1. लोग पच्चीस-तीस की उम्र में जड़ हो जाते हैं. पर दाह संस्कार के लिये 80-90 की उम्र तक इंतजार करते हैं. बीच का समय टेलीवीजन की शरण में काटते हैं. यह कैसे रोका जा सकता है? लोगों की जीवंत उम्र कैसे बढ़ाई जा सकती है?
2. ऐसा क्यों है कि दुख-दर्द हमें असीमित लगते हैं. अन्याय अत्याचार विकराल प्रतीत होते हैं. अच्छाई को टॉर्च लेकर ढ़ूंढ़ना पड़ता है. जबकि ये सब ईश्वर प्रदत्त हैं और असीमित हैं. हम जो सोचने लगें वही प्रचुर मात्रा में मिल सकता है. पर हमारी सोच में अभाव और अकाल ही क्यों आते हैं?
3. हम गरीबी, भुखमरी, बीमारी, अकेलापन, अभाव नहीं चाहते. पर अपने सोचने, बोलने और लिखने में उसी का महिमामण्डन करते हैं. उसी में हमें सरलता, निरीहता, भोलापन और करुणा नजर आती है. हम इस प्रकार के सोचने, लिखने और बोलने के प्रति निर्मम क्यों नहीं हो सकते?
4. एंट्रॉपी हममें बढ़ रही है. अव्यवस्था हममें अनियंत्रित है. पर हम देख बाहर रहे हैं – बाहर कितना कचरा है. लोग कितने जाहिल और काहिल हैं. भय हमारे अन्दर है पर उसका कारण हम बाहर खोज रहे हैं – कितने सांप हैं बाहर, कितने माफिया हैं, कितने दादा हैं. हम अपने में नहीं बाहर गलतियां देख रहे हैं.
5. अपने समय को रेत की तरह मुठ्ठी से निकल जाने दे रहे हैं. एक के बाद एक दिन कैलेण्डर से काट रहे हैं. पर जब कुछ करने की बारी आती है, या करने का संकल्प करने की बारी आती है तो अचानक समय की किल्लत लगने लगती है. समय मिल ही नहीं पाता. इतना काम है, इतना काम है कि कोई काम नहीं हो पाता.
(शेष फिर कभी.... )
उक्त चिंतायें तो मन/प्राण के स्तर की हैं. पर एक चिंता पूर्णत: अधिभौतिक है - यह भाव हमेशा क्यों आता है कि लोग आपके लिखे में गलतियां सहन नहीं करेंगे या छिद्र ढ़ूंढ़ेंगे? और यह विचार तब आते हैं, जब चेतना के स्तर पर मैं जानता हूं कि उत्कृष्टता के लिये अपने को उत्तरोत्तर नकार सहने को तैयार रखना चाहिये!
जायज चिंतन, शिवकुमार मिश्र जी के अतिरिक्त पुराणिक जैसे कुछ और मित्र बनाईये ।
ReplyDeleteआपको भी स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें
संजीव
मैं भी आपकी पोस्ट उसी अवस्था में पढ़ रहा र्हा जैसा कि चित्र नम्बर दो. और कोई रास्ता क्यूँ नहीं सूझता?
ReplyDeleteखैर, स्वतंत्रता दिवस की बधाई-शुभकामनायें.
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसरजी
ReplyDeleteबात में दम है,
पर मसला यह है कि ऐसा हमेशा था।
सारे लोग एक्टिव हमेशा कभी नहीं थे,
सारे लोग जड़ हमेशा कभी नहीं थे
इतिहास को पढ़कर जो एक प्रेरणा और सांत्वना मुझे यह मिलती है, कि सारे हरामी, बदमाश, चालू, काम टालू, हमारे वक्त में ही नहीं हैं।
महाभारत के टाइम में भी थे।
पानीपत युद्धों के टाइम में भी थे।
और तो और स्वतंत्रता संग्राम के टाइम में भी थे।
उसके बाद भी थे।
रहेंगे, हमेशा।
ये सब शाश्वत है।
हर टाइम में सब कुछ रहा है।
जिसका जो मन हो, पकड़ ले।
जो मसले फिलोसोफिकल हैं या स्प्रिचु्अल हैं, उनके हल तो सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत ही हो सकते हैं।
बढ़िया चिंतन किया है।
स्वतंत्रता दिवस की कई गाड़ी भर शुभकामनाएं
लेकिन मैं खुश हूं । इसलिये कि इस अंधकार भरे समय में आप जैसे टॉर्च वाले लोग रोशनी दिखा रहे हैं,
ReplyDeleteमैं खुश हूं क्योंकि जब भी मारे थकान के ज़रा सी ऊंघ आती है तो कोई सजग प्रहरी जगाकर बता देता है बच्चे --'चिर सजग आंखें उनींदीं, आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना'
मैं खुश हूं क्योंकि पच्चीस तीस की और उससे भी ज्यादा उम्र वाले ज्यादातर जड़ बन चुके सीनीयर्स मेरे सामने उदाहरण की तरह हैं, कैसा उदाहरण, कि मुझसे कह रहे हैं भैया हमारे जैसे मत बनना, जड़ मत बनना ।
मैं खुश हूं क्योंकि मैं टीवी ज्यादा नहीं देखता और मुझे पता है कि क्या देखना है ।
मैं बहुत बहुत खुश हूं क्योंकि मैं आवाज़ की दुनिया में काम करता हूं । मेरे पास इतने इतने इतने गीत हैं दुनिया भर के, जो अफ़सोस के पलों में थाम लेते हैं । मैं खुश होता हूं इन गीतों पर थिरकता हूं । और उदास रहता हूं तो इनके कंधों पर सिर रखकर रो लेता हूं ।
मैं बहुत बहुत खुश हूं क्योंकि बहुत कम समय होने के बावजूद मैं अपनी पसंद की चीज़ों के लिए वक्त निकाल कर पा रहा हूं ।
मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मैं खुशियों के हज़ार हज़ार कारण बता सकता हूं । और इसलिये भी क्योंकि आपने ये चिट्ठा लिखा ।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें
ReplyDeleteसभी विचार-बिंदु बहुत विचारोत्तेजक हैं . चिंतन कण उर्फ़ बिंदु संख्या-तीन में कहीं मेरे लिए तो संकेत नहीं छुपे हैं . गरीबों से सहानुभूति और पक्षधरता तो है, पर क्या उनका महिमा-मण्डन भी दिखता है मेरे विचारों में ?
ReplyDeleteआपने संकेत दिया है तो एक बार पुनः विचार करूंगा . हठधर्मिता से आज तक किसी को क्या हासिल हुआ है .
आपने कुछ सोचने के लिए प्रेरित किया इसके लिए आभारी हूं .
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये
ReplyDeleteआपकी ये पोस्ट पढ़कर चिंतित होने का मन किया लेकिन मन को बरज दिया यह सोचकर कि चिंता चिता से बढ़कर है। हम तो न होंगे चिंतित। वैसे आपको बतायें कि हमारे कई दोस्त इसी बात से चिंतित हो जाते हैं कि हम चिंता ही नहीं करते। हमारा तो नारा रहा है-दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो। आप भी अपनाइये न इस नारे को।
ReplyDeleteवैसे पोस्ट बहुत धांसू है, जरा भी गफ़लत हो जाती तो चिंतित हो जाते! :)
रात का १:२२ हो रहा है, सोचा था सोने से पहले एक बार चिट्ठों पर नजर दौडा ली जाये, अब तो नींद आने से रही ...
ReplyDeleteआपकी चिन्ताओं ने हमारी भी चिन्तायें बढा दी हैं :-)
कुछ समय के लिये युवाओं को सोचने का काम दीजिये और आप युवाओं की तरह(वैसे आप अभी युवा ही तो हैं) मौज मस्ती कीजिये ।
साभार,
वाह! क्या बात है, कित्ता अच्छा चिन्तन है।
ReplyDeleteआपने तो एक दो पोस्ट लिखने के लिए मसाला दे दिया। इस पर हम विचार जरुर व्यक्त करेंगे।
तब तक के लिए आप ओशो की पुस्तकें पढिए और आज के दिन(१५ अगस्त) तो कम से कम मस्त रहिए।
आलोक जी और युनुस जी से सहमत हूँ।
ReplyDeleteआपको स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए।
सही!! पर शेष का इंतजार रहेगा!!
ReplyDeleteदर-असल यही चिंतन प्रक्रिया ही हमे एहसास दिलाती है कि हम कहां है और क्या हैं!!
स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनाएं !!