Sunday, May 13, 2007

समझ में क्यों नहीं आते कुछ चिठ्ठे?

फ्राडिये आज के पैदा नहीं हुये. ऋग्वैदिक युग में भी थे. ऋषि का लेबल लगाये थे. ऋचाओं के पर्म्युटेशन-कॉम्बिनेशन से नयी ऋचायें गढ़ लेते थे. एकाध उदाहरण के. एम. मुंशी जी ने अपने उपन्यासों में दिया है (मैं मुंशी जी का नाम इस लिये ले रहा हूं कि कल विश्व हिन्दू परिषद वाले पकड़ें तो निकलने को पतली गली मिल सके). और फिर स्यूडो-इण्टेलेक्चुअलिटी कोई बड़ा भारी आविष्कार नहीं कि अमेरिका-इंगलैण्ड वाले ही कर सकें. भारत में ये जीव हर गली/कूचे/मुहल्ले और अब वेब साइटों में पाये जाते हैं.

अब देखें ऐसा कई बार होता है कि आप पूरा लेख पढ़ जायें; आपके पल्ले कुछ शब्दों की चिन्दियां भर पडें. गज भर लम्बा लेख आप इस लालच में पढ़ें कि आप उसपर कुछ मस्त टिपेरकर इंटेलेक्चुअल छाप काम करेंगे. पर अंत तक आते-आते आपको लगे कि चिठेरा लेख में जो कुछ ले कर चला था उसका कुछ उलट ही सिद्ध कर रहा है. लेकिन आप की हिम्मत न बने कि यह बोध शब्दों मे लिख सकें. यानि फ्राड चिठेरा आपको इतना कंफ्यूजिया दे; उसका इंटेलेक्चुअल होने का लेबल आपको ऐसा टैरराइज कर दे; कि आप चुप-चाप दबे पांव वापस चले आयें उस वेब साइट से.

ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है. मैने कुशा ले कर संकल्प भी किया है कि उन साइटों पर नहीं जाऊंगा. पर धुरविरोधी के शब्द उधार लूं, तो निषेध ही निमंत्रण वाली थ्योरी के अनुसार फिर वहां के चक्कर मार आता हूं.

ये ब्लॉगर 80-98 आई.क्यू. बैण्ड वाले पाठक को सामने रख कर क्यों नहीं लिखते चिठ्ठा? क्यों अपने को सुपर इंटेलेक्चुअल प्रमाणित करना चाहते है? क्यों वे पढ़ने वाले को सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय (वाकई!) मान कर चलते हैं? क्यों वे सही-साट और साधारण बात न करने की कसम खाये बैठे हैं?


जरूरी नहीं कि वे अपने ब्लॉग को संता-बंता डॉट कॉम की पूअर कॉपी बना दें. पर वे समझ में आ जाये, ऐसा तो लिख सकते हैं.

----------------------------------

स्पष्टीकरण (यह टिप्पणी में भी है)
इतने लोगों ने कहा है तो स्पष्टीकरण देना पड़ेगा ही. मैं उदाहरण देता हूं ब्लॉगरी से नहीं, हिन्दी साहित्य से. भारतेन्दु जी, मुंशी प्रेम चन्द जी सबकी समझ में आते हैं. पढ़्ते चले जाने का मन करता है. वहीं अज्ञेय जी, जैनेन्द्र कुमार जी और राजेन्द्र यादव जी के पन्ने दर पन्ने पढ़ जाइये. उसके बाद सिर खुजाना पड़ता है. ज्यादा पढ़ लिया तो कायम चूर्ण की तलब होती है. कविता में दिनकर जी को पढ़ें तो सस्वर पाठ करने लगते हैं. मन होता है कि राह चलते को रोक लें और सुना कर छोड़ें कुरुक्षेत्र. पर कई कवि हैं कि आसमान में चांद पर लिखते है पर वर्णन जलेबी का करते हैं.

ब्लॉगरी में रोज नये जुड़ रहे हैं. इनमें से ज्यादातर शाम को घर लौटते नेनुआ, सतुआ, भूंजा और किराने के सामान की पन्नी ले कर आते होंगे. उनको घर आने पर बुद्धिवादी और तथाकथित बुद्धिवादी लोगों के गरुह-गरुह ब्लॉग पढ़ने को मिलें तो उनका कष्ट मेरे कष्ट जैसा ही होगा. न हो तो कहे सुने की माफी.


19 comments:

  1. आप अपनी बात कुछ सीधी सरल करके नहीं कह सकते? समझ में नहीं आई..

    ReplyDelete
  2. सही कहा अभय जी. पांडेय जी अपनी बात खोल कर कहें तो कुछ पल्ले पडे़.

    ReplyDelete
  3. हमे भी आपकी बात समझ नही आइ है,..
    सुनीता(शानू)

    ReplyDelete
  4. मुझे भी आपकी बात समझ नहीं आई, क्या आपका मतलब यह है कि कुछ लोग क्लिष्ट हिन्दी शब्दों का प्रयोग करते हैं ?

    यदि आपका अर्थ यही है तो सरल हिन्दी का पक्षधर होने के बावजूद मैं कहूँगा कि कुछ लोगों के लिए जो हिन्दी मुश्किल है दूसरों के लिए सामान्य है।

    इस बारे में हम और कुछ तभी कह सकते हैं जब आप अपनी बात सपष्ट करें।

    ReplyDelete
  5. दादा आज तो नमूना पेश कर ही दिया सही है आधे तो इससे बुरी हालत मे होते है,समझ काम नही करती बस यही लगता है कॊई बडी चीज है खिसक लॊ और हम दबाव मे टिपिया भी देते है बहुत बढिया,

    ReplyDelete
  6. मेरे साथ भी एसा ही होता है कि पूरा पूरा का चिठ्ठा दो दो बार पड़कर कुछ भी समझ नहीं आता कि कहा क्या जा रहा है.

    अब तक तो मैं सोचता था कि शायद ये मेरे अल्पबुद्धि होने के कारण ही हो पर आपकी बात से लगता है कि गड़बड़ कहीं और है.

    ReplyDelete
  7. इतने लोगों ने कहा है तो स्पष्टीकरण देना पड़ेगा ही. मैं उदाहरण देता हूं – ब्लॉगरी से नहीं, हिन्दी साहित्य से. भारतेन्दु जी, मुंशी प्रेम चन्द जी सबकी समझ में आते हैं. वहीं अज्ञेय जी, जैनेन्द्र कुमार जी और राजेन्द्र यादव जी के पन्ने दर पन्ने पढ़ जाइये. उसके बाद सिर खुजाना पड़ता है. ज्यादा पढ़ लिया तो कायम चूर्ण की तलब होती है. कविता में दिनकर जी को पढ़ें तो सस्वर पाठ का मन करता है. मन होता है कि राह चलते को रोक लें और सुना कर छोड़ें कुरुक्षेत्र. पर कई कवि हैं कि आसमान में चांद पर लिखते है पर वर्णन जलेबी का करते हैं.
    ब्लॉगरी में रोज नये जुड़ रहे हैं. इनमें से ज्यादातर शाम को घर लौटते नेनुआ, सतुआ, भूंजा और किराने के सामान की पन्नी ले कर आते होंगे. उनको घर आने पर बुद्धिवादी और तथाकथित बुद्धिवादी लोगों के गरुह-गरुह ब्लॉग पढ़ने को मिलें तो उनका कष्ट मेरे कष्ट जैसा ही होगा. न हो तो कहे सुने की माफी.

    ReplyDelete
  8. आप कुछ कहे ही कहाँ हो जो माफी मांग रहे हो. इसे वापस लें तुरंत.

    काहे जाते हो ऐसी गली जिसका रास्ता नहीं मालूम खुद उनको जिनकी गली है तो आप तो खूब समझ सके.. हा हा!!

    मस्त रहो और व्यस्त रहो का सिद्धांत अपना लो, सुखी रहोगे. सब समझना आवश्यक नहीं. :)

    बधाई यह ज़ज्बा दिखाने को.

    ReplyDelete
  9. आपकी बाते पढ़ कर संतुष्टी हुई, कल ही फुरसतीयाजी को टिप्पणी करते हुए मैने लिखा की कई चिट्ठे मेरी समझ में नहीं आते. अब लगता हिअ मैं अकेला ही नहीं हूँ जिसे समझ नहीं आता.

    ReplyDelete
  10. सब कुछ आसानी से समझ में आ रहा है कि आप क्या कहेना चाह रहे हैं। मुझे महसूस हो रहा है कि आपके प्रत्युत्तर के बाद भी किसी को आपकी बात सही समझ में नहीं आई है।

    ReplyDelete
  11. ऐसा तो अक्सर मेरे साथ होता रहता है :) फुरसतिया के लंबे चिट्ठों को समझने के लिये तो मैं अक्सर प्रिंट आउट निकाल कर घर ले आता था। फिलहाल प्रमोद सिंह की रवीश वाली सिरीज़ फुटों उपर से निकल जाती है, सृजन के चिट्ठों को पढ़ने के लिये भी शब्दकोश साथ रखना पड़ता है ;)

    ReplyDelete
  12. Leejiye, khul kar kahne ka aamantran hua aur nateeja aapke saamne hai.Sab kuchh khula-khula nazar aa raha hai.

    Samajh mein nahin aanewaala chittha, chitthakaar ki mazboori ki paidaeesh hai.Kaisi mazboori?Wahi, pehchaan khone ke dar se paida honewaali mazboori.Samajh mein nahin aaye, aise chitthon se hi to pehchan bani hai. Aur aap chaahte hai ki woh aisa kuchh likhein jo sabhi ki samajh mein aa jaaye..Kisi ki pehchan chali jaaye, aisa aap kyon chaahte hain?

    Aur ek baat hai.Aise chitthakar is baat se chintagrast rahte hain ki aaj se 50 saal baad hindi bhasha kaisi rahegi..

    Aapne kabhie hindi bhasha ke bhavishya ke baare mein socha hai?

    ReplyDelete
  13. अरे इतना टेंशन किस बात का कि आज ना तो छुक-छुक गाड़ी चल रही है और ना ही flinstone .

    ReplyDelete
  14. यदि कोई गोल गोल बात करे, जलेबी बानाये तो इसका मतलब साफ है कि उस व्यक्ति को वह बात स्पष्ट नहीं है।

    ReplyDelete
  15. जी, चेक कर लिया है - गाड़ी भी चल रही है. अपना भोन्दू फ्लिंस्टन भी. और टेंशन भी नहीं है. बस कल के ब्लॉग पोस्ट की तैयारी हो रही है.

    ReplyDelete
  16. अरे भाई आप की समझ मे नही आए तो आप रचनाकार या लेखक को दोष क्यूँ दे रहे हैं? हरिक की अपनी-अपनी शैली होती है लिखने की। आप चिट्ठाकारो को हतोत्साहित ना करें।वह कुछ भी लिखे लेकिन अपनी हिन्दी भाषा का सम्मान तो बढा रहे हैं।

    ReplyDelete
  17. Rachnakar agar samajh mein nahin aanewali rachnaayein likhta hai to use auron ke liye publish karne ki kya zaroorat hai?Use apna lekh apne ghar mein hi rakhna chaahiye.

    Apni apni shaili ho sakti hai.Lekin samajh mein na aaye, ye kaun si shaili hai bhaiya.

    ReplyDelete
  18. पंडित जी,
    जब 'आंखिन की देखी' और अनुभूत सच्चाई की बजाय आदमी 'कागद की लेखी' के गरब-गुमान में लिथड़ जाता है और सामने वाले को चित्त कर देने के उद्देश्य से तगड़ा फ़ोकस मारना चाहता है तब विट्जेंसटाइन के शब्दों में भाषा छुट्टी पर चली जाती है . और तब भाषाई विकलांगता और ज्ञान के अजीर्ण का 'लीथल कॉम्बीनेशन' एक धाकड़ किस्म की 'कन्फ़्यूजियाने' और 'टैररियाने' वाली पोस्ट का प्रजनन करता है. शेक्सपीयर से इसके लिए एक जुमला उधार लूं तो कह सकता हूं : 'अ टेल टोल्ड बाय एन ईडियट सिग्नीफ़ाइंग नथिंग'.

    पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि पोस्ट को लॉलीपॉप की तरह इंस्टैंट घुलनशील होना चाहिए.थोड़ा बहुत अक्किल तो लगानी पड़ेगी . कई लोग पोस्ट के पास जाते हैं और दिमाग घर भूल आते है. कुछ लोग उसकी एफ़डी करवा कर मुस्कुराते घूमते हैं यह सोचकर कि हारे दर्ज़े पांच-सात साल में डबल तो होना ही है .

    मामला गंभीर है . विद्वानों से गहन विचार-विमर्श की मांग करता है. अविलंब एक जांच समिति बिठाई जाए .

    ReplyDelete
  19. आप स्पष्टीकरण न देते तो भी हम इस पोस्ट को समझ गए थे। वो आपने सुना होगा 'जाके पैर न फटे बिवाई...' तो बिवाई तो इधर पहले से ही फटी है इसलिए आपकी पीर हम समझ रहे हैं। पूरी पोस्ट पढ़ कर बहुत हँसी आई और संतोष भी हुआ कि चलो हम ही अकेले नहीं हैं कम से कम पाण्डेयजी तो साथ हैं ही। सीधा कहें तो कई लेखों को पढ़ कर दिमाग की चूलें हिल जातीं हैं और टिप्पणी करने में डर लगता है कि टिप्पणी की भाषा, शब्द और भाव उस लेखक के स्तर के नहीं हुए या टिप्पणी भी लेख की तरह गूढ़, रहस्यमय और दूरूह न हुई तो नामसझ, अज्ञानी का ठप्पा लग जाएगा और टिप्पणी मॉडरेशन की बलि चढ़ जाएगी सो अलग। इसलिए अपनी इज्जत अपने हाथ, बिना टिप्पणी के निकल लो चुपचाप।

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय