Wednesday, September 10, 2008

प्रगति का लेमनचूस


साल भर पहले मैने पोस्ट लिखी थी - पवनसुत स्टेशनरी मार्ट। इस साल में पवन यादव ने अपना बिजनेस डाइवर्सीफाई किया है। अब वह सवेरे अखबार बेचने लगा है। मेरा अखबार वाला डिफाल्टर है। उसके लिये अंग्रेजी के सभी अखबार एक समान हैं। कोई भी ठेल जाता है। इसी तरह गुलाबी पन्ने वाला कोई भी अखबार इण्टरचेंजेबल है उसके कोड ऑफ कण्डक्ट में! कभी कभी वह अखबार नहीं भी देता। मेरी अम्मा जी ने एक बार पूछा कि कल अखबार क्यों नहीं दिया, तो अखबार वाला बोला - "माताजी, कभी कभी हमें भी तो छुट्टी मिलनी चाहिये!"

लिहाजा मैने पवन यादव से कहा कि वह मुझे अंग्रेजी का अखबार दे दिया करे। पवन यादव ने उस एक दिन तो अखबार दे दिया, पर बाद में मना कर दिया। अखबार वालों के घर बंटे हैं। एक अखबार वाला दूसरे के ग्राहक-घर पर एंक्रोच नहीं करता। इस नियम का पालन पवन यादव नें किया। इसी नियम के तहद मैं रद्दी अखबार सेवा पाने को अभिशप्त हूं। अब पवन सुत ने आश्वत किया है कि वह मेरे अखबार वाले का बिजनेस ओवरटेक करने वाला है। इसके लिये वह मेरे अखबार वाले को एक नियत पगड़ी रकम देगा। अगले महीने के प्रारम्भ में यह टेक-ओवर होने जा रहा है।

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अखबार और दूध जैसी चीज भी आप मन माफिक न ले पाये। अगर पोस्ट से कोई पत्रिका-मैगजीन मंगायें तो आपको पहला अंक मिलता है - वी.पी.पी छुड़ाने वाला। उसके बाद के अंक डाकिये की व्यक्तिगत सम्पत्ति होते हैं। अमूल तीन प्रकार के दूध निकालता है - पर यहां पूरा बाजार घूम जाइये, सबसे सस्ता वाला टोण्ड मिल्क कहीं नहीं मिलेगा। शायद उसमें रीटेलर का मार्जिन सबसे कम है सो कोई रिटेलर रखता ही नहीं।

आपकी जिन्दगी के छोटे छोटे हिस्से छुद्र मफिया और छुद्र चिरकुटई के हाथ बन्धक हैं यहां यूपोरियन वातावरण में। खराब सर्विसेज पाने को आप शापित हैं। चूस लो आप प्रगति का लेमनचूस।   


25 comments:

  1. जबलपुर में हामरे यहाँ भंगन तक का इलाका फिक्स है..बाकी तो क्या कहें!!

    चूस लो आप प्रगति का लेमनचूस।

    --चूसने के सिवा विकल्प क्या है, इस पर भी तो अपना ज्ञान प्रकाश डालिये.

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  2. अरे वाह.....क्या बात है....एकदम लेमनचुसई पोस्ट....मुम्बईया मे कहूँ तो रापचीक पोस्ट :)

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  3. यह कमजोरी हमारी न्याय व्यवस्था कमजोर होने के कारण है। जनता को उस का हिसाब हमारे अभिनेताओं से मांगना चाहिए।

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  4. बढ़िया. पंच लाइन हमेशा की तरह जबरदस्त.

    आपने अख़बार वाले की बात की. मैंने तो सुना है कि भिखारियों में भे इसी तरह इलाकों की बंटवार की जाती है. मुंबई जैसे शहर में इलाके बेचे और खरीदे जाते हैं. एक भिखारी, दूसरे के इलाके में जाकर भीख नहीं मांग सकता.

    और सफाई कर्मचारियों का भी इसी तरह का हिसाब होता है. एक बार जरूरत पड़ने पर हमने सरकारी महकमे से एक स्वीपर को बुलवा लिया. इसका पता चलते ही अचानक कहीं से एक स्वीप्रेस जी प्रकट हो गयीं और झगड़े पर उतारू हो गयीं. उन्हीं से पता चला कि हमें उन्होंने, पूरे मुहल्ले के समेत पाँच हजार रुपए में खरीद लिया है और अब हम कोई अन्य स्वीपर से काम नहीं ले सकते.

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  5. .

    आह्ह.. बिल्कुल सही पकड़, एकदम सटीक ब्लागिंग सब्जेक्ट !
    भुक्तभोगी हूँ, पर इतनी छोटी छोटी बातों पर ध्यान क्यों नहीं जाता.. मेरा ?
    मैं तो ओबामा की चिंता में, पिरिक की सफ़लता असफ़लता और ममता
    टाटा के मिज़ाज़ को टटोलता हुआ शेष हुआ जा रहा था ।
    बहुत ही अच्छी पोस्ट, इसी को कहते है... गुरु होना । अंक देने का मुझे
    कोई अधिकार नहीं, पर एक दिलख़ुश पोस्ट !

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  6. पाशविक वृति इन्सान मेँ पनप रही है -
    शेर, बाघ,
    बिल्लियाँ ( गाँव व शहरोँ मेँ )
    और हाथी भी जँगलोँ के ईलाके बाँटे रहते हैँ !
    हम तो अखबार मँगवाते ही नहीँ अब -
    रद्दी का बवाल नहीँ -
    वैसे भी यहाँ पेपर वेस्ट
    अपरिमित मात्रा मेँ होता देख
    दुख होता है ~
    -लावण्या

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  7. आपकी पैनी नजरो से ये बात बच नही पाई ! हम सभी इसके
    भुक्त भोगी हैं ! और भिखारी , दूध , सब्जी , अखबार वाले
    इन सबने एक तरह का पका समझोता कर रखा है !
    समीर जी ने भंगन की बात करी है ! मैं भी करूंगा !
    पर डरता हूँ कही मर्यादावादियो का शिकार ना बनना
    पड़े ?:)

    हमारे यहाँ पहले कभी घरों में भंगने मैला साफ़ करने
    आया करती थी और आप जिस की हदबंदी में आ गए
    हैं वो चाहे सफाई करे या ना करे ,आप दूसरी को
    काम पर नही रख सकते थे ! और तीन पाँच का तो
    सवाल ही नही ! अब तो व्यवस्थाए बदल गई हैं !

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  8. यह प्रगति का लेमनचूस नहीं ज्ञान जी ,यह छुटभैयों की दादागीरी है बस !

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  9. अखबार वालों के लिए भी MRTPC का दरवाज़ा खटखटाने का समय आ गया क्या? मतलब - अगर आज की प्रलय में पैदा होने वाले कृष्ण छिद्रों (black holes) से ज़िंदा बच पाए तो.

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  10. "तो आपको पहला अंक मिलता है - वी.पी.पी छुड़ाने वाला। उसके बाद के अंक डाकिये की व्यक्तिगत सम्पत्ति होते हैं।"
    वाकई ! रीडर्स डाइजेस्ट यही होते कभी नही मिलती !

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  11. बाकायदा मुहल्ले बंटे हुए हैं जी। सफाई कर्मचारियों के इलाके बंटे हुए हैं। कोई और एंटर नहीं कर सकता। सफाई वालियां तो बहुत ज्यादा आक्रामक हैं। हफ्तों हफ्तों गायब। एक बार मैंने खुद ही घर का कूड़ा बड़े कूड़ेदान में डालने का निश्चय किया। सफाई कर्मचारिन की सेवा भंग कर दी। मेरी देखा देखी मुहल्ले के दस परिवारों ने भी यही किया। सफाई कर्मचारिन ने मुझे बाकायदा देखने की धमकी दी। बाद में उसे पता नहीं कैसे पता चला कि मैं कुछ प्रेस रिपोर्टर टाइप हूं, उसके बाद उसने मुझे धमकाना बंद कर दिया।
    इनका सिर्फ एक इलाज है कि सामूहिक तौर पर पड़ोसियों, मुहल्लेवालों को आर्गनाइज करके इनसे निपटा जाये। वरना ये तो बदतमीजी की हद तक आक्रामक होने को तैयार हैं।

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  12. केबल वालो के इलाके बँटे हुए है, प्रतियोगिता के अभाव में भाव आसमान छुने लगे, मन मर्जि बढ़ गई तो डिस टीवी लगा ली.

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  13. सही कहा आपने,चाहे अनचाहे प्रगति के लेमनचूस को चूसने को बाध्य हैं हम सभी.एक तरह से सही भी है सिर्फ़ नेता अफसर ही इलाकों को मिल बाँट कर क्यों दोहन करते रहें,भंगी धोबी दूधवाले और इस तरह के लोग क्यों पीछे रहें.महाजनः येन गतः सह पन्था.......ये लोग तो मात्र बड़े लोगों का अनुकरण कर रहे हैं..

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  14. मैं तो पोस्ट से मंगाने वाला था... ये अच्छी बात पता चली. अब कोई और विकल्प ढूँढना पड़ेगा.

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  15. क्या कहें, दुखती रग छेड़ दी है आपने, वाकई सर्विस घटिया ही मिलती है चाहे जिसको देख लो। यह सब मोनोपोलिस्टिक वातावरण के कारण होता है, जहाँ एक से अधिक विक्रेता हैं तो वे अपनी यूनियन बना लेते हैं और वहाँ भी मोनोपली हो जाती है ग्राहकों को प्रताणित करने के लिए। :(

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  16. मुझे एक खुशगवार काम सौंपा गया था। जो मैंने पूरा कर लिया है। कृपया मेरे व्‍लॉग कच्‍चा चिट्ठा पर जायें वहॉं आपके लिये एक तोहफा है।

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  17. आपका हर लेख मुझे ग्वालियर के बीते दिनों की याद दिला देता है -- साथ में लेमनचूस भी!!



    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    -- हिन्दी चिट्ठा संसार को अंतर्जाल पर एक बडी शक्ति बनाने के लिये हरेक के सहयोग की जरूरत है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)

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  18. सही बात है। ये छुद्र माफिया और छुद्र चिरकुटई वाले तत्‍व हर जगह हैं। ब्‍लॉगजगत भी उससे अछूता नहीं। लेकिन किया भी क्‍या जा सकता है। जीना यहां, मरना यहां।
    पिछली पोस्‍ट में भाभीजी का लेखन बेहतरीन है। प्रवाहमयी भाषा में हास्‍य-व्‍यंग्‍य की हल्‍की छौंक पढ़ने का जायका बढ़ा देती है। उनके लेखन से अब आप के ट्यूब में 50 प्रतिशत एक्‍स्‍ट्रा आ गया है, बधाई :)

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  19. एक बात है, बहुत इमानदारी है इस बाटांइ में भी..

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  20. hamare jabalapur ka haal "udanatashtari ji ne bata diya hai so ab kahane ko kuch raha hi nahi hai. sabaki apni apni chouhaddi(ilake) niyat hai

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  21. जो अखबार आपको कल मिले उसमें जरा आप देख के बताइयेगा कि समीरलाल के टंकी से उतरने की कथा है कि नहीं!

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  22. अब मुझे तो डर हे लोग अब बांलाग पर भी ना घेरा बंदी कर ले टिपण्णी देने के लिये , फ़िर यहां भी दादा गिरी शुरु ना हो जाये यहां से ले कर वहा तक आप कए बलांग, वहा से ले कर तहा तक नारियो की हकुमत...
    राम राम

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  23. उपभोक्‍ताओं के असंगठित और व्‍यस्‍त होने के कारण्‍ा ही यह स्‍िथति बनती है । इससे बचाव का कोई रास्‍ता हाल-फिलहाल तो नजर नहीं आता ।

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  24. राज भाटिया जी, मुझे तो एक ब्लॉगन (अहा! नया शब्द!) की इस टाइप की धमकी मिल भी चुकी है। “फलानी आपकी पोस्ट पर टिप्पणी नहीं करतीं तो आपभी वहाँ न करें... आदि”

    गुरुदेव, मुझे सिद्धार्थनगर में दो हॉकर्स के बीच मारपीट कराने का आरोप सहना पड़ा था। अनियमित और देरसे अखबार देने वाले को जब मैने मना करके सुबह सड़क पर सबसे जल्दी दिखायी देने वाले हॉकर को तय कर लिया तो पहले वाले ने उसे अगले ही दिन पीट दिया। बाद में मुझे दोनो को बिठाकर समझौता कराना पड़ा। दूसरे वाले ने मेरे बदले अपना एक अन्य ग्राहक पहले के हवाले किया तब जाकर मामला शान्त हुआ।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय