समीर लाल जी ने कल मल्लन चाचा को अपने ब्लॉग पर ठेला - क्या आप मल्लन चाचा को जानते हैं? मल्लन एक ऐसे चरित्र का नाम है जो सामान्य से अलग हो. हमें लगा, ये क्या; अपन भी अनुगूंज स्टाइल में ठेल सकते हैं. मान लें आलोक (9+2=11) जी ने नया टॉपिक दिया है – मल्लन. मल्लन के आगे – पीछे आप कुछ भी लगा सकते हैं. चाहे तो (यदि आप खुद पर सटायर कर सकते हों) खुद को मल्लन बना सकते हैं.
हां तो अपने मल्लन, मल्लन चाचा नहीं, मल्लन साहब हैं. मेरी उम्र के होंगे. शादी नहीं करी. क्यों नही करी – यह तो हम और हम जैसे अनेक जिज्ञासु नहीं जान पाये. पर सभी ने अपने पड़ोस की थोड़ी उम्रदराज कुवांरियों का उनसे विवाह का पुनीत कार्य कराने का यत्न किया. कुछ ने तो चुपके से उनके लिये अपने खर्चे पर हिन्दुस्तान टाइम्स में मेट्रीमोनियल कॉलम में विज्ञापन भी दिये. कई तो उनके जन्म दिन/नक्षत्र/घड़ी के आधार पर उपयुक्त लड़कियों का मिलान कर, उनके साथ बैठक कर चुके पर नतीजा कुछ नहीं निकला. उम्र बढ़ती गयी.
मेरी उनसे गहरी छनती है. असल में मैने उनकी शादी कराने या किसी लड़की का बॉयोडाटा ठेलने का कभी कोई यत्न नहीं किया. मैं उन्हे प्रारम्भ से ही चिर कुमार की भूमिका में स्वीकार कर चुका हूं.
मल्लन साहब धुर निराशावादी हैं. मैं उन्हे फोन कर पूछता हूं – “क्या सीन है बन्धु?”
हर बार एक ही जवाब मिलता है – “सीन क्या है. सब ऑबसीन है!”
“क्यों, क्या हुआ?”
"हुआ क्या; इन्दौर जाना था. कैरिज (सैलून) मेरे नाम था. ऐन मौके पर फलाना बोला कि उसकी बीवी का आंख का ऑपरेशन है इन्दौर में डा. हर्डिया के पास. अब सैलून का मेन बेडरूम उसे देना पड़ा और हम कूपे में टंग कर गये. कुंवारा होने पर यही फजीहत होती है.”
मैने पूरी सहानुभूति जताई.
एक बार और मुंह लटकाये मिले. पूछा – “क्या बात है?”
बोले – “ढ़िमाके की पोस्टिंग हो गयी है बाहर. उसने अपनी फैमिली मेरे घर में मय सामान रख दी है दो महीने के लिये – यह कह कर कि मुझ अकेले को तो एक कमरा ही काफी है. अब मुझे अपने ही घर में एक कमरे में सिमटना पड़ गया है. उस कमरे में भी ढ़िमाके ने पैकिंग कर सामान के कार्टन रख दिये हैं. मेरे किचन पर उसकी बीवी का कब्जा है और रोज मसूर की दाल खानी पड़ रही है जो मुझे बिल्कुल पसन्द नही! बड़ी तल्खी से कैलेण्डर के दिन काट रहा हूं.”
मैं जब भी उनके पास जाता हूं; कुंवारा होने के कारण एक न एक परेशानी से ग्रस्त पाता हूं – जो मित्र लोग उन्हें थमा देते हैं. मित्र समझते हैं कि अकेला आदमी है, बम्बई में चार कमरे का फ्लैट ले कर रह रहा है; शरीफ है, सो फायदा उठाया जाये.
एक दिन मैने पूछ ही लिया. “बन्धु, जब इतना चोट देते हैं दोस्त लोग तो शादी क्यों नही कर लेते?”
बहुत देर तक मल्लन साहब उडिपी रेस्तराँ में दोसे का टुकड़ा कांटे में फंसाये रहे. फिर धीरे से बोले – “यार अभी जितना कष्ट है, उसका तो अभ्यास हो गया है. शादी कर ली – इस उम्र में, और नहीं चल पायी तो कहीं ज्यादा कष्ट होगा. पचास साल का होने पर किसी के साथ एडजस्ट करना भी तो कठिन काम है.”
कम से कम भारत मे नया आया फ़ंडा" लीव इन "वाला ही ट्राई करा दीजीये ,साल दो साल मे बात ना जमी तो कोई दूसरा देख लेगे.और अगर जम गई तो शादी करा दे्ना जी..दोस्ती निभाईये..?
ReplyDeleteअरूणजी,
ReplyDeleteकैसा अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं । "लिव इन" सम्बन्ध भारत की सभ्यता और संस्कृति के बिल्कुल खिलाफ़ हैं । लगता है आपका पता बजरंग दल वालों को देना पडेगा :-)
ज्ञानदत्तजी,
इस विषय पर कुछ टिप्पणी करने को सूझ नहीं रहा है, बस आये थे पढने तो लिखकर जा रहे हैं ।
वैसे भी जिसके जिसके हाथ में विवाह की 'रेखा' थी, टंग गया...मल्लन साहब रेखा नहीं रहने से टंग गए....बात एक ही है...तंगना तो पड़ेगा ही, 'रेखा' या नो रेखा..
ReplyDeleteएक ऐसे ही शख्स हम लोगों के दोस्त है। बाक़ी तो आपने लिख ही दिया है।
ReplyDeleteदुखी होने के दो तरीके हैं-
ReplyDeleteएक शादी करके
और दूसरा शादी न करके
पहले वाले में सहूलियत है, इस गलतफहमी के सहारे जिंदगी कट जाती है कि काश अगले जन्म में कुछ और हो जाये, तो मजे की कटेगी। दूसरे तरीके में संभावनाएं अपार होती हैं, पर एक उम्र के बाद मारामार हो लेती है।
कई मामलों के तह मे जाने के बाद बता रहा हूं, शादी शुदा होने के आड़ में चरित्रहीनता की संभावनाएं ज्यादा एक्सप्लोर करते हैं लोग। कुंवारे पर तो यूं ही ठप्पा होता है, जरुर गुरु किसी गुंताड़े में होंगे।
मल्लन जी से कहिए कि अब तो सीनियर सिटीजन भी हाथ-पैर मार रहे हैं।
मल्लन एक व्याधि हैं विचार हैं और ऐसे लोग अमर हैं क्योकि विचार कभी नहीं मरते।
ReplyDeleteआप की हर पोस्ट कुछ ना कुछ कहती है।
अच्छा है।
क्षमा कीजिएगा, आपकी आलोचना करने का दुस्साहस कर रहा हूं, हो सकता है कि मैं गलत होऊं।
ReplyDeleteसमीर लाल जी जिस पोस्ट से प्रेरित होकर आपने मल्लन साहब का आविष्कार किया है, उसमें मल्लन का मल्लनत्व ऐसे परिभाषित किया गया है:-
"यह उनका स्वभाव था कि कभी किसी बात पर खुश नहीं होना और मीन मेख निकाल कर सामने वाले पर मढ़ देना."
आपके साहब में ऐसे कोई लक्षण दिखाई नही पड़ रहे हैं।
".......किसी के साथ एडजस्ट करना भी तो कठिन काम है.” यह स्वीकारोक्ति किसी मल्लन की नही हो सकती फिर चाहे वो चाचा हो या साहब।
आपके साहब "अटल" "ए.पी.जे.अबुल कलाम" "जयललिता" "मायावती" "ममता" इत्यादि के "....त्व" से प्रेरित, उत्प्रेरित, प्रभावित, शापित कुछ भी हो सकते हैं किन्तु मल्लन नही हो सकते।
एक बार पुनः,यदि कोई धृष्टता हो गई हो तो कृपया क्षमा करें, मैं अपने आप को लिखने से रोक नही पाया।
अरे, यह पोस्ट तो हमारी नजर से चूक ही गई थी. शायद मैं उस वक्त छुट्टी पर था. :)
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