Sunday, April 18, 2010

नवान्न

वैशाखी बीत गई। नवान्न का इन्तजार है। नया गेहूं। बताते हैं अरहर अच्छी नहीं हुई। एक बेरियां की छीमी पुष्ट नहीं हुई कि फिर फूल आ गये। यूपोरियन अरहर तो चौपट, पता नहीं विदर्भ का क्या हाल है?

Gyan451-001 नवान्न के बोरे पर बैठी, सहेजती मेरी पत्नीजी और गेंहूं के दाने परखते पिताजीGyan449

ज्वान लोग गूगल बज़ पर ध्रुव कमाण्डो कॉमिक्स आदान-प्रदान कर रहे हैं और मेरे घर में इसी पर चर्चा होती है कि कित्ते भाव तक जायेगी रहर। कहां से खरीदें, कब खरीदें, कितना खरीदें?! रहर की भाव चर्चा में तो सारा सामाजिक विकास ठप्प हो रहा है। 

खैर गेहूं तो आ रहा है। कटका स्टेशन पर लद गया है पसीजड़ में। कित्ते बजे आती है? शाम पांच बजे रामबाग। अभी हंड़िया डांक रही है। लेट है। रामबाग से घर कैसे आयेगा? चार बोरा है। तीन कुन्तल। साल भर चल जायेगा।

मेरे पत्नीजी इधर उधर फोन कर रही हैं। उनके अनुसार मुझसे तो यह लॉजिस्टिक मैनेजमेण्ट हो नहीं सकता। कटका पर चार बोरे लदाना (सुरजवा अभी तो कर दे रहा है काम, पर अगली बार बिधायकी का चुनाव लड़ेगा तब थोड़े ही हाथ आयेगा!), इलाहाबाद सिटी स्टेशन पर उतरवाना (स्टेशन मास्टर साहब का फोनै नहीं लग रहा), फिर रोड वैहीकल का इन्तजाम रामबाग से शिवकुटी लने का (सिंह साहब संझा साढ़े चार बजे भी तान कर सो रहे हैं – जरूर दोपहर में कस के कढ़ी-भात चांप कर खाये हैं!)।

और हम अलग-थलगवादी नौकरशाह यह पोस्ट बना ले रहे हैं और एकान्त में सोच रहे हैं कि कौनो तरीके से चार बोरी गोहूं घर आये तो एक ठो फोटो खींच इस पर सटा कर कल के लिये पोस्ट पब्लिश करने छोड़ दें। बाकी, गेंहूं के गांव से शहर के माइग्रेशन पर कौन थीसिस लिखनी है! कौन सामन्त-समाज-साम्य-दलित-पूंजीवाद के कीड़े बीनने हैं गेंहू में से। अभी तो टटका नवान्न है। अभी तो उसमें पड़े भी न होंगे।

गेंहूं के चारों बोरे आये। घर भर में प्रसन्नता। मेरी पत्नीजी के खेत का गेंहूं है।

हम इतने प्रसन्न हो रहे हैं तो किसान जो मेहनत कर घर में नवान्न लाता होगा, उसकी खुशी का तो अंदाज लगाना कठिन है। तभी तो नये पिसान का गुलगुला-रोट-लपसी चढ़ता है देवी मैय्या को!

मुझे वर्डप्रेस पर इण्टरेक्टिव टिप्पणी ज्यादा बढ़िया लग रही है। आप इस पोस्ट पर वर्डप्रेस में टिप्पणी कर देखें!

24 comments:

  1. किसान की मेहनत का अंदाजा लगाया जा सकता है ...
    जब गमले में खिले फूल और सब्जियां इतनी खुशी प्रदान करती हैं तो किसान की प्रसन्नता का भी अंदाजा लगाया जा सकता है ...!!

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  2. हाँ इन दिनों गेहूं कोठिला(ड्रम ) में रखवाय रही हैं मेरी मैया भी -कहती हैं की इस बार कम हुआ है -हर बार यही कहती हैं -खाईये लपसी गुलगुला -अकेलवें के बजाय कभी कभी बाट वूट के भी खाया करिए न ! गेहूं चिंतन बढियां है -आधुनिक सरोकारों से बढियां जोड़ा है और लाजिस्टिक मनेज्मेनटवा कैसे हुआ भला -इसको गोल कर गए !

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  3. आपकी पोस्ट से पता चला कि नवान्न का समय हो चुका है, क्योंकि हम तो यहाँ केवल आटा ही खरीद पाते हैं, नवान्न के लिये तो सोच भी नहीं सकते हैं, हाँ हमारे घर पर भी शायद लेने की सोच रहे हों, पर यहाँ जगह की कमी और पत्नी के खेत न होना भी वजह हो सकते हैं :)

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  4. गुलगुला-रोट-लपसी- आप भी कहाँ कहाँ की याद जिंदा कर देते हैं. खैर, गेहूँ पहुँच गया तो बधाई. साल भर की फुरसत भई शिवकुटी में.

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  5. लाजिस्टिक मनेज्मेनटवा कैसे हुआ भला -इसको गोल कर गए !.....( million dollar question )

    गुलगुला-रोट-लपसी- आप भी कहाँ कहाँ की याद जिंदा कर देते हैं........( ummm.....i'm nostalgic now . Gulgule se google tak ta safar ! )

    @ Gyan ji-

    Somewhere i read that 'rabi' and 'kharif' crop are harvested around diwali and holi respectively !...Can you kindly throw some light on it ?

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  6. @ Zeal - रबी (वसन्त) और खरीफ (पतझड़) अरबी शब्द हैं।
    रबी की फसल होली के बाद ही कटनी प्रारम्भ होती है। वैशाखी तक नवान्न आता है। इस के बाद भी कटाई चलती है।

    खेती-बाड़ी वाले अशोक पाण्डेय बेहतर बता सकते हैं पोस्ट लिख कर। :)

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  7. Iss jaankari ke liye bahut-bahut dhanyawaad Gyan ji.

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  8. और हम अलग-थलगवादी नौकरशाह यह पोस्ट बना ले रहे हैं और एकान्त में सोच रहे हैं कि कौनो तरीके से चार बोरी गोहूं घर आये तो एक ठो फोटो खींच इस पर सटा कर कल के लिये पोस्ट पब्लिश करने छोड़ दें।

    True blogger.. Let me say.. :)

    कौन सामन्त-समाज-साम्य-दलित-पूंजीवाद के कीड़े बीनने हैं गेंहू में से। अभी तो टटका नवान्न है। अभी तो उसमें पड़े भी न होंगे।

    मज़ाक मे ही कही गयी लेकिन बहुत बडी बात..

    अच्छा रहर और अरहर सेम ही है न? हमारे वहा अरहर की दाल खायी जाती है..आप उसी की बात कर रहे है शायद..? :।

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  9. @ पंकज उपाध्याय - रहर, अरहर का देशज रूप है!

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  10. किसान जो मेहनत कर घर में नवान्न लाता होगा, उसकी खुशी का तो अंदाज लगाना कठिन है।
    पर उसकी यह खुशी कितने पल की है. मेहनत ही तो उसका है बाकी नवान्न तो कोई और खाता है.

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  11. अन्न उगाने का सुख किसान ही जानता है । गेहूँ की बालियों के नये निकले रोओं पर हाथ फिराते हुये जो प्यार उड़ेलता है, उससे सारे खेत का सीना फैल कर दुगना हो जाता है ।

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  12. मानवीय संवेदना की आंच में सिंधी हुई ये गेंहूं की रोटी और अरहर की दाल हमें मानवीय रिश्ते की गर्माहट प्रदान करती है।

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  13. रहर की आवक कम है जानकार निराशा हुई.

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  14. बेहद सुन्दर . आभार .

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  15. देव ,
    ऐसी पोस्टों को 'सुमिरनी' की तरह मन पर फेरता रहता हूँ ..
    ठेठ को गजब समो देते हैं आप !
    गुलगुला .. गूगल .. गाँव .. क्या बचा अब !

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  16. बधाई कि आपके यहां ४ बोरी गेहूं आ गया। तो गुलगुला-रोट-लपसी देवी मैय्या को चढ़ा दिया ना।

    वैसे अभी पिछले हफ्ते टी.वी. मे दिखा रहे थे कि कुछ राज्यों मे किस तरह गेहूं के बोरे बाहर खुले मे रक्खे है और गेहूं सड़ रहा है।

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  17. "मेरी पत्नीजी के खेत का गेंहूं है।"

    क्या ! आप अभी तक दहेज लिए जा रहे है ?

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  18. दहेज लेकर देवी पूजा वाह

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  19. ज्वान को जवान कीजिए। अच्छा लगा कि अन्न संग्रहण की परम्परा अभी आप के यहाँ जीवित है।
    दहेज के आरोपों से जनित क़ानूनी पहलुओं के लिए वकील साहब से परामर्श ले लें।

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  20. @ गिरिजेश - ज्वान जानबूझ कर लिखा है। बचपन में सुनते थे जाड़ा का गाना - बचवन के हम छूइति नाहीं, ज्वान हैं मेरे भाई!
    दहेज पर अलग पोस्ट लिख दी है। :(

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  21. दहेज (पोस्ट) पर केवल आप ही बोल सकते हैं। हमें भी तो बोलने दीजिए। वहां हमारे मुंह पर ताला लगा रखा है। हम भी तो चाण्डाल चौकरी में शामिल होते।

    और वो जो नाच गाना हो रहा था उसका अंजाम क्या हुआ?

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  22. आपकी नीचे वाली लाइन से जुडी बात यह है की आज कल किसान इतना बाजार वादी हो गया है की वो गुलगुला रोट और लपसी नहीं बनाता है अनाज निकालते ही सीधा बाजार में भेजता है | पहले हमारे यहां भी सवा मन अनाज का चूरमा बनाया जाता था अनाज निकालने के बाद | लेकिन आजकल इस परम्परा का एक प्रतिशत भी पालन नहीं किया जाता है |

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  23. इस नवान्न के चक्कर में इधर बीच पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ.इस बार अकेले जौनपुर में सरकारी आंकड़ों में हजार कुंतल नवान्न आगजनी की भेंट चढ़ गया .
    टिप्पणी के बारे में मैं क्या कहूँ-------- जाकी रही भावना जैसी......,वैसे मैं यह नहीं सोचता.

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  24. बढ़िया है जी. किसान की तो सारी ख़ुशी 'पर बीघा' कितना हुआ पर ही निर्भर होती है.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय