Saturday, January 17, 2009

कहां गयी जीवन की प्रचुरता?


treesFall मेरे ही बचपन मेँ हवा शुद्ध थी। गंगा में बहुत पानी था - छोटे-मोटे जहाज चल सकते थे। गांव में खेत बारी तालाब में लोगों के घर अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। बिसलरी की पानी की बोतल नहीं बिकती थी। डस्ट-एलर्जी से बचने को मास्क लगाने की तलब नहीं महसूस होती थी। बाल्टी भर आम चूसे जाते थे और इफरात में मटर की छीमी, चने का साग खाया जाता था।

एक आदमी की जिन्दगी में ही देखते देखते इतना परिवर्तन?! प्रचुरता के नियम (Law of abundance) के अनुसार यह पृथ्वी कहीं अधिक लोगों को पालने और समृद्ध करने की क्षमता रखती है।
प्रकृति के साथ हमारा जो बैंक अकाउण्ट है, उसमें … जमा बहुत कम किया गया है। यह अकाउण्ट अभी सत्यम के अकाउण्ट सा नहीं बना है, पर यही रवैया रहा तो बन जायेगा। और तब हर आदमी दूसरे को रामलिंग राजू बताता फिरेगा।

पर क्यों हांफ रही है धरती? शायद इस लिये कि पृथ्वी पाल सकती है उनको जो प्रकृति के प्रति जिम्मेदार और उसके नियमों का पालन करने वाले हों। वह लोभ और लपरवाह उपभोगवादी प्रवृत्ति से परेशान है। शायद वह मानव के विज्ञान और तकनीकी के रेकलेस यूज से  भी परेशान है।

अब भी शायद समय है; एक प्रभावी करेक्टिव कोर्स ऑफ एक्शन सम्भव है। गंगा के गंगा बने रहने और नाला या विलुप्त सरस्वती में परिणत होने से बचने की पूरी आशा की जा सकती है। मानव की लालच, शॉर्टकट वृत्ति और लापरवाही कम हो; तब।

प्रकृति के साथ हमारा जो बैंक अकाउण्ट है, उसमें से निकालने का उद्यम पिछले सौ-पचास सालों में बहुत हुआ है। इस अकाउण्ट में जमा बहुत कम किया गया है। यह अकाउण्ट अभी सत्यम के अकाउण्ट सा नहीं बना है, पर यही रवैया रहा तो बन जायेगा। और तब हर आदमी दूसरे को रामलिंग राजू बताता फिरेगा।

हम धरती को स्कैयर्सिटी मेण्टालिटी (Scarcity Mentality)  के साथ दोहन कर रहे हैं। कुछ इस अन्दाज में कि फिर मिले या न मिले, अभी ले लो! असुरक्षित और गैरजिम्मेदार व्यवहार है यह। इस मानसिकता, इस पैराडाइम को बदलना जरूरी है।  

(मैं आज यात्रा में रहूंगा। अत: टिप्पणियां पब्लिश करने में कुछ देर हो सकती है – चलती ट्रेन में नेट कनेक्शन की गारण्टी नहीं। अग्रिम क्षमायाचना।)


32 comments:

  1. आपकी पोस्ट पढने से तुंरत पहले एक अमेरिकी पत्रिका में एक शीर्षक पढा, "एनरोन को संस्कृत में क्या कहते है? (सत्यम)"
    सच है, मानव का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार और लालच ने उसकी अगली पीढियों का बहुत नुक्सान किया है.

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  2. हम धरती को स्कैयर्सिटी मेण्टालिटी (Scarcity Mentality) के साथ दोहन कर रहे हैं। -सत्य वचन!! चेतना ही होगा वरना इन्तजार की भी जरुरत नहीं-नतीजे आने ही लगे हैं. सही दिशा में चिन्तन किया है.

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  3. मुझे लगता है कि समझाने से कोई समझने वाला नहीं है !

    टक्कर लग कर ही अक्कल आ सकती है !

    प्रकृति स्वयं ही स्थिति नियंत्रित कर लेगी !

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  4. गंगा को बचाने के केन्द्रीय प्रयास भी तो शुरु हो ही गये हैं, देखिये क्या होता है? scarcity mentality - एवमेवता को बदलना तो सच में जरूरी है.

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  5. कल कल करती गंगा ,और अतिक्रमण रहित तालाब के आलावा आज भी मैं बाल्टी भर आम ,चने का साग , गन्ने का स्वाद , रस की खीर , भुने हुए आलू और मिटटी की खुशबु के साथ जीवन बिता रहे हूँ . आइये कभी वह दिन याद करने हो तो मेरे पास

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  6. सच कहा आपने -गांधी ने कहा था की धरती हमारी जरूरतों को तो पूरा कर सकती है पर लालच को नहीं ! उन्होंने शायद यह चिंतन इशोपनिषद के इस पहले श्लोक से लिया था-
    इशावास्यमिदम सर्वं यत्किंच जगत्याम जगत ,.त्येन त्यक्तेन भुंजीथा माँ गृधः कस्यस्व्द्ध्न्म !

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  7. अब भी शायद समय है; एक प्रभावी करेक्टिव कोर्स ऑफ एक्शन सम्भव है। गंगा के गंगा बने रहने और नाला या विलुप्त सरस्वती में परिणत होने से बचने की पूरी आशा की जा सकती है। मानव की लालच, शॉर्टकट वृत्ति और लापरवाही कम हो; तब।

    आपके उपरोक्त कथन से सौ प्रतिशत सहमत हूं, पर मुझे ऐसा लगता है कि आज के इन्सानों मे द्वेष और वैमन्स्य अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर इस कदर बढ गया है कि कोई इस ओर सोचेगा भी? मुझे इसमे शंका है.

    आज एक आतंकवादी घटना मुम्बई मे हुई, रिजल्ट मे पाकिस्तान ने अपनी सा्री आर्म्ड फ़ोर्सेस भार्तिय सीमा पर तैनात कर दी, और परमा्णु बम मारने की धमकी तो इस तरह दे रहे हैं जैसे गली मोहल्ले के लौण्डॆ एक दुसरे पर देशी बम मार देते हैं.

    हो सकता है आप लोग मेरी बात को मजाक या अतिरेक मे ले रहे हों, पर जब इस तरह के गैरजिम्मेदारों के हाथ मे पुरे विनाश के सामान मौजूद हों तब कब क्या हो जाये, कहना मुश्किल है.

    मैं तो ये सोच के ही कांप जाता हूं कि किसी दिन पाकिस्तान या कोई आतंकवादी ( क्योंकि अब आतंकवादियों तक परमाणु बम पहुंचना मुझे कुछ मुश्किल नही लगता ) ऐसा कर बैठा तो इस धरती का क्या मंजर होगा?

    रामराम.

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  8. इस बात को जो जानते हैं। वे भी कितनी परवाह करते हैं? लेकिन इस विषय पर जागरूकता ही नहीं कठोर सामाजिक कदमों की भी आवश्यकता है।

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  9. ज्ञान भैया क्षमा चाहता हूं कुछ दिनो गायब रहा, बहुत दिनो बाद आपको पढ रहा हूं।आपसे पूरी तरह सहमत हूं,हमने अपने लालच के लिये ही इस रत्नगर्भा वसुंधरा का सत्यानाश कर दिया है और अफ़्सोस के साथ-साथ शर्म की बात है ये लालच कम होता नज़र नही आ रहा है। छत्तीसगढ वनो के मामले मे बहुत अमीर है मगर वंहा भी अब आदमी का लालच पहूंच गया है।शहरो का हाल तो बहुत बुरा है,खासकर राज्धानी का।इसे प्रदूषण ने कारखाने या कह लिजिये भट्टी मे बदल दिया है। कारखानो का काला धूंआ छतो पर जमा होने लगा है दमे के मरीज कई गुना बढ गये हैं और क्या बताऊ पूरी एक पोस्ट ही लिखनी पडेगी। वैसे आपने आंख खोलने के लिये चिमटी तो बडी ज़ोर से काटी है लगता है कुछ लोगो की आंख ज़रुर खु्लेगी्।

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  10. हर बच्चे के साथ एक दोहनकर्ता बढ़ता है. आबादी को रोकना इसलिए भी अनिवार्य है.

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  11. कभी कभी सोचता हू की शादी के बाद बच्चा नही करे.. क्या फ़ायदा उन्हे ऐसी दुनिया में लाने से..

    शायद कभी लोग समझ पाए इस बात को..

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  12. aapka post padha..bahut hi sahi baatein likhi hai aapne....

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  13. प्रकृति के साथ हमारा जो बैंक अकाउण्ट है, उसमें से निकालने का उद्यम पिछले सौ-पचास सालों में बहुत हुआ है। इस अकाउण्ट में जमा बहुत कम किया गया है। यह अकाउण्ट अभी सत्यम के अकाउण्ट सा नहीं बना है, पर यही रवैया रहा तो बन जायेगा। और तब हर आदमी दूसरे को रामलिंग राजू बताता फिरेगा।
    बिल्‍कुल सही कहा आपने।

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  14. न जाने कब लोगों को ये बात समझ आएगी ।

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  15. पांडे जी, नमस्कार.
    आपके इस पोस्ट के जवाब में मैं कोई टिप्पणी नहीं दूंगा. इन बातों से मन खिन्न हो जाता है.

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  16. हाँ जी बात तो सही है, पर लोग समझें तो बात बने!

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  17. इन सब बातो के लिये हमेशा हम सरकार को ही कोसते है.... सफ़ाई नही करती बगेरा बगेरा... लेकिन हम इतना गन्द डलते ही क्यो है??? मेने छोटे होते तालाब का पानी भी पीया है . नदी का पानी भी पीया, ओर अब बोतल का पानी पीते भी डर लगता है...
    हम सब ने कोई सडक नही छोडी, कॊइ तालाब नही छोडा कोई नदी नही छोडी,कोई झील नही कोई पहाड नही छोडा जहां हम गन्द ना डाल कर आये, तो फ़िर भुगतना भी हम लोगो ने ही है.
    सब से पहले अपनी आदत बनाये सफ़ाई रखने की, फ़िर जो भी गन्द डाले उसे टोके... गावं ओर मोहले मै एक पंचायत बनाये जो अपने आसपास सफ़ाई का धयान रखे, जो गंदगी डाले उसे समझाये, ओर जुर्माना लगये.
    धन्यवाद

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  18. आज ट्रेकिंग में निकला पूरा दिन, उसी दौरान पहाड़ पर पहुच कर हरे चने ख़रीदे गए. सामने से एक जोड़ी गुजरी और लड़के ने लड़की से सवाल किया: 'ये लोग झाड़ में से क्या खा रहे हैं?' इस बात पर हम पूरे दिन हँसे. और इस अफ़सोस रहा की उसका डाउट क्लियर कर देना चाहिए था.

    फिर एक राजस्थान के कलिग हैं उन्होंने बताया की कैसे इसे जलाकर खाते थे बचपन में. अब बाकियों को तो पता नहीं था लेकिन मैंने बताया की हमने भी खूब खाया है और हम इसे 'होरहा' कहते हैं तो उन्होंने भी बताया की उनके यहाँ भी यही कहते हैं... बस 'र' की जगह 'ल' हो जाता है बस. 'होरहा' तो दूर हरे चने भी हमसे उम्र में बड़े लोगों के लिए 'झाड़ का कुछ' होकर रह गए हैं.

    पता नहीं ये टिपण्णी कितनी प्रासंगिक है पर आपकी इस लाइन 'बाल्टी भर आम चूसे जाते थे और इफरात में मटर की छीमी, चने का साग खाया जाता था। ' से याद आ गया.

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  19. हमी लोगो ने खोयी है विकास की अंधी दौड़ में !

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  20. धरती हमारी माँ है जो हमारा लालन पोषण करती है और जीवन प्रदान करती है . यदि धरती माँ की अस्मिता से खिलवाड़ लगातार होता रहा तो एक दिन उसका खामियाजा सभी को भोगने पड़ेंगे. धन्यवाद्.

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  21. सुख और शान्ति से जीने की चाह में हम कुछ ज्यादा प्रगति कर गये हैं यूज़ और थ्रो की बाजारू सोंच तक। कहते हैं यह वैज्ञानिक सोंच का परिणाम है, वह भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की वैज्ञानिक अवधारणा? विज्ञान से आगे एक वस्तु ज्ञान भी है यह बैकवर्ड़ सोंच बतायी जाती है। अब भी न सँभले तो सिरजनहार ही धूम धड़ाके से सबको थ्रो कर देगा।

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  22. ज्ञान जी आप अपने समय की बात कर रहे हैं? मुझे तो अपने बचपन और आज में ही बहुत फ़र्क़ नज़र आता है. मेरे बचपन में दिल्ली तक में सर्दियों में खिली धूप आती थी, गर्मियां सिर्फ़ २-३ महीने की होती थीं. खूब पानी बरसता था. गाँव में छोटी और बड़ी नदियों में बहुत पानी होता था और अब छोटी नदी को लापता हुए ही १५ साल हो चुके हैं, बड़ी का हाल नहीं मालूम. आगे बढ़ने की प्रतियोगिता में हमनें जनसँख्या कम करने के नारे को भी भुला दिया, यह सोचकर कि जितने ज़्यादा लोग उतना ज़्यादा उपभोग और जितना ज़्यादा उपभोग उतना ज़्यादा व्यापार और मुनाफा. पृथ्वी का क्या होगा यह कल पर टाला जा रहा है. हम ज़रूर इसका मूल्य चुकायेंगे.

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  23. आज इस लेख में एक गंभीर समस्या को प्रस्तुत किया गया.
    प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद नहीं होगा तो शायद एक दिन पानी और अनाज के लाले पड़ जायेंगे.
    कुदरत किसी को नहीं बख्शती.इंसान को समय रहते संभलना चाहिये.

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  24. बताइये आपके बुलाये पर आये और आप दिख ही नहीं रहे हैं। जबकि लोग आपके ब्लाग पर टिपियाने में लगे हैं।

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  25. कोई भी शुरुआत खुद से ही करनी पडती है। 'दूसरा शुरु करे' इसी प्रतीक्षा में हम इस दशा में आ गए हैं।
    लिखने का जमाना गया। अब तो करने का और कर लेने के बाद ही लोगों को कहने का क्षण सामने खडा है।

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  26. हम अपनी अगली पीढ़ि‍यों के लि‍ए बंजर धरती छोड़कर जा रहे हैं। आदमी भस्‍मासुर बनने पर आमादा है।

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  27. अति हो जाती है, तब नये रास्ते बनते हैं। संतुलन का मानवीय वृत्ति से रिश्ता शायद है नहीं। धीमें धीमे लोग जग रहे हैं। भारतवर्ष मूलत एक कुंभकर्ण है, बहुत देर तक सोता है। जगने में दशकों लग जाते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है जी। हमारे नाती पोते देखेंगे बेहतर भारत, बेहतर नदियां।

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  28. हिन्दू धर्म प्रकृति से तादात्म्य की शिक्षा देता है.(ऐसा कहने पर मुझे साम्प्रदायिक भी करार किया जा सकता है.) लेकिन हम उस शिक्षा को अपने जीवन में उतार नहीं पाते.पश्चिम की अंधी नकल और गांधी के विचारों का तिरस्कार भी प्रकृति से तादात्म्य न बिठा पाने का एक कारण है,

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  29. हिन्दू धर्म प्रकृति से तादात्म्य की शिक्षा देता है.(ऐसा कहने पर मुझे साम्प्रदायिक भी करार किया जा सकता है.) लेकिन हम उस शिक्षा को अपने जीवन में उतार नहीं पाते.पश्चिम की अंधी नकल और गांधी के विचारों का तिरस्कार भी प्रकृति से तादात्म्य न बिठा पाने का एक कारण है,

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  30. अति हो जाती है, तब नये रास्ते बनते हैं। संतुलन का मानवीय वृत्ति से रिश्ता शायद है नहीं। धीमें धीमे लोग जग रहे हैं। भारतवर्ष मूलत एक कुंभकर्ण है, बहुत देर तक सोता है। जगने में दशकों लग जाते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है जी। हमारे नाती पोते देखेंगे बेहतर भारत, बेहतर नदियां।

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  31. सुख और शान्ति से जीने की चाह में हम कुछ ज्यादा प्रगति कर गये हैं यूज़ और थ्रो की बाजारू सोंच तक। कहते हैं यह वैज्ञानिक सोंच का परिणाम है, वह भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की वैज्ञानिक अवधारणा? विज्ञान से आगे एक वस्तु ज्ञान भी है यह बैकवर्ड़ सोंच बतायी जाती है। अब भी न सँभले तो सिरजनहार ही धूम धड़ाके से सबको थ्रो कर देगा।

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  32. इन सब बातो के लिये हमेशा हम सरकार को ही कोसते है.... सफ़ाई नही करती बगेरा बगेरा... लेकिन हम इतना गन्द डलते ही क्यो है??? मेने छोटे होते तालाब का पानी भी पीया है . नदी का पानी भी पीया, ओर अब बोतल का पानी पीते भी डर लगता है...
    हम सब ने कोई सडक नही छोडी, कॊइ तालाब नही छोडा कोई नदी नही छोडी,कोई झील नही कोई पहाड नही छोडा जहां हम गन्द ना डाल कर आये, तो फ़िर भुगतना भी हम लोगो ने ही है.
    सब से पहले अपनी आदत बनाये सफ़ाई रखने की, फ़िर जो भी गन्द डाले उसे टोके... गावं ओर मोहले मै एक पंचायत बनाये जो अपने आसपास सफ़ाई का धयान रखे, जो गंदगी डाले उसे समझाये, ओर जुर्माना लगये.
    धन्यवाद

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय