Friday, September 14, 2007

हरतालिका तीज की पूर्व सन्ध्या की खरीद


(मनिहारी की दुकान में खरीददारी में जुटी महिलायें)
बुरे फंसे हरतालिका तीज की पूर्व सन्ध्या खरीद में. मेरी पत्नी कल शाम को खरीददारी के लिये निकल रही थीं. मैं साथ में चला गया इस भाव से कि इस बहाने शाम की वॉक हो जायेगी. पर पैदल चलना हुआ सो हुआ, खरीददारी में चट गये पूरी तरह. बाजार में बेशुमार भीड़ थी. सभी औरतें तीज के एक दिन पहले ही खरीददारी को निकली थीं. टिकुली, बिन्दी, आलता, रिबन, नेल पॉलिश, शीशा, कंघी, मेन्हदी, डलिया, चूड़ी, कपड़ा, सिंधूरदानी, बिछिया, शंकर-पार्वती की कच्ची मिट्टी की मूर्ति... इन सब की अपनी अपनी श्रद्धानुसार खरीद कर रही थीं वे सभी औरतें. छोटी-छोटी दुकानें, भारी भीड़ और उमस. सारा सामान लोकल छाप और डुप्लीकेट ब्राण्ड. अंतत: वह ब्राह्मण/ब्राह्मणी को दान ही दिया जाना है तो मंहगा कौन ले! पर उसमें भी औरतें पसन्द कर रही थीं रंग और स्टाइल. कीमतों में मोल भाव की चेंचामेची मचा रही थीं.

कुल मिला कर मुझे लगा कि अगर ब्लॉग न लिखना हो और सरकारी नौकरी न हो तो सबसे अच्छा है मनिहारी की दुकान खोल कर बैठना. बस आपमें लोगों की खरीददारी की आदतें झेलने की क्षमता होनी चाहिये और बिना झल्लाये सामान बेचने का स्टैमिना. बहुत मार्केट है!

एक और बात नोट की - त्योहार हिन्दुओं का था पर मनिहारी की दुकान वाले मुसलमान थे.

पत्नी जी जब तक खरीददारी कर रही थीं - तब मोबाइल से मैने कुछ फोटो लिये दुकानों के. उनमें से दो का आप अवलोकन करें.
(सड़क के किनारे ठेले पर लगी तीज विषयक दुकान)
अब हरतालिका तीज के बारे में कुछ पंक्तियां सरका दी जायें. शैलराज हिमालय की पुत्री ने शिव को वर रूप में पाने के लिये विभिन्न प्रकार से तप- व्रत किया:
नित नव चरन उपज अनुरागा, बिसरी देह तपहिं मनु लागा ||
संबत सहस मूल फल खाए, सागु खाइ सत बरष गवाँए ||
---
पुनि परिहरे सुखानेउ परना, उमहि नाम तब भयउ अपरना ||
देखि उमहि तप खीन सरीरा, ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ||
भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि, परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ||
शैलजा को जब तप-व्रत से शिव मिल गये तो वही फार्मूला हमारी कुमारियों-विवाहिताओं ने अपना लिया. उमा की तरह सहस्त्रों वर्ष तो नहीं, हरतालिका तीज के दिन वे निर्जल व्रत और शृंगार कर शिव जैसा पति पाने की कामना करती हैं. भगवान उन्हें सफल करें और इस प्रक्रिया में सभी पुरुषों को शिव जैसा भोला-भण्डारी बना दें!
वैसे कल हमें पता चला कि बाबा तुलसीदास अपनी वसीयत तो विद्वानों के नाम कर गये हैं. हम जैसे लण्ठ के हाथ तो गड़बड़ रामायण ही है. लिहाजा तुलसी को उधृत करना भी शायद साहित्यिक अपराध हो!

बढ़िया है; बाबा ने अपने जमाने में संस्कृत के साहित्यिक पण्डितों को झेला और अब हिन्दी के साहित्यिक पण्डित उनपर अधिकार करने लगे! जय हो! जिस "मति अनुरूप राम गुन गाऊं" को उन्होने "गिरा ग्राम्य" में आम जन के लिये लिखा, अंतत: साहित्यकारों ने उसपर अपना वर्चस्व बना ही लिया.

बोधिसत्व और अभय क्षमा करें. वे मित्रवत हैं, इसलिये यह फुटनोट लिखा. अन्यथा चुप रह जाते!

Thursday, September 13, 2007

ऐसी स्थिति में कैसे आ जाते हैं लोग?


एक अच्छी कद काठी का नौजवान सड़क के किनारे लेटा था. अर्ध जागृत. गौर-वर्ण. बलिष्ठ देह. शरीर पर कहीं मांस न कम न ज्यादा. चौड़ा ललाट. कुल मिला कर हमारी फिल्मों में या मॉडलिंग में लुभावने हीरो जैसे होते हैं, उनसे किसी भी प्रकार उन्नीस नहीं.

पर मैले कुचैले वस्त्र. कहीं कहीं से फटे हुये भी. बालों में लट बनी हुई. एक बांह में पट्टी भी बन्धी थी शायद चोट से. पट्टी भी बदरंग हो गयी थी. वह कभी कभी आंखें खोल कर देख लेता था. कुछ बुदबुदाता था. फिर तन्द्रा में हो जाता था. कष्ट में नहीं केवल नशे में प्रतीत होता था.

मुझे उस स्त्री मॉडल की याद हो आई जो भीख मांगते पायी गयी थी. अखबारों ने पन्ने रंग दिये थे. अब शायद कहीं इलाज चल रहा है उसका.

इस नशे में पड़े जवान की देहयष्टि से मुझे ईर्ष्या हुई. तब तक ट्रैफिक जाम में फंसा मेरा वाहन चल पड़ा. वह माइकल एंजेलो की कृति सा सुन्दर नौजवान पीछे छूट गया. मुझे सोचने का विषय दे गया. ऐसी स्थिति में कैसे आ जाते हैं लोग? अष्टावक्रों के लिये यह दुनियां जरूर निर्दयी है. फिजिकली/मेण्टली चैलेंज्ड लोगों के साथ कम से कम अपने देश में मानवीय व्यवहार में कमी देखने में आती है. पर इस प्रकार के व्यक्ति जो अपनी उपस्थिति मात्र से आपको प्रभावित कर दें कैसे पशुवत/पतित हो जाते हैं?

जीवन में तनाव और जीवन से अपेक्षायें शायद बढ़ती जा रही हैं. मैं बार-बार यह गणना करने का यत्न करता हूं कि कम से कम कितने पैसे में एक व्यक्ति सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सकता है? बार-बार गणना करने पर भी वह रकम बहुत अधिक नहीं बनती. पैसा महत्वपूर्ण है. पर उसका प्रबन्धन (इस मंहगाई के जमाने में भी) बहुत कठिन नहीं है. हां; आपकी वासनायें अगर गगनचुंबी हो जायें तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकते. नारकीय अवस्था में आने के लिये व्यक्ति स्वयम भी उतना ही जिम्मेदार है जितना प्रारब्ध, समाज या व्यवस्था.

"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।" वाले प्रसंग में राम, विभीषण की अधीरता देख कर, विजय के लिये जिस रथ की आवश्यकता होती है, उसका वर्णन करते हैं. जरा उसका अवलोकन करें:

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।

बहुत समय पहले मैं बेंजामिन फ्रेंकलिन की आटो-बायोग्राफी का अध्ययन कर रहा था. वे एक समय में एक गुण अपने में विकसित करने का अभियान ले कर चलते हैं. हम भी एक गुण एक समय में विकसित करने का प्रयास करें तो बाकी सभी गुण स्वत: आयेंगे. बस प्रारम्भ तो करें!

मेरे सामने उस सड़क के किनारे पड़े नौजवान की छवि बार बार आ जाती है और मैं नहीं चाहता कि कोई उस पतित अवस्था में पड़े. उसके लिये सतत सद्गुणों का विकास मात्र ही रास्ता नजर आता है...

आप क्या सोचते हैं?

Wednesday, September 12, 2007

वाह, अजय शंकर पाण्डे!


गाजियाबाद म्यूनिसिपल कर्पोरेशन ने उत्कोच को नियम बद्ध कर म्युनिसिपालिटी का आमदनी बढ़ाने का जरीया बना दिया है. यह आज के टाइम्स ऑफ इण्डिया में छपा है. टाइम्स ऑफ इण्डिया मेरे घर आता नहीं. आज गलती से आ गया. पर यह समाचार पढ़ कर अजीब भी लगा, प्रसन्नता भी हुई और भ्रष्टाचार खतम करने की विधि की इम्प्रेक्टिकेलिटी पर सिर भी झटका मैने.

यह खबर हिन्दी में भी दिखी नवभारत टाइम्स पर, गाजियाबाद में रिश्वत को मिली सरकारी मान्यता के शीर्षक से.

म्यूनिसिपल कमिश्नर अजय शंकर पाण्डे ने दो महीने पहले म्यूनिसिपल कार्पोरेशन ऑफ गाजियाबाद (एमसीजी) के कमिश्नर का पदभार सम्भाला है. उन्होने यह फरमान जारी किया है कि सभी ठेकेदार निविदा स्वीकृति पर 15% पैसा एमसीजी के खाते में जमा कर देंगे! यह रकम सामान्यत: लोगों की जेब में जाती जो अब एमसीजी को मिलेगी.

अजय शंकर पाण्डे मुझे या तो आदर्शवादी लगते हैं या फिर त्वरित वाहावाही की इच्छा वाले व्यक्ति. मैने कई अधिकारियों को - जो निविदा से वास्ता रखते हैं - ठेकेदारों को कम रेट कोट करने पर सहमत कराते पाया है; चूकि वे स्वयम उत्कोच नहीं लेते और विभाग को उतने का फायदा पंहुचाने में विश्वास करते हैं. यह तरीका बड़ी सरलता से और बिना ज्यादा पब्लिसिटी के चलता है. अधिकारी की साख एक ईमानदार के रूप में स्वत: बनती जाती है. पर अजय शंकर जो कर रहे हैं - वह तो आमूल चूल परिवर्तन जैसा है और इससे बहुतों के पेट पर लात लग सकती है. यह भी रोचक हो सकता है देखना कि अजय शंकर कब तक वहां रह पाते हैं और बाद में यह 15% जमा करने के फरमान का क्या होता है!

जहां काम या सर्विस पूरी तरह निर्धारित और परिभाषित है, वहां तकनीकी विकास का लाभ लेकर भ्रष्टाचार कम हो सकता है. उदाहरण के लिये रेलवे तत्काल आरक्षण के माध्यम से वह पैसा जो टीटीई या आरक्षण क्लर्क की जेब में जाता, उसे सरकारी खाते में लाने में काफी हद तक सफल रही है. आईटी में प्रगति भ्रष्टाचार कम करने का सबसे सशक्त हथियार है. जितनी ज्यादा से ज्यादा सामग्री लोगों तक कम्प्यूटर से या इण्टरनेट से पंहुचाई जायेगी, उतना ही भ्रष्टाचार कम होगा! पर निविदा आदि के मामले में, जहां उत्पाद या सेवा की परिभाषा में फेर बदल की गुंजाइश हो - यह तरीका काम कम ही कर पाता है.

फिर भी; अच्छा जरूर लगा अजय शंकर के प्रयास के बारे में पढ़ कर!

मोहम्मद बिन तुगलक की भी बहुत याद आई. वे समय से पहले, बाद के विचारों पर कार्य करने वाले इतिहास पुरुष थे.

घर बैठो; तनख्वाह पाओ!


जाज आटो के 2200 कर्मचारी बैठे ठाले (सीएनएन मनी के अनुसार) अपने रिटायरमेण्ट तक घर बैठेंगे और तनख्वाह पायेंगे. आलोक पुराणिक (अ.ब.) के लिये पक्का मसाला है पोस्ट का. वे कह सकते हैं कि इसमें क्या बात है सरकारी कर्मचारी तो नौकरी शुरू करते से रिटायरमेण्ट के दिन माला पहनने तक बिना काम के तनख्वाह पाता है. पर भैयाजी, उसे झूठी-सच्ची हाजिरी तो लगानी पड़ती है दफ्तर में! बजाज आटो में तो शुद्ध घर बैठे बिना काम के तनख्वाह मिलेगी.

आलोक पुराणिक (स्मा.नि.) और वाह मनी के कमल शर्मा जी बतायें कि बजाज आटो निवेश के लिये बेहतर हुआ है क्या?

बजाज आटो अपने पुराने अकुर्दी (पुणे) के प्लाण्ट में मोटरसाइकल असेम्बली का काम बन्द कर लोगों को घर बैठे तनख्वाह देने का काम कर रहा है. अब यह उत्पादन अन्य इकाइयों में होगा. अकुर्दी में स्पेयर पार्ट बनते रहेंगे. काम बन्द करने का कारण महाराष्ट्र सरकार की केपेसिटी रेशनलाइजेशन को ले कर नीतियों के कष्ट और अन्य राज्यों द्वारा टेक्स और चुंगी के कंशेसन हैं.

जैसा अपेक्षित था, मैरिल्ल लिंच ने बजाज आटो पर खरीद की अनुशंसा की है. उद्धव ठाकरे ने (अगर पुणे में बजाज आटो का प्लाण्ट बन्द हुआ तो) शिव सेना के घूंसे की धमकी दी है. "महाराष्ट्र सरकार और बजाज आटो में ठनी" का समाचर है. उधर बजाज आटो के राजीव बजाज ने कहा है कि वे अकुर्दी का प्लाण्ट बन्द नहीं कर रहे.

खबरें हैं रोचक. और अगर लोग विषय से ट्यून कर पाये तो बहस और भी रोचक हो सकती है. पूंजीवाद-साम्यवाद-समाजवाद-प्रान्तवाद-हेन वाद-तेन वाद... बहुत पेंच बनाये जा सकते हैं इसमें.


कविता करने से छुट्टी तो मिली! बड़ा झमेला है उसमें.
वैसे मैं कह सकता हूं कि समीर लाल जी से मस्त सपोर्ट नहीं मिला(!). तुलसी लिखते हैं न - "मोहे न नारि नारि के रूपा". कवि को दूसरा कवि भला क्यों पसन्द आने लगा. वह भी हमारे जैसा उदीयमान! :) :) :)

Tuesday, September 11, 2007

खुक-खुक हंसती लड़की.....


क बेवजह
खुक-खुक हंसती लड़की...
एक समय से पहले ब्याही
नवयौवना कम, लड़की ज्यादा
और जले मांस की सड़ान्ध के
बीच में होता है
केवल एक कनस्तर घासलेट
और "दो घोड़े" ब्राण्ड दियासलाई की
एक तीली भर का अंतर
-----
अलसाये निरीह लगते समाज में
उग आते हैं
तेज दांत
उसकी आंखें हो जाती हैं सुर्ख लाल
भयानक और वीभत्स!
मैं सोते में भी डरता हूं
नींद में भी टटोल लेता हूं -
मेरी पत्नी तो मेरे पास सो रही है न!
-----
वह बेवजह
खुक-खुक हंसती लड़की
मुझे परेशान कर देती है
मरने पर भी
-----
मैं खीझता हूं -
डैम; ह्वाई डिड आई गो टु अज़दक्ज ब्लॉग!

मित्रों, मुझे कष्ट है. मैं कविता नहीं कर रहा हूं. पर अज़दक की उक्त हाइपर लिंक की पोस्ट ने परेशान कर दिया है और यह उसकी रियेक्शन भर है. मेरा लालित्यपूर्ण या खुरदरी - कैसी भी कविता लिखने का न कोई मन है न संकल्प.
अज़दक तो लिख कर हाथ झाड़ लिये होंगे. यहां कल से यदा कदा वह लड़की याद आती रही. आइ एम रियली कर्सिंग अज़दक.
मेरी पत्नी कहती हैं - "यह क्या लिखते हो ऊटपटांग. अरे यह सामाजिक विकृति तो अखबार में पढ़ते ही हैं. ब्लॉग में तो कुछ हो खुशनुमा! ऐसा लिखना हो तो बंद करो ब्लॉग - स्लॉग.
यह अंतिम प्रयास होगा कविता जैसा कुछ झोंकने का. असल में देख लिया; कविता में इमोशनल थकान बहुत ज्यादा है.

आदमी


दफ्तरों में समय मारते आदमी
चाय उदर में सतत डालते आदमी

अच्छे और बुरे को झेलते आदमी
बेवजह जिन्दगी खेलते आदमी

गांव में आदमी शहर में आदमी
इधर भी आदमी, उधर भी आदमी

निरीह, भावुक, मगन जा रहे आदमी
मन में आशा लगन ला रहे आदमी

खीझ, गुस्सा, कुढ़न हर कदम आदमी
अड़ रहे आदमी, बढ़ रहे आदमी

हों रती या यती, हैं मगर आदमी
यूंही करते गुजर और बसर आदमी

आप मानो न मानो उन्हें आदमी
वे तो जैसे हैं, तैसे बने आदमी

सवेरे तीन बजे से जगा रखा है मथुरा के पास, मथुरा-आगरा खण्ड पर, एक मालग़ाड़ी के दो वैगन पटरी से खिसक जाने ने. पहले थी नींद-झल्लाहट और फिर निकली इन्स्टैण्ट कॉफी की तरह उक्त इंस्टैण्ट कविता. जब हम दर्जनों गाड़ियों का कतार में अटकना झेल रहे हैं, आप कविता झेलें. वैसे, जब आप कविता झेलेंगे, तब तक रेल यातायात सामान्य हो चुका होना चाहिये.

पुन: बेनाम टिप्पणी में सम्भवत: चित्र पर आपत्ति थी. मैने स्वयम बना कर चित्र बदल दिया है.

Monday, September 10, 2007

कबि न होहुं नहिं चतुर कहाऊं


कबि न होहुं नहिं चतुर कहाऊं; मति अनुरूप राम गुण गाऊं.

बाबा तुलसीदास की भलमनसाहत. महानतम कवि और ऐसी विनय पूर्ण उक्ति. बाबा ने कितनी सहजता से मानस और अन्य रचनायें लिखी होंगी. ठोस और प्रचुर मात्रा में. मुझे तो हनुमानचालिसा की पैरोडी भी लिखनी हो तो मुंह से फेचकुर निकल आये. इसलिये मैं यत्र-तत्र लिखता रहता हूं कि मुझे कविता की समझ नहीं है. कविता उतनी ही की है जितनी एक किशोर बचकानी उम्र में बचकानी सी लड़की पर बचकाने तरीके से इम्प्रेशन झाड़ने को कुछ पंक्तियां घसीट देता है और फिर जिन्दगी भर यह मलाल रखता है कि वह उस लड़की को सुना/पढ़ा क्यों नहीं पाया.

पर मित्रों, हिन्दी में मकई के भुट्टे की तरह फुट्ट-फुट्ट कवि बनते हैं. बेचारे पंकज सुबीर जी लोगों की कविता की थ्योरी की क्लास ले रहे हैं. एक बार तो निराश हो गये थे कि कोई विद्यार्थी आता ही नही. फ़िर शायद शर्मा-शर्मी आने लगे. उसके बाद उनके प्रवचन दिख जाते हैं; जिनकी फीड मैं अवलोकन कर लेता हूं. उनका प्रवचन तो मेरे लिये आउट-ऑफ-कोर्स है. पर लगता नहीं कि लोगों को क्लास की ज्यादा जरूरत है. तुकान्त-अतुकान्त कवितायें दनादन लिखी जा रही है. कविता की पोस्टें बनाना शायद आसान होता हो. पर उनमें ही कट-पेस्ट और हड़पने की शिकायतें ज्यादा होती हैं.

कुछ लिख्खाड़ कविता वाले हैं – प्रियंकर जी के अनहद नाद पर आप लिबर्टी नहीं ले सकते. बासुती जी भी जो लिखती हैं; उसे पढ़ कर सोचना पड़ता है. कई बार यह सोचना इतना ज्यादा हो जाता है कि कमेण्टियाने के धर्म का पालन नहीं होता. हरिहर झा जी को भी मैं सीरियसली लेता हूं. बसंत आर्य यदा-कदा ठहाका लगा लेते हैं. पर्यावरण पर दर्द हिन्दुस्तानी सार्थक कविता करते हैं.

कई बार यह लगता है कि हम जो समझ कर टिप्पणी करने की सोच रहे हैं, लिखने वाले का आशय वही है या कुछ और? गद्य में तो ऐसा कन्फूजन केवल इक्का-दुक्का लोगों – लेड बाई अज़दक – के साथ होता है. पर कविता में ऐसे बहुत हैं.

लेकिन यह जो सवेरे सवेरे रोज लिखने/पोस्ट करने का नियम बना लिया है; जिसमें देर होने पर पुराणिक ई-मेल कर स्वास्थ्य का हाल पूछने लगते हैं, अभय शराफत से हलचल एक्स्प्रेस की समयपालनता पर उंगली उठते हैं, फ़ुरसतिया दफ़्तर जा कर फोन कर राउण्ड-अबाउट तरीके से टटोलते हैं कि ब्लॉगिंग में बना हुआ हूं या खोमचा उखाड़ लिया है और पंगेबाज अखबार देर से आने पर अखबार बदलने की धमकी देते हैं; उसके कारण मुझे लगता है कि जल्दी ही मुझे भी कविता लिखना और उसे ब्लॉग-पोस्ट पर झोंकना सीखना होगा. आखिर कितने दिन २००-४०० शब्द का गद्य लिखा जा सकेगा. फेटीग (fatigue) हो रहा है. मित्रों अगर टिप्पणियों में आपने मुझे पर्याप्त हतोत्साहित नहीं किया कविता झोंकने से; तो मैं पेट-दर्द करने वाली कवितायें रचने और झोंकने का मन बना रहा हूं. तैयार हो जायें!1

कबि न होहुं नहिं चतुर कहाऊं; मति अनुरूप काव्य झिलवाऊं.


1. इसे मात्र हथकण्डा माना जाये. इससे अधिक मानना आपके अपने रिस्क पर है!

Sunday, September 9, 2007

वृद्धावस्था के कष्ट और वृन्दावन-वाराणसी की वृद्धायें


मेरे मित्र श्री रमेश कुमार (जिनके पिताजी पर मैने पोस्ट लिखी थी) परसों शाम मुझे एसएमएस करते हैं – एनडीटीवी इण्डिया पर वृद्धों के लिये कार्यक्रम देखने को कहते हैं. कार्यक्रम देखना कठिन काम है.पहले तो कई महीनों बाद टीवी देख रहा हूं तो "रिमोट" के ऑपरेशन में उलझता हूं. फिर वृद्धावस्था विषय ऐसा है कि वह कई प्रकार के प्रश्न मन में खड़े करता है.

कल मैं विदेशी अर्थ-पत्रिका (इकनॉमिस्ट) में वृन्दावन में रह रही विधवाओं के बारे में लेख पढ़ता हूं. दिन में ६-८ घण्टे भजन करने के उन्हे महीने में साढ़े चार डालर मिलते हैं. विधवा होना अपने में अभिशाप है हिन्दू समाज में – ऊपर से वॄद्धावस्था. वाराणसी में भी विधवाओं की दयनीय दशा है. यहां इलाहाबाद के नारायणी आश्रम में कुछ वृद्ध-वृद्धायें दिखते हैं, जिनमें सहज उत्फुल्लता नजर नहीं आती.

मै अपने वृद्धावस्था की कल्पना करता हूं. फिर नीरज रोहिल्ला की मेरी सिन्दबाद वाली पोस्ट पर की गयी निम्न टिप्पणी याद आती है –

.....लेकिन मैने कुछ उदाहरण देखे हैं जो प्रेरणा देते हैं । मेरे Adviser ६७ वर्ष की उम्र में भी Extreme Sports में भाग लेते हैं । Hawai के समुद्र की लहरों में सर्फ़ करते हैं, पर्वतारोहण करते हैं । उन्होनें Shell में २६ वर्ष नौकरी करने के बाद १९९३ में प्रोफ़ेसर बनने का निश्चय किया ।
२००० के आस पास एक नये शोध क्षेत्र में कदम रखा और आज उस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं।
इसके अलावा जिन लोगों के साथ मैं बुधवार को १० किमी दौडता हूँ उनमें से अधिकतर (पुरूष एवं महिलायें दोनो) ५० वर्ष से ऊपर के हैं । कुछ ६० से भी अधिक के हैं । इसके बावजूद उनमें कुछ नया करने का जज्बा है। ये सब काफ़ी प्रेरणा देता है।
अक्सर हमारे पुराने अनुभव हमारी पीठ पर लदकर कुछ नया करने की प्रवत्ति को कुंद कर देते हैं। आवश्यकता होती है, सब कुछ पीछे छोडकर फ़िर से कुछ नया सीखने का प्रयास करने की।
अपने चारो ओर देखेंगे तो रास्ते ही रास्ते दिखेंगे, किसी को भी चुनिये और चलते जाईये, कारवाँ जुडता जायेगा।

वृद्धावस्था के कुछ दुख तो शारीरिक अस्वस्थता के चलते हैं. कुछ अन्य प्रारब्ध के हैं. पर बहुत कुछ "अपने को असहाय समझने की करुणा" का भरा लोटा अपने ऊपर उंड़ेलने के हैं. यह अहसास होने पर भी कि समय बदल रहा है. आपके चार लड़के हैं तो भी बुढापे में उनकी सहायता की उम्मीद बेमानी है - इस सोच को शुतुर्मुर्ग की तरह दूर हटाये रहना कहां तक उचित है? मैं वह करुणा की सोच टीवी प्रोग्राम देखने के बाद देर तक झटकने का यत्न करता हूं - देर रात तक नींद न आने का रिस्क लेकर!

हां, बदलते समय के साथ वृन्दावन और काशी की वृद्धाओं के प्रति समाज नजरिया बदल कर कुछ और ह्यूमेन नहीं बन रहा - यह देख कर कष्ट होता है.

अरुण "पंगेबाज" कल लिख रहे थे कि प्रधान मन्त्री आतंक से मरने वालों के परिवारों के लिये कुछ करने की बात करते हैं. मनमोहन जी तो सम्वेदनशील है? इन बेचारी वृद्धाओं को जबरन ६-८ घण्टे कीर्तन करने और उसके बाद भी पिन्यूरी (penury) में जीने से बचाने को कोई फण्ड नहीं बना सकते? और आरएसएस वाले बड़े दरियादिल बनते हैं; वे कुछ नहीं कर सकते? इन बेचारियों को किसी कलकत्ते के सेठ के धर्मादे पर क्यों पड़े रहने दिया जाये? बुढ़ापा मानवीय गरिमा से युक्त क्यों नहीं हो सकता?

Saturday, September 8, 2007

गड़बड़ रामायण - आम जनता का कवित्त


बचपन से गड़बड़ रामायण सुनते आये हैं. फुटकर में चौपाइयां - जिनको कुछ न दिमाग में आने पर अंत्याक्षरी में ठेला जाता था! पर कोई न कोई वीटो का प्रयोग कर कहता था कि यह तो तुलसी ने लिखा ही नहीं है. फिर वह नहीं माना जाता था. पर होती बहुत झांव-झांव थी.

यह सामग्री ब्लॉग के लिये उपयुक्त मसाला है. जिसे देख कर साहित्य के धुरन्धर और हिन्दी की शुद्धता के पैरोकार सिर धुनें!

लगता है कि अंत्याक्षरी के लिये या पूर्णत पैरोडी रचना के लिये गड़बड़ रामायण के चौपाई-दोहे बनाये गये होंगे. मुझे नहीं मालूम कि इनका कोई संकलन कहीं हुआ है या नहीं. पर एक प्रयास किया जाना चाहिये. कुछ जो मुझे याद है, वह हैं:

1. लंका नाम राक्षसी एका. रामचन्द के मारई चेका.
2. एण्टर सिटिहिं डू एवरी थिंगा. पुटिंग हार्ट कोशलपुर किंगा. (प्रबिसि नगर कीजै..... )
3. आगे चलहिं बहुरि रघुराई. पाछे लछमन गुड़ गठियाई.
4. आगे चलहिं बहुरि रघुराई. पाछे लखन बीड़ी सुलगाई.
5. सबलौं बोलि सुनायेसि सपना. साधउ हित सब अपना अपना.
6. जात रहे बिरंचि के धामा. गोड़े तक पहिरे पैजामा.
7. लखन कहा सुनु हमरे जाना. जाड़े भर न करहु अस्नाना.
8. अंगद कहहिं जाहुं मैं पारा. गिरा अढ़इया फुटा कपारा.
9. अंगद कहहिं जाहुं मैं पारा. मिले न भोजन फिरती बारा.
10. नाक-कान बिनु भगिनि निहारी. हंसा बहुत दीन्हेसि तब गारी.
11. जब जब होहिं धरम कइ हानी. तब तब पुरखा पावहिं पानी.
12. सकल पदारथ हैं जग माहीं. बिनु हेर फेर पावत नर नाहीं.
13. रहा एक दिन अवधि अधारा. गये भरत सरजू के पारा.
14. सुन्हहु देव रघुबीर कृपाला. अब कछु होइहैं गड़बड़ झाला.

आगे तुलसी बाबा के भक्तगण जोड़ने का प्रयास करें!

Friday, September 7, 2007

सिन्दबाद जहाजी और बूढ़ा


बोधिस्त्व को सपने आ रहे हैं. मुझे भी सिन्दबाद जहाजी का सपना आ रहा है. सिन्दबाद जहाजी की पांचवी यात्रा का सपना. वह चमकदार शैतानी आंखों वाला बूढ़ा मेरी पीठ पार सवार हो गया है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि उससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये.

मेरे अन्दर का जीव हर बार यात्रा पर निकल पड़ता है और हर बार फंस जाता है. इस बार तो यह बूढ़ा चिपक गया है पीठ से और लगता नहीं कि कभी छोड़ेगा. जिन्न की ताकत वाला है - सो मरेगा भी नहीं. दिमाग काम नहीं कर रहा. मैं थक भी गया हूं. सिन्दबाद जहाजी तो जवान रहा होगा. एडवेंचर की क्षमता रही होगी. मुझमें तो वह भी नहीं है. छुद्र नौकरशाही ने वह जजबा भी बुझा दिया है. क्या करें?

(सिन्दबाद और उसपर सवार शैतानी बूढ़ा)
आपको पता तो होगा सिन्दबाद जहाजी और बूढ़े के बारे में. सिन्दबाद का जहाज टूटा और वह पंहुचा एक द्वीप पर. वहां मिला अपंग बूढ़ा. उस बूढ़े के अनुरोध पर सिन्दबाद उसे पीठ पर लाद कर एक कोने पर ले जाने लगा. पर बूढ़ा जो पीठ पर लदा कि उतरा ही नहीं. उसकी टांगें मजबूत, नाखूनदार निकलीं जो सिन्दबाद की छाती से चिपक गयीं. महीनों तक सिन्दबाद उसे पीठ पर लादे रहा. अंतत: एक लौकी के तुम्बे में सिन्दबाद ने अंगूर भर कर रख दिये और जब उनका खमीरीकरण हो कर शराब बन गयी तो चख कर बोला - वाह! क्या पेय है! पीठ पर लदे बूढ़े ने सिन्दबाद से छीन कर सारी शराब पी डाली और जब बूढ़ा धुत हो कर श्लथ हो गया तो सिन्दबाद ने उसे उतार फैंका. ताबड़ तोड़ वह द्वीप से तैर कर भाग निकला.

जो बूढ़ा (या बूढ़े) मेरे ऊपर लदे हैं - वे दुर्गुण की उपज हैं या फिर समय के आक्टोपस के बच्चे हैं. उनसे पीछा छुड़ाने के लिये कौन सी शराब का प्रयोग किया जाये, कौन से छद्म का सहारा लिया जाये समझ नहीं आता.

सब के ऊपर यह बूढ़ा या बूढ़े लदे हैं. कुछ को तो अहसास ही नहीं हैं कि वे लदे हैं. कुछ को अहसास है पर असहाय हैं. कुछ ही हैं जो सिन्दबाद जहाजी की तरह जुगत लगा कर बूढ़े को उतार फैंकने में सफल होते हैं. मैं पैदाइशी सिन्दबाद नहीं हूं. मुझे नहीं मालूम उस/उन बुढ्ढ़े/बुढ्ढ़ों को कैसे उतार फैंका जाये. पर मैं सपना देख रहा हूं सिन्दबाद बनने का.

मुझे स्वतंत्र होना है.

आपमें सिन्दबादी जज्बा है? आप अपने पर से बुढ्ढ़े को उतार चुके हैं? आपके पास कोई सलाह है?

श्रीमती रीता पाण्डेय (मेरी पत्नी) इसे नैराश्य से उपजी निरर्थक पोस्ट मान रही हैं. मेरा कहना है कि यह नैराश्य नहीं वरन समय समय पर सेल्फ-एक्स्प्लोरेशन में उठने वाले भावों को व्यक्त करने का तरीका है. मेरा यह भी कहना है कि ब्लॉग है भी इस प्रकार की अभिव्यक्ति के लिये.