Wednesday, January 6, 2010

“थ्री इडियट्स” या “वी इडियट्स”

कल यह फिल्म देखी और ज्ञान चक्षु एक बार पुनः खुले। यह बात अलग है कि उत्साह अधिक दिनों तक टिक नहीं पाता है और संभावनायें दैनिक दुविधाओं के पीछे पीछे मुँह छिपाये फिरती हैं। पर यही क्या कम है कि ज्ञान चक्षु अभी भी खुलने को तैयार रहते हैं।

पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? ... भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता।

चेतन भगत की पुस्तक “फाइव प्वाइन्ट समवन” पढ़ी थी और तीनों चरित्रों में स्वयं को उपस्थित पाया था। कभी लगा कि कुछ पढ़ लें, कभी लगा कुछ जी लें, कभी लगा कुछ बन जायें, कभी लगा कुछ दिख जायें। महाकन्फ्यूज़न की स्थिति सदैव बनी रही। हैंग ओवर अभी तक है। कन्फ्यूज़न अभी भी चौड़ा है यद्यपि संभावनायें सिकुड़ गयी हैं। जो फैन्टसीज़ पूरी नहीं कर पाये उनकी संभावनायें बच्चों में देखने लगे।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं।

फिल्म देखकर मानसिक जख्म फिर से हरे हो गये। फिल्म सपरिवार देखी और ठहाका मारकर हँसे भी पर सोने के पहले मन भर आया। इसलिये नहीं कि चेतन भगत को उनकी मेहनत का नाम नहीं मिला और दो नये स्टोरी लेखक उनकी स्टोरी का क्रेडिट ले गये। कोई आई आई टी से पढ़े रगड़ रगड़ के, फिर आई आई एम में यौवन के दो वर्ष निकाल दे, फिर बैंक की नौकरी में पिछला पूरा पढ़ा भूलकर शेयर मार्केट के बारे में ग्राहकों को समझाये, फिर सब निरर्थक समझते हुये लेखक बन जाये और उसके बाद भी फिल्मी धनसत्ता उसे क्रेडिट न दे तो देखकर दुख भी होगा और दया भी आयेगी।

पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? क्या हमारी संरक्षणवादी नीतियाँ हमारे बच्चों के विकास में बाधक है या आर्थिक कारण हमें “सेफ ऑप्शन्स” के लिये प्रेरित करते हैं। भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता। किसकी गलती है हमारी, सिस्टम की या बालक की। या जैसा कि “पिंक फ्लायड” के “जस्ट एनादर ब्रिक इन द वॉल” द्वारा गायी स्थिति हमारी भी हो गयी है।

हमें ही सोचना है कि “थ्री इडियट्स” को प्रोत्साहन मिले या “वी इडियट्स” को।


पुन: विजिट; ज्ञानदत्त पाण्डेय की -
ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।

बड़ी अच्छी चर्चा चल रही है कि ग्रे-मैटर पर्याप्त या बहुत ज्यादा होने के बावजूद भारतीय बालक चेतक क्यूं नहीं बन पाता, टट्टू क्यों बन कर रह जाता है।

मुझे एक वाकया याद आया। मेरे मित्र जर्मनी हो कर आये थे। उन्होने बताया कि वहां एक स्वीमिंग पूल में बच्चों को तैरना सिखाया जा रहा था। सिखाने वाला नहीं आया था, या आ रहा था। सरदार जी का पुत्तर पानी में जाने को मचल रहा था, पर सरदार जी बार बार उसे कह रहे थे - ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।

एक जर्मन दम्पति भी था। उसके आदमी ने अपने झिझक रहे बच्चे को उठा कर पानी में झोंक दिया। वह आत्मविश्वास से भरा था कि बच्चा तैरना सीख लेगा, नहीं तो वह या आने वाला कोच उसे सम्भाल लेंगे।

क्या करेगा भारतीय पप्पू?!

36 comments:

  1. प्रवीणजी!
    चेतन भगत को शायद इस बात के पैसे मिले हो की वो चुपचाप बिना नाम खाम बैठे रहे. चुकी यह बात मिडिया मे उजागर हुई है.
    “थ्री इडियट्स ने चेतन भगत को इडियट्स बना दिया यह साफ़ जाहिर होता है,
    तर्क-सगत लेखन है आपका, आभार.
    शुभकामनाऎ

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  2. प्रोत्‍साहन पर तो सभी का हक है। थ्री और वी सभी का और समझदारों का भी चाहे वे तथाकथित ही क्‍यों न हों ?

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  3. एग्री १०० प्रतिशत..

    दरअसल शिक्षा प्रणाली ही कुछ ऐसी है.. की स्टुडेंट को सोचने का कोई मौका ही नहीं देती..

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  4. बहुत उम्दा विचारधारा प्रवाहित की है..कल ही थ्री इडियट्स देखी और फिर रात्रि भोज पर एक पुराने मित्र से बरसों बात मुलाकात हुई.

    मेरे दोनों बेटों एक भारतीय बाप की सोच का अनुसरण करते हुए कम्प्यूटर इन्जीनियर हैं और काफी अच्छा कर रहे हैं.

    मुझे उस भारतीय मित्र के बेटे के लिए भी उम्मीद थी कि बतायेगा कि मेडीकल या इन्जिनियरिंग कर रहा है...जानकर आश्चर्य हुआ कि बी .ए. म्यूजिक में कर रहा है और मेजर ड्रम्स में. समर जॉब्स में न्यूयार्क में किसी होटल में बेहतरीन ड्रम बजा कर नाम कमाया.


    शायद बाहर आ गये भारतीयों में वह परिवर्तन दिख रहा है मगर भारत में अभी हर हुनर को अनुरुप पारिश्रमिक नहीं मिल रहा..शायद आने वाला समय बदले..काफी हद तक बदला है, अब तो प्रोफेशनल फोटोग्राफर और प्लेयर दिखने लगे हैं.



    आलेख अच्छा लगा....


    ---

    ब्लॉग स्वामी के लिए:

    ’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

    -त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

    नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

    कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

    -सादर,
    समीर लाल ’समीर’

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  5. मेरा मानना है बच्चो को अपने आप पंख फ़ैलाने दो उड्ने दो . और साथ साथ जो % का चाबुक उनको दिन मे कई बार दिखाया जाता है उस पर लगाम लगे

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  6. धीरे चलें, सुरक्षित पहुंचे के साथ राजमार्ग पर चलने का प्रयास काफ़ी होता है अपने यहां।
    काम-धाम तो विकसित देश में भी बहुत बदले जाते हैं शायद। वहां सुरक्षा का एहसास शायद ज्यादा रहता है अपने यहां की तुलना में इसीलिये आत्मविश्वास भी होता है नया काम करने का। अच्छा लिखा!

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  7. बीती ताहि बिसार दे....!
    देर आयद, दुरुस्त आयद!

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  8. पूरी तरह से सिस्टम की गलती है।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  9. कल जब थ्री इडियट देख रहा था तो एक कैरेक्टर को देख मन में सवाल उठा कि ये साला 'चतुर रामलिंगम' भी हम लोगों में कहीं न कहीं घर कर बैठा है। ठीक दस साल बाद घूम कर उसी जगह आता है यह देखने कि मेरे और दोस्त मुझसे कहां पहुंचे और मैं कहां तक पहुँचा।

    बुढापा आने पर लोग जब अपने आप को क्या खोया क्या पाया कि कैल्कुलेशन में लीन कर लेते हैं तो वह एक तरह से चतुर रामलिंगम की जिंदगी जी रहे होते हैं।


    चेतन ने जब कॉन्ट्रैक्ट साईन किया था तब उसी तरह से साईन किया होगा जैसा हम लोग कोई सॉफ्टवेयर इन्सटॉल करते समय यूसर एक्सेप्टेस पर क्लिक करते हैं कि I Accept.

    नहीं जानते कि इसी I Accept में कहीं कहीं पर लिखा होता है कि U cannot use this software for Missile making.......any kind of distructive material....

    अब तक मैंने बहुत सी फिल्में देखी लेकिन कभी थियेटर में लोगों को फिल्म के अंत में नेमिंग रोल देखने के लिये खडे होकर इंतजार करते नहीं देखा। कल पहली बार थ्री इडियट के खत्म होने पर देखा लोग नेमिंग रोल में देखना चाहते थे कि देखे चेतन भगत का नाम किधर है।

    फिल्म का ही डायलॉग चस्पा हो रहा है चेतन भगत पर कि काबिल बनो, कामयाबी साली झख मार कर मिलेगी।

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  10. भारत की दशा सचमुच शोचनीय है -यहाँ शायद ही कोई वहां है जिसे जहां होना चाहिए -यहाँ तक कि ब्लागर भी इसका अपवाद नहीं है .

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  11. जरुरत है शिक्षा प्रणाली बदलने की तो उतनी ही जरुरत है बच्चे के माता पिता की सोच बदलने की भी, कि कैरियर केवल इंजीनियर या डॉक्टर बनकर नहीं है राहें और भी हैं। वैसे मेरे बेटे के लिये जो कैरियर मेरे मन में हो शायद किसी माता पिता के मन में हो, या सोच भी सकता हो, अब हम तो केवल इच्छा ही कर सकते हैं और हम बदले हुए पिता हैं, न हम अपनी इच्छा अपने बेटे पर लादेंगे। अब ये तो भविष्य के गर्भ में है... कि उसका क्या कैरियर होता है।

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  12. न किताब पढ़ी और न फिल्म देखी। पर जहाँ विद्यार्थी को सोचने और चुनने की स्वतंत्रता चाहिए वहीं संरक्षण और गाइडेंस भी, बस वह पुरानी सोच का न हो।

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  13. भारत में अबी भी अबिबावकों को ये विस्वास नही होता कि ुनका बच्चा कोई भी क्षेत्र चुनें कमयाब होगा यानि रोटी का जुगाड तो कर ही लेगा । इसीसे वे सेफ ऑप्शन चुनने को और चुनवाने को प्रवृत्त होते हैं । पर अब यहां भी अलग अलग क्षेत्रों में अवसर बढ रहे है ।
    रही बात श्रेय देने की तो आमिर खान और विधु विनोद चोपढा जैसे हस्तियों से ये उम्मीद नही थी ।

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  14. जब बचपन से ही 'बलात्कार' हो रहा हो तो उस बच्चे से आप कक्षा बारह में भी कांफिडेंस रूपी 'स्तन' की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. डर का 'वायरस' हमें ना तो रैंचो बनने देता है ना ही 'चतुर'

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  15. अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता।

    सहमत.

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  16. बहुत कठीन सवाल है?थ्री हो या वी?

    वैसे बच्चों को पनी मर्ज़ी से कुछ भी करने कहां मिलता है।पढना लिखना,खेलना-कूदना,स्कूल जाना,ट्यूशन जाना यंहा तक़ की किस से दोस्ती करना है किससे नही,सब तो हम डिसाईड करते हैं,ऐसे मे वो क्या तय कर पायेगा।

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  17. 12वीं पास लड़के में आत्मविश्वास आयेगा भी कैसे? जब उसके मां-बाप में ही वह आत्मविश्वास नहीं है कि उनका बेटा कोई भी क्षेत्र चुने… जीवन गुज़ारने लायक कमा ही लेगा? फ़िर जिस देश में "उसके पास कार है कि नहीं?, उसकी पगार 5 अंकों में है कि 6 अंकों में? जैसे सवाल लगातार आपका पीछा करते हों… तब उस लड़के के सामने विकल्प क्या रह जाता है… अब तो लड़कियाँ भी पैसा देखकर प्रेम और शादी करती हैं… ऐसे में करोड़ों निम्न-मध्यमवर्गीय बाप सोचते हैं कि मन की खुशी जाये साली भाड़ में, मेरे बेटे को किसी तरह एकाध MNC में नौकरी मिल जाये और वह विदेश में सेटल हो जाये, तो समाज में मेरी कुछ इज्जत बढ़े…। क्या गलत सोचता है, हाड़तोड़ मेहनत करके बेटे को पढ़ाने वाला वह बाप?

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  18. साठ वर्ष बाद भी हम अपनी शिक्षानीति नहीं निर्धारित कर पाये। कैसे करें? अभी तो हम अपनी राष्ट्रभाषा ही नहीं निर्धारित कर पाए :(

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  19. सर आर्टिकिल बहुत अच्छा लगा।
    आमीर खान की फिल्में मैं नहीं देखता। मेरे अपने कारण है। वो दूसरों की फिल्में, भारतीय अभिनेता-निर्माता की, नहीं देखते। वो भारतीय पुरस्कार समारोह का बहिष्कार करते हैं और विदेशी पुरस्कार पाने के लिए दौड़े-दौड़े फिरते हैं। इसलिए मैं उनकी फिल्में नहीं देखता। अतः आपका जो शुरु का प्रश्न है कि
    “थ्री इडियट्स” या “वी इडियट्स”
    मेरा जवाब है दोनो नहीं -- बल्कि आई ईडियट। अब जब मैं इतनी हिट फिल्म नहीं देखूंगा तो लोग तो मुझे इडियट मानेंगे ही।
    रही बात दूसरे प्रश्न की तो उसका जवाब दूसरे कमेंट में देता हूं। यह थोड़ा लंबा है।

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  20. आपका दूसरा प्रश्न है
    छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है?
    सर आपके इस इस प्रश्न ने मुझे भीतर से काफी उद्वेलित किया। मेरे मन में कुछ प्रश्न अनायास ही उठ खड़े हुए
    • क्या हमारे पालन-पोषण की प्रक्रिया में कोई दोष है ? बड़ा यांत्रिक जीवन हम आज जी रहें हैं। बच्चों की जीवन शैली को हम अपनी इच्छाओं के रिमोट से कंट्रोल से नियंत्रित करना चाहते हैं। पहले बच्चे दादी-नानी की कहानियों से बहुत कुछ सीख लेते थे। वह तो लुप्त-प्राय ही होता जा रहा है। कितने सारे खेलों से शारीरिक-मानसिक और बौद्धिक विकास हो जाया करता था। कोई अगर अतिमेधावी छात्र है, तो उससे बार-बार तुलना कर हम अपने बच्चे का मनोबल तोड़ते रहते हैं।
    • क्या बच्चे अपने बड़ों की अधूरी आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन बन गए हैं ? हमने जो ज़िन्दगी में न पाया वह बच्चे में ढ़ूंढ़ते रहते हैं। अपने से बड़ा और बेहतर बनाने के चक्कर में उस पर अतिरिक्त दवाब डालते हैं। फलतः बच्चों का नैसर्गिक विकास नहीं हो पाता। उसे छुटपन से कृत्रिम ज़िन्दगी जिलाना चाहते हैं।
    • क्या बच्चे जीवन में जो भी चुनते हैं वास्तव में वह उन्हीं का चुनाव है ? यह नहीं करो, वह करो। डाक्टर नहीं इंजीनियर बनना है तुम्हें। आजकल तो सूचना-प्रौद्योगिकी का जमाना है और तुम ये कला विषय का चुनाव कर रहे हो। कुछ नहीं कर पाओगे जीवन में। यह सब नहीं चलेगा।
    • क्या बच्चे अपना व्यक्तित्व खोते जा रहें हैं ? हेवी होमवर्क, भारी बस्ते का बोझ, माता-पिता के अरमानों की फेहरिस्त, समाज-परिवार की आशाओं कतार में कहीं बच्चों का अपना व्यक्तित्व खो गया सा लगता है।
    • क्या बच्चे को हमारे सिखाने की प्रक्रिया उनके सीखने की प्रवृत्ति कुंद कर रही है ? रटन्त शिक्षा पद्धति, स्कूलों में शिक्षा देने की प्रक्रिया उनके व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास को बढ़ाने में कम असरदार साबित हो रहा है। हर दूसरे-तीसरे साल सुनने में आता है कि अब इस नहीं इस पद्धति से मूल्यांकन होगा।
    • हम अपने बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं ? माता-पिता अपने-अपने दफ्तर के मानसिक और शारीरिक दवाब से रिलैक्सेशन करें या बच्चों के साथ कुछ क्वालिटी का समय बिताएं, चुनाव उनका ही है। दादा-दादी अब साथ में रहते नहीं, तो टी.वी. की शिक्षा और संस्कृति ही उनका विकास कर रहीं हैं। उनके हाथ में विडियो गेम और कम्प्यूटर की की बोर्ड थमाकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं।
    • शिक्षा का सही उद्देश्य क्या है ? नौकरी दिलवाना, किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में या फिर विदेशी धरती पर, ताकि माता-पिता गर्व से कह सकें मेरी संतान सात अंकों में वार्षिक कमाई कर रही है। या एक अच्छा भारतीय नागरिक बनाना।
    पुनश्च -- ये विचार मेरे अपने हैं। मेरे लिए। इस पर मैं कोई विवाद नहीं चाहता। कृपया आप अपने विचार रखें। मैं और मेरी सोच ग़लत हो सकती है, इसका पूरी संभावना है।

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  21. हम सोच ही रहे थे के पांडे जी सुधर गये के फिल्म देखने लगे ....देखा तो आप है......वैसे हमने ओर हमारे मित्रो ने ग्यारहवी कक्षा में ही तय कर लिया था के डॉ बनना है ओर तेतीस में अठाईस खुशकिस्मती से डॉ है .एक पाइलट है.....एक एक्साइज में ....एक ने दोबारा मेथ्स से एड्मिशान ले कर आर्किटेक्ट की थी....बाकी दो का पता नहीं ...कहाँ है ....
    फिल्म को ओर बेहतर बनाया जा सकता था ....हिंदी फिल्मे शिक्षा प्रणाली पर ना के बराबर बनी है .....होलीवुड में ...GO0D WILL HUNTING बेमिसाल मूवी है .कभी एच बी ओ पर देखिएगा .....खैर भारतीय इन्जिय्नर .डॉ की एक लम्बी प्रतिशत देश से बहार है ......इस ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए कुछ करना पड़ेगा ....

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  22. सुधार हम मां बाप कॊ अपने अंदर करना चाहिये, बच्चा पढने मै तेज है, उस का दिमाग है उसे अपना रास्ता खुद खोजने देना चाहिये.....कब तक हम उन की को ऊंगली पकड कर बच्चा बनाये रखेगे, ओर उन कॊ जिन्दगी को खराब करते रहेगे

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  23. सही लेखन, और पोस्ट के कई बिंदु विचारणीय है.

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  24. सेफ जोन में पले बढे हैं और बच्चों को भी सेफ जोन में ही रखना पसन्द करते हैं। बच्चों को कोई रिस्क या चुनौती का सामना ना करने देने के कारण ही हम में आत्मविश्वास की है।

    प्रणाम स्वीकार करें

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  25. सही सवाल उठाया है आपने ..
    और इसपर जवाब भी 'सालिड'
    है देव जी का .. पप्पू-नेस तो जेनेटिकल
    प्राब्लम बनती जा रही है !

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  26. आपने बजा फ़रमाते हैं कि वी ईडियट्स। जो इस फ़िल्म को लेकर फ़ालतू बातों पर बहस करते चले आए। और वो न सोचा जो शोचनीय था इस फ़िल्म में और वो ये कि लड़के बार बार चड्डी ना दिखलाते, चमत्कार की जगह बलात्कार जैसे अत्यंत घ्रणित कृत्य पर ठहाके ना लगाए जाते और नाक को दोष देने का बहाना बनाकर व्यर्थ का चुंबन दृश्य ना डाला जाता तो शायद फ़िल्म मुन्नाभाई जैसी ही हिट होती।

    हमारा तो यह मानना है आदरणीय सर के-

    क्या ज़रूरी है के, शोलों की मदद ली जाए ?
    जिनको जलना है वो शबनम से भी जल जाते हैं !

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  27. गुडविल हंटिंग के अलावा डेड पोएट सोसाइटी भी याद आ रही है मुझे. आप शायदफिल्में नहीं देखते नहीं तो कुछ और नाम बताता.

    वैसे समय बदल रहा है. धीरे धीरे ब्रेड बटर की जरुरत पूरी हो रही है उसके साथ साथ चीजें भी बदल रही हैं. हाँ ये बात अलग है की ८०% भारत (मेरे दिमाग का आंकड़ा है पर ५% से ज्यादा एरर नहीं इसमें) अभी भी उससे दूर है !

    जर्मनी वाली बात से मुझे भी एक बात याद आई. एक परिवार जिसने अक्वेरियम में एक छोटे से बच्चे को आराम से मछलियों के साथ खेलने दिया वहीँ एक भारतीय परिवार ने दूर रखना ही बेहतर समझा.

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  28. चलो बाकी लोगों ने शिक्षा पद्यति का पोस्टमार्टम कर दिया है, तो हम कुछ और लिख दें, ;-)

    अपीलिंग टू कैरेक्टर...हैप्पी एंडिंग...सिनेमा से घर वापिसी के रास्ते पर थोडा दिमाग का दही बनाना...एक ऐसा मिथक बुनना जिसमें मुख्य किरदार में आप अपने को देखें फ़िर अब तक आपके साथ जितनी भी नाइंसाफ़ी हुयी है, तिल तिल कर सामने आये...मन करे उठा के पत्थर जोर से मारो और जो हमारे साथ हुआ किसी अन्य (अपना बच्चा पढें) के साथ न होने देंगे।

    फ़िर अपने बच्चे पर वोही अत्याचार करें जो आपपर हुये बस लेकिन दूसरे तरीके से इस उम्मीद में कि हम पर हुये गलत को सही कर रहे हैं...लेकिन असल में केवल लेबल अलग है आपकी आत्मसन्तुष्टि के लिये...

    चेतन भगत इन्सपायर्ड हमारी जेनरेशन के मां बाप (हाय और हमारा तो अभी तक विवाह ही न हुआ :)) को देखना एक अलग लुत्फ़ है।

    बचपन और जीवन एक रेंडम प्रोसेस है, कब क्या कहाँ सही हो जाये पता नहीं, जिसे आप आज सही कर रहे हैं पता चले बच्चे के जवान होने पर उसी ने उसकी वाट लगा दी।

    Life is not fair. Get over it.

    भारत जैसे देश में शिक्षा का जो माडल आज है वो निश्चित ही सर्वोत्त्म नहीं है लेकिन इसका विकल्प क्या है? साहब हमको आजतक कला बनानी न आयी और न किसी ने सिखाया, गणित/विज्ञान में अच्छे थे तो कला के अध्यापक भी एक ही सीनरी (कक्षा ५-८ तक) पर पासिंग मार्क्स देते रहे।

    आपको कोई रोक तो नहीं रहा? अब आप बडे हो गये हैं, अब सीख लीजिये कला बनाना। हमने भी इस साल में कोशिश शुरू की है और झोपडी बनाना सीख लिया है।

    असल बात न तो Curriculum की है और न ही रोजगारपरक शिक्षा पद्यति की, बात इससे आगे की है और हमें उसकी समझ ठीक से नहीं है। इस पर सोचना जारी है, लेकिन मास हिस्टीरिया में वी ईडिय्ट्स के नाम पर झण्डा बुलन्द करने में हमें ऐतराज है।

    चलते चलते, साहब आपने अवकलन और समाकलन के कठिन सवालों में आधा समय बचा भी लिया तो क्या? उससे केवल फ़ायदा परीक्षा में हो सकता है, टेक होम, ओपन बुक परीक्षा हो तो उसमें भी नहीं। अब तक के अपने शोधकार्य में कभी नहीं लगा कि अगर कैलकुलस दुगनी तेजी से कर पाते तो कुछ फ़ायदा होता...बाटमलाईन है कि तुलना करने में आप जिसे गुण समझ रहे हैं, क्या सच में उसकी इतनी आवश्यकता है? है तो कहाँ?
    हम बताते हैं, जब १२० मिनट में १५० प्रश्न हल करने हों तो उसकी जरूरत है...लेकिन फ़िर वही वी ईडियट्स...अरे ऐसी परीक्षा ही तो क्रियेटिव सोच को कुन्द करती है...लेकिन आई डाइग्रेस...;-)

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  29. बहुत अच्छा लिखा है लेकिन हिंदी फिल्मों का ऐसे ही है। यहां पर कोई नहीं मानता कि चोरी कीहै सब तथाकथिक प्रेरणा लेते है,
    जैसे मेरे पिता जी कहते है.हमारी यहां की फिल्मों में एक फिल्मर में तो हिरोइन की अम्मा आम के पेंड़ के नीचे केले बेचती थी, तो दूसरी फिल्म में केले के पेड़ के नीचे आम बेचती है। बस हो गयी कहानी अलग, कौन कहेगा की चुराई है, प्रेरणा है भाई
    आप लोग भी न बस शुरु हो जाते हो

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  30. हमारी शिक्षा प्रणाली ही इस प्रकार की है ना चाहते हुए भी अभिभावक बच्चों को विषय चुनने पर मजबूर करते हैं ...
    गुलामी का लम्बा अरसा बीत गया मगर भीतर इसकी जड़ें गहरी हैं ...कहाँ से आएगा आत्मविश्वास ...!!

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  31. दिनेशरायजी की तरह हमने भी अभी तक फ़िल्म देखी नहीं, और न किताब पढ़ी।
    देखने का इरादा है और अवश्य देखेंगे।

    टीवी पर भगत बनाम चोपड़ा विवाद follow कर रहा था।
    मुझे नहीं लगता कि कोई नाइंसाफ़ी हुई है।
    यदि फ़िल्म हिट न होती तो क्या भगत इस मामले को उठाते?
    भगत का यह विवाद खडा करना दुर्भाग्यपूर्ण है।
    उसने अपनी कहानी बेची थी।
    कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार उसे अपना पैसा भी मिल गया था और उसके नाम का प्रदर्शन भी हुआ था लेकिन अन्त में, आरंभ में नही।
    इससे ज्यादा उम्मीद वह शायद रख सकता था पर demand नहीं कर सकता था। यह कहना कि फ़िल्म की पठकथा का भी credit उसे मिलना चाहिए , तर्कहीन है।
    यह केवल मेरी राय है।

    और बातों पर हम टिप्प्णी नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि फ़िल्म अभी देखी नहीं।

    चलों अच्छा हुआ, ज्ञानजी की "टिप्पणी खिडकी" फ़िर से खुल गई है।
    पिछली बार हम बडे उत्साह से टिप्पणी करने आए था, पर मायूस होकर लौटना पडा।
    आप सब को शायद कोई फ़र्क नहीं पडा होगा।
    आप लोग तो अपने अपने ब्लॉग के मालिक हैं और अपनी राय वहाँ वयक्त कर सकते हैं।
    पर हम जैसे टिप्पणीकार कहाँ जाएंगे?
    शुभकानाएं
    जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंग्ळूरु

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  32. हम पर अभी भी यह हावी है ;कि" लोग क्या कहेगे "?हम बच्चो का भविष्य समाज के तथाकथित रहमोकरम को देखकर निर्धरित करने कि चेष्टा करते है |और भेडचाल में विश्वास कर बैठते है |

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  33. हमें ही सोचना है कि “थ्री इडियट्स” को प्रोत्साहन मिले या “वी इडियट्स” को

    विचारणीय प्रश्न...
    नीरज

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  34. रंजना जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:

    चेतन भगत या फिल्म प्रबंधकों की बात क्या कहूँ..एक दर्शक के रूप में यह फिल्म जितनी मनोरंजक लगी उतनी ही गंभीर भी...और सचमुच आपने जिन प्रश्नों को अनुभूत किया,बहुतायतों को उसने मथा है...

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  35. The movie is made for idiots on earth. ( Hence the movie is doing great biz ).

    As far as any lesson is concerned from the movie....am not sure about common people but certainly the Director, Producer, script writer , music composer and the actor did not learn anything from their own movie. All are fighting for name and credit.

    Sigh !

    Divya

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय