Sunday, May 6, 2007

हसन जमाल को इंटरनेटेनिया क्यों नहीं हो सकता

बेताल पच्चीसी की तरह इस ब्लॉग पोस्ट में लिंक और पेंच हैं. पहला और डायरेक्ट लिंक है रवि रतलामी का ब्लॉग. उसमें 4-5 लिंक हैं जो आप फुर्सत से वहीं से क्लिक करें.

हसन जमाल एक मुसलमान का नाम है. ये सज्जन लिखते हैं. नया ज्ञानोदय जैसे अभिजात्य हिन्दी जर्नल-नुमा-पत्रिका में इनके पत्र/प्रतिक्रियायें छपती हैं तो इंटेलेक्चुअल ही होंगे. कई चिठेरों ने इनपर कलम चलाई है. मुझे इनसे न जलन है न इनके मुसलमान/इंटेलेक्चुअल होने पर कोई वक्र टिप्पणी करनी है. मैं तो इंटरनेट को लेकर उन्होने जो कहा है उसके समर्थन (?) में कुछ कहना चाहता हूं.

यह इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया क्या है? मोटे तौर पर इंटरनेट बग जिसे काट लेता है और जो यदा-कदा-सर्वदा गूगल सर्च में मूड़ी घुसाये रहता है, वह इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया ग्रस्त जीव होता है. आप अगर यह ऑन-लाइन पढ़ रहे हैं और आप के दायें हाथ की तर्जनी माउस को सतत सहलाती रहती है, तो आप को यह विशेष फोबिया (सही शब्द मेनिया, जैसा बासूती जी ने स्पष्ट किया है) इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया है.

हसन जमाल जी इंटरनेट के खिलाफ हैं. जाहिर है उनको इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया नहीं हो सकता. पर इतना कहने से बात समाप्त नहीं हो जाती. उन्होने अपने रिसाले में जो अजीब तर्कों से युक्त सम्पादकीय लिखा है, उसके बावजूद उनसे ईर्ष्या करने का मन कर रहा है.

प्रयोग कै तौर पर मैने अपना कम्प्यूटर बन्द कर दिया है। केवल ऑफलाइन ही नहीं, यह लेखन मैं कागज-कलम लेकर कर रहा हूं. जेल पेन इस्तेमाल करने की बजाय, बहुत समय बाद मैने अपने फाउण्टेन पेन में रॉयल ब्ल्यू स्याही भरी है. निब हो धोया-पोंछा है. अपने ट्रांजिस्टर को बाहर निकाल कर वन्देमातरम सुनते हुये सवेरे छ बजे की हिन्दी खबर का इंतजार कर रहा हूं.

इंटरनेट के दंश से पीड़ित होने के कारण अपने बगीचे को मैने काफी समय से नहीं देखा था. आज ध्यान से देखा है. सूरजमुखी उदात्त मन से खिला है. किचन गार्डन में भिण्डी और नेनुआ में फूल लगे हैं. मनी-प्लाण्ट की बेल जो गमले से निकाल कर जमीन में रोपी गयी थी, न केवल जड़ पकड़ गयी है वरन पास के ठूंठ पर चढ़ने भी लगी है. कितना कुछ हो गया है, और मोजिल्ला/इण्टरनेट एक्स्प्लोरर की शरणागत इस जीव को उनका पता भी नहीं चला. लानत है.

यह पढ़कर हमारी जैसी प्रवृत्ति के अन्य सज्जन, जो इण्टरनेटोबिया इंटरनेटेनिया से ग्रस्त हैं; अपने कदम जरा पीछे खींचें. मेरी तरह अपने को कोसते हुये इंटरनेट कनेक्शन बन्द करें और हसन जमाल जी का प्रशस्ति गायन करें.

हसन जमाल जी के प्रशस्ति गायन का अर्थ उनके मुसलमान परस्ती के (कु)तर्क को समर्थन देना नहीं है. पर हम लोगों में इंटरनेटीय ऑब्सेशन के प्रति उनके आगाह करने को धन्यवाद देना जरूर है. शनै-शनै हम भूलते जा रहे हैं कि हमें यह ऑब्शेसन भी है.

हसन जमाल जी को इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया नहीं हो सकता क्यों कि वे इंटरनेट के सख्त खिलाफ हैं. (वे इसे चैटिंग-चीटिंग का माध्यम मानते हैं जैसे कि इससे पहले लोग पूजा-नमाज में ही तल्लीन रहते रहे हों!) पर हम जो इंटरनेट के सख्त पक्षधर हैं, वे भी, क्यों इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया ग्रस्त हों? किसी तकनीक का प्रयोग मानव जीवन की सहूलियतें बढ़ाने में होना चाहिये, न कि बतौर अफीम, एडिक्शन के लिये. आफीमची होना घोर कर्म है, जिसे अफीमची ही सत्व संकल्प से दूर कर सकता है.

शूल हो, बस फूल ही हो; इनटरनेट एक टूल ही हो.

(मुझे खेद है - जहां भी इंटरनेटोबिया शब्द का प्रयोग हुआ है, उसे कृपया इंटरनेटेनिया पढ़ें. वास्तव में बीमारी मेनिया की है, फोबिया की नहीं. चेताने के लिये बासूती जी को धन्यवाद)

3 comments:

  1. Pande ji, please forgive me but I can not agree with your diagnosis of the disease. I think the right word would be mania. Mania when used in combination with another word referrs to a particular form of mental abnormality or obsession. A good example would be the word kleptomania ( kleptes means a thief in Greek) which means a recurring urge to steal. So the disease you are referring to should be Internetomania or Internetmania.
    The diseas Mr Jamal is currently suffering fronm is the disease you are talking about i.e. Internetophobia.
    Phobia when used in combination with another word means extreme or irrational fear of something. So Internetophobia would mean fear of internet.
    I hope you would not take it otherwise and if I am wrong please correct me.
    Thanking you,
    Ghughuti Basuti

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  2. "....Pande ji, please forgive me..."
    Absolutely, no need to be on defense in giving such excellent comment Madam, I am really thrilled on your observation. This was the Element I was longing for in the Comments by the 'we blogger community'. I am tempted to make amends to the post, but on second thought, would let it as such, as a reminder to my self that the mistake was committed indeed.

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  3. इंटरनेट के उपयोग और इंटरनेट-उन्माद के बीच का फ़र्क आपने बेहद मानवीय ढंग से सामने रखा है .

    इंटरनेट अपनी जगह पर रहे पर वह सूरजमुखी,भिंडी,नेनुआ और मनी-प्लांट की जड़े न खोदे . क्योंकि उनकी जड़ों में ही हमारी जड़े हैं.

    इंटरनेट एक टूल रहे पर हमारे गले की फांस न बने . गला वैसे ही नाना कारणों से दुखता रहता है .

    आपके ब्लॉग पर जब भी आता हूं आपके विशिष्ट सेंस ऑफ़ ह्यूमर और बाएं हाथ के धौल खाकर आनंद आ जाता है .

    सहमति-असहमति के प्रश्न अपनी जगह, वे इस आनंद के आड़े कभी नहीं आए .

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय