Saturday, January 30, 2010

रीडर्स डाइजेस्ट के बहाने बातचीत

कई दशकों पुराने रीडर्स डाइजेस्ट के अंक पड़े हैं मेरे पास। अभी भी बहुत आकर्षण है इस पत्रिका का। कुछ दिन पहले इसका नया कलेक्टर्स एडीशन आया था। पचहत्तर रुपये का। उसे खरीदने को पैसे निकालते कोई कष्ट नहीं हुआ। यह पत्रिका सन १९२२ के फरवरी महीने (८८ साल पहले) से निकल रही है।

मैं लम्बा चलने वाले ब्लॉग की कल्पना करता हूं तो मुझे रीडर्स डाइजेस्ट के तत्व जरूरी नजर आते हैं।

अठ्ठासी साल! मानसिक हलचल आठ साल भी चल पायेगी क्या?

इक्कीस भाषाओं और पचास संस्करणों में छपने वाला यह डाइजेस्ट इतना महत्वपूर्ण क्यों है मेरे लिये। और यह भी कि इसका हिन्दी संस्करण "सर्वोत्तम" बन्द क्यों हो गया? पता नहीं आपने इस बारे में सोचा या नहीं; मैं हिन्दी ब्लॉगरी की वर्तमान दशा को देख इस बारे में सोच रहा हूं।

RD स्टेफन कोवी की भाषा उधार लें तो यह कहा जा सकता है कि रीडर्स डाइजेस्ट करेक्टर एथिक्स (character ethics) की पत्रिका है, पर्सनालिटी एथिक्स (personality ethics) की नहीं। इसका वैल्यू सिस्टम एण्ड्योरिंग (enduring – लम्बा चलने वाला, शाश्वत) हैं। यह लेखन या साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह फैशन-ट्रेण्ड्स की पत्रिका नहीं है। यह किसी विषय में स्पेशेलाइजेशन की भी पत्रिका नहीं है। पर यह मानवीय मूल्यों की पत्रिका है। बहुत कम ही ऐसा होता है जब हम इसमें छपे किसी फीचर-लेख-फिलर से असहमत होते हों। और शायद ही कभी वह बोझिल लगता हो। मैं लम्बा चलने वाले ब्लॉग की कल्पना करता हूं तो मुझे रीडर्स डाइजेस्ट के तत्व जरूरी नजर आते हैं।

सामान्य ब्लॉगर अपने परिवेश में शाश्वत मूल्यों का प्रकटन भी देख सकता है और उसे अपनी पोस्ट में उकेर सकता है; अन्यथा वह विभिन्न प्रकार की सड़ांध भी महसूस कर वमन कर सकता है। च्वाइस उसकी है। और इसके लिये एक्स्ट्राऑर्डिनरी ब्लॉगर होने की जरूरत नहीं है।

बहुत से ब्लॉग या ब्लॉगर पर्सनालिटी एथिक्स पर चलते नजर आते हैं। उनका सोशलाइजेशन कम समय में ज्यादा से ज्यादा फालोअर्स, ज्यादा से ज्यादा टिप्पणी, ज्यादा चमकते टेम्प्लेट, ज्यादा सेनसेशनलिज्म, २०-२० मैच की मानसिकता पर निर्भर है। बहुत जल्दी वे मित्र और शत्रु बनाते हैं। ब्लॉगिंग को अपनी अभिव्यक्ति का कम, अपनी सफलता का माध्यम अधिक बनाना चाहते हैं। लिहाजा गली स्तर की राजनीति की श्रृंखला व्यापक होती जाती है। उस प्रवृत्ति का अनुसरण व्यर्थ है। पर कौन मानेगा!

बहुत सी पोस्टें देखी हैं जिनमें में व्यक्ति की गरिमा का ख्याल नहीं रखा गया। इस संदर्भ में चर्चा वाले मंचों का बहुत दुरुपयोग किया गया है। इसी लिये मेरा विचार था कि ये मंच खत्म होने चाहियें। मगर वे तो कुकुरमुत्ते की तरह प्रॉलीफरेट कर रहे हैं। असल में कोई आचार संहिता बन ही नहीं सकती। ब्लॉगिंग उस तरह का माध्यम है ही नहीं। और सामुहिक बुद्धिमत्ता (collective wisdom) नाम की चीज कहीं है?!

रीडर्स डाइजेस्ट का हिन्दी संस्करण "सर्वोत्तम" चल नहीं पाया। उसके पीछे मेरा मानना यह है कि हिन्दीजगत में एण्ड्योरिंग वैल्यूज (शाश्वत मूल्यों) की कद्र नहीं है। आजकल का हिन्दी साहित्य भी वह नहीं करता। पता नही कैसी कुण्ठा, कैसी उग्रता दिखाता है वह। हिन्दी ब्लॉगरी भी वही दर्शाती है। सामान्य ब्लॉगर अपने परिवेश में शाश्वत मूल्यों का प्रकटन भी देख सकता है और उसे अपनी पोस्ट में उकेर सकता है; अन्यथा वह विभिन्न प्रकार की सड़ांध भी महसूस कर वमन कर सकता है। च्वाइस उसकी है। और इसके लिये एक्स्ट्राऑर्डिनरी ब्लॉगर होने की जरूरत नहीं है।

क्या भविष्य में अच्छी रीडर्स-डाइजेस्टीय सामग्री मिलेगी ब्लॉगों पर?! और क्या केवल वैसी ब्लॉग पोस्टों की चर्चा का काम करेगा कोई डोमेन?


चर्चायन (अनूप शुक्ल और अभय तिवारी लाठी ले पीछे न पड़ें कि यह शब्द शब्दकोशानुकूल नही है) -

कल मुझे दो पोस्टें अच्छी लगीं। पहली थी प्रमोद सिंह अजदक की – ज़रा सा जापान। मैं ज के नीचे बिन्दी लगा दे रहा हूं – शायद वही सही हिन्दी हो।

और दूसरी थी - “अदा” जी की चिठ्ठाचर्चा आरती ।  जब मैं नया नया ब्लॉगर था तो मेरे मन में भी ऐसा आया करता था। पर मैं इतना प्रतिभावान नहीं था कि इतनी बढ़िया गेय पोस्ट बना सकूं। ऑफकोर्स, डोमेन स्क्वैटिंग मुझे स्तरीय चीज नहीं लगती और ऐसा मैने वहां टिप्पणी में कहा भी है।


41 comments:

  1. sahamati.. magar poori nahi.. avi nind aa rahi hai so asahamati kal batata hun.. vaise 95% sahamati to hai hi.. :)

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  2. आपकी बात से मुख्य रूप से सहमत हूँ। रीडर्स डाइजेस्ट के बारे में बिल्कुल सहमत हूँ। हम लोग स्वयं क्यों नहीं कहीं सहेजने योग्य पोस्ट्स के लिंक स्वयं सम्भालने का काम करते ताकि जब हिन्दी ब्लॉगिंग की बात हो तो हम स्वयं उदाहरण देने योग्य पोस्ट देख व दिखा सकें। स्वाभाविक है कि ये पोस्ट्स क्षणिक जोश वाली नहीं होंगी। न ही सबसे अधिक पढ़ी गई या टिप्पणी बटोरने वाली होंगी। ये वे ही होंगी जो शाश्वत मानवीय मूल्यों की बात करती हों।
    घुघूती बासूती

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  3. च्वाइस उसकी है। और इसके लिये एक्स्ट्राऑर्डिनरी ब्लॉगर होने की जरूरत नहीं है।

    सही कहा आपने. वैसे मानवीय मूल्यों की की बात भी सही है मगर अमेरिका में तो रीडर्स डाइजेस्ट की हालत खराब ही है

    सर्वोत्तम के बंद होने की बात शायद सुनी होगी मगर आज पढ़कर अफ़सोस हुआ. मैंने अपना पहला लेख वहीं भेजा था. सम्पादक अरविन्द कुमार के हस्ताक्षर वाला पत्र आज भी रखा है.

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  4. आपके साईडबार में एक लिंक है जिसमें ह्यस्टन मैराथन की रपट है और दौडने वाले शख्स हैं नीरज रोहिल्ला जी। अभी अभी उस पोस्ट को पढ आपकी इस पोस्ट को पढ रहा हूँ।

    जहां तक ब्लॉगिंग के लंबे चलने का सवाल है तो मुझे नीरज जी के मैराथन दौड के 23rd mile की उहापोह की याद आ रही है। एक हिडन तत्व होता है ऐसे समय में जो कि आपके घायल होने के बावजूद जज्बे को बनाये रखता है और आप जारी रहते हैं। न सिर्फ आगे बढते हैं बल्कि सडक के दोनों ओर खडे लोगों की तालीयों के बीच से गुजरते हुए मंजिल को छूते हैं।

    मुझे लगता है कि ब्लॉगिंग में भी उस 23rd mile को महसूस करने की आवश्यकता है, हिडन एलीमेंट के जरिये आगे भी जारी रहने की आवश्यकता है।

    लेकिन यहां हिडन एलीमेंट एक हो तो वह जज्बा बना रहे....यहां तो ढेरों हिडन एलीमेंट हैं और ज्यादातर नेगेटिव ही हैं। काश की वह 23rd mile ब्लॉगिंग में भी आए......

    23rd Mile......Hats off to नीरज जी।

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  5. मैंने तो आरडी का सब्सक्रिप्शन बंद कर दिया. १९९० तक तो इसमें स्तरीय सामग्री छपती रही थी लेकिन धीरे-धीरे पत्रिका में बाजारवाद घुस गया. अभी भी इसके विशेषांक तो पढने योग्य होते ही हैं.
    और सर्वोत्तम का हिंदी ब्लौगिंग से आपने खूब साम्य निकाला है.

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  6. हिन्दजगत में एण्ड्योरिंग वैल्यूज (शाश्वत मूल्यों) की कद्र नहीं है

    -कहाँ है यह? वो पता बता दें, देखने की बहुत इच्छा है. :)

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  7. पूर्णतया सहमत हूँ ! सुबह सुबह एक बेहतरीन लेख पढवाने के लिए शुक्रिया !

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  8. 'सर्वोत्तम' के संग्रहनीय अंक तो सीलन की भेंट चढ़ गए। मुझे याद आता है कि सबसे पहले उसमें आने वाले चुटकुलेनुमा लघु-लेख सबसे पहले तलाशता था

    वो जब याद आए, बहुत याद आए

    बी एस पाबला

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  9. रीडर डायजेस्ट की गुणवत्ता के बारे में किसको शक हो सकता है ...इतने वर्षों तक सफल प्रकाशन जताता ही है कि उत्कृष्ट लेखन और उच्च मानवीय संवेदनाएं कभी अपनी महत्ता नहीं खोती ...हिंदी में सर्वोत्तम का प्रकाशन लगातार ना हो पाना दुखद है मगर इसी स्तर की सामग्री एक अपेक्षाकृत कम मूल्य की अति विशिष्ट पत्रिका " आहा जिन्दगी !! " उपलब्ध कर रही है ...निरंतर ....

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  10. ओह, बात रीडर्स डाइजेस्ट/सर्वोत्तम केन्द्रित होती जा रही है जबकि मुद्दा ब्लॉग्स के चरित्र बनाम व्यक्तित्व नैतिकतामूलक होने का है! :)

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  11. चर्चायन (अनूप शुक्ल और अभय तिवारी लाठी ले पीछे न पड़ें कि यह शब्द शब्दकोशानुकूल नही है) यह पढ़ने के बाद कुछ कहना आपके आभासी डर को सच साबित करना होगा।

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  12. यह सच है कि रीडर्स डाइजेस्ट करेक्टर एथिक्स की पत्रिका रही है हमेशा से....जब भी कि आर्थिक तौर पर इस पत्रिका की हालत अच्छी नहीं है फिर भी इसने कभी भी अपने चारित्रिक मापदंड से समझौता नहीं किया ...जहाँ तक आपका सुझाव किसी भी ब्लॉग को लम्बी रेस का घोडा बनने के लिए रीडर्स डाइजेस्ट के गुणों को आत्मसात करने की बात है....तो ज़रूर किया जाना चाहिए कम से कम करेक्टर एथिक्स की बात तो होनी ही चाहिए...वैसे भी ब्लॉग व्यक्ति विशेष की विशेषताओं और दुर्गुणों को परिलक्षित कर ही देता हैं.....ज़रुरत है बस उसे देखने की....और पहचानने की...
    बहुत से ऐसे ब्लॉग हैं जो अपनी मौलिकता और गुणवत्ता बनाये हुए हैं...साथ ही किसी भी चारित्रिक मापदंड में खरे उतरने की सानी रखते हैं...जहाँ तक इनका लम्बे चलने का प्रश्न है....तो कुछ कालजयी रचनाएँ उभर कर आ ही रहीं हैं इन ब्लागों में और ये रहेंगी ही रहेंगी....
    आपका ह्रदय से आभार कि आपने मेरा मान बढ़ाया...आशा हैं मेरी इस धृष्टता को लोगों ने दिल पे नहीं लिया होगा...
    आपतो जानते ही हैं...कि जब माँ बच्चों कि तरफ ध्यान नहीं देती तो बच्चे कैसे अपनी ओर ध्यान खींचते हैं....हम भी छोटे हैं...उम्र, अनुभव और ब्लॉग्गिंग में...आपलोगों का वरदहस्त चाहिए ही चाहिए हमें...चाहे आप कैसे भी रखें सर पर स्वेक्षा से या फिर तंग आकर...
    एक बार फिर आभार व्यक्त करती हूँ..
    धन्यवाद...

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  13. शत-प्रतिशत सहमत हूँ आपसे...!
    अपनी कमजोरियां भी निरख पा रहा हूँ. ..!
    अंदाज हमेशा की तरह ज्ञानयुक्त..ज्ञानमय..!

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  14. चर्चायन शब्द बढ़िया है ज्ञान भाई; ऐसे शब्दों के लिए तो हम आप के क़ायल हैं। 'लाठी लेकर' तो तब पीछे पड़ते हैं जब आप पहले से मौजूद शब्द का अनर्थ कर रहे हों :)

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  15. ज्ञान जी,
    हिन्दी ब्लॉग में मूल रूप से कुछ खास गिरावट नहीं हुयी है|
    एक किस्सा याद आया, सरस्वती विद्या मंदिर में हमारे आचार्यजी (जी हाँ हम आर आर एस के स्कूल के पढ़े और लोग हमें कम्यूनिस्ट कहते हैं, ;-)) कक्षा में प्रथम/द्वितीय/तृतीय आने का फार्मूला बताया करते थे| एक बार एक विद्यार्थी ने उनसे पूछा कि अगर सभी इसी फार्मूले को इस्तेमाल करें तो? आचार्य जी ने कहा कि उनकी बात को परीक्षा तक केवल तीन विद्यार्थी ही याद रख पायेंगे और वो ही प्रथम/द्वितीय/तृतीय आयेंगे|

    सैकड़ों हिन्दी ब्लाग्स में चंद ही रेत पर अपने निशान छोड़ पायेंगे ये एक सत्य है लेकिन इससे भी बड़ा सत्य यह है कि ये सब अपनी नैचुरल प्रकृति से होगा| हिन्दी ब्लागिंग के प्रारम्भिक दौर में उपजे व्यक्तिगत संबंधो/टिप्पणियों ने उसके कंटेंट को प्रभावित किया कि नहीं, शायद आगे ये प्रश्न भी उठे| प्रत्यक्षा नाम की एक ब्लॉगर ने एक बार लिखा था कि पोपुलिस्ट और क्लासिकिल लेखन में फर्क था है और रहेगा | लेकिन इसके बावजूद हमारा फ्री स्पीच में अगाध विशवास है, जिसको जो लिखना हो लिखे गन्दा, संदा अश्लील श्लील सब....

    My right to offend you is more important than protecting the offended.

    जैसे ग्रुप हिन्दी ब्लागिंग के शुरू में बने, वैसे ही गुट नए ब्लागरों के भी बनेंगे| इसके अतिरिक्त कुछ बाते पीरियाडिक रूप से बार बार भी देखने को मिलेंगी...उदाहरण के तौर पर इन्टरनेट के पुराने प्रयोगकर्ता स्पैम और होक्स ईमेल का फर्क समझते हैं और उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, वहीँ नए प्रयोगकर्ता के लिए नाइजीरिया से मिली लाटरी की ईमेल ब्लॉग पोस्ट का मसाला होता है या फिर सनसनीखेज गुप्त रहस्य का खुलासा |
    चिटठा चर्चा के मंच में लोगों ने अपना समय दिया, जमकर मेहनत की और लोगों का समर्थन भी मिला लेकिन जैसे जैसे चिट्ठों की संख्या बढ़ेगी चिटठा चर्चा सस्टेनेबल नहीं है, लोग इसमें भाई भतीजावाद देखेंगे और संभव है ऐसा हो भी क्योंकि चर्चा करने वाले भी हम आप जैसे ही हैं| हो सकता है जो कुछ हो रहा हो वो नैचुरल प्रकृति से हो रहा हो...;-)

    इसके अलावा तकलीफ होती है लोगों से जो हिन्दी ब्लॉग जगत को साफ़ सुधरा रखने की कोशिश में दुबले होते रहते हैं, ये प्रकृति विरुद्ध है, ये प्रयास सफल नहीं हो सकते ब्लॉग जैसे मुक्त क्षेत्र में...पीरियड

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  16. बहुत दिनों तक नवोदित समाचार चैनलों में सेन्सेशनल सुनने के बाद, दूरदर्शन का समाचार सर्वोत्तम लगता है । आधे घंटे में सारा समाचार । शायद यही ब्लॉगजगत में भी होगा । चटपटापन शाश्वत मूल्य नहीं दे सकता । गरिमा बनाये रखनी होगी ।

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  17. जब से जीवन में कदम रखा, हमेशा रीडर्स डाइजेस्ट को घर में पाया। यह मेरे जन्म के कई साल पहले से और आज तक चली आती है।

    यह दूसरी जगहों के सर्वोत्तम लेखों को अपनी पत्रिका में डालती है। इसीलिये इतनी अच्छी है।

    मैंने इसका हिन्दी संस्करण भी लिया पर उसके लेख अनुवाद से ऊपर नहीं निकल पाये। मूल लेखन का आभाव लगा। अनुवाद का स्तर अच्छा नहीं था इसलिये बन्द कर दिया।

    मैं माफी चाहूंगा कि मुझे आपकी यह बात ठीक नहीं लगती कि यह पर्सनालिटी एथिक्स (personality ethics) की पत्रिका नहीं है।

    जहां तक मैं समझता हूं यह करेक्टर एथिक्स (character ethics) के द्वारा पर्सनालिटी एथिक्स का निर्माण करती है। इसीलिये यह इतने दिनो से चली आ रही है।

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  18. ब्लॉग व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम है जबकि पत्रिका में बहुत से लोग जुड़ते हैं और अपना सहयोग देते हैं...पत्रिका जैसी विविधता ब्लॉग में ढूँढना समझदारी नहीं है...जहाँ तक खेमों की बात है वो समाज में कहाँ नहीं हैं...ब्लॉग में भी है तो क्या गलत है...
    अब बात रीडर्स डाइजेस्ट की, ये सही है इतने वर्षों तक किसी पत्रिका का चलना किसी अजूबे से कम नहीं...पत्रिका बंद होने का कारण सिर्फ उसमें छपने वाली सामग्री ही नहीं होती बहुत से कारण होते हैं...धर्मयुग के बंद होने का कारण कम से कम प्रकाशन की सामग्री का स्तर तो नहीं ही था. सर्वोतम के बंद होने का कारण शायद आयातित सामग्री थी जो भारतीय भाषा में आरोपित लगती थी.सरस नहीं थी.
    ब्लॉग और ब्लोगर को देखने का नजरिया बिलकुल अलग होना चाहिए ये विधा और इसके सृजक अलग हैं.
    नीरज

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  19. यह पत्रिका मुझे भी अच्छी लगती है. कभी कभार पढ़ लेता हूँ. हिन्दी वाली पढ़ता था, क्योंकि वह मेरी भाषा में थी अतः समझने में आसानी होती थी.

    शाश्वत मूल्यों की कद्र नहीं है, यह सत्य हो सकता है मगर लगता है आपने कठोर बात लिख दी है.

    ब्लॉग की भाषा प्रवाहमय व आम आदमी की भाषा होनी चाहिए, इस पर कायम हूँ.

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  20. लिखने वाले सर्वोत्तम के समय भी थे और अभी ब्लॉग्गिंग के समय भी है. पढ़ने वाले का टोटा तब भी रहा होगा और अब भी है.
    बगैर रीडरशिप के किसी पत्रिका का प्रकाशन संभव नहीं होता. लेकिन ब्लॉग लेखन का खर्चा लगभग ना के बराबर है तो यहाँ तो उम्मीद बरकार है.
    टिप्पणियां और फोलोवार्स बढाने की बजाय ब्लॉग लेखक ट्राफिक/ पाठक बढ़ाने की सोचें तो बात बने.

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  21. पत्रिका पढ़ता हूँ, पर नियमित नहीं ! कारण अंग्रेजी ही है ! हमारे कस्बे के बुकस्टाल पर मेरे कई बार माँगने पर एक बार आती है । हिन्दी वाली मैंने पढ़ी नहीं !

    रीडर्स डाइजेस्ट के बहाने हमारे सरोकार खटखटाती पोस्ट ! इस एक बात से कि "इसका वैल्यू सिस्टम एण्ड्योरिंग (enduring – लम्बा चलने वाला, शाश्वत) हैं।" सहमत हूँ, ब्लॉग लिखने के परिप्रेक्ष्य में !

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  22. Bilkul hi sahi drishtant de aapne baat ko rakhi hai....

    Shsshvat maanviy moolyon ko lekar jo kuchh bhi likha jaayega,wahi bhavishy ke liye pathneey rah payega...

    Cunaav to vyakti ko swayan karna hai....

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  23. जब तक सर्वोत्तम छपी तब तक नियमित पढी . अन्ग्रेजी से ज्यादा ताल्लूक नही रखते क्योकि यूपोरियन अन्ग्रेजो के ज्यादा खिलाफ़ है .

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  24. रीडर्स डाइजेस्ट के बहाने हिन्दी ब्लॉग्गिंग पर इस चर्चा के लिए धन्यवाद. आशा करता हूँ कि मानसिक हलचल सहित अनेक ब्लॉग दीर्घजीवी होंगे.रीडर्स डाइजेस्ट की तरह सुदीर्घजीवी होने के लिए ब्लॉग व्यक्ति आधारित न होते हुए समूह आधारित हो. व्यक्ति आधारित ब्लॉग को भी अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहिए.
    हिन्दी में सर्वोत्तम ही नहीं अनेक स्तरीय पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं.एक समय था जब साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,दिनमान, सारिका, कहानी, नयी कहानियां, निहारिका आदि अनेक पत्रिकाएँ निकलती थीं, इनमें से आज कितनी बची हैं ? इसी तर्ज पर ब्लॉग बंद होने का अनुपात भी कम नहीं है.

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  25. सर,
    पहली बार आपसे सहमत होने का मन नहीं बना पा रहा हूं। हो सकता है उसके पीछे हमारा शैक्षणिक प्रिष्ठ्भूमि हो।
    १. रीडर्स डाइजेस्ट बनाम सर्वोत्तम - आपने कहा है हिन्दजगत में एण्ड्योरिंग वैल्यूज (शाश्वत मूल्यों) की कद्र नहीं है। यहां असहमत हूं। रामचरित मानस और कल्याण तो इन्ही मुल्यों के कारण शाश्वत हैं।
    मेरे अनुसार सर्वोत्तम को कड़ी प्रतियोगिता उन दिनों की कादम्बिनी से थी और वह उसके पाठक वर्ग को नहीं तोड़ पाया।
    उसके आलेख में एक विदेशीपन होता था जो हिन्दी के पाठक वर्ग को आकर्शित नहीं कर पाया।
    और वो लटके-झटके जो दोनों ही रूपों में है -- जिसे मर्केटिंग का नाम दिया जाता है -- जैसे १२ प्रति मुफ़्त में एक घड़ी फ़्री, बैग चश्मा फ़्री आदि वह हिन्दी पाठक को विशेष बहला फुसला नहीं सका।
    २. च्वाइस वाली आपकी बात से सहमत हूं। और यह चर्चाकारों पर भी लागू होती है। ये उनकी च्वाइस थी जो उन्होंने स्वीकारा। हमने नहीं। और चर्चा किसकी करें, कैसी करें यह भी उनकी ही च्वाइस है।

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  26. हां अनुवाद वाली बात कह नहीं पाया। सर्वोत्तम का हारिबुल अनुवाद भी उसके न टिक पाने का करण बना। उसके थोड़े बाद इंडिया टुडे अच्छी अनुवाद शैली लेकर आया, नतीज़ा सबके सामने है।

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  27. साम्‍यता की जुगत बेहद रचनात्मक रही किंतु हिन्‍दी बेशिंग के लिए इसका उपयोग शायद इसका सर्वर इस्‍तेमाल नहीं है।

    चर्चायन अच्‍छा शब्‍द है पर चर्चांगद न हो वो सर्वोत्‍तम की गति को प्राप्‍त होगी या डायजेस्‍टीफाई होगी इसे खुद तय होने दें :)

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  28. अपनी एक पोस्ट में मैंने भी यही चिंता व्यक्त की थी कि कहीं ब्लॉग जगत महज एक सोशल नेटवर्क बन कर ना रह जाए.....character ethics N persoanlity ethics की बात आपने खूब कही...फिलहाल तो ब्लॉग्गिंग में personality ethics ही ज्यादा दिख रहा है....पर यह क्षणिक ही हो सकता है...लम्बी रेस के घोड़े तो वही ब्लोग्स होंगे जिनका कंटेंट मानवीय मूल्यों पर आधारित होगा और जिनकी दृष्टि सजग होगी...पर अगर लोग उसे पढ़ते रहें...वरना वे हताश होकर छोड़ ना दें लिखना.
    'रीडर्स डाइजेस्ट' आज भी उतना ही पसंद आता है....शायद बिलकुल आमलोगों से जुड़े रहने के कारण और स्तर में कभी भी समझौता नहीं किया...'सर्वोत्तम' मुझे हमेशा एक कॉपी से ज्यादा कुछ नहीं लगा...
    और अगर आप भी रोज अपने २,३, मनपसंद पोस्ट का जिक्र करते रहें...तो एक चर्चायन यहाँ भी हो जायेगी (ये एक निर्मल हास्य है,अन्यथा ना लेँ )

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  29. “क्या भविष्य में अच्छी रीडर्स-डाइजेस्टीय सामग्री मिलेगी ब्लॉगों पर?! और क्या केवल वैसी ब्लॉग पोस्टों की चर्चा का काम करेगा कोई डोमेन?”

    पहले सवाल के जवाब में, ऐसी सामग्री आज भी अलग ब्लागों पर उपलब्ध है लेकिन कम है बल्कि काफी कम है. एक ही ब्लाग पर सारी सामग्री होने का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि ब्लाग व्यक्तिगत रूचिप्रधान ही नहीं रहने वाले हैं बल्कि ब्लागर की सीमाएं भी इसका कारण हैं. संभावना आपके दूसरे सवाल की स्वीकारोक्ति की भी कम ही जान पड़ती है.

    हिन्दी जिस दिन बाज़ार की भाषा बन जाएगी "सर्वोत्तम" रीडर्स डाइजेस्ट की तरह चिरआयु हो पाएंगी. किन्तु अभी बहुत समय लगेगा...वह भी सशर्त..लेकिन गारंगी उसकी भी नहीं है

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  30. रीडर्स डाऐजेस्ट के बहाने जो आपने बातचीत की है, काबिले तारीफ है क्योंकि आपने इस ब्लॉगजगत के बहुत ही सही मुद्दे से ला जोड़ा है।
    हालांकि आपका सवाल अपनी जगह बहुत ही सही है कि सर्वोत्तम बंद क्यों हो गया। यह सवाल आज भी बहुत से पाठकों को मथता है, खासतौर पर उन पाठकों को जो स्तरीय सामग्री की तलाश में रहते हैं।

    अब बात आती है जैसा कि आपने इस मुद्दे को ब्लॉग जगत से जोड़ा, यहां भी स्तरीय पाठक, स्तरीय सामग्री की तलाश में ( थे) हैं और रहेंगे…
    यह क्रम तो चलता रहेगा।
    जैसा कि आपने कहा "बहुत सी पोस्टें देखी हैं जिनमें में व्यक्ति की गरिमा का ख्याल नहीं रखा गया।"

    तो यह तो मानव स्वभाव मानकर मैं नजरअंदाज कराना चाहूंगा। ;) क्योंकि इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं।

    और हां मैं इस बात के लिए आशावान हूं कि " भविष्य में अच्छी रीडर्स-डाइजेस्टीय सामग्री मिलेगी ब्लॉगों पर"

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  31. मैं तो यही कहूँगा कि हाई स्कूल के समय पढ़ना आरंभ किया था और कॉलेज के दौर की समाप्ति पर आते-२ इसको पढ़ना तज दिया था, कारण यही कि इसका मसौदा नीरस हो गया जान पड़ा इसलिए इस पर समय व्यतीत करने को मन न माना।

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  32. मनोज कुमार जी की बातों से सहमत हूँ। ब्लॉग चर्चाओं पर कुछ नहीं कहूँगा सिवाय इसके कि इन पर कुछ अधिक ही ध्यान दिया जा रहा है। अच्छा होगा कि रचना कर्म पर अधिक ध्यान दिया जाय और सार्थक हिन्दी रचयिताओं की संख्या बढ़ाई जाय। चर्चा करने वाले निस्सन्देह बहुत बहुत ही श्रमसाध्य काम कर रहे हैं, इसके लिए उनका अभिवादन।
    सादृश्य बनाए रखते हुए निरंतर लेखन किया जाय तो कुछ हिन्दी ब्लॉग RD से भी आगे जाने की योग्यता रखते हैं। समय लगेगा। इतना अवश्य है कि तमिल, मराठी, बंगला सरीखी भाषाओं की तुलना में हिन्दी में गम्भीर और निष्ठावान पाठक कम हैं। क्यों हैं ? इस पर समाजशास्त्रीय शोध होना चाहिए।
    कहीं इस कारण तो नहीं कि हिन्दी का वर्तमान स्वरूप अपेक्षाकृत बहुत नया है।

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  33. अच्छी पोस्ट अच्छी चर्चा -रीडर्स डाईजेस्ट एक बेहतरीन पत्रिका है मानव रचित /सृजित हर पहलुओं को समेटती हुयी -इसमें नैतिकता या व्यक्तित्व निर्माण का कोई घोषित उद्द्येश्य नहीं है -हर व्यक्ति अपने तई श्रेष्ठ उपक्रमों का मूल्यांकन करता है -यह भी सही है की तेजी से इस पत्रिका में व्यवसायीकरण के दुर्गुण आने लगे हैं .पर आज भी यह श्रेष्ठ पत्रिका है ! सर्वोत्तम के हिन्दी पाठक नहीं मिले इसलिए ही वह बंद हुयी -गोबर पट्टी(बिहार /झारखंड अपवाद हैं )में पढने के नाम पर कितना धेला लोग खर्चते हैं? यहाँ पान की पीक के लिए पैसा निकलता है पत्रिका के लिये नहीं .
    यहाँ भी वही बात है -पठनीयता का संकट यहाँ भी है .रश्मि रविजा ने यह बात उठाई थी कहीं की ब्लॉगजगत में पहले सोशल नेटवर्किंग करो फिर पढ़े जाओ / टिप्पणियाँ प्राप्त करो .....यहाँ विद्वान् बनने की अदम्य चाह है और कुछ सरल मासूम से लोगों को दूसरों को विद्वान् घोषित करने की ...जिसका भुक्तभोगी मैं भी हो रहा हूँ .
    शास्त्री जी कोचीन वाले ,आप ,समीर जी ,शरद कोकास ,अनूप शुकुल जी -महिलाओं में रचना सिंह ,प्रत्यक्षा और न जाने कौन कौन -ये सब पहले से ही घोषित विद्वान् थे -मुझे डर लगता था की अब तो ये रिटायर हो चले -शास्त्री जी शायद पोथी पत्रा लपेट ही लिए .....रचना सिंह उन्हें ले गयीं और खुद डूबती भईं ... बाकी के आसार भी एकाध को छोड़कर मुझे कोई ख़ास नहीं लगते -अब मैं घोषित विद्वान् हो रहा हूँ और गिरिजेश, हिमांशु भी बैंडवैगन ज्वाईन कर रहे है -ये हमारे लिए भी शुभ लक्षण नहीं हैं .
    तो इस पचड़े में न रहकर हम ईमानदारी से कुछ श्रेष्ठ और स्थाई देने का प्रयास करें! आपकी ईमानदारी तो असंदिग्ध है .....और भी इसी भावना से आयें -सेल्फ प्रोजेक्शन बहुत हो गया !

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  34. रीडर्स डाइजेस्ट के बहाने सच में एक सार्थक, विचारोतेजक और सामयिक चर्चा..."बहुत से ब्लॉग या ब्लॉगर पर्सनालिटी एथिक्स पर चलते नजर आते हैं...ब्लॉगिंग को अपनी अभिव्यक्ति का कम, अपनी सफलता का माध्यम अधिक बनाना चाहते हैं।" सत्य कथन किन्तु अधिकाशतः सफलता और गुणवत्ता एक ही मान लिए जाते है...हमारी चलचित्रों में भी तो अभिव्यक्ति इसी समीकरण से देखी जाती है. पोपुलर सिनेमा - पेरलेल सिनेमा इसी मानसिकता की देन है तो चिठ्ठाकारिता कैसे अछूती रहेगी...सवान्तःसुखाय की अभिव्यक्तियां तो डायरी में भी की जा सकती हैं...चिठ्ठाकारी में तो तमाशे की तरह थोड़ी तालियों की दरकार रहती ही हैं...हाँ यह अपेक्षा हावी नहीं होनी चहिये और एक सामंजस्य की स्थिति हमेशा रहनी चाहिए ....

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  35. Arvind Mishra said... "यहाँ भी वही बात है -पठनीयता का संकट यहाँ भी है .रश्मि रविजा ने यह बात उठाई थी कहीं की ब्लॉगजगत में पहले सोशल नेटवर्किंग करो फिर पढ़े जाओ / टिप्पणियाँ प्राप्त करो ....."
    goodness....no..way...अरविन्द जी,...मैंने यह नहीं कहा था...मैंने बस एक सवाल रखा था सबके सामने कि,ब्लॉग जगत एक सम्पूर्ण पत्रिका है या चटपटी ख़बरों वाला अखबार या महज एक सोशल नेटवर्किंग साईट ? और आपने अपनी टिप्पणी में यह कहा था

    Arvind Mishra said... 'ब्लॉग जगत एक सोशल नेटवर्किंग साईट जैसा ही लगने लगा है.जिसकी नेटवर्किंग ज्यादा अच्छी है.-'
    'कितनी ही अच्छी रचनाएं कहीं किसी कोने में दुबकी पड़ी होती हैं.और किसी की नज़र भी नहीं पड़ती.....'
    दोनों हाथ में लड्डू -फिर ब्लॉग जगत को क्यों न अपनाएँ ?
    Arvind Mishra said... मतलब पहले सोशल नेटवर्किंग फिर राईटिंग ....

    इस पोस्ट कि लिंक यहाँ है.
    http://rashmiravija.blogspot.com/2010/01/blog-post_22.html

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  36. देव !
    अपन तो ठेठ हिन्दी - ठेठ अवधी तक ही रहे , आंग्लभाषा का ज्ञान
    अत्यल्प होने की वजह से 'रीडर डाइजेस्ट ' को कभी 'डाइजेस्ट ' न कर सके ..
    अतः '' मैं लम्बा चलने वाले ब्लॉग की कल्पना करता हूं तो मुझे रीडर्स डाइजेस्ट
    के तत्व जरूरी नजर आते हैं। ... '' में इंगित जरूरी तत्वों को न जान पाया , अगर ये
    क्रमवार खुल कर बताये जाते तो और अच्छा होता , नए लाभार्थी के निमित्त ही सही ..
    .
    हाँ , एक बात मुझे परेशान करती है कि हम अपने 'कैनन' दूसरों ( अधिकांशतः 'वेस्टर्न' )
    के सापेक्ष ही क्यों सोचते हैं .. हमारी जड़ों में हमें सुधरने की शक्ति है .. कुछ अच्छे और
    क्षमतावान लोग प्रतिभा - पलायन की तरह ही अंगरेजी की ओर 'मानसिकता - पलायन ' ( क्या
    करूँ ये शब्द-युग्म गढ़ना पड़ा , नहीं जानता कि अंगरेजी में इसका कोई शब्द है या नहीं , ठीक इसी अर्थ को
    व्यंजित करता हुआ ! ) भी कर जाते हैं और 'द हिन्दू ' अखबार को सर्वस्व देते हुए छाती ठोंक
    के कहते है कि 'हिन्दी में आ सकता है 'हिन्दू ' जैसा अखबार ! ' ... अब बताइए इस वर्गीय - चरित्र
    को कोई 'नोटिस' करता है ! ... निजी आधार से उपजे 'हीनता - रहित ' उद्यम की जरूरत है , न कि किसी
    'बाहरी कैनन ' पर कसे जाने की ...
    .
    बड़ी अच्छी और विचारोत्तेजक पोस्ट रही यह .. आभार ,,,

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  37. 'च्वाइस उसकी है'... दिख रहा है टिपण्णीयों में भी... च्वाइस अपनी भी है... जो अच्छे लगें उन्हें पढ़े... जो ना अच्छे लगें उन्हें पढ़कर इग्नोर करें, सलाह देने पर तो कोई बदलने से रहा यहाँ. या फिर पढना ही बंद कर दें. रीडर डाइजेस्ट के अलावा भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका 'सरस (अ)सलिल' के भी तो पाठक हैं. अब हमें खुद ही तो चुनना होगा कि हम कौन सा पढ़ें...

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  38. HINDI BLOG WORLD has all the worst & Best within its confines , quite similer to Indian society as it operates within & without.

    I speak for myself that it tires me & bores me when people use personal
    insults in a public forum -
    but,
    we can not close each & every mouth.
    We live in a democratic domain after all.
    Good post-
    warm rgds,
    - L

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  39. Meduim holds lesser importance than sincerity in projection of thoughts in black and white.The sincerity and authenticity of emotions matter a lot in making any written piece gain an ability to trascend the barriers of time.

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  40. सबसे पहले ज़ोम्बीज़ को जगाने के लिए क्षमा !! :)
    पहली बार रीडर्स डाइजेस्ट मेरे चाचा जी ने मुझे दी थी..हिंदी एडिशन था जो उन्होंने खुद भी कभी नहीं पढ़ा.. बड़े नोर्मल किस्म के प्राणी है वो.. एकदम नोर्मल.. जब उनका जी करता है गालियाँ देते हैं, प्यार करते हुए भी गाली ही निकलती है यहाँ तक की मेरे मांसाहारी होने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान है..

    न जाने वो कहाँ से वो हिंदी एडिशंस लाते थे जो सिर्फ subscribers के लिए आते थे और मुझे लाकर दे देते थे.. फिर मैंने उसे पढना शुरू किया और सच बात है वो प्यारी सी किताब 'कैरेक्टर' बनती है..

    ज्ञान जी रही बात ब्लोगर्स की.. मेरे हिसाब से ब्लॉगर एक observer है.. वो कुछ अपने आस पास देखता है या जो कुछ उसके thoughts observe करते हैं, उसे ब्लॉग पर उड़ेल देता है.. नए ब्लोग्गेर्स के लिए और समस्याएं हैं.. जब तक वो कुछ सेंसेशनल नहीं लिखते, उनके वहां 'anonymous' लोग भी नहीं पहुँचते..

    मैं बहुत टाइम observational mode में रहा हूँ.. ढूंढ ढूंढ कर लोगो को पढ़ा है.. कई फीड subscribe हुई हैं और फिर unsubscribe.. जो लोग character बना ले गए, आज भी गाहे बगाहे आकर उन्हें पढ़ लेता हूँ..
    मुझे as a blogger ऐसे लोगों जैसा ही बनना है.. यही लोग मेरे रोल मोडल्स होंगे.. और मुझे भी अपने character को ऐसा करना है जिससे मुझे पढने वाले मुझे 'unsubscribe' नहीं करे...

    बाकि नया ब्लॉगर मोह माया में फंस ही जाता है... कुछ समय से शायद मैं भी फंसा हूँ... आपका गीतोपदेश शायद मेरे बहुत काम आये..

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय