Sunday, December 13, 2009

गांव की ओर

Peepal Tree द्वारकापुर गांव में गंगा किनारे पीपल का पेड़
मैं गांव गया। इलाहाबाद-वाराणसी के बीच कटका रेलवे स्टेशन के पास गांव में। मैने बच्चों को अरहर के तने से विकेट बना क्रिकेट खेलते देखा। आपस में उलझे बालों वाली आठ दस साल की लड़कियों को सड़क के किनारे बर्तन मांजते देखा। उनके बालों में जुयें जरूर रही होंगी, पर वे किसी फिल्मी चरित्र से कम सुन्दर न थीं। लोग दुपहरी में उनचन वाली सन की खटिया पर ऊंघ रहे थे। हल्की सर्दी में धूप सेंकते।

इंटवा में अड़गड़ानन्द जी के आश्रम में लोग दोपहर में सुस्ता रहे थे। पर वे मुझे प्रसाद देने को उठे। जगह अच्छी लगी गंगा के तट पर। उनके आश्रम से कुछ दूर द्वारकापुर गांव में कोई दूसरे महात्मा मन्दिर बनवा रहे हैं गंगाजी के किनारे। श्रद्धा का उद्योग सदा की तरह उठान पर है। मेरा विश्वास है कि लोग मैथॉडिकल तरीके से फण्ड रेजिंग कर लेते होंगे धर्म-कर्म के लिये।

Daal Field क्या रेल सेवा से निवृत्त हो यहां रहूंगा मैं?
अगर मैं रहता हूं गांव में तो कुछ चीजें तो अभी दिखाई देती हैं। आस पास मुझे बहुत हरिजन, केवट और मुसलमान बस्तियां दिखीं। उनकी गरीबी देखने के लिये ज्ञानचक्षु नहीं चाहियें। साफ नजर आता है। उनके पास/साथ रह कर उनसे विरक्त नहीं रहा जा सकता – सफाई, शिक्षा और गरीबी के मुद्दे वैसे ही नजर आयेंगे जैसे यहां गंगाजी का प्रदूषण नजर आता है। मैं बांगलादेश के मुहम्मद यूनुस जी के माइक्रोफिनांस के विचार से बहुत प्रभावित हूं। क्या ग्रामीण ज्ञानदत्त पाण्डेय उस दिशा में कुछ कर पायेगा?

और अगर वहां मात्र शहरी मध्यवर्ग का द्वीप बना रहना चाहता है ज्ञानदत्त तो इत्ती दूर जा कर घास खोदने की क्या जरूरत है। यहीं क्या बुरा है।

अगले तीन या ज्यादा से ज्यादा पांच साल में सौर ऊर्जा घरेलू बिजली से कम्पीटीटिव हो जायेगी। - रतुल पुरी, एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, मोजेर बेयर (Moser Baer)|
ऊर्जा की जरूरतें तो मुझे लगता है सोलर पैनल से पूरी होने जा रही हैं। वर्तमान लागत १०-१२ रुपया/यूनिट है जो अगले छ साल में और कम होगी। प्रवीण के अनुसार विण्ड-पैनल भी शायद काम का हो। वैसे प्रवीण की उत्क्रमित प्रव्रजन वाली पोस्ट पर टिप्पणी बहुत सार्थक है और भविष्य में बहुत काम आयेगी मुझे [१]!

Adgadanand Ashram अड़गड़ानन्द का आश्रम। खैर, मैं किसी महन्तहुड से जुड़ने की नहीं सोचता!
मैं ग्रामोन्मुख हूं। छ साल बचे हैं नौकरी के। उसके बाद अगर किसी व्यवसाय/नौकरी में शहर में रुकने का बहाना नहीं रहा तो झण्डा-झोली गांव को चलेगा। तब तक यह ब्लॉग रहेगा – पता नहीं!

[मजे की बात है कि मैं यहां जो लिख-चेप रहा हूं, वह मेरे पर्सोना को गहरे में प्रभावित करता है। जब मैं कहता हूं कि मैं ग्रामोन्मुख हूं – तो वह मात्र एक पोस्ट ठेलने का मसाला नहीं होता। वह अपने कमिटमेण्ट को और सीमेंण्ट करने का काम करता है। और आप लोग जो कहते हैं, वह भी कहीं गहरे में प्रभावित करता है सोच को। ब्लॉगिंग शायद उसी का नाम है!] 



[१] प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी -
बड़े नगर में ऊँचे मूल्य पर मकान लेने से अच्छा है कि आबादी से १०-१२ किमी दूर डेरा बसाया जाये । शहर की (कु)व्यवस्थाओं पर आश्रित रहने की अपेक्षा कम सुविधाओं में रहना सीखा जाये । यदि ध्यान दिया जाये तो सुविधायें भी कम नहीं हैं ।
१. नगर के बाहर भूमि लेने से लगभग ६-७ लाख रु का लाभ होगा । इसका एक वाहन ले लें । यदाकदा जब भी खरीददारी करने नगर जाना हो तो अपने वाहन का उपयोग करें ।
२. मकान में एक तल लगभग आधा भूमितल के अन्दर रखें । भूमि के १० फीट अन्दर ५ डिग्री का सुविधाजनक तापमान अन्तर रहता है जिससे बिजली की आवश्यकता कम हो जाती है । सीपेज की समस्या को इन्सुलेशन के द्वारा दूर किया जा सकता है ।
३. प्रथम तल में पु्राने घरों की तरह आँगन रखें । प्रकाश हमेशा बना रहेगा । यदि खुला रखना सम्भव न हो तो प्रकाश के लिये छ्त पारदर्शी बनवायें ।
४. एक कुआँ बनवायें । पानी पीने के लिये थोड़ा श्रम आवश्यक है ।
५. सोलर ऊर्जा पर निर्भरता कभी भी दुखदायी नहीं रहेगी । तकनीक बहुत ही विकसित हो चुकी है । यदि एक विंड पैनेल लगवाया जा सके तो आनन्द ही आ जाये ।
६. एक गाय अवश्य पालें । गायपालन एक पूरी अर्थव्यवस्था है ।
७. इण्टरनेट के बारे में निश्चिन्त रहें । डाटाकार्ड से कम से कम नेशनल हाईवे में आपको कोई समस्या नहीं आयेगी और आपका सारा कार्य हो जायेगा ।
८. स्वच्छ वातावरण के लिये पेड़ ही पेड़ लगायें । नीम के भी लगायें ।
९. निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन करें । हिन्दी की प्रगति होगी ।
१०. वहाँ के समाज को आपका आगमन एक चिर प्रतीक्षित स्वप्न के साकार होने जैसा होगा ।
११. अगल बगल कुछ प्लॉट रोक कर रखें । बहुत से लोग जल्दी ही टपकेंगे ।

कल मैने पॉस्टरस पर ब्लॉग बनाया। Gyan's Desk - Straight from the keyboard of Gyandutt Pandey!
बढ़िया लग रहा है - ट्विटर/फेसबुक आदि से लिंक किया जा सकता है। भविष्य की तकनीक? शायद!

29 comments:

  1. ईश्वर करे आपका कमिटमेन्ट इतना सीमेन्टेड हो जाये कि आप चाह कर भी न फोड़ पायें. (जे पी सीमेन्ट तो वैसे भी मजबूती की पहचान है..जे पी से मैं ज्ञान पाण्डे ही समझ पाता हूँ).

    प्रवीण जी की बातें निश्चित ही प्रभावित करती हैं और उस जीवन की ओर अग्रसर होने के लिए आकर्षित करती है.

    ईजी सेड देन डन-पर किया जा सकने योग्य तो है ही. शायद मानसिक शांति एवं संतुष्टी मिले.

    अनन्त शुभकामनाएँ.

    ReplyDelete
  2. अरे! बीएसएनएल मोबाइल ने यहाँ कमेंट विंडो खोल दिया!! चचा , भाई साहब नहीं लगता आप से डरता है। आप ब्लॉगरी में सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। दण्डवत बाबा ब्लॉगानन्द महराज।

    सुथरी बिना लाग लपेट की बात। अच्छा हुआ कि आप गाँव गए। अरहर के खेत देखे। नीलगाय शायद वहाँ नहीं हैं। सरसो की क्या पोजीशन है?
    गाँव में रहना चाहते हैं। माइक्रो फाइनेंसिंग करना चाहते हैं। लगे रहिए और कर दिखाइए। हम जब सेवा निवृत्त हो गाँव बसेंगे तो कुछ खास नहीं करना पड़ेगा - एक बना बनाया मॉडल उपलब्ध रहेगा। कुछ खास मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। आलसी को और क्या चाहिए! वैसे 6 साल गाँव जा जा कर वहाँ के लोग और उनकी मानसिकता को समझने के प्रयास भी जारी रहें।... जाने क्यों अम्बेडकर याद आ रहे हैं। ..

    ReplyDelete
  3. गांव भी रहेगा तब, आपके सरोकार शायद समाज के लिए और बढ़ जाएं, निवृत्ति इस जन्म में किसी को नहीं मिलती है, सिर्फ नाम मिलता है। सो, उम्मीद करता हूं कि बहुत कुछ रचनात्मक करने को बाकी रहेगा आनेवाले पांच सालों के बाद।

    शायद कुछ ज्यादा ही। और हां, गांव में तब तक ब्लॉग-उजास हो चुका हो, तब तो पौ बारह है।

    जैजै

    ReplyDelete
  4. गाँव में बसने के लिए प्रवीण जी के सभी सुझाव बहुत बेहतर हैं ...
    पेड़ पौधे तो गाँव के जैसे ही शहर में भी लगा लिए ...यहाँ ज्यादा जरुरत महसूस हो रही थी ...गाँव तो यूँ भी स्वच्छ वायु और हरियाली से लदे फंदे होते हैं ...राजस्थान में नहीं ....
    जिसने आम , लीची , अमरुद , जामुन , शहतूत के पेड़ों के बीच बचपन बिताया हो ...रेगिस्तान के कटीली झाड़ियों में उसकी मनोव्यथा का अंदाजा लगा सकता है ..हालाँकि जलवायु परिवर्तन की धमक यहाँ भी दिखाई देने लगी है ...पड़ोस के दो तीन घरों में बादाम और आम के पेड़ फलने फूलने लगे हैं ....!!

    गाँव के सौंधी मिटटी की खुशबू आपको खींच रही है अपनी ओर ....

    ReplyDelete
  5. तो आप गाँव रहने की सोच रहे हैं। अच्छी बात है। शहरी जीवन और अफसरशाही को जीने के बाद गाँव लौटना अच्छी सोच है। इसी सोच से प्रेरित हो गाजीपुर के डॉ विवेकी राय जी ने एक लेख लिखा था ‘गँवई गन्ध गुलाब’…….लेख में बताया गया था कि एक शिक्षक कुछ समय शहर में बीताने के बाद गाँव की ओर आ गया। यहीं गांव में रह अपना शेष जीवन बिताने लगा। दृश्य खींचते हुए विवेकी राय जी लिखते हैं –

    बरामदे में सुबह-सुबह आग सुलग गई है। धुआँ फैला है। दाल आग पर बैठा दी गई है।बाहर साबुन से अपने हाथ धोये कपडे फैला दिये गये हैं। मुन्शी जी हल्दी पीस रहे हैं। दाल में उबाल आया और हल्दी छोड दी गई। काठ की एक बेंच सामने पडी है। रामभजन शुरू हो गया । आने वाले बेंच पर बैठे हैं। कोई छात्र है, उसे अंगरेजी या गणित में सहायता लेनी है। कोई परीक्षार्थी है, फार्म भरवाना है। कोई गृहस्थ है, अंग्रेजी में लिखे हाईकोर्ट के फैसले को पढवाकर समझना है। कोई अभिभावक है, फीस नहीं जुटती या लडका पढने में मन नहीं लगाता । कोई अध्यापक है। कोई भेंट करने आया है। काम हो रहा है। बातें चल रही हैं। आटा भी उधर गूँथा जा रहा है। बाटी गढी जा रही है। आग भी तैयार है। आग पर तीन छोटी-छोटी बाटियां हैं और सधे हाथों से सेंक दी जा रही हैं। अंत में वे आग में ढँक दी जाती हैं। उपर दाल, नीचे बाटी और बीच में उपले की आग।

    पास में अलमोनियम का एक कटोरा, एक लोटा, चिमटे की जगह काम आनेवाला लकडी का एक टुकडा, पंखी की जगह आग तेज करने के लिये दफ्ती का एक टुकडा, खुला और संक्षिप्त भोजनालय, रामभजन से पवित्र।


    इन लाईनों को पढते हुए मन ही मन सोचता हूँ कि कितना तो सरस जीवन चित्र उकेरा है विवेकी जी ने। अब तो मुन्शी जी को गैस सिलेंडर की सुविधा हो गई होगी। लेकिन नहीं, गैस सिलेंडर के मिलने की प्रोबेबिलिटी जिस तरह की गाँवों में है उस हिसाब से अब भी विवेकी राय जी लिख रहे होते .......सीएनजी सिलेंडर बगल में खाली पडा है, मुन्शी जी उसे निहार रहे हैं, मुन्शी जी की पत्नी उन पर कोपा रही हैं.......
    :)

    ReplyDelete
  6. नया ब्लाग शुरु करने की बधाई।

    ReplyDelete
  7. हाँ, बस ! मेरे पूछने के पहले ही जवाब मिल गया -
    "जब मैं कहता हूं कि मैं ग्रामोन्मुख हूं – तो वह मात्र एक पोस्ट ठेलने का मसाला नहीं होता। वह अपने कमिटमेण्ट को और सीमेंण्ट करने का काम करता है।"

    ReplyDelete
  8. सतीश भाई, काहें चचा को पहले ही डरा रहे हो? सी एन जी पर खाना नहीं बनता। एल पी जी पर बनता है। तब तक गाँव गाँव एजेंसियाँ हो जाएँगीं।

    शुकुल जी कौन से नए ब्लॉग की बात कर रहे हैं?

    ReplyDelete
  9. हर सुबह मै अपने फ़ार्म जाता हूं जो शहर से सिर्फ़ ७ कि.मी. है . वहां मैने गाय , भैस , कुत्ते आदि पाल रखे है . सुबह जब मै पहुचता हू तो ऎसा लगता है सब मेरा इन्तज़ार कर रहे है सभी को अपने हाथ से रोटी खिलाना बहुत सुखद लगता है . गांव का सबसे बडा फ़ायदा मुझे यह है शुध दूध ,सब्जी ,फ़ल , अनाज प्राप्त होते है . रासयनिक खाद रहित सब्जी , गेहू , धान मे जो खुश्बू होती है जो स्वाद होता है वह बज़ारु चीजो मे नही मिलता .

    लेकिन यह सब इतना महंगा पडता है जो विलासता की श्रेणी मे आ जाता है .

    ReplyDelete
  10. @ गिरिजेश जी,

    सीएनजी पर खाना नहीं बनता, एलपीजी पर बनता है।

    धत्त तेरे कनफूजानंद की । हमहूँ नरभसा गये हैं। सीधे सीएनजी पर ही टीप दिये :)

    वैसे सीएनजी,एलपीजी सभी जी परिवार अक्सर मुझसे बातें करते हैं कि लोग पारलेजी खाते हुए अपनी गाडियों में हमें बदल बदल कर क्यों इस्तेमाल करते हैं.....जब एलपीजी चूल्हे से निकलकर कारनुमा ससुराल में समा सकता है तो कार से निकलकर अपने मायके चूल्हे भी आ सकता है। :)

    आपने ध्यान दिलाया तो थोडी सर्च नेट पर भी की। CNG stove और LPG driven car के बारे में भी इसी बहाने थोडी बहुत जानकारी मिल गई :)

    ReplyDelete
  11. मेरे व्यक्तिगत विचार है कि हमें सेवानिवृत हो जाने पर बाकी जिम्मेदारियाँ अगली पीढी को सौंप समाज सेवा में लग जाना चाहिए. आपने गंगा की सफाई का काम भी शुरू किया है, तो शरूआत तो हो गई है. आगे गाँव की चलें, पीछे पीछे हम भी आएंगे.

    ReplyDelete
  12. हमें तो सेवानिवृत्ति का अवसर मिलना नहीं है। दस बारह किलोमीटर के गांव तो शीघ्र नगरविस्तार की चपेट में आ जाते हैं। वैसे नगरों में भी करने को कम काम नहीं है।

    ReplyDelete
  13. "अगल बगल कुछ प्लॉट रोक कर रखें । बहुत से लोग जल्दी ही टपकेंगे । " .... गांव का शहरीकरण करने के लिए :) तब कहां जाएंगे?

    ReplyDelete
  14. आप की पोस्ट पढ़ कर बहुत कुछ सोचने को मजबूर हो गए अपने बारे में।शायद हमारे लिए भी गाँव का रूख करना अच्छा होगा....प्रवीण पांडे जी की टिप्पणी अच्छी लगी।

    ReplyDelete
  15. शहर के प्रदूषण से दूर हरे-भरे गाँव अभी भी सौहार्द्र और समरसता के प्रतीक हैं ।

    ReplyDelete
  16. आपके संकल्प सिध्दी के लिये प्रार्थना करूंगी । बहुत स्तुत्य विचार है और प्रवीण जी ने आपको सुझाव भी बहुत बढिया दिये हैं ।

    ReplyDelete
  17. हमारे यहां हिमाचल में, रिटायर होने के बाद गांव लौट जाने का चलन आम है. अक्सर शादी-ब्याह में कई रिटायर नौकरशाहों को मिलकर हैरानी भी होती है कि ये कैसे यूं आसानी से अपनी जड़ो को लौट आते हैं.

    ReplyDelete
  18. बिल्कुलसही सोचा है आपने और प्रवीण जी ने -हम परिवार जन भी ठीक इसी समय ऐसी ही सोच को मूर्त रूप देने को ब्लू प्रिंट बना रहे हैं -कोई दिल्ली मुम्बई से कोई अमेरिका से भी सब जन करीब ५० लाख की बचत करने की स्थिति में हैं !

    ReplyDelete
  19. देव !
    आप गांव गए .. अच्छा लगा होगा .. परन्तु वहां भी बदलाव की बहुत
    जरूरत है .. बदलाव जो चेतना के स्तर पर घटित हो और जिसका सीधा
    असर'' सफाई, शिक्षा और गरीबी के मुद्दे '' आदि से हो .. आप की
    योजना बहुमत में सच बन कर साबित होने लगे तो समाज का कायाकल्प
    होने लगे .. गांव पर हजारों शहर कुर्बान हो जाएँ .. आपका कमिटमेंट और भी
    मजबूत ( सीमेंटेड ) होता रहता है , यह और अच्छा , पुख्ता होता आशावाद ..
    चिंता की बात नहीं है, गांव में भी ब्लॉग की व्यवस्था बनी रहेगी .. प्रवीण जी द्वारा
    बताई गयी चीजें पढ़कर अच्छी लगीं ..
    ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, आभार ... ...

    ReplyDelete
  20. ईमानदारी से कहूं तो ये उस स्तर की पोस्ट है जिस पर कोई टिप्पणी कर पाने लायक मैं अपने आप को नहीं पाता.

    एक सौंधी सी महक है मिट्टी की इसमें. प्रवीण जी के दिये सभी बिन्दु पहले भी पढ़े थे. सोच की दिशा प्रेरक है. मस्तिष्क खोलने वाली.

    बेहद आभार इस लाजवाब विचारशील रचना के लिये.

    ReplyDelete
  21. गांव की ओर पढ़ा और श्री प्रवीण पाण्डेय जी की टिप्पणी पढ़ी तो आनंद आ गया।
    एक भोजपुरी गीत की दो लाइनें भी याद आ गईं-
    शहर बजरिया की ऊँची अटरिया
    ऊँची अटरिया से डर लागे
    मोहें गउंवा केऽ लोगवा सुघड़ लागे...

    ReplyDelete
  22. आपकी नया ब्‍लाग देखा, अच्‍छा साधन है।

    गांवो में बेहया की डंडी से विकेट बना कर हम भी बहुत खेले है, अभी जब जाते है किक्रेट खेल लेते है।

    11 सुत्रीय कार्यक्रम विचार करने योग्‍य है, आज के दौर मे कुआं काफी दिक्‍कत वाला होगा।

    ReplyDelete
  23. सबसे पहले तो क्षम-याचान, अन्‍तर्मन से। महीनों के बाद आपको पढ पाया। स्थिति, मन:स्थिति ऐसी ही रही। उबरने के लिए अभी भी स्‍वयम् से संघर्षरत हूं।

    यद्यपित, दिनेश रायजी दि)वेदी की तरह मेरे काम में भी सेवा निवृत्ति नहीं है फिर भी मैंने भी आपकी ही तरह सोचा हुआ है। गांव में बसने पर क्‍या करूंगा, यह नहीं सोचा। पांच-छ: बरस बाद तो गांव वाले भी आज जैसे नहीं रहेंगे। भाई प्रीण की बातों ने इरादे को मजबूत बनाने में मदद की। उकनी बातों में से अधिकांश‍ पहले से ही दिमाग में हैं। हां, गाय पालन और तहखानावाली बात दिमाग में बिलकुल ही नहीं थी‍।
    मुझे लगता है, एक आयु-अवस्‍था में आने पर सोच में इसी प्रकार बदलाव आता है।
    बहरहाल, इस मामले में आप अकेले नहीं हैं। ईश्‍वर आपकी मनोकामना पूरी करे।
    हम सबको आपकी नीयत पर पूरा भरोसा है।

    ReplyDelete
  24. हमें भी अपना गाँव याद आ गया। कितना ज़माना हो गया, वह गोधूलि वह अमराई देखे।
    ------------------
    ये तो बहुत ही आसान पहेली है?
    धरती का हर बाशिंदा महफ़ूज़ रहे, खुशहाल रहे।

    ReplyDelete
  25. विचार तो आते जाते रहते हैं... आप इसको लेकर गंभीर है. ये बात काम की है.

    ReplyDelete
  26. कुँए के अलावा सब बातों से सहमत हूँ.

    ReplyDelete
  27. अरे, आप अभी तक जग रहे हैं. तो फिर पूरी टिप्पणी ही सही: आपके आलेख और प्रवीण की पूरक टिप्पणी ने लगभग सबकुछ कह दिया. इत्तेफाक से मैंने ऐसे गाँव भी देखे हैं जहां सच्चाई की परम्परा को बचाने के लिए चींटी तक को कष्ट न पहुंचाने वाले सत्पुरुषों के पास भी नर-हत्या के सिवा कोई साधन नहीं बचा था और ऐसे भी जहाँ कुशल नेतृत्व, सामूहिक शक्ति और माइक्रो फिनान्सिंग (तब का नाम प्राथमिक/ न्यून ब्याज ऋण ) द्वारा गाँव में स्वर्ग दिखता था. कुँए के साथ समस्या एक तो प्रदूषित जल की है. दूसरी बात यह है की ज्यों ही पड़ोस के कसबे में जल-व्यवस्था शुरू हुई या नगर के नरक (बूचडखाने आदि) को आपके पड़ोस में नगर-निकाला मिला तो आपका कुआं दो दिन में सूख सकता है.

    ReplyDelete
  28. रोचक रही यात्रा। बहुत कुछ कहती है आपकी यात्रा।
    युवा सोच युवा खयालात
    खुली खिड़की
    फिल्मी हलचल

    ReplyDelete
  29. कितना आकर्षक बना दिया है आप विद्वत जनों ने रीटायरमेंट के बाद का जीवन..अभी तो सक्रिय जीवन भी मेरा शुरू नही हुआ और मै लगा लार टपकाने..!
    प्रवीण जी तो मज़बूत आधारशिला भी रख देते है आपके विचारों के लिए....!

    यह विचार निश्चित ही प्रेरणास्पद है..और क्यों यह निरंतर प्रासंगिक होता जा रहा है..सोचना तो इस पर भी है...उत्क्रमण...!

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय