Thursday, July 30, 2009

अमृतलाल वेगड़ उवाच


पिछली टंकियाटिक पोस्ट  पर समीर लाल टिपेरे: अब आप कह रहे हैं, तो ठीके कह रहे होंगे। ठीके तो कह रहे थे – हम नहीं, समीरलाल। इतनी ज्यादा पोस्टें निपटाते हैं तो सोशियो-पोलिटिकली करेक्ट टिपेरना उन्ही से सीखना चाहिये! (कोई व्यंग इण्टेण्डेड नहीं। कल उनका जन्मदिन था, बहुत बहुत बधाई!)

असल में हमारे जैसा कोई चिमिरखी दास लेखन के हत-उत्साह पर कहे तो यह टरकाऊ टिप्पणी ही बनती है। अन्यथा आप सौन्दर्य की नदी नर्मदा वाले अमृतलाल वेगड़ जी को पढ़ें (यह उन्होंने बिना दुर्घटना के शूलपाणेश्वर की झाड़ी पार कर लेने के बाद लिखा है):

Vegad ... लेकिन अब तो खतरा निकल गया। किताब (नर्मदा की परिक्रमा पर) एक न एक दिन पूरी हो ही जायेगी। तब क्या होगा?

अव्वल तो मुझे प्रकाशक नहीं मिलेगा। प्रकाशक मिल गया तो ग्राहक नहीं मिलेगा। ग्राहक मिला तो पाठक नहीं मिलेगा। अगर मैं कहूं कि यह यात्रा स्वान्त: सुखाय कर रहा हूं, तो वह अर्धसत्य होगा। मैं चाहता हूं कि जो सुख मुझे मिल रहा है वह दूसरों को भी मिले। मैं "स्वान्त: सुखाय" भी चल रहा हूं तो "बहुजन सुखाय" भी चल रहा हूं। तो कहां है यह बहुजन?

टी.वी. के सामने। टी.वी. और वीडियो कैसेट के इस युग (वर्ष १९९२) में किताब पढ़ने की जहमत भला कौन उठायेगा! टी.वी. खोल दो और कुर्सी में पसर जाओ।

किताब को फैंक दो। अधिक से अधिक "दिवंगत पुस्तक” की स्मृति में एकाध मर्सिया पढ़ दो और फिर उसे भूल जाओ। यह है पुस्तक की नियति। अच्छी तरह जानता हूं, फिर भी इस किताब के लिये खून पसीना एक कर रहा हूं।

मूर्ख!

किताब सन १९९२ में फिर भी फन्नेखां चीज थी। ब्लॉग तो २००९ में बुलबुला है साबुन का! बस वन आफ्टर अदर फुलाये जाओ बुलबुले साबुन के!

कॉण्ट्रेरियन विचार: ब्लॉग तो फिर भी बैठे-ठाले की चीज है। दिये जायें पोस्टें। पर किताब छपाने को (पाठक की किल्लत के युग में भी) काहे बौराये रहते हैं लोग! इतना कागद की बरबादी - जो अन्तत: दीमक के हिस्से ही आनी है।

मैं जाता हूं ह्वीलर्स की दुकान पर और बिना खरीदे चला आता हूं। काउण्टर पर बैठा आदमी मुझे चिरकुट समझ रहा होगा और मैं समझता हूं कि मैने पैसे बचा लिये। दोनो ही सही हैं। इसी तरह ब्लॉगिंग को ले कर कुरबान, परेशान और बेजान – सब सही हैं! 


होशंगाबाद के पास नर्मदा माई के परकम्मावासी (नेट से लिया चित्र):
parkammaavaasiवेगड़ जी का जिक्र हुआ तो परकम्मावासी याद हो आये!

34 comments:

  1. 'असल में हमारे जैसा कोई चिमिरखी दास लेखन के हत-उत्साह पर कहे तो यह टरकाऊ टिप्पणी ही बनती है।

    अब आप कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे !

    ReplyDelete
  2. किताबें छपना बंद नहीं होगा(पश्चिम में नहीं ही हुआ)क्योंकि किताब पढ़ना एक अलग नशा है. अफीमची और भंगेड़ियों का गुजारा बीड़ी-सिगरेट-सिगार से कहां होता है... बस कुछ देर काम चल सकता है, तलब नहीं जाती है. कम्पयूटर /लैपटाप न तो सिरहाने लेकर सोया जा सकता है और न ही पढ़ते-पढ़ते छाती पर लुढ़का कर सोया जा सकता है. फिर, नई किताब की अपनी एक खुशबू भी होती है.

    ReplyDelete
  3. काजल कुमार जी से शत प्रतिशत सहमत हूँ।

    ReplyDelete
  4. मुझे तो नहीं लगता लोग बाग़ १०- १५ साल बाद किताबों के पन्ने पल्टेगें -डेस्कटॉप का बड़ा पन्ना जब सामने है !

    ReplyDelete
  5. क्या खूब काजल जी!
    सच है किताब की अपनी एक खुश्बू भी होती है।

    ReplyDelete
  6. काजल जी ठीक ही कहते हैं ...!!

    ReplyDelete
  7. किताबों की तलब हमें कचोटती है अगर किसी दिन कुछ पढ़ा नहीं तो ऐसा लगता है कि आज कुछ छूट गया है। टीवी पर तो केवल ऐसे कार्यक्रम परोसे जाते हैं जिससे केवल टाईम पास हो सकता है, ज्ञानवर्धन नहीं, हालांकि कुछ चैनल्स इसमें अभी भी हैं जो अच्छॆ कार्यक्रम देकर ज्ञान बड़ा रहे हैं।

    किताब नई हो या पुरानी खुश्बू कभी जाती नहीं है। आजकल साहित्यकार भी वही लिखते हैं जिससे टीआरपी बढ़ती हो।

    ReplyDelete
  8. अरविन्द जी की बातों से सहमत हूँ।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    ReplyDelete
  9. ब्लॉग तो फिर भी बैठे-ठाले की चीज है। दिये जायें पोस्टें। पर किताब छपाने को (पाठक की किल्लत के युग में भी) काहे बौराये रहते हैं लोग! इतना कागद की बरबादी - जो अन्तत: दीमक के हिस्से ही आनी है।
    मैं जाता हूं ह्वीलर्स की दुकान पर और बिना खरीदे चला आता हूं। काउण्टर पर बैठा आदमी मुझे चिरकुट समझ रहा होगा और मैं समझता हूं कि मैने पैसे बचा लिये। दोनो ही सही हैं। इसी तरह ब्लॉगिंग को ले कर कुरबान, परेशान और बेजान – सब सही हैं! ............अरे इ सब क्यों कह रहे हैं ,वैसे सही ही है इ ब्लॉग युग में सब जायज जो है.

    ReplyDelete
  10. लगता है आप किताबों को तब तक कमतर ही आंकते रहेंगे जब तक खुद एक बेस्ट सेलर नहीं लिख लेंगे. कलम उठाइये. उन्होंने नर्मदा पर लिखी आप गंगा पर ही लिख डालिए. [वैसे जब अमेरिका में टी वी आया था तब यहाँ बहुत सी पत्रिकाएं बंद हो गयी थीं. ]

    ReplyDelete
  11. किताबो को खत्म कर सके अभी, इस जमाने मे दम नही। किताबो हमेशा वार्तालाप का एक जरिया रही है, इन्होने ही एक युग को दूसरे युग से मिलवाया है। काफ़ी सारे लोगो को इतिहास मे एक जगह दिलवाने मे इनका ही रोल है और ऐसे न जाने कितने ही लेखक है, जिन्हे हुम जानते है -

    होमर, चन्दबरदाई, तुलसीदास, बाबर......

    हो सकता है कि किताबो का रूप बदले। Amazon ने इसी सोच पर Kindle बाज़ार मे उतारा है। जैसे Apple iPod से लोग गाने सुनते है, वैसे ही इससे सारी किताबे एक जगह मिलेगी, एक अलग तरह का book reader है ये जहा आप कोई भी किताब पढने के लिये Amazon को pay करेगे। अमेज़न ने काफ़ी सारी किताबे इस पर अवलेबल करवायी है और वो काफ़ी सारे लेखको से सम्पर्क मे है तो हो सकता है, कुछ समय बाद आपका ब्लाग वहा अवलेबल हो और मान्यवर कि पुस्तक भी......... :)

    ReplyDelete
  12. किताब अपनी जगह है और कम्प्युटर अपनी जगह - लिखनेवाले और पढ़नेवाले और " सास भी कभी बहू थी " जैसे सीरीयल देखनेवाले ये सभी मिलकर अपनी दुनिया बंटी हुई है - --
    - लावण्या

    ReplyDelete
  13. भई पुस्‍तकों का महत्‍व कतई कम नहीं । फिर आपने तो वो पुस्‍तक याद दिला दी जो हमारे जेहन में बसी है । 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' कितनी बार खरीदी । और मित्र लूट ले गए । पता नहीं उन्‍होंने पढ़ी या अपने बुक-रैक में शोभायमान कर दी । जबलपुर का हूं इसलिए वेगड़ जी से मुलाक़ातें भी याद आ गयीं ।

    ReplyDelete
  14. यह पोस्ट और टिप्पणियाँ पढ़ने के बाद तो मैं भी नरभसा रहा हूँ। कारण यह है कि अभी-अभी मैंने अपनी ‘ब्लॉग की किताब’ का फाइनल प्रूफ देखकर मुद्रक के हवाले किया है। एक सप्ताह में यह छपकर आ जाएगी। “ब्लॉगजगत का एक झरोखा- सत्यार्थमित्र।”
    अब भाई लोग जब ऐसी निराशावादी बातें करेंगे तो ब्लॉग साहित्य को प्रिन्ट वालों से सपोर्ट कैसे मिलेगा।

    हमारी इच्छा तो है कि इन्टरनेट का खूब प्रसार हो, यह वहाँ पहुँचे जहाँ अभी नहीं जा पाया है। पुस्तकें वहाँ पहुँचे जहाँ अभी नहीं जा पायी हैं। भारतवर्ष में अभी संचार साधनों और ज्ञान के माध्यमों के फैलने की बहुत गुन्जाइश है। ग्रामीण भारत के स्वरूप की कल्पना तो कीजिए। महानगरों में ही सबकुछ सीमित नहीं है। अभी तो करोड़ो ऐसे हैं जिनको बिजली के दर्शन नहीं हैं। अक्षर ज्ञान भी नहीं है करोड़ों को। पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें वहाँ पहुँचनी चाहिए जहाँ नेट जाने में अभी कई दशक लगेंगे। जरूरत अच्छे प्लानर्स की है। दुर्भाग्य से यह कार्य सरकारी मशीनरी के भरोसे छोड़ दिया गया है, जिसकी अपनी सीमाएं हैं।

    ReplyDelete
  15. फालतू किताबों की जगह छिन सकती हैं। पर किताब तो किताब है। उस की जगह कम्प्यूटर नहीं ले सकता।

    ReplyDelete
  16. हमको तो लगता है किताब अपनी जगह शाश्वत ही रहेगी. हां समय काल के हिसाब से समय समय पर ऊंच नीच भले होती रहे.

    रामराम.

    ReplyDelete
  17. टरकायें और आपको-अजी!! हमारे दुश्मन भी ऐसा न कर पायेंगे आपके जैसे स्नेही स्वजन से. बड़ा सिरियसली लिखे थे, सोच समझ कर, ठोक बजा कर. अब आप ऐसा सोच लिए, तो वैसे ठीके सोचे होंगे. :)

    अमृत लाल बेगड़ जी को पढ़ना, उनका नर्मदा प्रेम हमेशा ही अभिभूत करता है. वैसे तो नर्मदा के प्रति यह प्रेम भाव हर नर्मदा तीरे वासी में मिलेगा. हम भी तो वही हैं. उनकी लेखनी का कमाल था जो आप जान गये. :)

    किताबों का खात्मा, एक युग बाद की बात कर रहे हैं आप.

    ब्लॉग में कुछ भी ठेला ठाली कर लेने के बाद, अगर सोच कर देखें कि इसे किताब का फार्मेट देना है तो छांटा बीनी में ही इतना कुछ लिखने से ज्यादा समय लग जाये और फिर उन्हें करीने से एक क्रम देना आदि आदि, किताब का स्वरुप-एक अलग ही दुनिया है.

    झेला तब, जब किताब निकाली. अब फिर उसी झेलन में अटका हूँ, जब गद्य की किताब निकालने के चक्कर में हूँ.

    बिकना, न बिकना, खरीदना या छपवा कर धर लेना-दीमक को सेम टू सेम स्वाद देती है. ये दीमक भी न-कौनो अन्तर ही नहीं करती. मानो भारत की नेता कटेगरी की हो कि सबको लूटो. अतः उसका प्रभाव इस पर असर नहीं डालता. जैसे मानव की नियति मृत्यु प्राप्त करना है. किताब की दीमक से चट जाना. जीना या किताब का छपना इससे नहीं रोका जा सकता.

    आप तो किताब निकालने की तैयारी में जुट जाओ. समय तो कटबे करेगा और साथ ही लेखन में क्या छांटे बीने और आगे क्या लिखें, का राज मार्ग भी उसी नुक्कड़ से शुरु होता है, ऐसा मुझे लगता है.

    किताबों की उपयोगिता को लेकर तो अभी से चिन्तित न हों. चाँद पर कॉलोनी कटने तक तो रहेंगी ही, फिर भले ही पोस्टेज खर्च के चलते कम हो जायें. :)

    जन्म दिन के लिए आपकी बधाई एवं शुभकामनाऐं ले ली गई हैं.

    इस असीम स्नेह, बधाई एवं शुभकामनाओं के लिए हृदय से आभार.

    आपने मुझे इस दिवस विशेष पर याद रखा, मैं कृतज्ञ हुआ.

    समस्त शुभकामनाऐं.

    स्नेह बनाये रखिये.

    समीर लाल

    ReplyDelete
  18. किताबों की दुनिया के लोग मरते जा रहे हैं !! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जनसंख्या बढ़ रही है !! विचारणीय प्रश्न है !!

    ReplyDelete
  19. "अव्वल तो मुझे प्रकाशक नहीं मिलेगा। प्रकाशक मिल गया तो ग्राहक नहीं मिलेगा। ग्राहक मिला तो पाठक नहीं मिलेगा। "...
    यहाँ कम से कम कोई समीर लाल मिल जाएगा जो अपने उड़न तश्तरी पर आएगा और तुरत-फुरत एक टिप्पणी फेंक जाएगा:)
    यह और बात है कि इस बार टिप्पणी लेख जैसी बड़ी हो गई है:):)

    ReplyDelete
  20. 'असल में हमारे जैसा कोई चिमिरखी दास लेखन के हत-उत्साह पर कहे तो यह टरकाऊ टिप्पणी ही बनती है।

    अब आप कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे !


    हम विवेक से सहमत नहीं हैं। आप ऐसे ही कह रहे होंगे। यह सच नहीं होगा। है न!

    ReplyDelete
  21. Gyandatt Sir,

    Ap ke Dwara di gyi tippdi bhut hi achhi lgi aur apne bola tha ki ap ko nye jmane se rubru hone ka maoka milega to lijiye ap ke liye ek new blog bnaya hoon jo ap ko latest it environment se rubru krata rhega..plz read this post...

    http://latestitenvironment.blogspot.com/
    http://kamalupadhyayadministrator.blog.co.in/

    ReplyDelete
  22. किताब मे एक आदमी की आत्मा होती है जो पढने वालो से बतियाती है। कम्प्यूटर तो भूत है जिसमे सैकडो आत्माऐ वासी करती है।

    किताब के बिना न कोई ब्लोग लिख सकता है ना कम्पुटर पढ सकता है। अब सर! मुझे बताए आप जो इतना कुछ लिखते है वो सोच आती कहॉ से है ? किताबो से!

    कम्प्यूटर ज्ञान मे मोलिकता कहॉ रही है। कम्प्यूटर ज्ञान मे तो "कोन बाप-किसका बेटा " वाली बाते चरितार्थ होती है।

    आभार/शुभकामनाए

    हे! प्रभु यह तेरापन्थ
    मुम्बई-टाईगर
    SELECTION & COLLECTION

    ReplyDelete
  23. किताब सन १९९२ में फिर भी फन्नेखां चीज थी। ब्लॉग तो २००९ में बुलबुला है साबुन का! बस वन आफ्टर अदर फुलाये जाओ बुलबुले साबुन के!

    लेकिन साबुन के बुलबुले फुलाने में भी तो एक अलग मज़ा है! :)

    ब्लॉग तो फिर भी बैठे-ठाले की चीज है। दिये जायें पोस्टें। पर किताब छपाने को (पाठक की किल्लत के युग में भी) काहे बौराये रहते हैं लोग! इतना कागद की बरबादी - जो अन्तत: दीमक के हिस्से ही आनी है।

    अब तो ईबुक और ऑडियो बुक की मार्किट ज़ोर पकड़ रही है। अमेज़ॉन.कॉम ने तो बकायदा अपना ईबुक रीडर औज़ार - किन्डल निकाल रखा है; अमेज़ॉन.कॉम से ईबुक खरीदिए और किन्डल पर लोड कर पढ़िए, कहीं भी कभी भी! :) ऐसे ही ईबुक कंप्यूटर पर और मोबाइल पर भी पढ़ी जा सकती हैं। ऑडियो बुक में पढ़ने की आवश्यकता नहीं, इनका तो अनपढ़ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। किताब को पढ़ के रिकॉर्ड कर लिया जाता है और फिर उस रिकॉर्डिंग को आप वैसे ही खरीद सकते हैं जैसे फिल्मी गाने। एमपी3 को कंप्यूटर, मोबाइल, एमपी3 प्लेयर वगैरह में लोड करिए और किताब का आनंद लीजिए! :)

    लेकिन पर्सनली यही कहूँगा, इस सब के बाद भी मन परंपरागत किताबों से विमुख नहीं हुआ चाहता, जो मज़ा कागज़ पर छपी किताब को हाथ में लेकर पढ़ने में है वह और किसी में नहीं! :)

    ReplyDelete
  24. यह किताब अद्भुत है। मैंने भी पढ़ी है। इस तरह के यात्रा वृतांत हर नदी पर लिखे जा सकते, तो क्या बात है।

    ReplyDelete
  25. @ अमित जी - किंडल का देसी संस्करण कन्दील आना चाहिये ४००-५०० रुपल्ली में और हिन्दी की ई-बुक्स मिलनी चाहियें। फिर देखिये क्या पठन क्रांति होती है!
    यह गैजेट पसन्द तो आया पर १२-१५ हजार खर्च करने की श्रद्धा नहीं बन रही!

    ReplyDelete
  26. चिंता न कीजिये .किताबे छपती रही है रहेगी...पढने वाले ढूंढ ढूंढ के अपनी पसंद की पढ़ते रहेगे..आदमी नाम के जीव में काफी वैरायटी पाई जाती है ..अब देखिये आपने भी अपनी पसंद ढूंढ के पढ़ ली ......

    ReplyDelete
  27. बाकी सब तो ठीक है लेकिन बहुजन शब्द पर अभी तक किसी का कॉपीराइट नहीं है क्या? :)

    ReplyDelete
  28. ज्ञानदत्त जी

    हम जल्द ही एक वेबसाइट(www.itsindia.co.in) लॉन्च करने जा रहे हैं। देश के श्रेष्ठ ब्लागर्स उस पर लिखें, इसी संदर्भ में आपसे जुड़ाव चाहते हैं। हमारा निवेदन है कि आप हमारे लिए लिखें। आपकी स्वीकृति के इंतजार में।

    इट्स इंडिया टीम
    itsindia4u@gmail.com

    ReplyDelete
  29. ज्ञानदत्त जी

    हम जल्द ही एक वेबसाइट(www.itsindia.co.in) लॉन्च करने जा रहे हैं। देश के श्रेष्ठ ब्लागर्स उस पर लिखें, इसी संदर्भ में आपसे जुड़ाव चाहते हैं। हमारा निवेदन है कि आप हमारे लिए लिखें। आपकी स्वीकृति के इंतजार में।

    इट्स इंडिया टीम
    itsindia4u@gmail.com

    ReplyDelete
  30. किताब सन १९९२ में फिर भी फन्नेखां चीज थी। ब्लॉग तो २००९ में बुलबुला है साबुन का! बस वन आफ्टर अदर फुलाये जाओ बुलबुले साबुन के!

    लेकिन साबुन के बुलबुले फुलाने में भी तो एक अलग मज़ा है! :)

    ब्लॉग तो फिर भी बैठे-ठाले की चीज है। दिये जायें पोस्टें। पर किताब छपाने को (पाठक की किल्लत के युग में भी) काहे बौराये रहते हैं लोग! इतना कागद की बरबादी - जो अन्तत: दीमक के हिस्से ही आनी है।

    अब तो ईबुक और ऑडियो बुक की मार्किट ज़ोर पकड़ रही है। अमेज़ॉन.कॉम ने तो बकायदा अपना ईबुक रीडर औज़ार - किन्डल निकाल रखा है; अमेज़ॉन.कॉम से ईबुक खरीदिए और किन्डल पर लोड कर पढ़िए, कहीं भी कभी भी! :) ऐसे ही ईबुक कंप्यूटर पर और मोबाइल पर भी पढ़ी जा सकती हैं। ऑडियो बुक में पढ़ने की आवश्यकता नहीं, इनका तो अनपढ़ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। किताब को पढ़ के रिकॉर्ड कर लिया जाता है और फिर उस रिकॉर्डिंग को आप वैसे ही खरीद सकते हैं जैसे फिल्मी गाने। एमपी3 को कंप्यूटर, मोबाइल, एमपी3 प्लेयर वगैरह में लोड करिए और किताब का आनंद लीजिए! :)

    लेकिन पर्सनली यही कहूँगा, इस सब के बाद भी मन परंपरागत किताबों से विमुख नहीं हुआ चाहता, जो मज़ा कागज़ पर छपी किताब को हाथ में लेकर पढ़ने में है वह और किसी में नहीं! :)

    ReplyDelete
  31. Gyandatt Sir,

    Ap ke Dwara di gyi tippdi bhut hi achhi lgi aur apne bola tha ki ap ko nye jmane se rubru hone ka maoka milega to lijiye ap ke liye ek new blog bnaya hoon jo ap ko latest it environment se rubru krata rhega..plz read this post...

    http://latestitenvironment.blogspot.com/
    http://kamalupadhyayadministrator.blog.co.in/

    ReplyDelete
  32. "अव्वल तो मुझे प्रकाशक नहीं मिलेगा। प्रकाशक मिल गया तो ग्राहक नहीं मिलेगा। ग्राहक मिला तो पाठक नहीं मिलेगा। "...
    यहाँ कम से कम कोई समीर लाल मिल जाएगा जो अपने उड़न तश्तरी पर आएगा और तुरत-फुरत एक टिप्पणी फेंक जाएगा:)
    यह और बात है कि इस बार टिप्पणी लेख जैसी बड़ी हो गई है:):)

    ReplyDelete
  33. यह पोस्ट और टिप्पणियाँ पढ़ने के बाद तो मैं भी नरभसा रहा हूँ। कारण यह है कि अभी-अभी मैंने अपनी ‘ब्लॉग की किताब’ का फाइनल प्रूफ देखकर मुद्रक के हवाले किया है। एक सप्ताह में यह छपकर आ जाएगी। “ब्लॉगजगत का एक झरोखा- सत्यार्थमित्र।”
    अब भाई लोग जब ऐसी निराशावादी बातें करेंगे तो ब्लॉग साहित्य को प्रिन्ट वालों से सपोर्ट कैसे मिलेगा।

    हमारी इच्छा तो है कि इन्टरनेट का खूब प्रसार हो, यह वहाँ पहुँचे जहाँ अभी नहीं जा पाया है। पुस्तकें वहाँ पहुँचे जहाँ अभी नहीं जा पायी हैं। भारतवर्ष में अभी संचार साधनों और ज्ञान के माध्यमों के फैलने की बहुत गुन्जाइश है। ग्रामीण भारत के स्वरूप की कल्पना तो कीजिए। महानगरों में ही सबकुछ सीमित नहीं है। अभी तो करोड़ो ऐसे हैं जिनको बिजली के दर्शन नहीं हैं। अक्षर ज्ञान भी नहीं है करोड़ों को। पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें वहाँ पहुँचनी चाहिए जहाँ नेट जाने में अभी कई दशक लगेंगे। जरूरत अच्छे प्लानर्स की है। दुर्भाग्य से यह कार्य सरकारी मशीनरी के भरोसे छोड़ दिया गया है, जिसकी अपनी सीमाएं हैं।

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय