Tuesday, November 10, 2009

समसाद मियां - अथ सीक्वलोख्यान

हीरालाल नामक चरित्र, जो गंगा के किनारे स्ट्रेटेजिक लोकेशन बना नारियल पकड़ रहे थे, को पढ़ कर श्री सतीश पंचम ने अपने गांव के समसाद मियां का आख्यान ई-मेला है। और हीरालाल के सीक्वल (Sequel) समसाद मियां बहुत ही पठनीय चरित्र हैं। श्री सतीश पंचम की कलम उस चरित से बहुत जस्टिस करती लगती है। आप उन्ही का लिखा आख्यान पढ़ें (और ऐसे सशक्त लेखन के लिये उनके ब्लॉग पर नियमित जायें): 

Hiralalहीरालाल की नारियल साधना

- जहां वे खड़े थे, वह बड़ी स्ट्रेटेजिक लोकेशन लगती थी। वहां गंगा के बहाव को एक कोना मिलता था। गंगा की तेज धारा वहां से आगे तट को छोड़ती थी और तट के पास पानी गोल चक्कर सा खाता थम सा जाता था।

- गंगा के पानी में नारियल बह कर आ रहे थे और उस जगह पर धीमे हो जा रहे थे। उस जगह पर नारियल पकड़ कर निकालने में बहुत सहूलियत थी। हम जैसे घणे पढ़े लिखे भी यह स्ट्रेटेजी न सोच पायें।

Shop जीवन रूपी नदी मे  यह स्ट्रैटजी मैंने  शमशाद मियां के द्वारा अपनाते देखा है। मेरे गांव में ही शमशाद मियां ( समसाद) जी रहते थे। तब हम बहुत छोटे थे। उस  समय लहर सी चली थी कि शहर जाकर कमाओ खाओ। न हो तो सउदी चले जाओ। एक तरह का तेज बहाव था उस समय। जिसे देखो वही, गांव छोड कर बहा चला जा रहा था। और मेरे गाँव का जीवन एक तरह से उस थिर पानी की तरह था जिसे और गांवों की तरह अरसे से कोनिया (कॉर्नर कर ) दिया गया था। बिल्कुल गंगा जी के उस कॉर्नर की तरह जहां पानी थम सा जाता था।   गांव में बिजली नहीं, सडक नहीं, दुकान डलिया नहीं।

लेकिन इस बहाव और ठहराव के स्ट्रैटेजिक पोजिशन को समसाद मिंयां जी ने एक अपॉर्चुनिटी की तरह देखा और ठीक उस नारियल की तरह इस अपॉर्चुनिटी को पकड लिया। उन्होने पांच ओच  रूपये की लागत से दुकान शुरू की। शुरूवात में चुटपुटीया चाकलेट जो पांच पैसे में तीन मिलती थी वह बेचे, नल्ली ( तली हुई पाईप प्रोडक्ट) बेचे, और जब कुछ पैसे आ गये तो बंबईया मिठाई ( दस पैसे में एक) बेचे। इसे बंबईया मिठाई शायद पार्ले प्रोडक्ट होने के कारण कहा जाता था( ऑरेन्ज कलर की होती थी वह) ....

धीरे धीरे नमक, रिबन, पिन, टिकुली वगैरह बेचने लगे। सौदा लाने वह मुख्य बाजार अपनी खडखडीया साईकिल से जाते । और टघरते हुए से शाम तक दुकान वापस आ जाते । उनके आने तक समसाद बौ दुकान संभालतीं थी। धीरे धीरे दुकान चल निकली। उनके यहां सौदा, गेहूं, चावल वगैरह के बदले भी मिलता था। एक तरह  की बार्टर सिस्टम है।  ( अब भी गांवो में बच्चे गेहूँ आदि देकर आईस्क्रीम लेते हैं) .....समसाद मियां जी की दुकान इतनी चल निकली कि जब गांव में किसी के यहां कोई नई पतोहू वगैरह समसाद के यहां से टिकुली आदि किसी बच्चे को भेजकर  मंगवाती  तो सास गाली देती कि -  कुल घरे के अनाज उ समसदवा के घरे में  चल जात बा। कोई कोई तो समसाद जी को खुलकर गरियाती कि इही  दहिजरा के नाती के  कारन से  हमरे घर के कुल पईसा निकसा जात बां....कहां तक जांगर ठेठाई..... :)

समसाद जी की यह स्ट्रैटजी मुझे हीरालाल जी की तरह ही लग रही है। पूछने पर समसाद जी खुद कहते कि -  हम दूबई, मरीका ( अमरीका)  एहीं बना देले बाई :)

स्ट्रैटेजिक पोजिशन लेना मैनेजमेंट गुरूओं की ही थाती नहीं, एक गांव-जवार के किसान इंसान में भी होती है, यह हीरालाल और समसाद मिंया को देखकर समझा जा सकता है। गांव छोड कर तेज बहाव के साथ बाहर जाने वाले लोगो और ठहरे हुए गांव के बीच स्ट्रैटेजिक पोजिशन लेने वाले  समसाद मिंया तो अब रहे नहीं, लेकिन दोतल्ला मकान उनकी स्ट्रैटजी को पुख्ता बता रहा है।

Satish

सतीश पंचम 

Village


श्री इष्टदेव सांकृत्यायन जी ने अपने कम्यूनिटी ब्लॉग इयत्ता-प्रकृति पर लिखने का निमंत्रण दिया। यह ब्लॉग उन्होने पर्यावरणीय मुद्दों को ले कर बनाया है। और उसपर पोस्ट ठेलने में मुझे आधा घण्टा लगा। घर में रात के भोजन की प्रतीक्षा करते यह पोस्ट निकल आयी!

34 comments:

  1. एक प्रेरणास्पद पोस्ट है. सतीश जी लेखनी के तो हम यूँ भी भगत हैं.

    स्ट्रैटेजिक पोजिशन लेना मैनेजमेंट गुरूओं की ही थाती नहीं, एक गांव-जवार के किसान इंसान में भी होती है
    -सत्य वचन!

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  2. नल्ली को हमलोग 'फोंफी' कहा करते थे। एक इंडेंजर्ड आइटम है। उसकी सुध कौन लेगा?

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  3. बड़ा ही रोचक सीक्वेलोपाख्यान !

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  4. वक्त सब को सिखा देता है और अनपढों की गणित तो अच्छे अच्छों को समझ नहीं आती |

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  5. फोंफी जिसमें तली जाती थी वह तेल भले बासी रहता था लेकिन आज के जमाने के केमिकल और फर्जी वाड़े तब नहीं थे।
    मुँह में जाते ही घुल सी जाती थी। आज भी कहीं कहीं दिखती है तो उसे खाने की सम्भावना का आह्लाद धूल मिट्टी के हेल्थ रिलेटेड आशंका के आगे भाग खड़ा होता है। पंचम भाई रस्सी में बाँध कर पकौड़ी छानते हैं। उनसे ऐसी पोस्ट की ही उम्मीद थी।
    जीय बबुआ।

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  6. दुबई अमरीका यहीं बना लेंगे ...प्रतिभाशाली और तकनीकी विशेषज्ञ भी ऐसे विचारों के साथ परदेश गमन नहीं करते तो ...आज स्थितियां बदली हुई होती ...मगर हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की दुर्दशा देखकर उन्हें दोष भी तो नहीं दिया जा सकता ...!!

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  7. गिरिजेश जी और हम में ....आज फ़िर एक कौमन फ़ैक्टर निकल आया ...फ़ोंफ़ी को हम भी फ़ोंफ़ी ही कहते थे और ओईसे ही खाते थे ..हमरे गाम में शमसाद जी की जगह दिनकर जी का दोकान होता था ..उनका भी एक तल्ला तो हईये है

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  8. अपने लिए दुबई अमरीका यहीँ बनाने का निश्चय सब राहें निकाल देता है। सतीश जी का आभार कि उन्हों ने इस बहाने बहुत बड़ा साहस सूत्र हमारे सामने रखा है।

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  9. Hindi font nahi install hai, so Roman Thel raha hu :)

    Now in office, so no blogging :)

    Thanks for publishing samsadji >

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  10. सतीश जी के हम पुराने "पंखे" हैं ..एक साल पहले से ही ..इयता पर लिखने के लिए शुभकामनाएं आपको.

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  11. दुबई अमरीका यहीं बना लेंगे ... सही कहा.

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  12. हीरालाल जी और समसाद जी के माध्यम से भूमंडलीकरण पर चोट. काश! सबके दुबई अमरीका उन्हीं के गांव में बन जायें.

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  13. दुबई अमरीका यहीं बना लेंगे ... एक प्रेरणास्पद पोस्ट है.

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  14. "स्ट्रैटेजिक पोजिशन लेने वाले समसाद मिंया तो अब रहे नहीं, लेकिन दोतल्ला मकान उनकी स्ट्रैटजी को पुख्ता बता रहा है"

    यह तो अपने-अपने नसीब की बात है...समसाद मियां स्ट्रैजिक पिज़िशन ले कर दुमंज़िला मकान बना लिए और बेचारा हीरालाल अपनी दरियादिली से नारियल को छोड देता है कि वह किसी और के हिस्से है- परिणाम-वही ढाक के तीन पात:)

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  15. ऐसे समसाद, सॉरी मेरी समझ से सही नाम शमशाद होना चाहिए, और हीरालाल भरे हुए हैं।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  16. लोक की बात जान कर बड़ी उर्जा

    मिलती है , समसाद जैसे लोग ऐसी ही

    कर्मठता की प्रेरणा देते हैं | ये वे हैं --

    ''प्रसंशा पद प्रतिष्ठा तो यहाँ सबको लुभाती है ,
    मगर जो बच गए इनसे उन्हें अपवाद रहने दें|''

    लोक-प्रस्तुति और लोक-रंग का ...

    शुक्रिया ...

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  17. हमारे गाँव के समसाद मियां को 'दोकानी' के नाम से जाना जाता है. 'जो रे दोकानी के इहाँ से *** ले ले आऊ' ये *** कुछ भी होता है. अब तो दर्द-बुखार की दवा और शैंपू की पुडिया भी मिलती है.

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  18. @ जाकिर जी,

    उनका सही नाम शमशाद अली ही है। देशज बोली में उन्हें समसाद कहा जाता था।

    अहा ! गिरिजेश जी को मेरी जीमेल वाली रस्सी बांध कर पकौडी तलने की टैगलाईन याद है !

    बस यूं ही हल्का फूल्का टैगलाईन लिख देता हूं, इस गलत फहमी में कि मैं बडा dynamic हूं....कभी बर्फ पर खींची जाने वाली स्लेज गाडी में पेट्रोल भरवाने लगता हूँ तो कभी ज्यादा नोबल प्राईज मिल जाने पर उसे बोरे मे भरने लगता हूँ :)

    बस, आनंद ही आनंद :)

    आप सभी लोगों का स्नेह देखकर अभिभूत हूँ ।

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  19. हम दूबई, मरीका ( अमरीका) एहीं बना देले बाई :) समसाद की बात सही है मेहनती आदमी हर जगह रोजगार उतपन कर लेता है, ओर नालायक बाप का चलता फ़िरता कारोबार भी बरवाद कर देता है, बहुत सुंदर लिखा आप ने, ओर उदाहरण भी मजे दार.धन्यवाद

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  20. "स्ट्रैटेजिक पोजिशन लेना मैनेजमेंट गुरूओं की ही थाती नहीं, एक गांव-जवार के किसान इंसान में भी होती है"

    वाह क्या बात कही है सतीश जी ने...उनकी कलम की रवानी शानदार है...बार बार पढने को जी करता है...आपका शुक्रिया उनका लिखा पढ़वा दिया...बहुत प्रेरक पोस्ट है.

    भईया हम भी एक ठो पोस्ट, आप की पोस्ट से प्रेरणा पा कर लिखें हैं लेकिन आपने ध्यान ही नहीं दिया...आप की पोस्ट का सीक्वल तो नहीं है लेकिन थाट का जरूर है...फुर्सत मिले नज़र दौड़ाइयेगा.

    नीरज

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  21. सतीश पंचम जी ने अच्छा लिखा है..गांवों के सेठ साहूकार ऐसे ही स्ट्रेटेजिस्टस रहते आए हैं या कहूं कि ऐसे स्ट्रेटेजिस्टस ही गांवों के सेठ साहूकार कहलाते आए हैं

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  22. Waah atirochak aur prernapad...

    Palayan wadiyon ko isse seekhni chahiye...

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  23. जय हो। बार्टर अर्थशास्त्र धक्काड़े से चल रहा है। यहां उधर से लेखक आ रहे हैं। उधर के लिये इधर से सेवायें जा रही हैं। सतीशजी को एक ठो नोबेल प्राइज थमा न दीजिये।

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  24. जी हाँ, वक्त की नब्ज़ को पहचानकर उसको पकड़ने वाले समसाद और हीरालाल अपने परिवेश के अन्य लोगों से कहीं ज़्यादा सफल हो सकते हैं.

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  25. ज्ञानदत्त पाण्डेय जी आप का मेल आई डी मेरे पास नही था, इस लिये यही टिपण्णी बक्स से काम चला रहा हुं.
    आप को जन्म दिन की बहुत शुभकामनाये, बहुत खुशिया ले करे आये आने वाला वक्त, ओर आप ने मन की सारी मुरादे पुरी हो.

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  26. पाण्डेय जी, आपको जन्मदिन की बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

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  27. जन्मदिन की बहुत शुभकामनायें ...!!

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  28. हैप्पी बड्डे जी!!
    केक खाने तो वैसे हम सबसे नजदीक होने के नाते आ ही सकते हैं!

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  29. मियां स्मार्ट है..

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  30. दुबई अमरीका यहीं बना लेंगे ... एक प्रेरणास्पद पोस्ट है.

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  31. फोंफी जिसमें तली जाती थी वह तेल भले बासी रहता था लेकिन आज के जमाने के केमिकल और फर्जी वाड़े तब नहीं थे।
    मुँह में जाते ही घुल सी जाती थी। आज भी कहीं कहीं दिखती है तो उसे खाने की सम्भावना का आह्लाद धूल मिट्टी के हेल्थ रिलेटेड आशंका के आगे भाग खड़ा होता है। पंचम भाई रस्सी में बाँध कर पकौड़ी छानते हैं। उनसे ऐसी पोस्ट की ही उम्मीद थी।
    जीय बबुआ।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय