|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
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|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Tuesday, August 7, 2007
गूगल सर्च - मीडिया ही सयाना नहीं है खबर जानने में!
आज का दिन गूगल सर्च की पोस्टों के नाम ही! बस, आपके झेलने के लिये यह आज की दूसरी और अंतिम पोस्ट है. और फिर गूगल सर्च की पोस्ट बन्द.
खबर सूंघने-जानने को मीडिया ही शेर नहीं है. ट्रैफिक पैटर्न - चाहे वह रेल का हो या टेलीफोन का, मीडिया से पहले खबर का ट्रिगर देता है.
आपको अमेरिका में पुल टूटने की खबर तो होगी ही. उस खबर को पहले मीडिया ने नहीं, मोबाइल कम्पनी ने सूंघा था. कुछ वैसी ही बात लिखी है शिकागो ट्रिब्यून की इस खबर में. मिनीसोटा के पुल गिरने की खबर आने से पहले ही मोबाइल कम्पनी T-mobile के इंजीनियरों को अन्दाज लग गया था कि कसीं कुछ जबरदस्त हुआ है. मोबाइल फोन की काल पैटर्न में बहुत ही स्पष्ट अंतर महसूस किया उन इंजीनियरों नें. ताबड़तोड़ तरीके से उन्होने पता किया कि क्या गुल खिला है और आनन-फानन में उन्होने पुल के पास दो सेलफोन के टावरों पर अतिरिक्त रेड़ियो उपकरण फिट कर दिये. उनको यह मालूम था कि अगर भीषण दुर्घटना होने पर संचार ठप हो जाये तो उपभोक्ता को और भी आशंका और झल्लाहट होती है.
भारत में भी यह बार-बार होता है, पर यहां शायद मोबाइल कम्पनियों में T-mobile जैसी तत्परता नहीं है. बहुधा लोग कहते पाये गये है कि सरकार ने मोबाइल/फोन जैमिंग कर दी है फलानी जगह बम-ब्लास्ट होने पर जिससे दंगा न हो. जबकि होता मात्र यह है कि संचार माध्यम अक्षम/विफल होते हैं अतिरिक्त यातायात डील करने में.
वैसे एक्सपर्ट सलाह है कि जब इमरजेंसी बने इस प्रकार की तो फोन की बजाय एसएमएस सेवा का प्रयोग करना चाहिये. उससे फोन यातायात की बाढ़ के कारण जैमिंग और "नेटवर्क व्यस्त है" की स्थिति से बचा जा सकता है.
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सरजी
ReplyDeleteआप तो विकट डेंजरात्मक संदेश दे रहे हैं इस पोस्ट के जरिये।
अगर हर दुर्घटना संभावित इलाके में मोबाइल आपरेटरों को खंभे गाड़ने पड़ गये, तो फिर देश के सारे मोबाइल टावर, खंभे-ऊंबे सिर्फ और सिर्फ रेलवे ट्रैकों के इर्द ही गिर्द खर्च हो लेंगे।
फिर बाकी देश की मोबाइल सेवा का क्या होगा जी।
भाषा को लेकर लापरवाह और दम्भी होने का आरोप और वह भी आप पर . कहीं से भी सच प्रतीत नहीं होता . अरे महाराज! ब्लॉगजगत में हैं कितने जो आपके जैसी भाषा लिख सकते हैं .
ReplyDeleteअटपटा और ऊटपटांग लिखने वाले ढेरों हैं . जो ठीक-ठाक लिखते हैं, उनमें भी कुछ तो बिल्कुल अलोना लिखते हैं और कुछ में नमक इतना ज्यादा होता है कि पूरा मुंह नुनिहा जाता है .
एक आप ही तो हैं जिनके लेखन में सेंधा नमक हो या काला नमक एकदम सही अनुपात में होता है . एकदम दुरुस्त और पाचक . सो ऐसे ही लिखते रहिए .
आलोक जी बस सर्विस भूल गये क्या बसे के उपर भी खंबे लगेगे क्या....? और सरकारे उनका क्या ..?
ReplyDeleteगोवा जैसी जगह का भी कोई इलाज सोचिये..:)
एक अच्छा संदेश दिया. एस एम एस का सदुपयोग ऐसे ही समय में करना चाहिये वरना सतत दुरुपयोग तो जारी है.
ReplyDeleteअच्छा लगा यह पोस्ट पढ़ना.
बढ़िया जानकारी पर आलोक जी की सटीक टिप्पणी
ReplyDeleteआलोक पुराणिक जी क्या बेकार में चिंतित हैं या इनकी चिंता में कुछ दम है! आप लिखते हैं हम गूगल पुराण सुन सकते हैं ! बहुत देर तक!वैसे भी कोई राशनिंग थोड़े है।
ReplyDeleteभाई ज्ञान जी
ReplyDeleteमीडिया के यही सब तो हाथ-पैर हैं. और मीडिया कौनो अफलातून थोड़ो है कि अपने-आप सब जान जाए.
अरे! मेरी यह टिप्पणी आपकी पिछली पोस्ट पर थी,यहां कैसे पहुंच गई ? लगता है मुझसे ही कोई गड़बड़ हुई है .
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