Sunday, February 17, 2008

अभी कहां आराम बदा...



श्चिम रेलवे के रतलाम मण्डल के स्टेशनों पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का हिन्दी अनुवाद टंगा रहता था। यह पंक्तियां नेहरू जी को अत्यन्त प्रिय थीं:

गहन सघन मनमोहक वन, तरु मुझको याद दिलाते हैं
किन्तु किये जो वादे मैने याद मुझे आ जाते हैं

अभी   कहाँ आराम बदा यह मूक निमंत्रण छलना है
अरे अभी तो मीलों मुझको , मीलों मुझको चलना है


अनुवाद शायद बच्चन जी का है। उक्त पंक्तियां मैने स्मृति से लिखी हैं - अत: वास्तविक अनुवाद से कुछ भिन्नता हो सकती है। 


मूल पंक्तियां हैं:

 

The woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.

कल की पोस्ट "एक सामान्य सा दिन" पर कुछ टिप्पणियां थीं; जिन्हे देख कर यह कविता याद आ गयी। मैं उत्तरोत्तर पा रहा हूं कि मेरी पोस्ट से टिप्पणियों का स्तर कहीं अधिक ऊंचा है। आपको नहीं लगता कि हम टिप्पणियों में कही अधिक अच्छे और बहुआयामीय तरीके से अपने को सम्प्रेषित करते हैं?!

Business Standard
कल बिजनेस स्टेण्डर्ड का विज्ञापन था कि वह अब हिन्दी में भी छप रहा है। देखता हूं कि वह इलाहाबाद में भी समय पर मिलेगा या नहीं। "कारोबार" को जमाना हुआ बन्द हुये। यह अखबार तो सनसनी पैदा करेगा!

27 comments:

  1. टिप्पणियों का स्तर ब्लॉग के अंकों से बेहतर जा रहा है, यह मैं ने भी महसूस किया है। हम आलेख के स्थान पर टिप्पणियां अधिक अच्छी कर रहे हैं। इस का एक कारण यह हो सकता है कि हमें विषय मिला हुआ होता है और टिप्पणी करते हुए हम अधिक सजग होते हैं। ब्लॉगस्पॉट क्या एक चिट्ठाकार द्वारा की गई सभी टिप्पणियों को एक स्थान पर उपलब्ध करा सकता है? यदि ऐसा है तो मैं अपनी टिप्पणियों को संग्रह करना चाहूँगा। हो सकता है इस का कोई अन्य जुगाड़ हो सकता हो।
    आप का चलता चित्र भी यही कहता है-And miles to go before I sleep.

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  2. धन्यवाद हर शाम को बढ़िया ब्लॉग पढ़वाने के लिए.

    आप के लिए यह सुबह ही होती है लेकिन हमारे लिए तो शाम है. अनामी टिप्पणिया इसलिए की नम पता लिखने का कौन कष्ट उठाये, वैसे आजकल हिन्दी ब्लॉग जगत मे अनामी लोगो का बहुत आतंक है और अनामी टिप्पणिया लिखने पर सामुहिक गाली खाने का बहुत खतरा है , फ़िर भी आलस्य जिन्दाबाद.

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  3. आराम हराम है इसीलिये कह गये हैं चाचा जी कि कुछ न कुछ करते रहो। टिप्पणियों का 'अस्तर' तो उंचा है लेकिन पोस्टें तो नींव की ईंट हैं न! आलोक पुराणिक देखिये टिप्प्णियां कित्ती धांसू लिखते हैं जबकि लेख उत्ते अच्छे नहीं लिख पाते। जब देखो तब किसी टापर की कबाड़-कापी से मसाला चुराकर टीप देते हैं। वे असली टिप्पणीकार और नकलची ब्लागर हैं। हैं कि नहीं आप ही बताइये। :)

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  4. "आपको नहीं लगता कि हम टिप्पणियों में कही अधिक अच्छे और बहुआयामीय तरीके से अपने को सम्प्रेषित करते है"

    आपने सही कहा लेकिन यह शायद प्रक्रति का नियम है। सृजन करना कठिन है। एक विचार को विषय बनाना और उस पर लिखना कठिन काम है, पर एक विचार को बढाना, उस पर अपनी राय देना या समालोचना करना आसान ह। इसी कारण कई बार टिप्पणीयां बहुआयामीय लगती है।

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  5. अनूप शुक्ल > (पुराणिक जी से हिसाब बराबर करते) वे असली टिप्पणीकार और नकलची ब्लागर हैं। हैं कि नहीं आप ही बताइये। :)
    क्या बतायें? कीर्ति-सुकीर्ति भी उन्ही की है। लिखने से मालपानी भी वही खींच रहे हैं। ... यह जरूर है कि एक बार उनके छात्रों की कापियां हमें मिल जायें तो हम भी अपना स्तर बढ़ा लें! :-)

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  6. सामान्य सा दिन प्रविष्टी में आपका काव्यानुवाद पसंद आया और आज बच्चन जी का भी -
    अच्छी बातें जहाँ कहीं भी लिखी गयीं या पढी गयीं या सुनने में आयीं , वहीं किसी न किसी मन को संदेशा देतीं गयीं -
    - यही भाषा और मनुज का मेल है !

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  7. ज्ञान जी ,दशकों पहले बी बी सी हिन्दी सेवा पर सुनी हुई वही पंक्तियाँ मुझे इस तरह याद हैं -
    सुंदर सघन मनोहर वन तरु मुझको आज बुलाते हैं
    मगर किए जो वादे मैंने याद मुझे आ जाते हैं
    अभी कहाँ आराम मुझे ,यह मूक निमंत्रण छलना है
    और अभी तो मीलों मुझको ,मीलो मुझको चलना है .
    'बदा' थोडा भदेस सा है अतः मैंने ख़ुद मूल रचनाकार[????] से क्षमा याचना सहित संपादित कर दिया है .
    राबर्ट फ्रास्त की यह कविता पंडित नेहरू की मेज पर लिखी पायी गयी थी ..ऐसा कहीं पढा था .
    कितनी स्फूर्ति और जीवन का स्पंदन है इन लाईनों मे...
    धन्यवाद

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  8. रॉबर्ट फ्रॉस्ट मेरे पसंदीदा कवियों में से रहे हैं. उनकी कई कविताओं का भावानुवाद करने का प्रयास किया है. यह जिस कविता के अंश हैं, उनका भी एक समय भावानुवाद किया था कृप्या नजर डालें. बहुत प्रेरणादायक कविता है यह अंग्रेजी वाली:

    http://udantashtari.blogspot.com/2006/03/robert-frost_15.html

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  9. ज्ञान जी, आपको 'कारोबार' अभी तक याद है? मैं उस कारोबार का न्यूज एडिटर हुआ करता था। सारी टीम बनाने में अहम रोल था मेरा। अभी तो मुझे नहीं लगता कि बिजनेस स्टैंडर्ड आपकी अपेक्षाओं को पूरा कर पाएगा।

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  10. अब टिप्पणियों को लेकर आपने बात ही कुछ ऐसी कह दी कि आज तो ठान ली है कि में भी कुछ धाँसू टिपण्णी लिखू. ....कुछ सोचता हूँ.....................................................................प्रयास जारी है शायद शाम तक कुछ लिख पाऊँ...........

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  11. aapki posts se svayam ko relate kar paati huun asaani se ,isliye vishay munbhaatey hain...

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  12. दिनेश जी की बात से सहमत हूँ। क़ही पर टिप्पणियो को भी एक साथ रखना चाहिये।

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  13. सच है. टिप्पणी लिखने में हम ज्यादा सहज महसूस करते हैं. बहुत मज़ा आता है. अब तो हमने सोचा है कि जितनी भी टिप्पणियां लिखी हैं, उसे कॉपी करके रख लेंगे. फिर शायद वही टिप्पणियां कभी पोस्ट लिखने के काम आयें....

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  14. अपना मत यदि एक लंबे लेख के बजाय एक छोटी सी टिपण्णी में समाह्रत किया जाए तो स्तर सुधरेगा ही. वैसे भी जो मजा एक चुटीली सी टिपण्णी में है वो एक लेख में कहाँ?
    सौरभ

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  15. भाई हमारा तो मानना है की आपकी पोस्ट जोरदार होती है और उस टिप्पणियां लाजवाब।

    हमेशा ही कुछ नया और अच्छा मिलता है पढने के लिए।

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  16. आलोकजी की टिप्पणीयाँ इसलिए ज्यादा अच्छी होती है क्यों की वे विद्यार्थियों के लेखों की तरह चुराई हुई नहीं होती :)

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  17. रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है, कभी बूम कर सकता है। वैसे, आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं, वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं, यह अनूपजी जानते हैं।
    लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं, सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये-
    संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
    आलोक पुराणिक ने पूछा-अच्छा अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
    नहीं-संपादक ने कहा-मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।

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  18. बात तो आपने पते की कही है. टिप्पणियों का स्तर सचमुच कई बार लेखों से बेहतर हो जाता है. पर आखिर इसका श्रेय किसे दिया जाये... चिट्ठाकार को या टिप्पणीकार को? सोच कर बता दीजियेगा :)

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  19. श्श्श आलोक जी चुटकला जरा धीरे से सुनाइए, कोई सुन न ले , आप का महाराष्ट्रा में घुसना मुश्किल हो जाएगा, फ़िर पत्नी जी को क्या समझाएगें, वैसे ये सुकीर्ति वाला मंत्र हमें भी सिखाइए, कुछ तो ठीक से लिखेगें, लेख न सही तो टिप्पणी ही सही।
    ज्ञान जी पोस्ट में टिप्पणी देने की गुंजाइश होती है तभी टिप्पणी दे तें हैं। ये सच है कि आप के ब्लोग पर टिप्पणीयां पढ़ने का मजा आ जाता है, जहां अनूप जी और आलोक जी एक साथ मिल जाएं वहां तो ऐसा धमाल होना ही है…:)

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  20. फ़्रॉस्ट की उपर्युक्त पंक्तियों का जो अनुवाद आपने दिया है वह बच्चन जी ने किया है . संदर्भित वन की तरह बहुत मनमोहक अनुवाद है . बचपन से ही इसे अपनी डायरी में उतार रखा था .

    पर सुप्रसिद्ध समालोचक चंद्रबली सिंह मूल कविता की गति-यति-प्रकृति के हिसाब से इसे बहुत अच्छा-सच्चा अनुवाद नहीं मानते हैं . उन्होंने भी इस कविता -- स्टॉपिंग बाइ वुड्स ऑन अ स्नोवी ईवनिंग -- का हिंदी में अनुवाद किया है . अपनी मान्यता के अनुसार . ढूंढ कर पोस्ट करूंगा .

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  21. एल्लो कल्लो बात, हमारी टिप्पणियों से तो हमारा नेट कनेक्शन भी परेशान हो गया था इसीलिए कल की पोस्ट पर हम आज टिपिया रहे हैं। वैसे सई कहा आपने!!

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  22. एल्लो कल्लो बात, हमारी टिप्पणियों से तो हमारा नेट कनेक्शन भी परेशान हो गया था इसीलिए कल की पोस्ट पर हम आज टिपिया रहे हैं। वैसे सई कहा आपने!!

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  23. श्श्श आलोक जी चुटकला जरा धीरे से सुनाइए, कोई सुन न ले , आप का महाराष्ट्रा में घुसना मुश्किल हो जाएगा, फ़िर पत्नी जी को क्या समझाएगें, वैसे ये सुकीर्ति वाला मंत्र हमें भी सिखाइए, कुछ तो ठीक से लिखेगें, लेख न सही तो टिप्पणी ही सही।
    ज्ञान जी पोस्ट में टिप्पणी देने की गुंजाइश होती है तभी टिप्पणी दे तें हैं। ये सच है कि आप के ब्लोग पर टिप्पणीयां पढ़ने का मजा आ जाता है, जहां अनूप जी और आलोक जी एक साथ मिल जाएं वहां तो ऐसा धमाल होना ही है…:)

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  24. रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है, कभी बूम कर सकता है। वैसे, आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं, वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं, यह अनूपजी जानते हैं।
    लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं, सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये-
    संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
    आलोक पुराणिक ने पूछा-अच्छा अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
    नहीं-संपादक ने कहा-मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।

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  25. ज्ञान जी ,दशकों पहले बी बी सी हिन्दी सेवा पर सुनी हुई वही पंक्तियाँ मुझे इस तरह याद हैं -
    सुंदर सघन मनोहर वन तरु मुझको आज बुलाते हैं
    मगर किए जो वादे मैंने याद मुझे आ जाते हैं
    अभी कहाँ आराम मुझे ,यह मूक निमंत्रण छलना है
    और अभी तो मीलों मुझको ,मीलो मुझको चलना है .
    'बदा' थोडा भदेस सा है अतः मैंने ख़ुद मूल रचनाकार[????] से क्षमा याचना सहित संपादित कर दिया है .
    राबर्ट फ्रास्त की यह कविता पंडित नेहरू की मेज पर लिखी पायी गयी थी ..ऐसा कहीं पढा था .
    कितनी स्फूर्ति और जीवन का स्पंदन है इन लाईनों मे...
    धन्यवाद

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  26. रॉबर्ट फ्रॉस्ट मेरे पसंदीदा कवियों में से रहे हैं. उनकी कई कविताओं का भावानुवाद करने का प्रयास किया है. यह जिस कविता के अंश हैं, उनका भी एक समय भावानुवाद किया था कृप्या नजर डालें. बहुत प्रेरणादायक कविता है यह अंग्रेजी वाली:

    http://udantashtari.blogspot.com/2006/03/robert-frost_15.html

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  27. सामान्य सा दिन प्रविष्टी में आपका काव्यानुवाद पसंद आया और आज बच्चन जी का भी -
    अच्छी बातें जहाँ कहीं भी लिखी गयीं या पढी गयीं या सुनने में आयीं , वहीं किसी न किसी मन को संदेशा देतीं गयीं -
    - यही भाषा और मनुज का मेल है !

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय