मैं लियो टॉल्सटॉय (१८२८-१९१०) की मेरी मुक्ति की कहानी पढ़ रहा था। और उसमें यह अंश उन्होंने अपने समय के लेखन के विषय में लिखा था। जरा इस अंश का अवलोकन करें। यह हिन्दी ब्लॉगरी की जूतमपैजारीय दशा (जिसमें हर कोई दूसरे को दिशा और शिक्षा देने को तत्पर है) पर सटीक बैठता है -
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मैने इस धोखेबाजी (लेखकगणों के असदाचार और दुश्चरित्रता) को समझ कर छोड़ चुका था। पर मैने उस पद-मर्यादा का त्याग नहीं किया था जो इन आदमियों ने मुझे दे रखी थी – यानी कलाकार, कवि और शिक्षक की मर्यादा। मैं बड़े भोले पन से कल्पना करता था कि मैं कवि और कलाकार हूं। और हर एक को शिक्षा दे सकता हूं। यद्यपि मैं स्वयम नहीं जानता था कि मैं क्या शिक्षा दे रहा हूं। और मैं तदानुसार काम करता रहा।इन आदमियों के संसर्ग में मैने एक नई बुराई सीखी। मेरे अन्दर यह असाधारण और मूर्खतापूर्ण विश्वास पैदा हुआ कि आदमियों को शिक्षा देना मेरा धन्धा है। चाहे मुझे स्वयं न मालूम हो कि मैं क्या शिक्षा दे रहा हूं।
उस जमाने की और अपनी तथा उन आदमियों की (जिनके समान आज भी हजारों हैं) मनोदशा याद करना अत्यन्त दुखदायक, भयानक और अनर्गल है। और इससे ठीक वही भावना पैदा होती है जो आदमी को पागलखाने में होती है।
उस समय हम सबका विश्वास था कि हम सबको जितनी बोलना, लिखना और छपाना मुमकिन हो, करना चाहिये। यह मनुष्य के हित में जरूरी है। … हम एक दूसरे की न सुनते थे और सब एक ही वक्त बोलते थे; कभी इस ख्याल से दूसरे का समर्थन और प्रशंसा करते थे कि वह भी मेरा समर्थन और प्रशंसा करेगा। और कभी कभी एक दूसरे से नाराज हो उठते थे, जैसा कि पागलखाने में हुआ करता है।
… अर हम सब लोग शिक्षा देते ही जाते थे। हमें शिक्षा देने का काफी वक्त तक नहीं मिलता था। हमें इस बात पर खीझ रहती थी कि हमपर काफी ध्यान नहीं दिया जा रहा। … हमारी आंतरिक इच्छा थी कि हमें अधिक से अधिक प्रशंसा और धन प्राप्त हो। इस लिए हम बस लिखते चले जाते थे। हममें यह मत चल पड़ा कि … हम सब आदमियों से अच्छे और उपयोगी हैं। अगर हम सब एक राय के होते तो यह मत माना जा सकता था। पर हममेंसे हरएक आदमी दूसरे के विरोधी विचार प्रकट करता। … हममें से हर एक अपने को ठीक समझता था।
आज मुझे साफ साफ मालुम होता है कि वह सब पागलखाने सी बातें थीं। पर उस समय मुझे इसका धुंधला सा आभास था और जैसा कि सभी पागलों का कायदा है; मैं अपने सिवाय सब को पागल कहता था।
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अब आप वर्तमान दशा से तुलना कर देखें; क्या टॉल्सटॉय हम लोगों की छद्म दशा का वर्णन नहीं कर रहे!
मुझे एक वैकल्पिक रोजगार के रूप में बैंगन बेचने का टिप मिला है! टिप अंग्रेजी में है – एगप्लाण्ट बेचने को।
![eggplant_ghostbuster small eggplant_ghostbuster small](http://lh3.ggpht.com/gyandutt/SPo7LoaOu3I/AAAAAAAADk4/qN_cU3lTb3g/eggplant_ghostbuster%20small_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800)
कम ही लोग बिन मांगे एम्प्लॉयमेण्ट सलाह पा जाते होंगे। इस मन्दी के आसन्न युग में रोजगार के विकल्प की सोच भी व्यक्ति को सुकून दे सकती है - वह सुकून जो उत्कृष्टतम लेखन भी नहीं दे सकता।
उत्तरोत्तर आर्थिक तनाव के चलते लोग ब्लॉग/लेखनोन्मुख होंगे अथवा विरत; इसका कयास ही लगाया जा सकता है। अत: रोजगार की सलाह को ब्लॉगीय सफलता माना जाये! कितना ख्याल रखते हैं लोग जो अपना समय व्यर्थ कर चाहते हैं कि मैं अपनी ऊर्जा सार्थक काम (सब्जी बेचने में) लगाऊं।
अनूप शुक्ल जी ने कहा है कि मैं धन्यवाद दे दूं इस सलाह पर। सो, यह धन्यवादीय पुछल्ला है।
खैर, बैंगन की एक प्रजाति घोस्टबस्टर एगप्लॉण्ट है जिसका चित्र मैने सस्कत्चेवान विश्वविद्यालय (University of Saskatchewan) की साइट से उठाया है। आप भी देखें।
श्री सतीश यादव जी की टिप्पणी -
ReplyDeleteआपका कमेंट लिंक काम नहीं कर रहा, सो ई मेल से ही कमेंट भेज रहा हूँ।
टॉल्सटॉय और हिन्दी ब्लॉगरी का वातावरण
टॉल्सटॉय के लेखनी से ब्लॉगजगत की तुलना करते हुए आपने फणीश्वरनाथ रेणू
के बारे मे एक घटना याद दिला दी।
फणीश्वरनाथ रेणू अपने एक लेखकीय मित्र को मजे लेने के लिये हमेशा एक
महिला प्रशंसक के रूप मे चिट्ठी भेजा करते थे( उस समय किसी के पास महिला
प्रशंसक होना लेखकों के लिये बहुत बडी बात मानी जाती थी) और जब भी
चिट्ठी मिलती, वह लेखक महोदय फणीश्वरनाथ रेणू के पास आकर बताते कि देखो
मुझे इस महिला ने प्रशंसा पत्र भेजा है, वो मेरी फैन है और ईधर
फणीश्वरनाथ रेणु मजे लेते हुए कहते.....जियो गुरू....तुम तो कद्दावर
निकले.....और साथ ही मुँह छुपाकर हँसते भी रहते...। बाद मे खुद ही रेणु
ने दोस्तों के बीच यह पोल खोल दी कि वही हैं इस चिट्ठी के लेखक और महिला
प्रशंसक......बाद मे सभी लेखकगण इस मजेदार वाकये पर खूब हँसे और चुटकी
लिये।
कुछ यही मजेदार हाल यहाँ ब्लॉगजगत मे भी देखने मिल रहा है जहाँ कि
फर्जी प्रोफाईल बनाकर लोग अपनी ही प्रशंसा आदि भी करते जाते है लेकिन
यहाँ सबसे दुखद बात ये है कि फर्जी चिट्ठी लिखने वाला भी वही है, पढने
वाला भी वही है और दूसरों को पढाने वाला भी वही है......यहाँ का
फर्जीवाडा सात्विक मजे लेने के लिये नहीं है बल्कि छीछालेदर और एक दूसरे
को नीचा दिखाने के लिये किया जा रहा है। उम्मीद है जैसे-जैसे ब्लॉगजगत
परिपक्व होगा, ये फर्जीवाडा कम होगा।
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और मैने कमेण्ट बॉक्स को पॉप-अप विण्डो वाला कर दिया है।
मेरी ई-मेल टिप्पणी को त्वरित प्रकाशित करने के लिये धन्यवाद। पहले फॉलो-अप टिप्पणीयाँ नहीं मिल पाती थी, आपके इस सेटिंग्स से शायद वह मिलने लगें।
ReplyDeleteइतना सोचा नहीं जाता, दरअसल समझा नहीं जाता और समय भी नहीं है। मुझे लगता है इस तमाम जूतमपैजारीयता और फ़र्जीवाड़े के बीच काफी संजीदा लोग आज भी मौजूद हैं। मैं ब्लोगिंग को लेकर संजीदगी के शैशवकाल में ही हूँ और देख रहा हूँ कि मेरी पोस्ट्स पर कमेंट्स लगातार घटते जा रहे हैं क्योंकि एक दूसरे को खुजाने वाली व्यवस्था के विपरीत मैं कम ही ब्लोग्स पर जाता हूँ और टिप्पणी तो और भी कम करता हूँ।
ReplyDeleteटॉल्सटॉय वाली बात तो हिन्दी सिनारियो पर हमेशा से फ़िट बैठती आई है, ब्लोग हो चाहे विशुद्ध साहित्यिक महफ़िल।
टॉल्सटॉय ने एक ऐसा सच लिखा है जो मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति है।
ReplyDeleteआप पहले भी बहुत चीजों का व्यवसाय कर चुके हैं, तो घोस्टबस्टर को भी जरूर बेच लेंगे।
"यह हिन्दी ब्लॉगरी की जूतमपैजारीय दशा (जिसमें हर कोई दूसरे को दिशा और शिक्षा देने को तत्पर है) पर सटीक बैठता है -"
ReplyDeleteआपने हालत को बिल्कुल नब्ज से पकडा है ! और मैं मानता हूँ की टालस्टाय से ज्यादा गंभीर दशा अभी यहाँ पर है ! अब दुसरे मुद्दे पर :-
जिस तरह की टिपणी आई है ! मैंने उस लिंक पर जाकर देखा है वहा शायद तुरत फुरत ब्लॉग बनाकर कमेन्ट किया है ! आज भी वहा कुछ नही है ! शायद कमेन्ट के लिए ही ब्लॉग बना होगा ! कुल ३१ विजिट वहाँ है और वो भी शायद आपकी इस पोस्ट की वजह से ! मेरा सवाल ये है की क्या इन बेनामी कमेंट्स पर ध्यान देकर अपनी लय ख़राब करना चाहिए ?
मेरा साहित्य या लेखन से कोई रिश्ता नही है ! कभी कभार पढ़ भले ही लेता हूँ पर लिखने का भ्रम नही है ! मैं तो जो जी में आया उठा कर अपनी भाषा में ठोक देता हूँ , आपकी भाषा में ठेल देता हूँ ! मैंने पढा है की मुंशी प्रेमचंद जी को भी जीते जी कभी वो सम्मान नही मिला जो आज प्राप्त है ! और कहीं पर ये भी पढा था की हर योग्य कवि,लेखक यहाँ तक की अवतार भी अपने समय से पहले पैदा हो जाते हैं ! और उनका आकलन उनके जाने के बाद ही होता है !
इस ब्लागारीय विधा में आपका क्या योगदान है और आपका लेखन का स्तर क्या है ? ये कोई बेनामी आदमी तय नही कर सकता ! ये तय करने का हक़, एक हद तक आपके पाठक और बाक़ी समय करेगा ! आपने जो समय और श्रम ब्लॉग जगत में दिया है उसका पुरस्कार ये बेनामी लोग नही दे सकते ! ज्ञानजी मैंने जब ब्लॉग शुरू किया था तब एक बेनामी सज्जन ने मुझे
माँ-बहन की गालियाँ टिपणी स्वरुप दी थी ! अगर समीर जी नही होते तो मैं शायद आज आप लोगो के बीच ही नही होता ! मैंने तो टिपणी अलाऊ करना ही बंद कर दिया था ! हमारा एक निजी ग्रुप है उसी के लिए ये हरयाणवी में लिखना शुरू किया था ! और उस ग्रुप के लोग आज भी फोन द्वारा ही कमेन्ट करते हैं ! वो तो समीर जी ने मुझे मेल कर कर के खुलवाया की भाई हमसे क्या नाराजी है ? आज भी मैं बेनामी कमेन्ट की टिपणी पब्लिश ही नही करता ! चाहे वो प्रसंशा में ही क्यूँ ना हो ! अब ये पता नही ग़लत है या सही ! आप वरिष्ठ जन इस बारे में कोई व्यवस्था दे तो अच्छा रहेगा !
मेरा मानना है की बेनामी टिपणी आती ही निजी खुंदक या दिमाग के दिवालियेपन की वजह से है और ये ब्लॉगर का मनोबल कमजोर करती हैं ! मेरा सवाल है की क्या इन को पब्लिश किया जाना चाहिए ? अथवा ध्यान दिया जाना चाहिए ?
मेरी निजी राय इस पर ना में है !
भलेही मालूम नहो के क्या शिक्षा दे रहा हूँ मगर देना है यह स्वाभाविक है /अपने अक्ल और दूसरों का पैसा ज़्यादा दिखता ही है =आपको शोले फ़िल्म की याद होगी "" बसन्ती उर्फ़ हेमा मिलिनी या हेमामालिनी उर्फ़ बसन्ती कटी हैं "" हमें समझाना तो खूब आता है और समझा भी सकते है मगर हमें मालूम तो होना चाहिए के समझाना क्या है =""
ReplyDeleteमानुष बड़ा ही दानी प्राणी है और जब कोई सामने -सामने अपने से सलाह नहीं लेता तो वो ब्लाग के ज़रिये दे देता है |
ReplyDeleteसरसरी निगाह (ब्लाग पर सब यही करते हैं , ज्ञान भाई ...) से लेख पढने का प्रयत्न किया , कुछ समझ में नही आया ! " क्या लिखा है इससे तो कटहल वाला अच्छा था ...क्या कमेंट्स दूँ ...फिर शुरू से पढ़ रहा हूँ ...
ReplyDelete"मेरे अन्दर यह असाधारण और मूर्खतापूर्ण विश्वास पैदा हुआ कि आदमियों को शिक्षा देना मेरा धन्धा है। चाहे मुझे स्वयं न मालूम हो कि मैं क्या शिक्षा दे रहा हूं।"
बहुत बढ़िया लेख लिखा है ज्ञान भाई, कई बार चंद "बेस्ट सैलर" किताबें पढ़ कर, उनके उद्धरण देते विद्वान्, यहाँ ब्लाग जगत में विदुर और केशव को सिखाते देखे जा सकते हैं !
आभार !
पढ़कर इस समानता पर आश्चर्य हुआ भी और नहीं भी. हुआ इसलिए कि जिन दो विधाओं में यह समानता है ve समय, स्थान व तकनीक इन तीनों में एक दूसरे से काफी दूर हैं. आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अपने बिरादरों को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ.
ReplyDeleteयह हिन्दी ब्लॉगरी की जूतमपैजारीय दशा (जिसमें हर कोई दूसरे को दिशा और शिक्षा देने को तत्पर है)
ReplyDeleteज्ञानजी पहली बात तो यह कि मेरी समझ में किसी को दिशा और दशा देने की तत्परता को जूतम पैजार कहना सही नहीं है।
दूसरी बात यह कि मेरी समझ में बावजूद तमाम अप्रिय स्थितियों के हिंदी ब्लागिंग की स्थिति जूतम पैजार की बिल्कुल नहीं है। अगर ऐसा होता तो हर तरफ़ टिप्पणियों में जूते ही जूते चलते। कुछ लोगों की तल्ख टिप्पणियों के कारण सारे ब्लागजगत को जूतम पैजार मय मान लेना मेरे हिसाब से कहीं से सही नहीं है।
यह कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति है कि दुखी रहने वाला हर जगह अपने दुख का इंतजाम कर ही लेता है। आलोचना और खिंचाई को अगर जूतम पैजार मानते हैं तब कोई बात ही नहीं! आपका ही ब्लागिंग में जो तथाकथित पर्सोना निखरा/बदला उसके लिये जूतम पैजार जिम्मेदार है या ब्लाग जगत का सौहार्द पूर्ण व्यवहार?
चूंकि आपने इस बात को आत्मविकास से जोड़ के लिखा है किसी व्यंग्य के तहत नहीं इसलिये यह टिप्पणी लिख रहा हूं कि आपकी इस जूतम पैजार वाली बात से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं! आपकी स्थापना एकांगी और भ्रामक है और हिंदी ब्लाग जगत की गलत तस्वीर पेश करती है।
बाकी टालस्टाय जी की बात सही है। दुनिया और ब्लाग जगत में बहुत कुछ वही हो रहा है जो आपने उनके माध्यम से बताया लेकिन हम उसको जूतम पैजार मानने की बात से सहमत नहीं हो पाते! क्या करें?
बेनामी टिप्पणी का यह फायदा है :) हम जान पाते हैं कि आदमी के अन्दर वह कौन से घटिया तत्व हो सकते हैं जो वह स्वयं भी दूसरों के सामने उद्घाटित करने से गुरेज करता है, अपनी इमेज बचाने के लिए; क्यों कि छिपकर बात करना ही यह सिद्ध करता है कि वह खुद ही इसे घटिया बात मान चुका है।
ReplyDeleteयदि यह सुविधा नहीं होती तो हम इस ज्ञान से वञ्चित रह जाते:)
@ अनूप शुक्ल -
ReplyDeleteआपने दूसरी तरह सोचने की बात रखी है। जितनी समग्रता से आप ब्लॉगजगत को देखते हैं, उसका अंश मात्र भी मैं नहीं करता। अत: अपने को सही मानने की जड़ता नहीं करूंगा।
लेकिन, खैर लेकिन को छोड़ा जाये; हमने तो डिस्कशन ओपन किया है, टॉल्सटॉय के बहाने। शेष पाठक कहें।
आप पहले ही भारी पड़ रहे थे अब तोलस्ताय को पकड़ लाने की क्या जरुरत थी.
ReplyDeleteखैर अब आप घोस्ट बस्टर ("जी" नही बैगन ) बेचने जाएँ तो अच्छी बात है शायद सब्जी बाजार में भी सफल हो लें.
इस मंदी के दौर में सबसे सुकून से हम जैसे बेरोजगार ही हैं कोई क्या खा के लेगा अपना रोजगार
नए रोजगार में कुछ फायदा हो तो सलाहकारों को धन्यवाद और टिप्पणीकारों को टिप जरूर दीजियेगा
हम कई बार कह चुका हूं कि लेखक अपनी बेशर्मी के सहारे ही लेखक होता है किसी वाह वाह टिप्पणी या जूतापेलू टिप्पणी से निरपेक्ष लेखक ही लांग इनिंग खेलता है। आप चिंता ही ना करो। लिखे जाओ। ऐसा हमेशा होता है, जूते भी चलते हैं, फूल भी मिलते हैं।मां बहन भी होती है। क्या केने क्या केने भी होती है। हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों ने एक दूसरे को मलाहारी तक कहा है। और नयों ने नहीं, पुरानों ने, जिन्हे हम भौत आदरणीय मानते हैं। हर दौर में लुच्चापन टुच्चापन हरामीपन पालिटिक्स मौजूद रही है। अपने पे है क्या ग्रहण किया जाये। जो है यही है। लिखना है, तो इसी में लिखना है। जमे रहिये, कूड़े को ना देखिये.
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगरी की जूतमपैजारीय दशा (जिसमें हर कोई दूसरे को दिशा और शिक्षा देने को तत्पर है) पर सटीक बैठता है
ReplyDeleteसे सहमत हूँ . पर कभी कभी किसी की तानाशाही या मनमर्जी से जूतमपैजार की स्थिति निर्मित हो जाती है .
ज्ञानजी,
ReplyDeleteदेख रहा हूँ कि आपके पोस्ट छोटे होते जा रहें हैं और बदले में टिप्पणियाँ लंबी होती जा रही हैं।
श्री सतीश यादव जी की टिप्पणी जिसमें फणीश्वरनाथ रेणू की शरारत के बारे में जिक्र था, पढ़कर मज़ा आ गया।
कई साल पहले धर्मयुग पत्रिका में एक लेख छ्पा था साहित्यकार जैनेन्द्र जैन के बारे में। उन्होंने कहा था के सफ़ल साहित्यकार को पत्नि के अलावा एक प्रेमी की जरूरत हैं। बवाल मच गया था उस समय इस लेख पर. सोच रहा हूँ क्या आज अच्छे मर्द ब्लॉग्गरों को महिला प्रशंसक की आवश्यकता है?
देख रहा हूँ कि ब्लॉग जगत में भी मर्द महिलाओं की तरफ़ आकर्षित हो रहे हैं! मर्द ब्लॉगगर को एक महिला प्रशंसक मिलने पर ज्यादा खुशी होती है। और सभी बातें बराबर होने पर, महिलाओं के ब्लोग पर हिट्स ज्यादा हो रहे होंगे।
सतीश यादवजी ने फ़र्जी प्रोफ़ाइल की बात की। क्या पता ब्लॉग जगत में कितने तथाकथित महिला ब्लॉग्गर असल में महिला हैं? "ता" के स्थान पर "ती" लिखने से कोई भी महिला बन सकता है और हिट्स बढ़ जाएंगे। पर एक खतरा अवश्य है। गुमनाम और अवाँछित टिप्पणी भी मिल सकती हैं और असली महिला ब्लॉग्गरों का परेशानी हो सकती है।
ताऊ रामपुरियाजी की लंभी टिप्पणी भी ध्यान और रुचि के साथ पढ़ा।
इस मामले में मेरी नीति साफ़ है।
अनाम/गुमनाम ब्लोग्गरों को मैं पढ़ता नहीं हूँ।
मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि ब्लॉग्गर कौन है, कहाँ रहता है, उम्र क्या है, पेशा क्या है और वह पुरुष है या महिला। बाकी सभी विवरण लेखों से धीरे धीरे पता चल जाता है। यदि उसकी तसवीर भी देखने को मिले तो और भी अच्छा । अवश्य मुझसे तो ज्यादा सुन्दर होंगे। पर यह अनिवार्य नहीं। ब्लॉग के स्तर/गुणवत्ता/विषय पर यह निर्भर होता है कि उस ब्लॉग को पढ़ता रहूँ या छोड़ दूँ।
बदले में मैं अपने बारे में कुछ नहीं छुपाता। कई ब्लॉग मित्रों को अपने बारे में बहुत कुछ बता चुका हूँ। जो मेरे बारे में व्यवसाय संबन्धी और कुछ निजी विवरण जानना चाहते हैं इस कड़ी पर जा सकते हैं।
http://groups.yahoo.com/group/Hindi-Forum/message/468
मेरी राय में दो अंजान व्यक्तियों के बीच ब्लॉग के माध्यम से पक्के और स्थायी रिश्ते नहीं जुड़ सकते जब तक वे एक दूसरे के बारे में नहीं जानते।
महेन जी ने लिखा है
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मेरी पोस्ट्स पर कमेंट्स लगातार घटते जा रहे हैं क्योंकि एक दूसरे को खुजाने वाली व्यवस्था के विपरीत मैं कम ही ब्लोग्स पर जाता हूँ और टिप्पणी तो और भी कम करता हूँ।
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शास्त्रीजी और समीर लालजी इसके विप्रीत, कईओं के ब्लॉग्स पढ़ते हैं और टिप्पणी भी करते हैं। केवल गुणवत्ता काफ़ी नहीं है। शायद यह भी कारण है कि उनके पाठक और टिप्पणीकार इतने ज्यादा मिलते हैं।
मुझे इस समस्या से जूझना नहीं पढ़ता। चिट्ठाकारी छोड़कर अब केवल औरों के चिट्ठे पढ़कर टिप्पणी करना मेरा नया शौक बन गया है।
ताऊ रामपुरिया ने गुमनाम टिप्पणीकारों का जिक्र किया।
मेरी राय में:
आने दीजिए इन गुमनाम टिप्पणणियों को भी।
कभी कभी तो मज़ेदार भी होते हैं। अवश्य यदि कुछ बेहूदा/असभ्य शब्दों का प्रयोग करते हैं तो मिटा देना चाहिए। पर गुमनामी पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए।
विवेक गुप्ताजी कहते हैं
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मानुष बड़ा ही दानी प्राणी है और जब कोई सामने -सामने अपने से सलाह नहीं लेता तो वो ब्लाग के ज़रिये दे देता है |
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देने दीजिए! निषुल्क उपदेश पर क्या आपत्ति हो सकती है?
इस सन्दर्भ में अंग्रेज़ी में एक पुराना quotation पेश है।
Sometimes, free advice is worth exactly what it costs. Nothing.
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यह टिप्पणी भी लंबी हो गई। जिम्मेदार आप हैं
आप ज्यादा लिखिए, हम लघु टिप्पनी करेंगे।
शुभकामनाएं
ही ही ही.... ये तो सचमुच हम सभी ब्लॉगरों की मुक्ति का तॉल्सतायी महाआख्यान है...
ReplyDeleteज्ञान जी सलाह देने के तो पेसे नही लगते ,इस लिये हम सब सलाह बिन मागे ही दे देते है,हमारे यहां एक कहावत है कि भारत का हर दुसरा आदमी एक वेद्ध( डा० ) है, कोई सी भी बिमारी की बात कर लो सलाह देने वाले सब जगह मिल जायेगे....
ReplyDeleteधन्यवाद
तोलस्ताय इसी लिए तोलस्तोय हैं क्यूँ वे काल जई हैं...वे अपने समय के अलावा आगे का भी देख समझ सकते हैं...उनका वर्णन या नाम पढ़ सुन कर अच्छा लगा...
ReplyDeleteनीरज
अनूप शुक्ल न भी कहते तो धन्यवाद तो शिष्टाचारवश आपको देना ही चाहिये था. ऐसी सलाहें सबके नसीब में नहीं. :)
ReplyDeleteशुभकामनाऐं कभी इस नए वेन्चर में लगें तो उसके लिए.
वैसे यह पोस्ट भी ब्लागरो को शिक्षा देने वाली बात हो गयी (मेरी टिप्पणी भी )।ऐसे विषय मे यह मात्र दो लोगो के बीच की बात हो सर्वथा वयक्तिगत।
ReplyDeleteइस बारे मे बोलकर हम सभी अपने को उसी द्वंद मे बांधते है जिसमे वह विवाद बंधा है।इसका उपाय मौन है पुर्णतः मौन और कुछ नही !!
Mr TOLSTOY is an Institution by himself -
ReplyDeleteWhat he says may be correct in his age & for his co -writers. but my view Re: BLOG Writing is it is more like "self expression " ..
I look @ the world with the eyes of a child & wonderment & share whatever i find interesting.
बाबा की बात तो प्रासंगिक है इसमें दो राय नहीं... बाकी भंटा बेचना भी कौनो बुरा काम थोड़े है, सुना है बीच में घास छीलन/बेचन का भी एक सुझाव था ... बड़े शुभचिंतक हैं आपके :-)
ReplyDeleteबॉस बाकी बात पे बाकी लोगों ने ध्यान दिया और अपने विचार रखे। उन बातों पर विचार रखने लायक मैं तो अपने को मानता ही नहीं। नन्हा सा मुन्ना सा जो ठहरा ;)
ReplyDeleteलेकिन जो मैं महसूस कर रहा हूं वो यह कि आप का पर्सोना इस ब्लॉग ने बदला तो बदला ही। लेकिन आप की आज की यह पोस्ट तो इस बात को एकदम ही सत्य साबित कर रही है कि आप एकदम ही खांटी ब्लॉगर हो गए हो। वो ऐसे कि जो आदमी टॉलस्टॉय के लिखे को वर्तमान ब्लॉगजगत से रिलेट कर ले अर्थात उसके दिमाग में 24 से 18 घंटे ब्लॉगजगत ही चलायमान रहता है, मतलब यह कि वह एक खांटी ब्लॉगर हो गया है।
क्या ख्याल है दद्दा ;)
टाँल्सटाय के व्याज से आपनॆ जो कहा वह उचित और स्वाभाविक ही है।बहुधा हम मनुष्यों में पशु प्रवृत्तियों की बात करतें हैं,किन्तु क्या हम कभी पशुओं मे मानुषी प्रवृत्तियों की बात करते हैं?हर गाय सींग नहीं चलाती,हर कुत्ता कटखना नहीं होता,शेर हर समय खानें पर उतारु नहीं रहता और यहाँ तक कि हर गधा दुलत्ती नहीं चलाता।
ReplyDeleteतात्पर्य यह कि मनुष्य में अन्य जीवों की तुलना में बुद्धि का विकास विशेष है,इसीलिए वह हर समय बुद्धि से ही देखता और व्यवहार करता है।इस अतिशय बुद्धिवाद नें मनुष्य की सहजता का हरण कर लिया है जबकि पशु कहे जानें वाले जीव सहज/स्वभाव में ही जीते हैं।
महाभारत से पहले का जितना साहित्य मिलता है अपवाद में एक आध को छोड़कर किसी में भी रचनाकार का नाम नहीं मिलता,कारण? अधिकांश यह मानकर लिखते थे कि वह उपलब्ध साहित्य का ही आख्यान,व्याख्यान,उपाख्यान या समाख्यान कर रहें है और क्योंकि जब वेदकार नें नाम नहीं दिया तो हम अपना नाम क्यों दें।
आज स्थिति विपरीत और विचित्र है।जो विषय को जानता है और जो नहीं जानता है सभी विद्वान कहलाना और प्रशंसा पाना चाहते हैं युग प्रवृत्तियों को देखते हुए यह उतना बुरा भी नहीं कहा जा सकता।
किन्तु अपनें ही धर्म दर्शन संस्कृति सभ्यता और इतिहास को जानें बिना जो उदारवादी प्रगतिशील साम्यवादी समाजवादी सेक्युलर आदि जब अनर्गल अपमानकारी भाषा का प्रयोग कर कुछ लिखते हैं तो वैसी ही घटिया प्रतिक्रियाओं का आना भी स्वाभाविक है।जहाँ तक नास्तिकों की बात है तो बिना अस्ति के नास्ति हो ही नहीं सकता इतना भी यह बकवादी नहीं समझते।
कुछ ब्लागर बन्धुओं और टिप्पड़ीकारों को अनामी टिप्पड़ियों पर अत्यधिक आपत्ति है क्यों?आप ब्लागर हैं और सुरक्षा कवच(माडरेशन आदि) के अन्दर बैठ कर जैसा चाहे अल्लम गल्ल्म लिखें जैसे चाहें सनातन वैदिकआर्य धर्म जिसे आज हिन्दू के नाम से जाना जाता है को गाली बकें और कोई आप पर ऊँगली भी ना उठाये? जो लोग क्लास लेस सोसाइटी का गाना गाते नहीं अघाते वह ब्लागर्स को एक क्लास क्यों बनाना चाहते हैं?
कुल बात इतनी है कि अगर हम हिंसा द्वेष रागादि भावों से रहित होकर लिखते हैं तो आनें वाली टिप्पड़ियों को भी उतनी ही सहजता से लेंगे किन्तु जब हम उक्त द्वन्द्वों से ग्रसित होंगे तो टिप्पड़ियाँ भी अरुचिकर लगेंगी।मेरे मत में ऎसे बैरियर हिन्दी ब्लाग की दुनियाँ के फलक को न केवल संकीर्ण बनाएँगे वरन् एक नये प्रकार के क्लास को जन्म देंगे जो शायद ‘हम’ नहीं चाहते।
ज्ञान जी ब्लाग महिनों से पढ़ रहा हूँ किन्तु टिप्पड़ी करनें का दुःसाहस पहली बार कर रहा हूँ। एक बात और कहना चाहता हूँ यह टिप्पड़ी आप के लेखन पर नहीं टिप्पड़ीकारों पर की गयी टिप्पड़ी पर है और सभी को मेरी बात से असहमत होनें का संवैधानिक अधिकार है। सुमन्त मिश्र
मन को लिक्वीड बना देनेवाली सॉलिड पोस्ट। हम सबको आत्म-मंथन करने की जरूरत।
ReplyDeleteसुमन्त मिश्राजी,
ReplyDeleteआप से विनम्र अनुरोध है कि आप बार बार यहाँ आकर टिप्पणी करें।
यह आपका "दुस्साह्स" नहीं होगा। उल्टा, हम सब अपने आप को धन्य समझेंगे।
शुभकामनाएं
bahut khub,dimag ko khurak mili
ReplyDeleteयह सब निजी ईमानदारी का मामला है । अनाम बनकर आत्म प्रशंसा करने वाले और दूसरों की छिछालेदारी में आनन्द अनुभव करने वाले जल्दी ही थक जाएंगे । ये पब्लिक है, सब जानती है ।
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी और विश्वनाथ जी आप दोनों के क्रमशः पोस्ट और टीप हिन्दी ब्लॉग जगत के वर्तमान दशा को लेकर सजगता से रखी गई बातें हैं. टालस्टाय की सोच, जूतमपैजार की स्थिति और इन पर आयी जबरदस्त टिप्पणी ने इस पोस्ट को एक विचारमंच का रूप ही दे दिया. अनाम टीपाकारों के लिए मनाही या प्रतिबन्ध से मैं सहमत नहीं हूँ यदा कदा ये टीपाकार कुछ ब्लोगर्स पर अघोषित सेंसर का भी काम करते हैं. और फ़िर वह टीप ही तो सकता है. बाकी का अधिकार तो हमारे हाथों होता है. इसलिए ......! ब्लोगिंग की दशा पर इस तरह के जब जब विचारोत्तेजक पोस्ट आयेंगे. मत भिन्नता भी सामने आएगी, लेकिन इसी में से एक अविकल धारा भी निकलेगी. चलने दीजिये जब और कहीं मन न लगे तो अपने से जुड़े बातों पर ही व्यंग्य कर हँस लेना चाहिए.
ReplyDeleteदुर्भाग्यवश आपने जो कहा,यह स्थिति चिरकालिक थी, है और रहेगी.लेकिन विशेष रूप में यह वहां होगी जहाँ ज्ञान उथला होगा.लोग आत्म्विवेचना से अधिक अन्य की आलोचना में निरत होंगे और आत्मविमुघ्द्ता के शिकार होंगे.
ReplyDeleteज्ञान जी, आपका हर आलेख कोई न कोई नया विषय पकड लाता है. यही कारण है कि मेराथन टिप्पणियों के मामले में "हलचल" को कोई "हिला" नहीं सकता है.
ReplyDeleteमुझे लगता है कि थोडीबहुत जूतमपैजार चल रही है, लेकिन इसे बर्दाश्त किया जा सकता है. लेकिन अधिकतर चिट्ठाकार इस चक्कर में नहीं पडे है.
-- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)