Tuesday, April 22, 2008

रेगुलरहा सुकुल ने दिया फेयरवेल


एक लम्बी कद-काठी के साठ वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति को गोरखपुर की रेलवे कॉलोनी में रोज सवेरे शाम घूमते देखता था। एक ही चाल से। हर मौसम में। कड़ाके की ठण्ड में भी। कोहरा इतना घना होता था कि तीन चार मीटर से ज्यादा दिखाई न दे। मैं अपने गोलू पाण्डेय (मेरा दिवंगत कुत्ता) के साथ घूमता था। कोई अन्य व्यक्ति न होता था सड़क पर।

लीची के पेड़ के नीचे रेगुलरहा की रसोंई
अचानक विपरीत दिशा से यह सज्जन आते दीखते और गुजर जाते। महीनों तक कोई बातचीत न थी। पर घूमने वाले के रूप में पहचान हो गयी थी। वे सैर में नियमित थे - अत: नाम रख दिया गया - रेगुलरहा| कभी पत्नी जी साथ न घूमतीं तो घर आने पर पूछतीं - आज रेगुलरहा थे या नहीं? और रेगुलरहा लगभग रोज होते थे।

अचानक रेगुलरहा गायब हो गये। महीनों न दिखे। अप्रैल में वैशाखी भी निकल गयी। एक दिन अकस्मात दिखे - उल्टी तरफ से आते हुये। मुझसे रहा न गया। सड़क क्रॉस कर उनसे नमस्कार कर बोला - क्या बात है जी, बहुत दिन से दिखे नहीं? रेगुलरहा को अपेक्षा नहीं थी कि जाना-अजनबी अचानक बात कर उठेगा। बोले - "हां जी, गांव गया था। फसल तैयार हो रही थी। काम निपटा कर कल ही वापस लौटा हूं"। तब बात में पता चला कि उनका नाम था सत्यनारायण शुक्ल। रेलवे के ही कर्मचारी थे। सिगनल वर्कशॉप से रिटायर हुये। उन्होने बताया "वे मेरे बारे में जानते हैं। मेरे घर-परिवार की जानकारी है। वे रेलवे की यूनियन से भी सम्बद्ध रह चुके हैं, और उस समय भी उसका काम करते हैं"। अब हमारे लिये वे रेगुलरहा से रेगुलरहा सुकुल हो गये!
रेगुलरहा सुकुल
रेगुलरहा सुकुल
रेगुलरहा सुकुल
रेगुलरहा सुकुल का दाल-बाटी आयोजन


एक छोटी सी बात करने की पहल एक नये सम्बन्ध को जन्म देती है। हम रोज दुआ-सलाम करने लगे। रेगुलरहा यूनियन के आदमी थे, सो सम्बन्ध बनाना और उसका उपयोग करना उन्हें आता था। कालान्तर में मेरा गोरखपुर से स्थानान्तरण हो गया था। सामान लगभग बंध चुका था। रेगुलरहा सुकुल अपनी रिटायर्ड लोगों की मण्डली के साथ मेरे घर पर आये। उन्होने लीची के पेड़ के नीचे दाल बाटी बनाने का काम किया। भोजन बना कर रेगुलरहा की मण्डली ने एक दो भजन गाये। फिर हम सबने कमरे में फर्श पर भोजन किया।

मेरे ही घर पर मेरा फेयरवेल! रेगुलरहा जैसे असामान्य से थे, वैसा ही अलग-अलग सा फेयरवेल था उनके द्वारा। अब उस सब को तीन साल होने जा रहे हैं। रेगुलरहा सुकुल की याद अब भी आती है।

आपको भी मिले होंगे ऐसे रेगुलरहा सुकुल?

1. और बस, आलोक पुराणिक जी ने कहा है कि ऐसी संस्मरणात्मक पोस्टें बुढ़ापत्व की ओर ले जाती हैं। सो इस तरह का लेखन बन्द।

2. Blogger in draft के माध्यम से आप अपनी पोस्टें आप शिड्यूल कर पोस्ट कर सकते थे। वे भविष्य में नियत समय पर पब्लिश हो रही थीं। पर उनसे BlogSend की ई-मेल जेनरेट नहीं हो रही थी। अब यह समस्या भी दूर हो गयी है। आज पहली बार ब्लॉगर इन ड्रॉफ्ट के माध्यम से मेरी सवेरे 5:00 बजे पब्लिश्ड पोस्ट की ई-मेल प्रति मुझे अपने ई-मेल पते पर मिली। मैने ब्लॉगर ड्रॉफ्ट के ब्लॉग से देखा तो पाया कि वास्तव में उन्होने इस बग को रिपेयर कर लिया है। - यह पुछल्ला सवेरे 6:05 पर जोड़ा।

20 comments:

  1. Regulhara jee se milker khushee huee -- aise sansmaran likhte rahiyega Gyan bhai sahab .

    ReplyDelete
  2. भईया
    आप के संस्मरणों में साधारण व्यक्तियों में छिपा असाधारण तत्त्व नजर आता है. सच है ऐसे लोग जीवन में नयी उर्जा का संचार करते हैं.जमीन से जुड़े लोगों की विलक्षण बातें बताने के लिए शुक्रिया.
    नीरज

    ReplyDelete
  3. यह फेयरवेल तो सबसे अच्छा।

    ReplyDelete
  4. रेगुलरहा सुकुल क्या नाम निकाला है आपने। अच्छा है। वैसे, हर इंसान अपने में एक इतिहास-भूगोल समेटे हुए चलता है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलते-जुलते रहना चाहिए। लेकिन क्या करूं. मैं ऐसा कर नहीं पाता। स्वभाव से लाचार हूं।

    ReplyDelete
  5. जमाये रहियेजी।
    संस्मरण लिखना अच्छी बात है, पर 95 सौ की उम्र के बाद सोचना चाहिए कि अब आधी जिंदगी जी चुके, तब शुरु करें।
    57 साल की उम्र बाली उमरिया कोई संस्मरण लिखने की है क्या। ये तो संस्मरण योग्य कर्म करने की है।
    जमाये रहियेजी।

    ReplyDelete
  6. ज्ञान जी हम कहे दे रहे हैं कि किसी सावंत के प्रशंसकों के बहकावे में मत आईये । संस्‍मरणों की चटाई बिछाए रहिए । हम आपके संस्‍मरणों की पुस्‍तक की भी बाट जोहने लगे हैं । उड़नतश्‍तरी से कवर डिज़ायन करवाएंगे या फिर पंगेबाज़ से । और दिल्‍ली से छपवाएंगे । बेस्‍टसेलर बनेगी आपकी बुक ।

    ReplyDelete
  7. ये आलोक पुराणिक हमेश उल्‍टी- पुल्‍टी बाते करता रहता है. इसकी बातों को गंभीरता से मत लेना, इसके झांसे में मत आना जी, आप संस्‍मरण लिखते रहिए. इनसे प्रेरणा मिलती है.

    ReplyDelete
  8. भई अपन ने तो कई महीने पहले ही कहा था आपके वो मंघाराम एंड संस के बिस्किट वाले पोस्ट पे कि काहे आप धीर-धीरे सरक रहे हो बुढ़ापे की ओर, तब अपना भी यही आशय था जो आलोक जी का।

    बाकी रेगुलरहा सुकुल ने जो आयोजन किया ऐसे आयोजन एक अलग ही खुशी दे जाते हैं!
    भगवान बस ऐसे आदमियों को बनाना बंद न करे!

    ReplyDelete
  9. हम सब के अन्दर यह व्यक्तित्व छिपा है। जब भी ऐसे संस्मरण पढते है मन मे भाव जागते है कि इस तरह भी जीया जाये। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  10. ऐसे लोग और इतना आत्मीय फेयरवेल-वाह!! यह तो आपकी यादों में हमेशा रचा बसा रहेगा.

    ReplyDelete
  11. अरे आप तो खामखाह डर गए... ये बुढापा और पोस्ट का क्या सम्बन्ध? और अगर कोई सम्बन्ध है भी तो डरना क्या? अरे एक दिन तो आना ही है... वैसे भी आपने ही कहीं टिपण्णी की थी...

    वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
    तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ||

    तो फिर बुढापत्व की तो ऐसी की तैसी ... लिखते रहे... हमें भी तो सीखने को मिलना चाहिए?

    ReplyDelete
  12. ऐसा निराला और आत्मीयता से भरा फेयरवेल तो शायद ही किसी का हुआ होगा।
    और क्या नाम छांट कर रखा।

    ReplyDelete
  13. किसी ने भी शीर्षक की ओर ध्यान नहीं दिया है जी !
    "रेगुल हरा " और "रेगुल रहा" फ़र्क को स्पष्ट करिये जी

    ReplyDelete
  14. कोटा में तो हर काम में कत्त-बाफला हो जाता है। रेगुलरहाओं को दाल-बाटी के अलावा कुछ पसन्द नहीं।

    ReplyDelete
  15. @ कमलेश मदान - हरा नहीं, रहा ही है जी। सही कर दिया। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  16. ये आपने अपने फेअरवेल के बहने रेगुलरहा टाईप की पोस्टों का फेअरवेल क्यों कर दिया जी. अलोक जी की बातों को तो उनके छात्र भी सीरीयसली नही लेते आप ने कहाँ दिल पर लेली? संस्मरण लिखते रहिये प्लीज़

    ReplyDelete
  17. aap budape se na dariye aor puranik ji har bat ko na mana kijeye ......aise lekh likhte rahiye....

    ReplyDelete
  18. ऐसे लोगों से फ़िर मिलना आनंन्ददायक रहेगा.

    ReplyDelete
  19. hum to subah sair karney vaalon ko aisey pehchaantey hain---VO HARI PANT VAALEY BHAYIYA,VO GIRTI PADTI AUNTY......:}

    ReplyDelete
  20. आज तो जी आप की पोस्ट के बहाने आलोक जी की पिटाई हो गयी,"काहे ऐसी अगड़म बगड़म सलाह देते हो, है?", हा हा , कीर्तीश भट्ट जी की टिप्पणी सब से ज्यादा मजेदार रही। रेगुलर रहा सुकुल नाम सच में बहुत क्रिएटिव नाम है। आप की बात गांठ बाँध रही हूँ कभी कभी ऐसे ही छोटी छोटी बात कर लें राह चलते लोगों से, क्या पता कब फ़ेयरवैल की घड़ी आ जाए और इनकी जरुरत पड़ जाए॥:)
    लीची का पेड़ इत्ता बड़ा होता है? हम तो सोचे थे छोटी सी झाड़ी होती होगी। पकंज जी कहां है जरा इस पर कुछ प्रकाश डालिए भई वनस्पति के बारे में हम शहरियों की जानकारी तो माइनस में होती है।
    ज्ञान जी ये तो आप भी जानते हैं कि आप के ब्लोग पर बहुत ही मजेदार टिप्पणीयां आती हैं क्युं न हर हफ़्ते की सबसे मजेदार टिप्पणी को बेस्ट टिप्पणी के खिताब से नवाजा जाए। जज हम पाठकों में से होने चाहिए- दो, एक नर और एक नारी…:) नारी तो फ़िक्स है जो आइडिया दे उसका पहला हक्क, है न? जज आप हर तीन महीने में चैंज कर सकते हैं। बड़िया experiment रहेगा। आप की क्या राय है?…:)

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय