करना भी क्या है. :)

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  3. जी मैं तो टीटीई को सैट नहीं करता। मैं तो कोच अटैंडेंट को सैट करता हूं, वह कम मे ही सीट का जुगाड़ कर देता है। सरकारी दफ्तरों का मेरा अनुभव है कि जो निचली पोस्ट पर है, वह ज्यादा जुगाड़ू होता है। पर बात में आपकी दम है, टीटीई की नौकरी खासी मुश्किल है। पर मुझे लगता है कि पांच-सात सालों में सब कुछ आउटसोर्स हो जायेगा, टीटीई की जगह रिलायंस रेल या भारतीएयरटेल रेल के बंदे रेल में होंगे। या किसी विदेशी कंपनी के हाथ लग गया ठेका, तो अमेरिका की मारिया या मार्था टिकट वसूली कर रही होंगी। पब्लिक उन्हे पैसे दे देगी। वैसे टीटीई का टेक्ट भी बहुत काम आता है। 1984 का किस्सा है जब स्वर्गीय़ इंदिरा गांधीजी प्रधानमंत्री थीं। मैं आगरा फोर्ट से जयपुर जा रहा था। चार पहलवान टाइप आदमी थे और एक नौजवान मरियल टाइप टीटीई डिब्बे में था। उसने कहा टिकट,सबने टिकट दे दिये, पहलवान लोगों ने नहीं दिये। टीटीई साहब ने कहा कि टिकट बनवाईये। पहलवान कुछ अभद्रता जैसी करने ही वाले थे, कि टीटीईसाहब बोले-देखिये ,मैं तो मुलाजिम हूं, रेलवे का। रेलवे सरकार की है और सरकार को इंदिरा गांधीजी चला रही हैं। समझिये कि आप मुझसे नहीं इंदिराजी के साथ बदतमीजी कर रहे हैं। टिकट न लेकर उस लेडी के साथ आप धोखा कर रहे हैं। और आप पहलवान लोग, पहलवान होकर उस लेडी को धोखा दें यह क्या शोभा देता है क्या। मैंने फौरन हां में हां मिलायी कि भई टीटीई साहब बात तो ठीक कह रहे हैं। आसपास के यात्रियों ने भी टीटीई की बात का समर्थन किया। और साहब माहौल ऐसा बन गया कि पहलवानों ने अंटी ढीली की। वैसे टीटी लोगों के तजुर्बों से कई सारी पोस्टें बन सकती हैं। टीटीई वैसे तो आपके अफसर होंगे, पर उनसे रिक्वेस्ट कर के देखिये शायद मान जायें कुछ अच्छे तजुरबे शेयर कर दें,इस ब्लाग के लिए।

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  4. @ अनूप, समीर (उड़न तश्तरी) - कल मैं रामदेव सिंह जी का पूरा लेख छाप दूंगा. वे अगर डण्डा ले कर आये तो आप झेलियेगा. जनसत्ता में लिखने वाले हैं तो होंगे आस-पास ही.
    @ आलोक पुराणिक - संस्मरण छाप तो दें, पर जैसे "क्रोधी" जी कल टिप्पणी कर गये, वैसी टिप्पणियों की भरमार हो जायेगी.

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  5. 'संस्मरण छाप तो दें, पर जैसे "क्रोधी" जी कल टिप्पणी कर गये, वैसी टिप्पणियों की भरमार हो जायेगी.'

    जिसे 'क्रोधित' होना होगा वे क्रोधित होंगे ही. हमारे 'निंदक' जी जैसे और भी लोग हैं, जो किसी भी बात पर अपना क्रोध दिखा सकते हैं...आपने लिख दिया तो क्रोधित हो गए..नहीं लिखेंगे तो भी क्रोधित हो जायेंगे...इनके क्रोध से बचना बड़ा मुश्किल काम है.

    ये वैसे ही हैं जो कहते हुए पाये जाते हैं कि; "खाना अच्छा बना है लेकिन ज़रा सा नमक ज्यादा डाल देते तो ख़राब हो जाता"...

    ऐसे लोगों की परवाह? ना.

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  6. काहे घबराते है दादा लिख डालिये..यहा तो बिना लिखे ही लोग कूद कूद कर खो खो करते फ़िर रहे है मेलवा कर रहे है.कि वो इतने टैक्नीकल है कि हमे ब्लोग जगत से ही बाहर करदेगे..उन्हे इस काम का चार साल का अनुभव है ,और उस पर तुर्रा यह कि यह अपने आपको हिंदी जगत का सबसे पहला ब्लोगर बताते है..:)
    हम पर माबदोलत का इलजाम है कि हम उनके दम पर प्रसिद्ध होना चाहते है.
    माफ़ कीजीयेगा कल की हमारी पोस्ट पर बहुत अगडम बगडम लिख डाला था लोगो ने और हमने वो सारी उडादी,जिसमे आपकी अमूल्य टिप्पणी भी उड गई जिसका मुझे अफ़सोस है..:)

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  7. झाँसी से मथुरा वाले मार्ग पर चलने वाले टी.टी.ई.’s के प्रति काफ़ी सम्मान है हमारे मन में । अगर ६ छात्रों का समूह जनरल के टिकट पर स्लीपर क्लास में चल रहे हैं तो वो तीन टिकट की पर्ची काट देते थे लेकिन बाकायदा रसीद के साथ; कभी अपनी जेब में पैसे नहीं डालते थे ।

    उसके बाद जब मथुरा से बंगलौर आना जाना प्रारम्भ हुआ तो फ़िर आरक्षण करा कर ही चलते थे । सोचता हूँ ह्य़ूस्टन से दिल्ली वाले हवाई जहाज के टी.टी.ई. से कह कर देखूँ कि सर स्टूडेन्ट हैं थोडा एडजस्ट कर लीजिये :-)

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  8. sir aapne ek purana kissa yad dila diya..

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  9. वैसे अगर आप कुछ अच्छे तजुरबे यहां पढ़वाएंगे तो अच्छा लगेगा!!

    ज्ञान दद्दा, जनता के मन मे रेलवे अधिकारियों के प्रति क्या धारणा है यह तो सामने आते ही रहता है पर रेलवे अधिकारियों का नज़रिया, उनकी मजबूरियां हम सबके सामने अक्सर नही आ पाती है, आपके ब्लॉग के माध्यम से यह हो सकता है अगर आप चाहें तो।
    और हां रामदेव सिंह जी के लेख का इंतजार रहेगा!!

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  10. भई टीटीई को लेकर खट्टे मीठे अनुभव है। एक बार मुझे याद है हरिद्वार से लखनऊ जा रहा था, फैमिली की सीट डब्बे मे ही अलग अलग जगह था, एक नौजवान टीटीई आया, उससे मैने रिक्वेस्ट की, उसने सारी सीट एक ही जगह अरैन्ज करायी, मैने सौ का नोट देने की कोशिश की, तो अगले ने विनम्रता पूर्वक मना कर दिया, मैने सौ को दो सौ से रिप्लेस किया, कि शायद बढाने से ले ले, लेकिन अगले बन्दे ने कहा मुझे रेलवे अच्छी सैलरी देती है, मै घूस क्यों लूं?
    यह सुनकर मुझे अच्छा लगा।

    ये तो था मीठा अनुभव, खट्टा वाला अनुभव ब्लॉग पर लिखूंगा।

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  11. आपने बेहद अच्‍छा लिखा लोग बतख बच्‍चे की तरह टीटीई के पीछे घूमते रहते हैं और वह भी अपना भाव खाता रहता है। वैसे भारतीय रेल में भले टीटीई काफी है। मैं रोजाना विरार लोकल ट्रेन से आता जाता हूं, उसमें दो टीटीई मीरा रोड स्‍टेशन के बाद आते हैं। एक है शर्मा जी और दूसरे मिश्रा जी। आपके पास टिकट न हो, पास न हो या सेकंड क्‍लास के पास पर प्रथम श्रेणी में चढ़ गए और बाद में इनके हत्‍थे तो आपसे सैटलमेंट कर लेंगे बजाय रेलवे रसीद बनाने के। इससे एक तो लोगों की जेब पर ज्‍यादा बोझ नहीं पड़ता दूसरा इनकी जेब भारी हो जाती है। इन लोगों के यहां काफी फ्लैट है और भारी भरकम निवेश। मेरे ख्‍याल से टीटीई जैसा जीव सोचकर आयकर और रेल विभाग का तंत्र चुप है, जबकि हैं बड़े मालदार।

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  12. मैं यहां टीटीई पर केवल व्यंग नहीं करना चाहता. उनकी नौकरी में जोखिम बहुत हैं. बहुत से वीवीआईपी सही-गलत तरीके से यात्रा करते हैं. कभी किसी सही को गलत तरीके से या गलत को सही तरीके से उन्होनें चार्ज कर लिया तो बड़ा हाई-प्रोफाइल मामला बन जाता है - जो बड़ों-बड़ों के सलटाये नहीं सलटता. बेचारे टीटीई की क्या बिसात! उसकी नौकरी तलवार की धार पर है.

    बिलकुल, और कदाचित्‌ इसलिए टीटीई सीट दिलाने के लिए जो रूपए लेते हैं वो hazard pay ही होती है, नहीं? ;) अब किसी और की क्या कहें, यह तो मैंने अपनी आँखों से देखा है, "सीट नहीं है, बर्थ नहीं है" भजने वाले टीटीई महोदय की जेब में जहाँ सौ का नोट गया वहीं स्लीपर में एक खाली बर्थ अपने आप ही जैसे जादू के ज़ोर पर उग आती है!! ;) उस मौके पर हमने तो पड़ोस की सीट पर बैठे महाशय से दो बर्थ पूरा भाड़ा चुका ले ली थी क्योंकि उनके पास वो दो फालतू थी, जिन दो को उनके साथ आना था वे नहीं आ पाए थे!! :)

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय