Friday, February 1, 2008

हिन्दी ब्लॉगिंग क्या साहित्य का ऑफशूट है? - री पोस्ट


बहुत सी समस्यायें इस सोच के कारण हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग साहित्य का ऑफशूट है। जो व्यक्ति लम्बे समय से साहित्य साधना करते रहे हैं वे लेखन पर अपना वर्चस्व मानते हैं। दूसरा वर्चस्व मानने वाले पत्रकार लोग हैं। पहले पहल, शायद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में पत्रकारिता भी साहित्य का ऑफशूट थी। वह कालांतर में स्वतंत्र विधा बन गयी। मुझे हिन्दी इतिहास की विशेष जानकारी नहीं है कि साहित्य और पत्रकारिता में घर्षण हुआ या नहीं। हिन्दी साहित्य में स्वयम में घर्षण सतत होता रहा है। अत: मेरा विचार है कि पत्रकारिता पर साहित्य ने वर्चस्व किसी न किसी समय में जताया जरूर होगा। मारपीट जरूर हुई होगी। 

वही बात अब ब्लॉगरी के साथ भी देखने में आ रही है। पर जिस प्रकार की विधा ब्लॉगरी है अर्थात स्वतंत्र मनमौजी लेखन और परस्पर नेटवर्किंग से जुड़ने की वृत्ति पर आर्धारित - मुझे नहीं लगता कि समतल होते विश्व में साहित्य और पत्रकारिता इसके टक्कर में ठहरेंगे। और यह भी नहीं होगा कि कालजयी लेखन साहित्य के पाले में तथा इब्ने सफी गुलशन नन्दा छाप कलम घसीटी ब्लॉग जगत के पाले में जायेंगे।

चाहे साहित्य हो या पत्रकारिता या ब्लॉग-लेखन, पाठक उसे अंतत उत्कृष्टता पर ही मिलेंगे। ये विधायें कुछ कॉमन थ्रेड अवश्य रखती हैं। पर ब्लॉग-लेखन में स्वतंत्र विधा के रूप में सर्वाइव करने के गुण हैं। जैसा मैने पिछले कुछ महीनों में पाया है, ब्लॉगलेखन में हर व्यक्ति सेंस ऑफ अचीवमेण्ट तलाश रहा हैअपने आप से, और परस्पर, लड़ रहा है तो उसी सेंस ऑफ अचीवमेण्ट की खातिर। व्यक्तिगत वैमनस्य के मामले बहुत कम हैं। कोई सज्जन अन-प्रिण्टएबल शब्दों में गरिया भी रहे हैं तो अपने अभिव्यक्ति के इस माध्यम की मारक क्षमता या रेंज टेस्ट करने के लिये ही। और लगता है कि मारक क्षमता साहित्य-पत्रकारिता के कंवेंशनल वेपंस (conventional weapons) से ज्यादा है!

मैं यह पोस्ट (और यह विचार) मात्र चर्चा के लिये झोँक रहा हूं। और इसे डिफेण्ड करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वैसे भी अंतत: हिन्दी ब्लॉगरी में टिकने का अभी क्वासी-परमानेण्ट इरादा भी नहीं बना। और यह भी मुगालता नहीं है कि इसके एडसेंस के विज्ञापनों से जीविका चल जायेगी। पर यह विधा मन और आंखों में जगमगा जरूर रही है - बावजूद इसके कि उत्तरोत्तर लोग बर्दाश्त कम करने लगे हैं।

क्या सोच है आपकी? 



 

21 comments:

  1. मेरे तकनीकी चूक से यह पोस्ट दो बार पोस्ट हो गयी। लिहाजा एक बार डिलीट किया। यह रीपोस्ट यह झन्झट दूर करने के लिये है कि "पेज नॉट फाउण्ड" का मैसेज न दिखे। दो कमेण्ट पिछली बार की पोस्टिंग पर हैं। उन्हें मैं यहां दे रहा हूं-
    श्री अरविन्द मिश्र -
    निश्चय ही ब्लाग अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम बना है ,यह कालजई होगा या फिर कूड़े के ढेर मी जा पहुचेगा यह मामला भी अगले कुछ ही साल मे तय हो जायेगा. फिलहाल यह साहित्य के ही विशाल फलक पर एक टिमटिमाता बिन्दु है ,पर पूरी तरह तकनीकी के भरोसे .इसके अपने खतरे भी हैं -एक केबल क्या कटा है ,अभिव्यक्ति पर शामत आ गयी है ,किसी के लिए गूगल बाबा को ठंडक लग गयी है तो कोई अपने मनपसंद चिट्ठों का दीदार नही कर पा रहा है -बड़े खतरे हैं इस राह में .
    और एक विनम्र निवेदन -आप के तेजी से भागते ब्लॉग रोल [या रेल ]मे कई डिब्बे छूट गए हैं -क्या वे कूड़ा माल डिब्बे हैं ?
    श्री दिनेशराय द्विवेदी -
    ब्लॉग और साहित्य दोनों भिन्न हैं। इन की तुलना नहीं की जा सकती। वैसे ही जैसे अखबार और पुस्तक की नहीं की जा सकती। अखबार में पुस्तक को प्रकाशन मिल सकता है लेकिन पुस्तक में अखबार नहीं। पुस्तक व्यक्तिगत सुविधा नहीं है, लेकिन ब्लॉग है। ब्लॉग में कुछ भी डाल सकते हैं। उन में साहित्य भी होगा, चित्रकारी भी होगी, दर्शन भी होगा। साहित्य बिना प्रकाशन के भी रह सकता है, साहित्यकार की डायरी में बन्द। लेकिन ब्लॉग तो है ही प्रकाशन उस पर आप कुछ भी प्रकाशित कर सकते हैं। यही कारण है कि अब एग्रीगेटरों को उन्हें श्रेणियों में बाँटना पड़ रहा है। अभी यह तय करने में समय लगेगा कि वास्तव में ब्लॉग है क्या?

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  2. आई टोटली डिसएग्री. ब्लॉग किसी भी पुरानी वस्तु का ऑफशूट नहीं है. हाँ, यह उनका पूरक अवश्य है. भूल तब होती है जब ब्लॉग और अन्य पारंपरिक चीजों से तुलना करते हैं या उसका विकल्प मान लेते हैं.

    जिस दिन लोगों की यह धारणा साफ हो जाएगी, ब्लॉगों से पूर्वाग्रह मुक्त हो जाएंगे और फिर हर किस्म की सामग्री से किसी को कोई परहेज नहीं रहेगा और न ही सारोकार.

    पर ये बात भी तय है कि गुणवत्ता और गंभीरता लिए ब्लॉग ही आगे चल निकलेंगे नहीं तो दस हजार हिन्दी ब्लॉगों की संख्या होने दीजिए, फिर देखिए...

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  3. हिंदी ब्लॉगिंग हमारे समाज की दबी हुई अभिव्यक्तियों के विस्फोट का माध्यम बन रहा है। यह अंग्रेजी की ब्लॉगिग से कई मायनो में भिन्न है। साहित्य से इसका कोई टकराव नहीं है, बल्कि यह तो साहित्यकारों को ताजा अनुभूतियों का ऐसा विशद कच्चा माल दे रहा है, जिसके दम पर वो 24 घंटे का पूरा कारखाना चला सकते हैं।

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  4. मेरे लिये पहले डायरी थी,आज ब्लॉग है..…भावों व विचारो का संग्रह...per iskii apni limitations hain...haalaanki PODCAST aadi vidhao.n ne blogging ko bahut rochak banaa diyaa hai

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  5. 15 फरवरी 2004 को मैने अपना पहला ब्लोग बनाया था और 18 फरवरी 2004 को जो पहली पोस्ट लिखी थी वो इसी बात पर लिखी थी कि आखिर ब्लोग क्या है, आप इसे ही हमारी टिप्पणी समझिये, 4 साल तो हो ही गये ब्लोगिंग करते आगे देखते हैं...

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  6. देखिये जी हमे नही पता कि आप अपने लेखन के साथ क्या करने वाले है पर हम, जरूर अपने लेखन के सभी प्रिंटो को कालपत्र मे दबा कर कालजयी बना कर जायेगे,वैसे आप हमे सर्वश्रेश्ठ पुरुस्कार देने पर जो सहमत हुय़े थे उस्का क्या हुआ कृपया जल्दी भेजे ताकी हम अपने ब्लोग पर उसे स्जाकर आपको भी सम्मानित करने का अवसर प्राप्त कर सके..:)

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  7. रवि रतलामीजी के विचारों से सहमती है.

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  8. "चाहे साहित्य हो या पत्रकारिता या ब्लॉग-लेखन, पाठक उसे अंतत उत्कृष्टता पर ही मिलेंगे।"

    10,000 छोडिये 2500 पार करते ही यह अंतर शुरू हो जायगा. जो चिट्ठे श्रेष्ठ सामग्री देते हैं सिर्फ वे ही पर्याप्त पाठक आकर्षित कर पायेंगे.

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  9. मैं झगड़े में नहीं पड़ता . आप जानते हैं मेरा सुभाव है . झगड़े से दूर रहता हूं . हमेशा रहता आया हूं . और दोनों नावों पर सवार रहना चाहता हूं . जब औंधे मुंह गिरूंगा तब देखा जाएगा या कोई ग्रुप निकाल देगा तब देखा जाएगा .

    वैसे बिना लिखे खाली शीर्षक के साथ तस्वीर देने पर भी चलता .

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  10. भैय्या
    अपने कालेज के ज़माने में हम लोग एक कापी रखा करते थे जिसमें विभिन्न विषयों के लेक्चरार द्वारा दी गयी काम की बातें, उनके कार्टून, सहपाठियों या प्रेमिकाओं के नाम, इधर उधर से मारे हुए शेर, किसी का पता या फ़ोन नम्बर, किसी फ़िल्म की जानकारी...कुछ व्यक्तिगत जानकारी.... याने की सब मसाला हुआ करता था...ब्लॉग लेखन भी कुछ कुछ वैसा ही है...इसे साहित्य कहना शायद सही नहीं होगा...हाँ ये अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिसे हम एक दूसरे के साथ बांटना चाहते हैं...इसकी पहुँच भी बहुत सीमित है...आने वाले कई सालों बाद इसकी उपयोगिता शायद बढे...
    नीरज

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  11. हिन्दी ब्लॉगिंग aur sahityaa , kitnae saahitykaar blog padhtey haen abhi iska pataa nahin challa hae

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  12. अनिल रघुराज जी से सहमत हूँ.
    उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से अपने बात कह दी है.
    आपने एक बहुत अच्छे विषय पर बहुत ही सुंदर ढंग से अपने विचार रख कर सभी ब्लोगरों को सोचने के लिए कुछ मसाला दिया. आपको धन्यवाद.

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  13. नारद वालो से कहा जाये कि इसी पोस्ट के आधार पर अनुगुंज आयोजित करे कि 2012 मे हिन्दी ब्लागिंग कैसी होगी। सभी कल्पना करे और फिर चार साल बाद उसे परखे। अभी तक के आँकलन से लगता है कि भविष्य को हम संकरे दृष्टिकोण से आँक रहे है।

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  14. मामला इत्ता सीधा नहीं है कि ब्लागिग अलग, पत्रकारिता अलग,और साहित्य अलग।
    ब्लागिंग की पत्रकारिता अपने आप में एक अलग मसला है। इराक से जो खबरें आ रही हैं उनमें वहां के ब्लागों का बड़ा रोल है।
    ब्लाग दरअसल एक माध्यम है, जैसे अखबार है, मैगजीन है टीवी है।
    कंटेट तो लायेंगे जी। उदयप्रकाशजी बड़े कवि हैं, और ब्लागर भी हैं, तो जी उन्हे कहां रखेंगे। रवीश कुमार महत्वपूर्ण पत्रकार हैं, और ब्लागर हैं। उन्हे कहां रखेंगे। इत्ते सीधे क्लासिफिकेशन प्रेक्टिस में नहीं होते। थ्योरी में जो चाहे कर लो। मूल बात है मीडियम और कंटेट की।
    मीडियम कोई भी ले लो, कंटेट तो लाओगे ही।
    कंटेट से तय होगा आप क्या हैं।
    या कई बार वह भी तय ना होने का।
    घोंटने बांटने की जरुरत क्या है, मौज लीजिये. अपने आइटम पेश कीजिये।
    जिसे जो मानना है, मान ले।
    ना मानना है ना माने। झगड़ा काहे का है। आपका जो लेखन है, वह सीधे अखबारों में छप सकता है। तो क्या आपको ब्लागर नहीं माना जायेगा। इस तरह की बहसों का मतलब खास नहीं होता। साहित्य और पत्रकारिता के संबंधों की कोई अर्थवत्ता प्रेक्टिशनर पत्रकार के लिए नहीं है। साफ है, ये काम करना है, ये करना है। खबर लिख कर बना कर अपनी पत्रकारीय नौकरी पूरी करो। साहित्य इसके अलावा करना चाहो, तो कर लो। दोनों अलग अलग मामले हैं। किसी जमाने में ज्यादातर व्यक्ति दोनों ही काम साध लिया करते थे, सो मान लिया जाता था कि दोनों एक ही किस्म के काम हैं। अब आमिर खान का ब्लाग है। तो क्या हम उसकी पहचान सिर्फ ब्लागर तक सीमित मान लें। अजय ब्रह्मात्मज जाने माने सम्मानित फिल्म जानकार समीक्षक हैं, और ब्लाग भी लिखते हैं। तो उनका प रिचय क्या सिर्फ ब्लागर का होगा क्या। मेरे ख्याल में ब्लागिंग को माध्यम माना जाना चाहिए। इसे किसी विधा और धंधे से लड़वाया नहीं जाना चाहिए। ब्लागिंग में पहले ही लड़ने के भौत मुद्दे हैं।

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  15. हमारे ख़याल से ब्लॉग को किसी भी चीज मसलन साहित्य,पत्रकारिता,वगैरा से जोड़ना ठीक नही है। ब्लॉग जहाँ आप लिखते है लोग पढ़ते है और टिप्पणी करते है।और इतना instant response तो किसी मे भी नही होता है।और यही ब्लॉग की खासियत है।

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  16. जहाँ तक मेरी राय है ..ब्लोग को में सिर्फ एक पर्सनल डायरी मानता हूँ ..जिसमे हम अपने विचार ,भावना, जीवनी आदि करते हैं ..इससे इतर हम आज की धक्का मुक्की को देख कर हम ये कह सकते है की ये साहित्य का ऑफ-शूट है .ब्लोग साहित्य कि एक अलग विधा है या नही इस पर लोगो के अपने अपने अलग विचार है...जो कुछ भी हो गुरु देव जी आपने अच्छा लिखा है ....आपकी लेखनी से मैं इस कदर प्रभावित रहा हूँ कि कुछ पूछो मत....क्युकी आप में "गागर में सागर" भरने कि काबिलियत है अपनी लेखनी से.

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  17. अनिल जी और आलोक जी की बातों से सहमत

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  18. ब्लॉगिंग के रूप में पहली बार संचार का एक इंटरएक्टिव माध्यम हमारे हाथ लगा है. ब्लॉगों के असंख्य प्रकार को देखते हुए लगता नहीं कि इसे सृजन की किसी एक विधा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. (वैसे, मुझे यह माध्यम पत्रकारिता के ज़्यादा क़रीब दिखता है.)

    ब्लॉगों की दुनिया अपार विस्तार वाली है, इसलिए यहाँ हर प्रकार के, हर विचार के लोग एक-दूसरे की सीमा का अतिक्रमण किए बिना अपना तंबू डाल सकते हैं. यहाँ वैचारिक टकराव निरंतर चलते रहेंगे, और तथाकथित मठाधीशों के लिए भी किसी व्यक्ति या समूह विशेष को ज़बरन चुप कराना असंभव होगा.

    ब्लॉगिंग का कौन-सा प्रकार ज़्यादा चलेगा और कौन पीछे छूट जाएगा...कहना मुश्किल है. सार्वभौम अपील वाला कोई ब्लॉग लिखना तो कतई संभव नहीं है. लेकिन, जैसा बाक़ी के संचार माध्यमों के मामले में सच है; विश्वसनीय सूचनाओं, उपयोगी जानकारियों, सच्चे अनुभवों और निष्पक्ष विश्लेषण वाले ब्लॉग हमेशा ही सम्मान के पात्र रहेंगे.

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  19. bhaiya pranaam.

    aapki ek ek shabd se sahmat hun.waise stariya rachnaye koi bhi likhe kahin bhi likhe wah kal jayi hoti hai.Yadi koi sahitya ki garima ka khayal rakhe to rachna use amar bana deti hai.satsahitya kisi ki kripa ki muhtaaz nahi hoti.apne amaratva ki raksha use swayan hi karni aati hai.

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  20. ब्लॉगिंग के रूप में पहली बार संचार का एक इंटरएक्टिव माध्यम हमारे हाथ लगा है. ब्लॉगों के असंख्य प्रकार को देखते हुए लगता नहीं कि इसे सृजन की किसी एक विधा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. (वैसे, मुझे यह माध्यम पत्रकारिता के ज़्यादा क़रीब दिखता है.)

    ब्लॉगों की दुनिया अपार विस्तार वाली है, इसलिए यहाँ हर प्रकार के, हर विचार के लोग एक-दूसरे की सीमा का अतिक्रमण किए बिना अपना तंबू डाल सकते हैं. यहाँ वैचारिक टकराव निरंतर चलते रहेंगे, और तथाकथित मठाधीशों के लिए भी किसी व्यक्ति या समूह विशेष को ज़बरन चुप कराना असंभव होगा.

    ब्लॉगिंग का कौन-सा प्रकार ज़्यादा चलेगा और कौन पीछे छूट जाएगा...कहना मुश्किल है. सार्वभौम अपील वाला कोई ब्लॉग लिखना तो कतई संभव नहीं है. लेकिन, जैसा बाक़ी के संचार माध्यमों के मामले में सच है; विश्वसनीय सूचनाओं, उपयोगी जानकारियों, सच्चे अनुभवों और निष्पक्ष विश्लेषण वाले ब्लॉग हमेशा ही सम्मान के पात्र रहेंगे.

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  21. मामला इत्ता सीधा नहीं है कि ब्लागिग अलग, पत्रकारिता अलग,और साहित्य अलग।
    ब्लागिंग की पत्रकारिता अपने आप में एक अलग मसला है। इराक से जो खबरें आ रही हैं उनमें वहां के ब्लागों का बड़ा रोल है।
    ब्लाग दरअसल एक माध्यम है, जैसे अखबार है, मैगजीन है टीवी है।
    कंटेट तो लायेंगे जी। उदयप्रकाशजी बड़े कवि हैं, और ब्लागर भी हैं, तो जी उन्हे कहां रखेंगे। रवीश कुमार महत्वपूर्ण पत्रकार हैं, और ब्लागर हैं। उन्हे कहां रखेंगे। इत्ते सीधे क्लासिफिकेशन प्रेक्टिस में नहीं होते। थ्योरी में जो चाहे कर लो। मूल बात है मीडियम और कंटेट की।
    मीडियम कोई भी ले लो, कंटेट तो लाओगे ही।
    कंटेट से तय होगा आप क्या हैं।
    या कई बार वह भी तय ना होने का।
    घोंटने बांटने की जरुरत क्या है, मौज लीजिये. अपने आइटम पेश कीजिये।
    जिसे जो मानना है, मान ले।
    ना मानना है ना माने। झगड़ा काहे का है। आपका जो लेखन है, वह सीधे अखबारों में छप सकता है। तो क्या आपको ब्लागर नहीं माना जायेगा। इस तरह की बहसों का मतलब खास नहीं होता। साहित्य और पत्रकारिता के संबंधों की कोई अर्थवत्ता प्रेक्टिशनर पत्रकार के लिए नहीं है। साफ है, ये काम करना है, ये करना है। खबर लिख कर बना कर अपनी पत्रकारीय नौकरी पूरी करो। साहित्य इसके अलावा करना चाहो, तो कर लो। दोनों अलग अलग मामले हैं। किसी जमाने में ज्यादातर व्यक्ति दोनों ही काम साध लिया करते थे, सो मान लिया जाता था कि दोनों एक ही किस्म के काम हैं। अब आमिर खान का ब्लाग है। तो क्या हम उसकी पहचान सिर्फ ब्लागर तक सीमित मान लें। अजय ब्रह्मात्मज जाने माने सम्मानित फिल्म जानकार समीक्षक हैं, और ब्लाग भी लिखते हैं। तो उनका प रिचय क्या सिर्फ ब्लागर का होगा क्या। मेरे ख्याल में ब्लागिंग को माध्यम माना जाना चाहिए। इसे किसी विधा और धंधे से लड़वाया नहीं जाना चाहिए। ब्लागिंग में पहले ही लड़ने के भौत मुद्दे हैं।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय