Monday, July 30, 2007

सुरियांवां के देवीचरण उपाध्याय के रेल टिकट


देवीचरण उपाध्याय सुरियांवां के थे. बोधिस्त्व के ब्लॉग में सुरियांवां का नाम पढ़ा तो उनकी याद आ गयी. मैं देवीचरण उपाध्याय से कभी नहीं मिला. मेरी ससुराल में आते-जाते थे. वहीं से उनके विषय में सुना है.

जो इस क्षेत्र को नहीं जानते उन्हे बता दूं - इलाहाबाद से रेल लाइन जाती है बनारस. वह सुरियांवां के रास्ते जाती है. ज्ञानपुर, औराई उसके पास हैं. जिला है भदोही. ये स्थान पहले बनारस के अंतर्गत आते थे. मेरा ससुराल है औराई के पास.

देवीचरण उपाध्याय मेरी ससुराल पँहुचते थे और दरवाजे पर घोषणा करते थे - "हम; देवीचरण!"

मेरी सास कहती थीं - "लो; आ गये. अब भोजन बनाओ!" भोजन बनता था वैसे मेहमान के लिये जो रुकने वाले हों और प्रतिष्ठित हों. देवीचरण उपाध्याय मेरे श्वसुरजी के फुफेरे भाई थे. उनसे उम्रमें काफी बड़े. अक्सर आते-जाते रहते थे. ज्यादातर यात्रा रेल से करते थे.

खास बात यह थी; और जिस कारण से यह पोस्ट लिखी जा रही है; वे कभी रेल टिकट नहीं लेते थे. साथ में पीले पड़ चुके पुराने कागजों का पुलिन्दा ले कर चलते थे. कोई टीटीई अगर अपने दुर्भाग्य से उनसे टिकट पूछ बैठता था तो वे कागजों का पुलिंदा खोल लेते थे. वे कागज रेलवे लाइन बिछाने के लिये किये गये जमीन के अधिग्रहण से सम्बन्धित थे. एक एक कागज पर पावरप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन की तरह वे बताने लगते - कौन सी उनकी जमीन रेलवे ने कौड़ियों के भाव किस तरह अधिग्रहीत की थी. उन्होने कौन सा प्रतिवेदन किसे दिया था जिसका सरकार ने संतोषजनक निपटारा कभी नहीं किया. इस प्रकार सरकार ने उन्हे कितने का चूना लगाया था. इस प्रेजेण्टेशन के बाद पंचलाइन - आखिर वह टीटीई किस मुह से उनसे टिकट मांग रहा है?

टीटीई अगर अकलमन्द होता था तो पावरप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन प्रारम्भ होते ही बैक-ट्रैक कर खिसक लेता था. नहीं तो पूरा पावरप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन ग्रहण कर के जाता था. टिकट तो देवीचरण उपाध्याय को न लेना था न कभी लिया! टिकट न लेना तो देवीचरण उपाध्याय जी के एण्टी-एस्टेब्लिशमेण्ट होने का प्रमुख प्रतीक था.

टीटीई ही नहीं, अफसर और मेजिस्ट्रेट चेकिंग को भी देवीचरण उपाध्याय जी ने पावरप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन के माध्यम से ही निपटाया था. न कभी जेल गये, न जुर्माना दिया न टिकट खरीदा.

मैं इस पोस्ट के माध्यम से टिकट न लेने की प्रवृत्ति को उचित नहीं बता रहा. मैं सरकार की अधिग्रहण नीति पर भी टिप्पणी नहीं कर रहा. मैं तो केवल सुरियांवां, देवीचरण उपाध्याय और उनकी खुद्दारी की बात भर कर रहा हूं. देवीचरण उपाध्याय अब दुनियाँ में नहीं हैं. पर सुरियांवां का नाम आया तो याद हो आई.

अभी डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर - जो बड़ा महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट है रेलवे के लिये; और जिसके लिये बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण होगा; कितने देवीचरण उपाध्याय पैदा करेगा? या इस प्रकार के चरित्र पैदा भी होंगे या नहीं - पता नहीं.

13 comments:

  1. बढ़िया है। आप ब्लागिंग का बिलकुल अलग तरह का प्रयोग कर रहे हैं। वाकई यह जोरदार है। ब्लाग पर उन लोगों को जगह मिलनी चाहिए, जिन्हे और कहीं जगह आम तौर पर नही मिलती। ऐसे ही और चरित्रों का इंतजार रहेगा।

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  2. दादा वो कागज कहा है मिलेगे क्या,बढिया कहानी उसस बढिया प्रस्तुती,पर हमे तो वही कागज चाहिये ताकी हम भी प्रयोग कर सके..:)बाकी आपका नाम तो है ही इलाहाबाद मंदल मे यात्रा करने को...:)

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  3. देवीचरण, सुरियांवा, टिकट न लेना लगा कि गांव पहुंच गये. यूनिवर्सिटी के छात्र थे तो यह छात्र धर्म हम भी निभाते थे कि स्टूडेन्ट हैं टिकट नहीं है. वह एजे पैसेन्जर संभवतः आज भी उसी तरह छात्रों को छात्रधर्म निभाने का मौका दे रही होगी. रेलवे को कितना चूना लगाया मालूम नहीं लेकिन टिकट लेकर की गयी यात्राएं अनुभव में नहीं है, एजे, बुन्देलखण्ड और सारनाथ एक्सप्रेस की वे बेटिकट यात्राएं और उदारमना टिकट कलेक्टरों का समाजोचित व्यवहार हमेशा याद आता हैं.

    अपनी इन यात्राओं में कई देवीचरण रोज मिलते थे जो बैच चेकिंग होने पर खेत-खेताड़ी में धोती पकड़े भागते थे. लेकिन ये वाले देवीचरण वाकई जोरदार थे. हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसे चरित्र बहुतायत मिल जाते हैं. जब गांव में था तो आधुनिकता का नशा ऐसा था कि ऐसे लोगों से कोफ्त होती थी. अब 10-12 सालों के शहरी जीवन ने होश ठिकाने ला दिये है. लगता है देवीचरण जैसे लोग हमसे ज्यादा सार्थक जीवन जी रहे हैं. हम तो मशीनों के बीच मुर्दा हो गये.

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  4. बहुत सही । नीचे वाली पंक्तियों पर अमल किया और हमने बिना टिकिट यात्रा करना नहीं सीखा । हमें वो पीले काग़ज़ों का पुलिंदा भी नहीं चाहिये । दिक्‍कत ये है कि हमें तो टी टी ई को पटाना आता ही नहीं ।

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  5. पाण्डेयजी इसे पढ़कर तमा देवीचरण पाण्डेय याद आ गये। हमसे से हर एक के अन्दर कुछ न कुछ देवीचरण पाण्डेयजी का अंश रहता है लेकिन बदलते समय के साथ परिस्थितियां इनके विपरीत होती जाती हैं कि जीना मुहाल हो जाता है। आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी। आज आपने दो पोस्ट पढा़ दीं। अच्छा लगा। :)

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  6. भाई आनन्द आया। कहीं ये वहीं देवीचरण तो नहीं जो कुर्ता धोती पर टाई लगाते थे। इनके बारे में तो यह तक सुना है कि रेल के टीटी इनको चाय भी पिलाते थे।
    आप अच्छा लिख रहे हैं। औराई मे मेरे बड़े भाई की भी ससुराल है। उसी बाजार में उनके साले का क्लीनिक है

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  7. देवीचरण जी के बारे में जानकर अच्छा लगा। उनकी तार्किक शैली भी मन को भाई।

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  8. बेटिकट यात्राओं की याद दिला दी आपने. हमने अपने स्टू़डेंट लाइफ में ऐसी हिचहाइकिंग बहुत की है. तब विद्युतीकरण नहीं हुआ था तो मालगाड़ी के छतों पर भी दौड़े हैं, इंजिन में ड्राइवरों (कोयला इंजिन)के साथ कोयला भी झोंके हैं, और गार्ड के केबिन में भी यात्राएं की हैं - स्टूडेंट जो ठहरे!

    और टीटी - मजाल है स्टूडेंटों के हुजूम को देख वे टिकट को पूछ बैठें!

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  9. शानदार!!
    ज़िंदगी अब ऐसे पात्र कहां दिखाती है!

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  10. जीवन के हर क्षेत्र में किसी न किसी रुप में कम या ज्यादा देवीचरणों से मुलाकात होती रहती है. कभी हम खुद भी देवीचरण हो जाते हैं तो कभी हमारे जानने वाले.

    बहुत रोचकता से आपने अपनी बात रखी. मजा आया.

    अब चक्कर में ऐसा लगता है कि इलाहाबाद आने पर आपके यहाँ भोजन तो नसीब होने से रहा. एक कंडीशन तो पूरी भी कर दें-दोनों करना कहाँ तक संभव है: भोजन बनता था वैसे मेहमान के लिये जो रुकने वाले हों और प्रतिष्ठित हों. भूखे ही मिल कर लौट जाना पड़ेगा और न भी लौटे और रुक भी गये तो भी क्या-भोजन तो बनने से रहा-दूसरी कंडीशन आड़े आ जायेगी. :फ)

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  11. वाह रुचिकर! :)

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  12. @ आलोक - धन्यवाद. अपन तो रोज के जोड़ीदार हैं.

    @ अरुण - प्यारे, तुम तो पक्के पंगेबाज हो. तुम्हें तो कोई कागज नहीं चाहिये! टीटीई वैसे ही डरेगा.
    @ संजय - सच है मित्र. गांव के दिन याद आते हैं!
    @ यूनुस - अब मुंशी प्रेमचन्द पर लिखने के लिये तो और महारत चाहिये न!
    @ अनूप - देवीचरण जैसों को हम ब्लॉग पर रीक्रियेट कर लें तो वह उपलब्धि होगी.
    @ बोधिसत्व - आपकी टिप्पणी पर मेरी पत्नी और मैं खटे खूब. अगली पोस्ट उससे निकल आयी!
    @ अजित - बहुत धन्यवाद मित्र. आपका शब्द-अध्ययन तो जबरदस्त है!
    @ रवि रतलामी - भैया पहले पता होता, रतलाम में, तो काले कोट वालों को आपके पीछे लगाता!
    @ संजीत - पात्र हैं प्यारे, अब तो आपने काला चश्मा भी उतार दिया है. बह थोड़ा शहर से बाहर जाना होगा!
    @ समीर लाल - भोजन की गारण्टी पक्की आपके लिये; चाहे आप टिकाऊ मेहमान की तरह रहें. हां, तरल पदार्थ नहीं मिल पायेगा! :)
    @ श्रीश - धन्यवाद!

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  13. आपके देवीचरण को पढ़कर अच्छा लगा ।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय