Tuesday, August 25, 2009

फुटपाथ और पैदल चलना


Footpath_thumb फुटपाथ की संरचना ही नहीं है सड़क के डिजाइन में!

पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहा हूं कि शहरों में आबादी के घनत्व का अपना एक लाभ है। हाल ही में पढ़ा कि अटलाण्टा और बार्सीलोना लगभग बराबर की आबादी के शहर हैं और दोनो ही ओलम्पिक आयोजन कर चुके हैं। पर बार्सीलोना में लोग अपार्टमेण्ट में रहते हैं और अटलाण्टा में अपने अलग अलग मकानों में। लिहाजा, प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन अटलाण्टा के अपेक्षा बार्सीलोना में मात्र दसवां हिस्सा है।

घने बसे शहर में लोगों को पैदल ज्यादा चलना होता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग अधिक होता है। यह मैने मुम्बई सेंट्रल और चर्चगेट के इलाके में देखा था। महिलायें और पुरुष सबर्बन ट्रेन से उतर कर बहुत पैदल चलते थे।

Fort Area Mumbai_thumb[1] मुम्बई के फोर्ट एरिया में फुटपाथ पर पुस्तक खरीदना

इलाहाबाद में एक गलत बात दीखती है – सड़कों के दोनो ओर फुटपाथ का अस्तित्व ही मरता जा रहा है। दुकानदारों, ठेले वालों और बिजली विभाग के ट्रांसफार्मरों की कृपा तथा नगरपालिका की उदासीनता के चलते फुटपाथ हड़प लिये जा रहे हैं और सडक का अर्थ केवल वाहनों के लिये जगह से लगाया जाता है, फुटपाथ से नहीं।

पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी और फुटपाथ का अकाल छोटे शहरों के लिये उच्च रक्त चाप सरीखा है। बिगड़ती सेहत का पता भी नहीं चलता और मरीज (शहर) की उम्र क्षरित होती जाती है।

गंगा तट पर घूमने में एक लाभ मुझे दीखता है। गंगा की रेत चलने को निर्बाध स्पेस प्रदान करती है। आप अपनी चप्पल या जूता हाथ में ले कर नंगे पैर चल सकते हैं। बस ध्यान रहे कि गुबरैलों और अन्य कीटों को पहला हक है वहां चलने का!

पर वहां चलने की बाध्यता नहीं है। कभी मन कामचोरी पर उतर आये तो वह चलना बन्द हो सकता है।

शहर ऐसे बनने चाहियें जहां लोगों को पैदल चलना पड़े और चलने की सहूलियत भी हो। क्या सोच है आपकी?

 बिजनेस स्टेण्डर्ड का यह पन्ना पढ़ने में अच्छा है।


आदरणीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे

gcpandey (6) मैने श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे की पुस्तक ऋग्वेद पर एक पोस्ट लिखी थी, और उसके बाद दूसरी। उस समय नहीं मालुम था कि वे हमारी रेलवे यातायात सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी के श्वसुर हैं। श्री देवीप्रसाद पाण्डे, रेलवे बोर्ड में एडवाइजर (लॉजिस्टिक्स एण्ड मार्केटिंग),  उनके दामाद हैं और पिछले शुक्रवार यहां थे।

बात बात में श्री देवी पाण्डे ने बताया कि श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे की उम्र बहुत हो गई है। आंखों की ज्योति कम हो जाने से वे लिख-पढ़ नहीं पाते। एक व्यक्ति रोज उन्हे पढ़ कर सुनाते हैं। फिर श्री पाण्डे उन्हें डिक्टेशन देते हैं। इस प्रकार सुनने और डिक्टेशन देने के माध्यम से वे नित्य १० घण्टे कार्य करते हैं। ऋग्वेद वाली पुस्तक भी इसी प्रकार लिखी गई थी।

यह सुन कर मैं अभिभूत हो गया। श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे (जन्म ३० जुलाई, १९२३) से बत्तीस-तैंतीस साल कम उम्र होने पर भी मैं उतना काम कम ही कर पाता हूं। और जब इन्द्रियां शिथिल होंगी, तब कार्यरत रहने के लिये उनका उदाहरण प्रेरक होगा।

श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे का यह चित्र सिद्धार्थ त्रिपाठी ने मुझे ई-मेल से भेजा है। साथ में लिखा है -  

प्रो गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी एकेडेमी सभागार (इलाहाबाद)  में आयोजित प्रो. सुरेश चन्द्र पाण्डेय अभिनन्दन समारोह में पधारे, अध्यक्षता की, लेकिन मन्च पर बैठे ही बैठे मोटी किताब ‘साहित्य शेवधि’ में डूबे रहे। इस जरावस्था में भी अध्ययन की ऐसी ललक देखकर हम दंग रह गये। 


31 comments:

  1. हम तो अटलांटा मे भी अब तक अपार्ट्मेन्ट्स मे ही रहे हैं...

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  2. प्रो गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी का व्यक्तित्व अनुकरणीय है. आपका आभार उनसे परिचय कराने का.

    फुटपाथ की जैसी सहुलियत यहाँ देखता हूँ, मुझ जैसा व्यक्ति भी टहलने को लालायित हो जाता है. जबलपुर में भी फुटपातियों ने दुकान लगा लगा कर फुटपाथ ही गुम कर दिये हैं.

    चिन्तनीय विषय है.

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  3. हाँ, यह सही है कि शहरों में फुटपाथ का प्रयोग वाहनों को खड़ा करने के लिये हो रहा है ।

    आदरणीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे के अनुकरणीय व्यक्तित्व को नमन । काश यह निष्ठा हममें भी कुछ देर ठहर पाती ।

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  4. बंबई फुटपाथों का स्‍वर्ग है । फोर्ट में जिस किताबी इलाके की तस्‍वीर आपने खींची है, वो तो बस अवशेष रह गया है । फुटपाथ को संवारने के चक्‍कर में हम जैसे किताबियों के दिल पर बिजली गिरा दी महानगर पालिका ने । किताबें जब्‍त करके गोदाम में सड़ा दीं । किताबें बेचने वाले अब फैशन-स्‍ट्रीट पर कपड़े बेचते
    हैं । बंबई को हमने पैदल खूब छाना है । संसार के सबसे यथार्थ, रंगीले, अनूठे, भयंकर, चालबाज़ और धोखेबाज़ फुटपाथ हैं ये । असली शहर यहीं तो है ।

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  5. जी हां!बिल्कुल सही। आज यदि जनता व प्रशासन चेत जाय तो बात बन जाय।आभार।

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  6. शोचनीय स्थिति है. इन्फ़्रास्ट्रक्चर में सुधार होना है पर पहले लोगों की मानसिक संरचनाओं में सुधार की दरकार है.

    गोविन्द चन्द्र जी का व्यक्तित्व प्रेरक है.

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  7. गोविन्द चन्द्र पांडे जी से परिचय करने का आभार..ईश्वर उनकी जीवटता को ऐसे ही बनाये रखे..!!

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  8. आदरणीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे के अनुकरणीय व्यक्तित्व को नमन ...
    &
    Foot path & encroachment is a dreadful occurance in Mega cities like Delhi, Bombay or Kolkatta ..

    India MUST provide basic amenities like Clean water * clean roads * clean living space to its citizen
    Otherwise, the life expactency & joy in living this LIFE is deffinately eroded .

    Good & thoughtful post Gyan bhai Saab ..Do see mmy new post, there is a mention of your BLOG :)

    with warm rgds,
    - Lavanya

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  9. बहुत पैनी नज़र मारी है आपने.. वाकई फूटपाथ लुप्त होते जा रहे है..

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  10. अधिकारीयों ने सड़कों पर पैदल चलना छोड़ दिया है, तो उन्हें महसूस कैसे होगा कि सड़कों पर फुटपाथ की अहमियत क्या है और पहले के ही सही पर बने इन फुटपाथों की हालत क्या से क्या रह गई................

    बची-खुची कसर रजनीतिक पार्टियों के हफ्ता लेने वाले लोग पूरी कर देते हैं, यदि ये फुटपाथ खली हों तो उनकी मोती बैठे थाले आती कमाई बाधित होगी जो...........

    अजब-गजब खेल है लोकतंत्र में अफसरशाही और रजनीतिक दलों का, "जैसा होना चाहिए" वैसा होने ही नहीं पाता....

    इलाहबाद शहर के फुटपाथों की सही तस्वीर पेश करने का आभार.

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  11. शायद पैदल चलने वाले लोग कम हो गये है सब अपने अपने वाहनों में सवार होकर ही घर से बाहर निकलते हैं, और इन पटरी वालों के पेट का भी ये सरकारी अधिकारी ध्यान रखते हैं, अरे पैदल चल ही कितने रहे हैं, अब तो मुँबई के उपनगरों में भी फ़ुटपाथ खत्म होते जा रहे हैं, जरुरत है प्रशासन की कुँभकर्णी नींद खोलने की ...

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  12. प्रो गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी से परिचय का आभार. हमारी आने वाली पीढी शायद पूछेगी - ये फ़ुटपाथ क्या होता है?:)

    रामराम.

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  13. हम यूपोरियन फुटपाथ पर चलना अपमान भी तो समझते है कितने लोग है जो जेब्रा क्रासिंग पर सड़क पार करते है .

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  14. ज्ञानदा, इलाहाबाद ही क्यों, उपी के ज्यादातर शहरों के फुटपाथ मरते जा रहे हैं।

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  15. मोहन जोदरो और हड़प्पा की खुदायी में भी सुव्यवस्थित नगर मिलते हैं मगर हम तो अभी उनसे सैकडों साल पीछे हैं , इंसानियत में भी सलीके में भी और शिक्षा ......वो तो अब नाम मत लीजिये

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  16. आदर्णीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी को हमारा विनम्र नमन।
    हमारे लिए वे प्रेरणास्रोत हैं।
    जब तक मन सक्रिय रहता हम भी रहेंगे।
    आप ने भी अपने ब्लॉग के मुख्यप्रष्ठ पर सही लिखा है:
    "मन में बहुत कुछ चलता है। मन है तो मैं हूं| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग|"

    मेरे पिताजी (आयु ८९ वर्ष) alzhiemer's dementia से ग्रस्त हैं। तीन साल पहले आरंभ हुई थी यह बिमारी
    और महीने दर महीने उनकी हालत बिगड़ती जा रही है। डाक्टर लोग कह्ते हैं इस उम्र में ऐसा कभी हो जाता है और इसका कोई इलाज़ नहीं।

    पाण्डे जी के बारे में सुनकर हमें भी आश्चर्य होता है और आदर बढ़ता है।
    जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु

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  17. Footpath to coloniyon ke ander bhee encroachment ka shikar hain log unhe gher kar personal bgeeche bana lete hain paidal chalna ek mushkil kam hai.

    Govind jee se milane ka abhar. we wakaee prerana strot hain.

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  18. बेशक फुटपाथों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है हर बढ़ते शहरों में यही माहौल है . फुटपाथों पर पूरा बाजार लगाये जा रहे है .

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  19. ऐसे ही किसी फुटपाथ पर कहीं हमने शेरू उस्ताद को दांतों से बड़े बड़े कीडे निकालकर अपना दंत मंजन बेचते देखा था.मार्केटिंग का ऐसा हुनर किसी फुटपाथ ने ही देखने का मौका फराहम कराया था. यूपी के बारे में आपने कहा तो मन उदास हो गया.
    एक दुनिया समानांतर चलती है फुटपाथ पर.

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  20. जिस इलाके से आप होकर गुजरे हैं, वहां बिल्डिंगों के नीचे नीचे एक पैरलल दुकानों का लेन है।

    ये ऐसी किस्म की दुकानें हैं जो कि Walk when u Talk को चरितार्थ करती हैं :)

    हम जैसे युवा जब उन लेन से पैदल चलते हैं तो हर पंद्रह बीस दुकानों के बाद एक सीडी वीसीडी की दुकान पडती है, और साथ ही सीडी वाले की अजीब किस्म की आवाज .......चलते-चलते बगल में ही पास आकर धीरे से कहेंगे - सीडी चाहिये क्या भाई.....सीडी... सीडी :)

    सोचता हूँ ऐसी दुकानों के बारे में एकाध पोस्ट टांग ही दूँ :)

    वैसे इन्हीं जैसी दुकानों के बगल में आपको मल्लिका पुखराज और उस्ताद बिसमिल्ला खाँ जैसी शख्सियतों के पुराने तवे वाले रिकार्ड मिल जाएंगे, HMV वाले।

    और हां, जिस दुकान की आपने ये तस्वीर लगा रखी है, उन्ही के यहां से Watson (Textile design) की किताब मुझे मिली थी जो कि मुंबई भर में छानने के बाद भी एक बार न मिल सकी थी।
    फुटपाथी किताबों का दूसरा जमावडा माटुंगा इलाके में भी है।

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  21. गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी याद रहेंगे.

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  22. आदरणीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी का अनुकरण कर सकें यही भगवान से प्रार्थना है। बम्बई के फ़ुटपाथ की ये दुकानें अब लुप्त हो रही हैं , फ़ुटपाथ तो यहां भी नहीं बचे, पर लंबी दूरियां चलना हम लोगों की मजबूरी है। कोई भी काम मजबूरी में करना अच्छा कैसे हो सकता है?

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  23. फुटपाथ मुम्बई की आवश्यकता रही है। अब तो वो भी कम पडने लगे है अब जगह-जगह स्काईवॉक बन पडे है जो रेल्वे स्टेशनो के प्लेटफार्म से सिद्धा गतव्य स्थान पहुचना सरल सहज हो गया है। हाईवे/सडके क्रोसिग के झझट से मुम्बई १२१२ तक मुक्त हो जाएगा। अगर सब कुछ नियत्रित रहा तो।
    गोविन्द चन्द्र पांडे जी से परिचय करने का आभार


    हे! प्रभु यह तेरापन्थ
    मुम्बई-टाईगर

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  24. वैसे सर कालबादेवी, चर्चगेट, फाउन्टन, एवम उपनगरो मे फुटपाथ पर अनाधिकृत अतिक्रमण भी बहूत है फैरी वालो का।
    एक अन्दाज से इसमे करोडो की हप्ता वसुली महानगर के वार्डाअफिसर एवम स्थानिय पुलिस को प्राप्त होता है।


    हे! प्रभु यह तेरापन्थ
    मुम्बई-टाईगर

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  25. शहर ऐसे बनने चाहियें जहां लोगों को पैदल चलना पड़े और चलने की सहूलियत भी हो। क्या सोच है आपकी?
    पुराने शहर में तो अब क्या सहूलियत दे पायेंगे ज्ञानजी लेकिन सोच रहे हैं कि एकाध कट्टा जमीन खरीद कर दू चार शहर बनवा के डाल दिये जायें। उसमें जो सड़क बनवायेंगे उसके किनारे फ़ुटपाथ भी निकलवा देंगे। ठीक है न!

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  26. @ अनूप जी

    अब तो शहर ऊंचाई मे बनने लगे हैं तो एकाध कट्टा में कहीं महानगर न निकाल देना फैशन में..फुटपाथ पर जगह बची रहे चलने की. :)

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  27. वाह!गोविन्द चन्द जी को नमन. उनका अध्ययनप्रेम वास्तव में अनुकरणीय है.

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  28. आपको आदरणीय गोविन्द चन्द्र पाण्डे से प्रेरणा मिलती है और हमें आपसे ।

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  29. फुटपाथ तो खैर यहाँ भी गायब हो गए हैं और हो रहे हैं। पहले फेरी वाले, दुकान वाले जबरन हड़प लेते थे, फिर नगरपालिका ने उन पर बाकायदा छप्पर आदि की दुकानें की जगह ही बेच दी या किराए पर दे दी और अब कई इलाकों के फुटपाथों पर पर्मानेन्ट दुकानें दिखाई देती हैं!

    इसका नतीजा यह होता है कि लोगों को पैदल चलने के लिए सड़क पर उतरना पड़ता है। पार्किंग के मामले में भी लोग बद्‌तमीज़ होते हैं, जहाँ मर्ज़ी पार्क करी गाड़ी और चले गए, ठीक से किनारे पर लगाने की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती, कोई समझाए तो उसे गाली देकर अपनी भाषा की कंगाली दिखाई जाती है। मज़े की बात यह है कि जहाँ लोग सड़क पर पार्किंग करनी शुरु करते हैं वहीं एकाध दिन बाद एक बंदा आ जाता है और बाकायदा टिकट काट पार्किंग के पैसे लेता है, खामखा। :(

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय