Wednesday, September 16, 2009

मृत्यु, पुनर्जन्म और असीमितता


जब परीक्षित को लगा कि सात दिनों में उसकी मृत्यु निश्चित है तो उन्होने वह किया जो उन्हें सर्वोत्तम लगा।

मुझे कुछ दिन पहले स्टीव जॉब (Apple Company) का एक व्याख्यान सुनने को मिला तो उनके मुख से भी वही बात सुन कर सुखद आश्चर्य हुआ। उनके शब्दों में -

Death is very likely the single best invention of Life. It is Life's change agent. (मृत्यु जीवन का सम्भवत: सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार है। यह जीवन के परिवर्तन का वाहक है।)

और -

For the past 33 years, I have looked in the mirror every morning and asked myself: "If today were the last day of my life, would I want to do what I am about to do today?" (पिछले ३३ सालों से हर सुबह मैने शीशे में देख कर अपने आप से पूछा है – अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?)

इस तथ्य पर विचार करने के पश्चात यह तो निश्चित है कि आपके जीवन में परिवर्तन आयेगा, क्योंकि मृत्यु एक तथ्य है और झुठलाया नहीं जा सकता। पर क्या वह परिवर्तन आपके अन्दर उत्साह भरेगा या आपको नैराश्य में डुबो देगा ? संभावनायें दोनों हैं। जहाँ एक ओर मृत्यु के भय से जीवन जीना छोड़ा नहीं जा सकता वहीं दूसरी ओर यूँ ही व्यर्थ भी नहीं गँवाया जा सकता है। मृत्यु का चिंतन जीवन को सीमितता का आभास देता है।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है।
वहीं दूसरी ओर भारतीय दर्शन में आत्मा का भी वर्णन है। इस पर भी ध्यान से विचार कर के देखें तो आपको असीमितता का आभास होगा। केवल इस विषय पर सोचने मात्र से वृहदता का आनन्द आने लगता है । कहीं कोई व्यवधान नहीं दिखता। मृत्यु के भय से जनित नैराश्य क्षण भर में उड़ जाता है।

इन दोनों विचारों को साथ में रखकर जहाँ हम प्रतिदिन अच्छे कार्य करने के लिये प्रस्तुत होंगे वहीं दूसरी ओर इस बात के लिये भी निश्चिन्त रहेंगे कि हमारा कोई भी परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा।

मुझे सच में नहीं मालूम कि मैं पुनर्जन्म लूँगा कि नहीं पर इस मानसिकता से कार्य करते हुये जीवन के प्रति दृष्टिकोण सुखद हो जाता है।


मेरे पिलानी में एक गणित के प्रोफेसर थे - श्री विश्वनाथ कृष्णमूर्ति। उन्होने एक पुस्तक लिखी थी - The Ten Commandments of Hinduism. उनके अनुसार दस विचारों में से कोई अगर किन्ही दो पर भी विश्वास करता हो तो वह हिन्दू है। उन दस विचारों में एक, "अवतार"; पुनर्जन्म को भी पुष्ट करता है।
मजेदार बात यह है कि उस पुस्तक के आधार पर आप नास्तिक होते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं! अथवा आप पुनर्जन्म पर अविश्वास करते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं!
आदिशंकर मोहमुद्गर (भजगोविन्दम) में कहते हैं - "पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं। इस संसारे बहु दुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारे!" वे पुनर्जन्म से मुक्ति चाहते हैं - कैवल्य/मोक्ष की प्राप्ति के रूप में। मोक्ष एक हिन्दू का अन्तिम लक्ष्य होता है। पर मुझमें अगर सत्व-रजस-तमस शेष हैं तो पुनर्जन्म बहुत सुकून देने वाला कॉन्सेप्ट होता है!

~ ज्ञान दत्त पाण्डेय


स्टीव जॉब्स के स्टानफोर्ड कमेंसमेण्ट एड्रेस की बात हो रही है, तो मैं देखता हूं कि भविष्य के संदर्भ के लिये वह भाषण ही यहां एम्बेड हो जाये -

55 comments:

  1. म्रत्यु भय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पशु हो या मनुष्य दोनो के लिये । और जीजिविषा भी अत्यंत सहज स्वाभाविक । लेकिन मृत्युभय के वर्तमान पर प्रभाव से मनुष्य जीवन के आनन्द से वंचित न हों इसलिये उसने विभिन्न दर्षन गढ़ लिये हैं । यह भी सहज स्वाभाविक है । अगर भगत सिंह फाँसी की एक रात पहले जेल में पुस्तक पढ रहे हैं तो उसके पीछे क्या उनका म्रत्यु भय था या वे इससे उबर चुके थे । ऐसे बहुत से प्रश्न है । इस चिंतन पर अपने विचर रखने के लिये साधुवाद ।

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  2. मृत्यु का चिंतन जीवन को सीमितता का आभास देता है .. जबकि पुनर्जन्‍म से आपको असीमितता का आभास होगा .. सनातन धर्म के मूल में बस इसी तरह की सकारात्‍मक सोच है .. आपके कम उम्र को देखते हुए बहुत गंभीर चिंतन है !!

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  3. आपने सारगर्भित अभिव्यक्ति को चरमोत्कर्ष पर ला दिया है । आभार ।

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  4. मुझे इस प्रविष्टि ने अचानक ही चिंतनशील बना दिया है । मैं कुछ कह नहीं पा रहा - यह विचार-सू्त्र साथ लेकर जा रहा हूँ -
    "(पिछले ३३ सालों से हर सुबह मैने शीशे में देख कर अपने आप से पूछा है – अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?)"

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  5. जन्म और मृत्यु के दो किनारों के बीच जो कुछ घटित होता है उसी का नाम ही तो जीवन है, फिर भी मृत्यु को भय, अपशगुन आदि के रूप में देखा जाता है आम जीवन में। अज्ञात की यात्रा से भय उत्पन्न होना स्वाभाविक भी है। मुझे भी होता है। लेकिन जब गम्भीरता से कभी कभी सोचता हूँ तो लगता है कि जन्म की तरह मृत्यु भी एक उत्सव है।

    गम्भीर बिषय की सुन्दर चर्चा की है आपने।

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  6. प्रतिदिन अच्छे कार्य करने को प्रवृत्त मनोदशा के वसीभूत कह रहे हैं- सुन्दर पोस्ट!

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  7. पुनर्जन्म की अवधारणा क्षणभंगुर जीवन को इंगित करती हुए मृत्यु के भय को कम करती है ...यदि इसे मानने से धार्मिक हो जाने का खतरा हो तो भी जीवन का भयमुक्त भरपूर आनंद उठाने हेतु सहज मानसिक उपचार की तरह तो इसे स्वीकार किया ही जा सकता है ..!!
    असाधारण प्रविष्टि ...बहुत आभार ...!!

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  8. हम मृत्यु के बारे में सिर्फ इतना ही जानते है कि मृत्यु ही आखिरी सत्य है ! बहुत बढ़िया पोस्ट , आशा करते है अतिथि लेखक जी आगे भी ऐसे ही ज्ञान वर्धक लेख लिखते रहेंगे |

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  9. अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?

    -अगर मुझे मालूम चल जाये कि आज आखिरी दिन है और कल में पिटने को नहीं रहूँगा तब तो मेरे पास एक से एक गजब तूफानी प्लान हैं आज के लिए...मगर कल क्या मूँह दिखाऊँगा..उसी का डर रोकता है.

    इसीलिये मुझे इस स्टेटमेन्ट में बहुत विश्वास नहीं बैठ पा रहा है.

    बाकि पोस्ट विचारणीय है.

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  10. मोत से डरता नही मै, मोत मुझसे डर चुकी है,
    मोत से मरता नही मै,मोत मुझसे मर चुकी.

    भूर्ण-हत्या- कैसे बना दानव - मानव ?

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  11. मोक्ष एक हिन्दू का अन्तिम लक्ष्य होता है।

    pehli baar aapki baat se sehmat nahi hoon...

    ek hindu hone ke naate jaanta hoon ki moksha nahi balki janm maran, swarg nark aadi se mukti evm anant main vilin ho jaana hi hindu (infact kisi bhi manav) ka param laksay hai (ya hona chahiye)...
    ..even I am striving for that.
    Haan waise is 'Phenomenon' ko kai jagah 'moksh' quote kiya gaya hai.
    In other words 'moksha' should not to be confused with 'swarg'.
    And if it is so then you may be right.

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  12. जिंदगी तो बेबफ़ा है एक दिन ठुकराएगी
    मौत महबूबा है.....

    अपनी जिंदगी में आने वाले पल की न सोचो बस अपने बीत रहे पलों का भरपूर मजा लें।

    अब परिक्षित महाराज के जमाने में उनका यमराज से सीधे साक्षात्कार होता था पर आजकल नहीं इसलिये यह बात तो बेमानी है कि हमें पहले पता चल जाये कि हमारी मौत का समय आ चुका है।

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  13. @ उड़न तश्तरी - परिक्षित ने वह किया जो उन्हे सर्वोत्तम लगा। आपको पिटना सर्वोत्तम लगता है तो अवश्य करेँ। क्या समस्या है?! :)

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  14. मृत्यु तो जन्म के साथ बंधी है, बीच की डोर ही जीवन है। आस्तिकता और नास्तिकता व्यर्थ के भेद हैं। आप उन की किसी परिभाषा के साथ दुनिया के किसी व्यक्ति को तौल लें। वह दोनों ही निकलेगा। सब लोग जीवन में हर क्षण वही करते हैं जो वे श्रेष्ठ समझते हैं।
    प्रवीण जी की मुस्कान विको वज्रदंती मंजन का स्मरण कराती है।

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  15. हाँ यही तो परम सत्य की है की एक दिन मरना है पर वापस जन्म लेना है की नहीं कुछ नहीं बताया | में तो दुविधा में हूँ वापस जन्म लूँ की न लूँ !!

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  16. अजी, इस शरीर को तो मरना ही है एक दिन, पर हम तो आत्मा हैं और

    नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥


    इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सूखा नहीं सकता।

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  17. मौत का एक दिन मुअइन्न है

    रात भर फिर नींद क्यों नहीं आती :)

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  18. मुझे लगता है मृत्यु के भय को कम करने के लिए पूनर्जन्म का सिद्धांत घड़ा गया होगा.

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  19. 'मानसिक हलचल' ब्लॉग हमें बहुत अच्छा लगता है,

    बुधवार की पोस्ट का हमें बेसब्री से इन्तजार रहता है.

    -झुमरीतलैया से बण्टी, सोनू, निक्की, गोलू, उनके दोस्त और सबके मम्मी पापा.

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  20. म्रत्यु या दुःख के नजदीक .या अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा मनुष्य आध्यात्म ओर जीवन दर्शन के अक्सर नजदीक पहुँच जाता है ....अस्सी प्रतिशत लोग कुछ समय बाद वापस उसी ढर्रे पे जीवन जीने लगते है ......क्या किसी ने सोचा है अस्सी लाख योनी के बाद मनुष्य जीवन के महत्त्व ?क्या उन नन्हे बच्चो की भी कोई उपयोगिता रही है प्रकति के चक्र में जो महज़ एक या दो साल बाद ही असमय जीवन छोड़ देते है .....क्या वे भी किसी पूर्व निर्धारित कार्यकर्म के तहत मानव जीवन में अपना तय समय व्यतीत करते है ....कौन निर्धारित करता है ...एक बच्चा अम्बानी के पैदा होगा दूसरा झोपडे में ....सवाल कई है .जो उत्तर जान लेते है वो शायद योगी बन जाते है ...या उन्हें एक्सप्लैन नहीं कर पाते ....कुछ तो कारण होगे . राहुल के बुद्ध बनने के ?

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  21. मेरे विचार से कोई भी जीवनदृ्ष्टि,चाहे वह भौतिकवादी हो अथवा आध्यात्मवादी;मृ्त्यु के भय से ही उपजती है। भौतिकवादी इसे इस तरह सोचता है कि जब मृ्त्यु अवश्यंभावी है तो जितना हो सके उसका उपभोग किया जा सके। वहीं आध्यात्मवादी इस तथ्य को इस तरीके से लेता है कि जब मृ्त्य अवश्यंभावी है,यह शरीर नश्वर है तो एसे क्षण-प्रतिक्षण समाप्य होते जा रहे इस शरीर के द्वारा भोगे जा रहे सुख भी नश्वर ही हैं। उसकी यही दृ्ष्टि अनश्वर तथा नित्य सत्ता की खोज और मृ्त्यु भय से मुक्त होकर पुनर्जन्म की अवधारणा पर विश्वास का आधार बनती है।

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  22. मृत्यु और पुनर्जन्म पर बात करना तो बड्डे लोगों का काम है जी. तो मैं कुछ नहीं बोलूँगा :)
    हाँ स्टीव जोब्स का मैं फैन हूँ. ये कुछ लिंक आपने देखे होंगे नहीं तो देखिये. मेरे हालिया शेयर्ड आर्टिकल्स में से यही मिले.

    http://www.businessinsider.com/the-life-and-awesomeness-of-steve-jobs-2009-6#steves-childhood-home-1

    http://www.businessinsider.com/words-of-wisdom-10-best-commencements-2009-6#words-of-wisdom-steve-jobs-1

    http://www.economist.com/businessfinance/displayStory.cfm?story_id=12898785&fsrc=rss

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  23. "मजेदार बात यह है कि उस पुस्तक के आधार पर आप नास्तिक होते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं! अथवा आप पुनर्जन्म पर अविश्वास करते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं!"

    यह केवल मज़ेदार बात नहीं है और न केवल उस किताब के अनुसार ही है. निश्चित रूप से उन प्रोफेसर को हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का गहरा ज्ञान रहा होगा. आपको मालूम होगा कि हमारे हिन्दू धर्म के दायरे में ही चार्वाद हुए हैं. वह वेद में विश्वास नहीं करते थे और तीनों वेदों (उनके समय तक शायद तीन ही वेद रचे गए थे) के रचयिताओं को वह भांड और धूर्त मानते थे. ईश्वर और आत्मा में उनका कोई यक़ीन नहीं था और इसीलिए उन्होंने चार-पांच हज़ार साल पहले ही उस दर्शन का आविष्कार कर लिया था जिसक प्रचार-प्रसार आजकल क्रेडिट कार्ड जारी करने वाले बैंक कर रहे हैं. इसके बावजूद उन्हें मुनियों में शामिल किया जाता है और ब्राह्मण तक माना जाता है. ऐसा उद्धरण भी मिलता है कि महाभारत का युद्ध जीतने के बाद युधिष्ठिर तमाम ब्राह्मणों को भोज के लिए निमंत्रण देने गए. उस वक़्त केवल एक चार्वाक ब्राह्मण ने उनका विरोध किया और भोज में आने से मना कर दिया. इसका मतलब यह कि चार्वाकों को केवल हिन्दू ही नहीं, उनमें भे सर्वश्रेष्ठ (लोक विश्वास के अनुसार) ब्राह्मण माना जाता था. तब जबकि वे ईश्वर, आत्मा और चमत्कार जैसी चीज़ों में बिलकुल विश्वास नहीं करते थे. तो हमें मानने में क्या दिक्कत है.

    वैसे मृत्यु के भय वाले मसले पर भाई उड़न तश्तरी जी से मेरी पूरी सहमति है. मैं तो तब पिटूंगा नहीं, बल्कि पीटूंगा और पीटने के बाद तो ख़ैर, जब होना ही नहीं है तो चिंता किस बात की. :-)

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  24. ज्ञानदत्त जी बहुत सुंदर बात कही, ओर इन वि्दुनो की बात पढी, बहुत अ़च्छा लगा, मुझे नही लगता अपनी म्रुत्य्रू से भय, हर दम तेयार रहता हुं, जाने के लिये जब जाना ही है तो नखरे केसे, लेकिन सिर्फ़ एक इच्छा है जब जाऊ तो आराम से जाऊ, बिना किसी को तंग किये, दुनिया तो मेरे से पहले भी थी ओर बाद मै भी रहेगी,
    मै भी रोजाना आईना देखता हुं, शाम को ओर ्पुछता हुं अपने आप ने से आज कितने लोगो का दिल दुखाया, कही गलत तो नही किया, फ़िर आराम से सो जाता हुं.बेफ़िक्र

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  25. गम्भीर मगर रोचक चर्चा. मैं खुद को इसमें कुछ जोड़ने लायक नहीं पाता. सिर्फ़ पढ़ूंगा, और सीखूंगा.

    प्रवीण जी का लेखन जबरदस्त है, विचार सुगठित. ब्लॉग जगत के लिये इनका आना एक बड़ी उपलब्धि है.

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  26. भारतीय दर्शन में मौत को पड़ाव माना गया है, मंजिल नहीं। मौत असीमितता के बीच की कड़ी है। मरकर भी नहीं मरने का जो सुकून यह दर्शन देता है, वह गहराई में बहुत गहरा है। कहीं न कहीं यह अहसास कराता है कि अपने कर्मों को कायदे से करो, क्योंकि इस शरीर के बाद के शरीर में भी तुम यहीं आने वाले हो।

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  27. एक ज्योतिषी ने मेरी जन्मपत्र देख कर बताया है यह मेरा आखिरी जीवन है . इसके बाद में परमात्मा में विलीन हो जाऊंगा . चलो जन्मो का झंझट तो खत्म हुआ . शायद इसीलिए आखरी जन्म में बहुत सुविधाए प्रदान की है ईश्वर ने .

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  28. पुनर्जन्म की अवधारणा केवल सूदखोरों और लालची शिखा सूत्री पंडितों मिली भगत से पुष्पित पल्लवित एक आदि चिंतन है -चार्वाक ने इस का डट कर विरोध किया और पीड़ित जनता को राहत दी !
    आप भी कहाँ इस चक्कर में हैं -ज्ञान केवल मोक्ष देता है पुनर्जन्म नहीं -हे ईश्वर मुझे मोक्ष देना ! और यह वरदान की मैं इस काबिल बन सकूं !

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  29. वाकई एक अच्छी मानसिक हलचल या कहिए उडान है।
    खैर जी, अगर सहारा ही चाहिए तो क्या हर्ज़ हो सकता है।

    पर एक उलटबासी भी खेल कर देखी जा सकती है।

    पुनर्जन्म की प्राक्कल्पना से उत्पन्न जीवन की असीमितता का अहसास आज ज्यादा बेहतर तरीके से कार्य करने को प्रेरित करेगा?

    या इस प्राक्कल्पना से मुक्त जीवन की सीमितता का अहसास, यह कि कल यह अवसर मिले या ना मिले ( अगले जन्म की तो बात ही छोडिए), ज्यादा बेहतर तरीके से आज के साथ पेश आने की जरूरत पैदा करेगा?

    मन का लोचा है।
    एक दिशा पकडने के बाद लौटाना मुश्किल होता है।

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  30. सार्थक जीवन की तरफ प्रवृत्त करने वाला कोई भी दर्शन ठीक है, पर हम जैसी कई संशयात्माओं का क्या होगा?

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  31. आज तो सत्संग हो गया । संतों ने कहा है कि सत्संग में बिताया गया एक क्षण भी जीवन की दिशा और दशा बदल देता है । आभार ।

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  32. दर्पण शाह जी, मोक्ष का स्वर्ग-नर्क के साथ घाल-मेल मत करिए। मोक्ष का अर्थ ही है जीवात्मा के इस धरा धाम पर आवागमन से मुक्ति। विभिन्न योनियों में बार-बार जन्म लेने और मरने का चक्र तभी बन्द होता है जब हमने उस लायक कर्म किया हो।

    प्रवीण जी, भारतीय दर्शन का ‘कर्म सिद्धान्त’ पढ़ कर देखिए। इन सभी सवालों के सहज उत्तर मिल जाएंगे। यह वैज्ञानिक ‘कार्य-कारण सिद्धान्त’ से काफी मेल खाता है।

    दो मुख्य सूत्र हैं:
    १.कोई भी कर्म अपने सापेक्ष परिणाम अवश्य देता है। यानि कोई कर्म निष्फल नहीं हो सकता।
    २.जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके पीछे कोई कर्म अवश्य है। यानि कुछ भी अकारण नहीं हो सकता।

    हमारा जीवन भी इस सिद्धान्त से परे नहीं है।

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  33. अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
    मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
    आप का स्वागत है...

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  34. "मन पछितैहैं अवसर बीते..." पढा, अच्छा लगा और अधिकांशतः सहमत हूँ!

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  35. बहुत ज्यादा दर्शन और आध्यात्म के बारे मैं बात नहीं कर सकती...पर हाँ इतना जानती और मानती हूँ कि जिंदगी से ज्यादा अनिश्चित कुछ भी नहीं ! ऐसी जिंदगी जियो कि चाहे अगले ही पल मौत आ जाये मगर मरते समय दिल में सुकून रहे और कोई पछतावा न रहे!

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  36. स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में स्टीव जॉब्स द्वारा दिए गया पूरा भाषण, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है, अद्भुत है। जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र उस भाषण में मिलते हैं। मैं उसे विवेकानन्द की धर्म संसद वक्तृता,मार्टिन लूथर किंग के I have a dream और नेहरू के Tryst with destiny की कोटि में रखता हूँ।

    जॉब्स का युवा काल में भारत भ्रमण, आध्यात्म अन्वेषण और बाद में मोह भंग सर्व विदित हैं। फिर भी उनके विचारों में भारतीय छाप कभी कभी दिख जाती है।

    जीवन और मृत्यु ! मैं मृत्यु के बारे में नहीं सोचता - एक विराम जिसके आगे कुछ न पता हो ! सोचें तो क्या, न सोचें तो क्या ?

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  37. में सभी की भावनाओ का सम्मान करती हू परंतु मुझे जीवन मरण जिस पर हमारा कोई वश ही नही है ,ऐसे विषयों पर विचार करना ही व्यर्थ लगता है.
    यदि कोई मानव अच्छा है तो वो बिना किसी भय और लोभ के अच्छा है....
    पर हा शायद पुनर्जनम या मोक्ष का भय और लोभ कई कमजोर लोगों को अच्छे काम करने के लिए विवश अवश्य कर सकता है.

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  38. इसी ख्याल ने हमे हमेशा कन्फ़्यूज़ किया है..कि हम ये माने कि आज हमारा आखिरी दिन है और वो करे जो हम करना चाहते है..लेकिन हमारे भीतर वाला इन्सान पागल है..उसकी सुनेगे तो कुछ नही होगा..एक साईकिल होगी और कन्धे पर एक थैला होगा :)

    "The Last Lecture" पढे और यू ट्यूब पर उनका वीडीयो देखे..स्टीव जाब्स से ज्यादा कमाल की हस्ती लगे ये हमे..

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  39. स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में स्टीव जॉब्स द्वारा दिए गया पूरा भाषण, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है, अद्भुत है। जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र उस भाषण में मिलते हैं। मैं उसे विवेकानन्द की धर्म संसद वक्तृता,मार्टिन लूथर किंग के I have a dream और नेहरू के Tryst with destiny की कोटि में रखता हूँ।

    जॉब्स का युवा काल में भारत भ्रमण, आध्यात्म अन्वेषण और बाद में मोह भंग सर्व विदित हैं। फिर भी उनके विचारों में भारतीय छाप कभी कभी दिख जाती है।

    जीवन और मृत्यु ! मैं मृत्यु के बारे में नहीं सोचता - एक विराम जिसके आगे कुछ न पता हो ! सोचें तो क्या, न सोचें तो क्या ?

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  40. बहुत ज्यादा दर्शन और आध्यात्म के बारे मैं बात नहीं कर सकती...पर हाँ इतना जानती और मानती हूँ कि जिंदगी से ज्यादा अनिश्चित कुछ भी नहीं ! ऐसी जिंदगी जियो कि चाहे अगले ही पल मौत आ जाये मगर मरते समय दिल में सुकून रहे और कोई पछतावा न रहे!

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  41. अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
    मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
    आप का स्वागत है...

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  42. दर्पण शाह जी, मोक्ष का स्वर्ग-नर्क के साथ घाल-मेल मत करिए। मोक्ष का अर्थ ही है जीवात्मा के इस धरा धाम पर आवागमन से मुक्ति। विभिन्न योनियों में बार-बार जन्म लेने और मरने का चक्र तभी बन्द होता है जब हमने उस लायक कर्म किया हो।

    प्रवीण जी, भारतीय दर्शन का ‘कर्म सिद्धान्त’ पढ़ कर देखिए। इन सभी सवालों के सहज उत्तर मिल जाएंगे। यह वैज्ञानिक ‘कार्य-कारण सिद्धान्त’ से काफी मेल खाता है।

    दो मुख्य सूत्र हैं:
    १.कोई भी कर्म अपने सापेक्ष परिणाम अवश्य देता है। यानि कोई कर्म निष्फल नहीं हो सकता।
    २.जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके पीछे कोई कर्म अवश्य है। यानि कुछ भी अकारण नहीं हो सकता।

    हमारा जीवन भी इस सिद्धान्त से परे नहीं है।

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  43. वाकई एक अच्छी मानसिक हलचल या कहिए उडान है।
    खैर जी, अगर सहारा ही चाहिए तो क्या हर्ज़ हो सकता है।

    पर एक उलटबासी भी खेल कर देखी जा सकती है।

    पुनर्जन्म की प्राक्कल्पना से उत्पन्न जीवन की असीमितता का अहसास आज ज्यादा बेहतर तरीके से कार्य करने को प्रेरित करेगा?

    या इस प्राक्कल्पना से मुक्त जीवन की सीमितता का अहसास, यह कि कल यह अवसर मिले या ना मिले ( अगले जन्म की तो बात ही छोडिए), ज्यादा बेहतर तरीके से आज के साथ पेश आने की जरूरत पैदा करेगा?

    मन का लोचा है।
    एक दिशा पकडने के बाद लौटाना मुश्किल होता है।

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  44. पुनर्जन्म की अवधारणा केवल सूदखोरों और लालची शिखा सूत्री पंडितों मिली भगत से पुष्पित पल्लवित एक आदि चिंतन है -चार्वाक ने इस का डट कर विरोध किया और पीड़ित जनता को राहत दी !
    आप भी कहाँ इस चक्कर में हैं -ज्ञान केवल मोक्ष देता है पुनर्जन्म नहीं -हे ईश्वर मुझे मोक्ष देना ! और यह वरदान की मैं इस काबिल बन सकूं !

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  45. भारतीय दर्शन में मौत को पड़ाव माना गया है, मंजिल नहीं। मौत असीमितता के बीच की कड़ी है। मरकर भी नहीं मरने का जो सुकून यह दर्शन देता है, वह गहराई में बहुत गहरा है। कहीं न कहीं यह अहसास कराता है कि अपने कर्मों को कायदे से करो, क्योंकि इस शरीर के बाद के शरीर में भी तुम यहीं आने वाले हो।

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  46. मृत्यु और पुनर्जन्म पर बात करना तो बड्डे लोगों का काम है जी. तो मैं कुछ नहीं बोलूँगा :)
    हाँ स्टीव जोब्स का मैं फैन हूँ. ये कुछ लिंक आपने देखे होंगे नहीं तो देखिये. मेरे हालिया शेयर्ड आर्टिकल्स में से यही मिले.

    http://www.businessinsider.com/the-life-and-awesomeness-of-steve-jobs-2009-6#steves-childhood-home-1

    http://www.businessinsider.com/words-of-wisdom-10-best-commencements-2009-6#words-of-wisdom-steve-jobs-1

    http://www.economist.com/businessfinance/displayStory.cfm?story_id=12898785&fsrc=rss

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  47. मेरे विचार से कोई भी जीवनदृ्ष्टि,चाहे वह भौतिकवादी हो अथवा आध्यात्मवादी;मृ्त्यु के भय से ही उपजती है। भौतिकवादी इसे इस तरह सोचता है कि जब मृ्त्यु अवश्यंभावी है तो जितना हो सके उसका उपभोग किया जा सके। वहीं आध्यात्मवादी इस तथ्य को इस तरीके से लेता है कि जब मृ्त्य अवश्यंभावी है,यह शरीर नश्वर है तो एसे क्षण-प्रतिक्षण समाप्य होते जा रहे इस शरीर के द्वारा भोगे जा रहे सुख भी नश्वर ही हैं। उसकी यही दृ्ष्टि अनश्वर तथा नित्य सत्ता की खोज और मृ्त्यु भय से मुक्त होकर पुनर्जन्म की अवधारणा पर विश्वास का आधार बनती है।

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  48. म्रत्यु या दुःख के नजदीक .या अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा मनुष्य आध्यात्म ओर जीवन दर्शन के अक्सर नजदीक पहुँच जाता है ....अस्सी प्रतिशत लोग कुछ समय बाद वापस उसी ढर्रे पे जीवन जीने लगते है ......क्या किसी ने सोचा है अस्सी लाख योनी के बाद मनुष्य जीवन के महत्त्व ?क्या उन नन्हे बच्चो की भी कोई उपयोगिता रही है प्रकति के चक्र में जो महज़ एक या दो साल बाद ही असमय जीवन छोड़ देते है .....क्या वे भी किसी पूर्व निर्धारित कार्यकर्म के तहत मानव जीवन में अपना तय समय व्यतीत करते है ....कौन निर्धारित करता है ...एक बच्चा अम्बानी के पैदा होगा दूसरा झोपडे में ....सवाल कई है .जो उत्तर जान लेते है वो शायद योगी बन जाते है ...या उन्हें एक्सप्लैन नहीं कर पाते ....कुछ तो कारण होगे . राहुल के बुद्ध बनने के ?

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  49. मृत्यु तो जन्म के साथ बंधी है, बीच की डोर ही जीवन है। आस्तिकता और नास्तिकता व्यर्थ के भेद हैं। आप उन की किसी परिभाषा के साथ दुनिया के किसी व्यक्ति को तौल लें। वह दोनों ही निकलेगा। सब लोग जीवन में हर क्षण वही करते हैं जो वे श्रेष्ठ समझते हैं।
    प्रवीण जी की मुस्कान विको वज्रदंती मंजन का स्मरण कराती है।

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  50. जिंदगी तो बेबफ़ा है एक दिन ठुकराएगी
    मौत महबूबा है.....

    अपनी जिंदगी में आने वाले पल की न सोचो बस अपने बीत रहे पलों का भरपूर मजा लें।

    अब परिक्षित महाराज के जमाने में उनका यमराज से सीधे साक्षात्कार होता था पर आजकल नहीं इसलिये यह बात तो बेमानी है कि हमें पहले पता चल जाये कि हमारी मौत का समय आ चुका है।

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  51. अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?

    -अगर मुझे मालूम चल जाये कि आज आखिरी दिन है और कल में पिटने को नहीं रहूँगा तब तो मेरे पास एक से एक गजब तूफानी प्लान हैं आज के लिए...मगर कल क्या मूँह दिखाऊँगा..उसी का डर रोकता है.

    इसीलिये मुझे इस स्टेटमेन्ट में बहुत विश्वास नहीं बैठ पा रहा है.

    बाकि पोस्ट विचारणीय है.

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  52. पुनर्जन्म की अवधारणा क्षणभंगुर जीवन को इंगित करती हुए मृत्यु के भय को कम करती है ...यदि इसे मानने से धार्मिक हो जाने का खतरा हो तो भी जीवन का भयमुक्त भरपूर आनंद उठाने हेतु सहज मानसिक उपचार की तरह तो इसे स्वीकार किया ही जा सकता है ..!!
    असाधारण प्रविष्टि ...बहुत आभार ...!!

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  53. म्रत्यु भय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पशु हो या मनुष्य दोनो के लिये । और जीजिविषा भी अत्यंत सहज स्वाभाविक । लेकिन मृत्युभय के वर्तमान पर प्रभाव से मनुष्य जीवन के आनन्द से वंचित न हों इसलिये उसने विभिन्न दर्षन गढ़ लिये हैं । यह भी सहज स्वाभाविक है । अगर भगत सिंह फाँसी की एक रात पहले जेल में पुस्तक पढ रहे हैं तो उसके पीछे क्या उनका म्रत्यु भय था या वे इससे उबर चुके थे । ऐसे बहुत से प्रश्न है । इस चिंतन पर अपने विचर रखने के लिये साधुवाद ।

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  54. मुझे इस प्रविष्टि ने अचानक ही चिंतनशील बना दिया है । मैं कुछ कह नहीं पा रहा - यह विचार-सू्त्र साथ लेकर जा रहा हूँ -
    "(पिछले ३३ सालों से हर सुबह मैने शीशे में देख कर अपने आप से पूछा है – अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?)"

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय