Saturday, August 25, 2007

रेल की दुनिया - सन 1999 में जनसत्ता में छपा लेख


स्क्रैप-बुक बड़े मजे की चीज होती है. आप 8-10 साल बाद देखें तो सब कुछ पर तिलस्म की एक परत चढ़ चुकी होती है. मेरी स्क्रैप-बुक्स स्थानांतरण में गायब हो गयीं. पिछले दिनों एक हाथ लगी – रद्दी के बीच. बारिश के पानी में भी पढने योग्य और सुरक्षित. उसी में जनसत्ता की अक्तूबर 1999 की कतरन चिपकी है. यह “दुनिया मेरे आगे” स्तम्भ में “रेल की दुनिया” शीर्षक से लेख है श्री रामदेव सिंह का. उस समय का सामयिक मुद्दा शायद दो सांसदों द्वारा टाटानगर स्टेशन पर पुरुषोत्तम एक्सप्रेस के कण्डक्टर की पिटाई रहा हो; पर लेख की आज भी वही प्रासंगिकता है. मैं रामदेव सिंह जी से पूर्व अनुमति के बिना ब्लॉग पढ़ने वाले मित्रों के अनुरोध पर यह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं, अत: उनसे क्षमा याचना है. आप कृपया लेख देखें:


रेल की दुनिया
रामदेव सिंह
हिन्दी के बहुचर्चित कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है “श्रमजीवी एक्स्प्रेस” जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:

सवाल यह है
श्रमजीवी एक्सप्रेस में
तुम श्रमिकों को
चलने देते हो या नहीं
कि अघोषित मनाही है उनके चलने की
कि रिजर्वेशन कहां तक है तुम्हारा, कह
बांह उमेठ, उमेठ लेते हो उनका अंतिम रुपैया तक
या अगले स्टेशन पर उतार देते हो
यदि सींखचों के पीछे भेजते नहीं

पूरी कविता तो भारतीय रेल की नहीं, सम्पूर्ण देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था की पोल खोल कर रख देती है. इन पंक्तियों से भी भारतीय रेल की एक छवि तो स्पष्ट होती ही है जिसमें प्रतिनिधि खलनायक और कोई नहीं, रेल का टीटीई ही है, जिसका नाम कवि ने नहीं लिया है. इससे अलग हिन्दी का एक चर्चित उपन्यास “अठारह सूरज के पौधे” (लेखक रमेश बक्षी, जिसपर “सत्ताइस डाउन” नाम से फिल्म बन चुकी है) का नायक भी एक टीटीई है, जिसके संत्रास की कई परतें हैं. लोहे के रास्ते पर लगातार अप-डाउन करते, कन्धे छीलती भीड़ एवम नियम और व्यवहार के विरोधाभासों के बीच झूलते एक टीटीई का भी एक निजी संसार होता है जिसे सिर्फ बाहर से देख कर नहीं समझा जा सकता है. भागती हुई रेल के बाहर की दुनियां कितनी खुशनुमा होती है, खुले मैदान, खुश दिखते पेड़-पौधे, कल-कल बहती नदी, नीला आकाश, और अन्दर? अन्दर कितनी घुटन, कितना शोर, चिल्ल-पों, झगड़ा-तकरार! एक टीटीई इन दोनो दुनियाओं के बीच हमेशा झूलता रहता है.

रेलवे जनसेवा का एक ऐसा उपक्रम है, जिसकी संरचना वाणिज्यिक है, जिसके रास्ते में हजार किस्म की परेशानियां भी हैं. राष्ट्रीय नैतिकता में निरंतर हो रहे ह्रास से इस राष्ट्रीय उद्योग की चिंता भला किसे है? रेलवे में टिकट चेकिंग स्टाफ की आवश्यकता ही इसलिये हुई होगी कि वह रेलवे का दुरुपयोग रोके और डूब रहे रेलवे राजस्व की वसूली करे. अंग्रेज रेल कम्पनियों के दिनों में ही टीटीई को ढेर सारे कानूनी अधिकार दे दिये गये थे. लेकिन उससे यह उम्मीद भी की गयी थी कि वह "विनम्र व्यवहारी" भी हो. रेल में बिना टिकट यात्रा ही नहीं, बिना कारण जंजीर खींचने से लेकर रेल परिसर में शराब पीना और गन्दगी फैलाना तक कानूनन अपराध है. एक टीटीई की ड्यूटी इन अपराधों को रोकने एवम अपराधियों को सजा दिलाने की है लेकिन शर्त यह है कि होठों पर मुस्कुराहट हो. कितना बड़ा विरोधाभास है यह. अब खीसें निपोर कर तो ऐसे अपराधियों को पकड़ा नहीं जा सकता है. जाहिर है इसके लिये सख्त होना पड़ेगा. सख्त हो कर भी 20-25 के झुण्ड में जंजीर खींच कर उतर रहे "लोकल" पैसेंजर का क्या बिगाड़ लेगा एक टीटीई?

गांधीजी तो रेलों के माध्यम से हो रही राष्ट्रीय क्षति से इतने चिंतित थे कि उन्होने कभी यहां तक कहा था कि “यदि मैं रेल का उच्चाधिकारी होता तो रेलों को तब तक के लिये बन्द कर देता, जब तक लोग बिना टिकट यात्रा बन्द करने का आश्वासन नहीं दे देते.” आज से 15-20 वर्षों पहले तक गांधीजी का यह कथन बड़े-बड़े पोस्टर के रूप में रेलवे स्टेशन की दीवारों पर चिपका रहता था. अब यह पोस्टर कहीं दिखाई नहीं देता. ऐसा नहीं कि गान्धी के इस कथन पर लोगों ने अमल कर लिया हो और अब ऐसे पोस्टरों की जरूरत नहीं रह गयी हो. सच्चाई तो यह है कि जैसे गांधी जी की अन्य नैतिकतायें हमारे देश के आम लोगों से लेकर राजनेताओं के लिये प्रासंगिक नहीं रह गयी हैं, उसी तरह रेलवे स्टेशनों पर प्रचारित यह सूत्र वाक्य उनके लिये महत्वहीन हो गया. अब तो यह दृष्य से ही नहीं दिमाग से भी गायब हो गया है. अब के राजनेता तो अपने साथ बिना टिकट रैलियां ले जाना अपनी शान समझते हैं.

टाटा नगर रेलवे स्टेशन पर पुरुषोत्तम एक्प्रेस के कण्डक्टर की पिटाई सत्ताधारी दल के दो सांसदों ने सिर्फ इसलिये करदी कि उन्हें वातानुकूलित डिब्बे में जगह नहीं मिली. जबकि उनका आरक्षण पहले से नहीं था, न हीं तत्काल डिब्बे में कोई जगह थी. सांसद द्वय के गणों ने घण्टों गाड़ी रोक कर रेल प्रशासन की ऐसी-तैसी की. सैकड़ों लोग तमाशबीन बन कर यह सब देखते रहे. रेलवे में बिना टिकट यात्रा का प्रचलन पुराना होते हुये भी इधर 20-25 वर्षों में ऐसे यात्रियों के चरित्र में एक गुणात्मक फर्क आया है, जो गौर तलब है. पहले जहां रेलगाड़ियों में टीटीई को देख कर बिना टिकट यात्री दूर भागता था, ऐसी चोर जगहों में बैठ कर यात्रा करता था जहां टीटीई नहीं पंहुच सके वहीं अब बिना टिकट यात्री ठीक वहीं बैठता है जहां टीटीई बैठा हो. बल्कि तरह तरह की फब्तियों को सुनने के बदले टीटीई ही वहां से हट जाना पसन्द करता है. भिखारियों और खानाबदोशों को छोड़ दें तो गरीब और मेहनतकश वर्ग के लोग बिना टिकट यात्रा से परहेज करते हैं. टिकट लेने के बाद भी सबसे ज्यादा परेशान वही होते हैं जबकि खाते पीते वर्ग के लोग ही सबसे अधिक बिना टिकट यात्रा करते हैं. सुप्रसिद्ध व्यंगकार परसाई जी ने अपने संस्मरणों में उन कई तरीकों का वर्णन किया है जिनके सहारे टीटीई पर या तो धौंस जमा कर या गफलत में डाल कर लोग बिना टिकट यात्रा करते हैं.

यह नयी रेल संस्कृति है जिसकी दोतरफा मार टीटीई झेलता है. एक तरफ अपने बदसलूक और बेईमान होने की तोहमद उठाता है जिसमें बड़ा हिस्सा सच का भी होता है. दूसरी तरफ वह ईमानदारी से काम करने की कोशिश करता है तो बड़े घरों के उदण्ड मुसाफिर अपनी बदतमीजियों के साथ उसे उसकी औकात बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते.


9 comments:

  1. बढ़िया लेख.. हमें पढ़ाने के लिए शुक्रिया..

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  2. बढ़िया है। शुक्रिया। बड़ी जटिल परिस्थितियां सेवा क्षेत्र से जुड़े लोगों की। पिछले दिनों मैं एक मित्र से मिलने स्टेशन गया। प्लेटफ़ार्म टिकट लेना था। मैंने पांच का नोट दिया उसने फ़ुटकर पैसे मांगे। मेरे पास तीन रुपये छुट्टा नहीं थे। उसके पास लौटाने को दो रुपये नहीं थे। गाड़ी आने वाली थी। हमने कहा दो रुपये मत लौटाइये या मैं लौटकर ले लूंगा। उसने कहा- हमारे चेकिंग हो गयी तो मैं क्या जवाब दूंगा। ट्रेन का समय हो गया था। हमने फ़िर अपने अकेले के लिये तीन प्लेटफ़ार्म टिकट लिये। उसके पास एक रुपये फ़ुटकर थे इसलिये। :)

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  3. सत्य वचन महाराज।

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  4. सही कहा है जी केवल गरीब के लिये ही सारे नियम कायदे है और पालन भी वही अकेला करने को अभिशिप्त है..बाकी सारे न्याय पालिका पर भरोसा दिखाते है और मन पसंद न्याय ना हो पाने पर उपर की अदालत मे जाकर जुगाड जैसे सरका्री पक्ष,सी बी आई या वकील या फ़िर और कुछ अदृश्य जुगाड हो जाते है,कर बरी हो जाते है. इस पर भी कोढ मे खाज ये कि हमारा कानून मंत्री और महा घूटा वकील/खेल मंत्री इस धांधली का स्वागत करते हुये नजर आ जाते है..

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  5. रेल और रेलयात्रा से जुड़े संस्मरण लगभग सबके होते हैं. मुझे एक किस्सा याद आ रहा है जो मेरे पिताजी ने सुनाया था...

    पिताजी और उनके मित्र साथ में किसी से मिलने जा रहे थे. स्टेशन पर पहुंचकर पिताजी टिकट खिड़की पर टिकट लेने के लिए खड़े हो गए. उनके मित्र, जो समाज में गिर रही नैतिकता की वजह से रोज दो घंटे चिंतित रहते हैं, ने कहा; "क्या जरूरत है टिकट लेने की, शाम के वक्त टीटीई नहीं रहता. कोई चेक नहीं करेगा. ऐसे ही चलिए".

    पिताजी ने उनसे पूछा; "आप क्या इसलिए टिकट लेते हैं कि चेकिंग के वक्त पकड़ लिए जायेंगे? आपको टिकट इसलिए लेना चाहिए क्योंकि आप यात्रा कर रहे हैं".

    मुझे उनकी ये बात हमेशा याद रहती है कि; हमें टिकट इसलिए लेना चाहिए क्योंकि हम रेलवे की सर्विस ले रहे हैं.

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  6. मित्रों इस हाल पर दुष्यंत कुमार का एक शेर अर्ज है
    अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
    फूल सारे कमल के कुम्हलाने लगे हैं.

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  7. (३० साल पहले) इलाहाबाद और कानपुर के बीच मे जो सिराथुं पड़ता है वहां से लड़के हमेशा ही बिना टिकट इलाहाबाद और कानपुर आया - जाया करते थे और मजाल है कि टी.टी.आई उन्हें कुछ कह सके। भले ही जनता परेशान होती रहे। तीस पहले भी बिना टिकट वाले बेधड़क चलते थे और आज भी।

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  8. अच्छा/ लेख । थेड़े दिन रूकिए रवि रतलामी के कहने पर अगले सप्ताह तक हम लेकर आ रहे हैं रेल का एक अदभुत नग्मा आपके लिए । और हां एक बात बताईये ये गूगल ट्रांसलिटरेशन औज़ार आपने कैसे चिट्ठे पर चढ़ाई है भई । आई गूगल तक तो समझ में आया पर चिटठे पर कैसे सरकाएं इसें ।

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  9. यूनुस> ...और हां एक बात बताईये ये गूगल ट्रांसलिटरेशन औज़ार आपने कैसे चिट्ठे पर चढ़ाई है भई । आई गूगल तक तो समझ में आया पर चिटठे पर कैसे सरकाएं इसें ।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय