Saturday, September 19, 2009

श्राद्धपक्ष का अन्तिम दिन


Shraddh1 सवेरे का सूरज बहुत साफ और लालिमायुक्त था। एक कालजयी कविता के मानिन्द। किनारे पर श्राद्धपक्ष के अन्तिम दिन की गहमा गहमी। एक व्यक्ति नंगे बदन जमीन पर; सामने एक पत्तल पर ढेर से आटे के पिण्ड, कुशा और अन्य सामग्री ले कर बैठा; पिण्डदान कर रहा था पण्डाजी के निर्देशन में। थोड़ी दूर नाई एक आदमी का मुण्डन कर रहा था।

पण्डाजी के आसपास भी बहुत से लोग थे। सब किसी न किसी प्रकार श्राद्धपक्ष की अनिवार्यतायें पूरा करने को आतुर। सब के ऊपर हिन्दू धर्म का दबाव था। मैं यह अनुमान लगाने का यत्न कर रहा था कि इनमें से कितने, अगर समाज के रीति-रिवाजों को न पालन करने की छूट पाते तो भी, यह कर्मकाण्ड करते। मुझे लगा कि अधिकांशत: करते। यह सब इस जगह के व्यक्ति की प्रवृत्ति में है।

बन्दर पांड़े वापस आ गये हैं। मुझे बताया गया कि मेरे बाबाजी के श्राद्ध की पूड़ी उन्हें भी दी गयी। लोग उन्हें भगाने में लगे हैं और भरतलाल पूड़ी खिला रहा है।

इस पूरे परिदृष्य में जब मैं अपने आपको बाहरी समझता था – और वह समय ज्यादा पुराना नहीं है – तब मैं शायद यह सब देख सटायर लिखता। बहुत कुछ वैसे ही खिल्ली उड़ाता जैसे ट्विटर पर श्री थरूर [१] जी इकॉनमी क्लास को कैटल क्लास कहते हैं। पर जैसे जैसे यह आम जन से आइडेण्टीफिकेशन बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे शब्द-सम्बोधन-साइकॉलॉजी बदलते जा रहे हैं। मुझे यह भी स्वीकारने में कष्ट नहीं है कि ब्लॉग पर लिखने और इसमें लोगों से इण्टरेक्शन से नजरिये में बहुत फर्क आया है। इसी को पर्सोना बदलना कहता हूं। अब मैं शिवकुटी के पण्डा को पण्डाजी कहता हूं – सहज। और यह गणना करने के बाद कि उनका उनके कार्य के बल पर आर्थिक पक्ष मुझसे कमतर नहीं होगा, एक अन्य प्रकार की ट्यूबलाइट भी जलती है दिमाग में।

श्राद्धपक्ष के अन्तिम दिन और नवरात्र के प्रथम दिन बहुत गहन अनुभव हो रहे हैं – बाहरी भी और आन्तरिक भी। मातृ शक्ति को नमस्कार।     


[१] मैने कहा – श्री थरूर। असल में उनके मन्त्री होने को ध्यान में रख कर मुझे शब्द प्रयोग करने चाहिये थें – सर थरूर। ब्यूरोकेट मन्त्रीजी को सदैव सर कहता है। पिछले चुनाव में अपने समधीजी को मैने कहा था कि चुनाव जीतने के बाद अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वे मन्त्री बनेंगे और तब मैं उन्हे “प्रणाम पाण्डेजी” की जगह “गुड मॉर्निंग सर” कहूंगा। वे तो चुनाव जीत गये मजे से, पर पार्टी लटक गई! :-( 


20 comments:

  1. न पिंडदान किये न किसी का कराये ही फिर कैसे दिमाग में ट्यूब जला ?

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  2. सबके लिए कुछ न कुछ मसाला है इस पोस्ट में!

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  3. किसी कृत्य को करने के लिए रीति-रिवाजों के पालन की अपेक्षा अपने भीतर की श्रद्धा अधिक प्रेरित करती है।

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  4. मुझे नहीं लगता सारे हिन्दु पिण्ड दान करते भी होगें. अच्छा है कट्टरता नहीं है.

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  5. एक्स् पोस्ट् मे सब का श्राद्ध कर डाला बहुत खूब आभार नवरात्र पर्व की शुभकामनायें

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  6. यहां आकर यूं लगता है मानो हम भी गंगा-तट की सैर पर निकलते हैं रोज़/अकसर । ममता जी आपकी पोस्‍टों को पढ़ती नहीं लेकिन हमने तय किया है कि उन्‍हें अपनी 'बालक वाली व्‍यस्‍तताओं' से बाहर निकालकर 'गंगा' वाली सारी पोस्‍टें पढ़ा ही डालें । जबर्दस्‍ती । 'नॉस्‍टेलजिया' होगा जो फिर 'चिंतन' में बदल जायेगा । आपके ज़रिए हमारी आत्‍मोन्‍नति हो रही है जी ।

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  7. हमारे यहाँ की परंपरा कुछ अलग है. श्राद्ध उसी तिथि पर की जाती है. (मृत्यु के) न की एक साथ सभी के लिए. यह तो शोर्ट कट हुआ

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  8. "उनके कार्य के बल पर आर्थिक पक्ष मुझसे कमतर नहीं होगा,..."
    जब मैंने देखा कि पण्डाजी मारुती में आ रहे है और हम पूर्वजों के नाम पर सीधा देने स्कूटर पर जा रहे हैं, तब से उनके आर्थिक पक्ष को देखकर दान-दक्षिणा का यह क्रम छोड़ दिया॥

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  9. post padh ke man ke aadhyatmik bhaag ka tushtikaran hua....

    :)

    chalo ab navratri......

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  10. आमजन से आइडेण्टीफिकेशन बढ़ना उनके बारे में सोचने से आता है । गंगा के बारे में लिखते लिखते चिंतन प्रक्रिया भी गंगा जैसी सर्वसमाहिता हो गयी है । बहुत ही अच्छी और बेबाक स्वीकरोक्ति है । थरूर जी की कैटल क्लास मानसिकता को नमन । इस माध्यम से कम से कम कैटलों की पीड़ा थरूर जी की वाणी से निकली तो ।

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  11. मुझे लगता है कि दबाव में नहीं, लोग आस्था में करते हैं। महानगरों में जैसे दिल्ली में भी लोग यह कर रहे हैं, यहां उस तरह का सामाजिक दबाव नहीं है। पर कहीं न कहीं मन में यह भाव बाकी है कि पितरों के लिए एक दिन कुछ किया जाये। जमाये रहिये।

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  12. चित्रों ने चित्त प्रफ्फुल्लित कर दिया...आभार.

    पितृपक्ष में गया जी में रही हूँ और उस भीड़ को देखकर तो यही लगता है कि अभी भी अपने देश में पितरों के प्रति श्रद्धा का भाव रखने वालों की ही कमी नहीं .

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  13. हम तो पितरो को याद करके कुष्ट रोगियों को उनके मन मुताबिक भोजन कराना पुण्य समझते है . अबकी बार अरहर की दाल चावल की फरमाइश है . जो कल पूरी होगी .

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  14. विवेक जी ने सही कहा - "सबके लिये कुछ न कुछ मसाला है इस पोस्ट में ।"
    सच में मुझे न तो श्री थरूर का कैटल क्लास दिख रहा है, न श्राद्धपक्ष के अन्तिम दिन के संस्कार-विवरण । मैं तो ठहर गया हूँ, या बार-बार वापस आ आकर पढ़ रहा हूँ वही एक पंक्ति-
    "सवेरे का सूरज बहुत साफ और लालिमायुक्त था। एक कालजयी कविता के मानिन्द।"

    स्मरण कर रहा हूँ , सूरज के लिये, खास तौर पर सुबह के सूरज के लिये यह उपमा किसी ने दी है या नहीं अथवा मैंने कहीं पढ़ी है या नहीं । सूरज की प्रकृति से कविता का तारतम्य भिड़ा रहा हूँ, अपनी किसी कविता को रचने का उपक्रम तलाश रहा हूँ ।

    गंगा जी का आभार । वह ऐसी ही प्रविष्टियाँ लिखाती रहें ।

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  15. सही कह रहे हैं. इसका सामाजिक दबाव से कोई मतलब नहीं है. मन की श्रद्धा और वस्तुतः अपने पूर्वजों के प्रति व्यक्ति के लगाव का ही असर है यह.

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  16. कहा गया है कि -

    जियत बाप से दंगम दंगा, मरे हाड पहुंचाये गंगा...


    हाल ही में सच का सामना में एक शख्स को यह कहते सुना कि उसने अपने पिता पर हाथ उठाया है।



    वैसे, श्राद्ध आदि की वजह से यदि नई पीढी पर पुराने पीढी के प्रति जिम्मेदारीयों का अहसास और आदर जगाने की क्षमता है तो यह बहुत ही अच्छी बात है।

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  17. मै ऎसे रीति रिवाजो को नही मानता, लेकिन मेने अपने माता पिता के लिये पिंडदान किया.. ओर आगे मेने अपने बच्चो को मन कर दिया कि मेरे मरने के बाद यह सब मत करना

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  18. किसी भी बहाने ही सही लेकिन साल में एक दिन अपने पूर्वजों को याद कर लिया जाए तो हर्ज़ ही क्या है! :)

    बन्दर पांड़े वापस आ गये हैं। मुझे बताया गया कि मेरे बाबाजी के श्राद्ध की पूड़ी उन्हें भी दी गयी। लोग उन्हें भगाने में लगे हैं और भरतलाल पूड़ी खिला रहा है।

    लगता है कि कहीं और माल नहीं मिला होगा भोग लगाने को इसलिए श्री भरतलाल की याद हो आई होगी कि कम से कम एक भक्त तो ऐसा है जो माल खिलाएगा। कदाचित्‌ इसलिए वापसी हो गई! :)

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  19. महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ ?
    अ-महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ 13 नम्बर फाइल(रद्दी की टोकरी) में जाती हैं शायद।

    प्रात: के सूरज की कविता से तुलना!
    चचा ! साहित्य से बच नहीं पाएँगे ;)
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    नई वाली Alexander फिल्म के प्रारम्भ में ही कथाकार भारतीय सभ्यता की अपने पुरखों के प्रति अति लगाव को जाँचता है, आलोचना करता है। मतलब कि यह भावना पुरा काल से ही हमारे रक्त में बह रही है।
    कर्मकाण्ड न भी किए जाँय तो भी पुरनियों को स्मरण करना और आदर देना एक शुभ कर्म है। आप ने कर्मकाण्ड से आगे जाकर अनुभव किया और उसे अभिव्यक्ति दी, इसके लिए आभार। जो लोग पढ़ेंगे, शायद भावना को समझ पाएंगे।
    अपने ब्लॉग पर कथा के माध्यम से मैं भी अपने पुरनियों को श्रद्धांजलि दे रहा हूँ। . . ऐसे ही अन्य अलग माध्यमों से भी उन्हें याद किया जा सकता है, जरूरी नहीं कि पिण्डा ही पारा जाय।

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  20. पर्सोना बदलने वाली बात तो सच है. आपने तो बहुतों का बदला है !

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय