दम्भ, स्नॉबरी, रुक्षता, मीकनेस, लल्लुत्व, चिर्कुटई.... ये सभी दुर्गुण सभी वर्गों में विद्यमान हैं. असल में ये मानव मात्र के गुण (दुर्गुण) हैं. मैने “मीक, लल्लू, चिर्कुट और क्या?” लिखा. मैने ही कल “उच्च-मध्य वर्ग की अभद्र रुक्षता” लिखा. उच्च वर्ग के विषय में नहीं लिखा; इसका अर्थ यह नहीं कि वह वर्ग इन गुणों से अछूता है. असल में इस वर्ग का मेरे पास सूक्ष्म अवलोकन नहीं है. इस वर्ग के लोग मिलते हैं, पर वे पूरी तैयारी से अपना बेस्ट फुट फार्वर्ड रखते हैं. उनकी बायोग्राफी पढ़ें तो ज्यादातर वह स्पांसर्ड हेगियोग्राफी (sponsored hagiography - प्रतिभूत संतचरित्र-लेखन) होती है. उससे तो उनके देवत्व के दर्शन होते हैं. दुर्गुण तो किसी की एकपक्षीय निन्दात्मक पुस्तक/लेख में या यदा-कदा किसी रईसजादे द्वारा सड़क के किनारे गरीबों के कुचल दिये जाने और फिर न्याय व्यवस्था से छेड़छाड़ में दीख जाते हैं.
अच्छाई और बुराई किसी वर्ग विशेष की बपौती नहीं हैं. कई पोस्टें मैने विभिन्न व्यक्तियों/जीवों के विषय में लिखीं और पढ़ी हैं जो उनके गुणावगुणों को दर्शाती हैं. वास्तव में कोई भी व्यक्ति, अपने श्रम, बौद्धिक ऊर्जा अथवा समग्र समाज के लिये सम्पदा बढ़ाने वाले गुणों से अगर समाज को समृद्ध करता है; तो चाहे वह श्रमिक हो, या मध्यवर्गीय या उच्च वर्गीय - स्तुत्य है.
और मैं अपने में भी विभिन्न वर्गों के प्रति अवधारणा में परिवर्तन देखता हूं. पहले – यह ब्लॉगरी प्रारम्भ करते समय मेरे मन में कई वर्गों के प्रति पूर्वाग्रह थे. पर ब्लॉगरी ने अनेक प्रकार के लोगों को देखने का अवसर दिया है. और मुझे लगता है कि हर वर्ग, हर व्यक्ति (मैं सहित) में कोई न कोई सिनिसिज्म (cynicism - दोषदर्शिता) है. कोई न कोई जड़ता या बुराई है. फिर भी हर वर्ग/व्यक्ति में देवत्व भी है. यह जरूर है कि ब्लॉगरी में विभिन्न प्रकार के लोगों से अथवा उनके लिखे से इण्टरेक्शन (आदान-प्रदान) न होता तो मैं आपने पूर्वाग्रहों की जड़ता में, अपने छोटे से दायरे में, अपनी आत्म-मुग्धता में लिप्त रहता.
और यह कैसे होता है? शायद ब्लॉगरी जाने-अनजाने में आपको एक भौतिक या वर्चुअल नेटवर्क से जोड़ती है. आप एक व्यक्ति को या उसके लेखन को पसन्द करते हैं. अचानक आप पाते हैं कि वह आपका पसन्दीदा आदमी एक ऐसी विचारधारा/व्यक्ति को भी पसन्द करता है जिसे आप तनिक भी नहीं करते. आप अपने अहं में यह तथ्य नकार सकते हैं, पर बहुधा आप अपने मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करने लगते हैं. कई बार – और अधिकांश बार आप अपने को करेक्टिव कोर्स पर ले आते हैं.
आप तो आस्था चैनल हो गये आज ज्ञानजी। अच्छा लगा। :)
ReplyDeleteअपना सतत स्वमूल्यांकन स्वयम को बेहतर व्यक्ति बनायेगा. कम से कम मुझे अपने पर यह विश्वास होता जा रहा है
ReplyDelete-मगर अनर्गल प्रलापों के तहत नहीं, सिर्फ सही मूल्यांकनों के आधार पर...अब यह तय कौन करेगा..आप ही न?? तो अब तक भी तो आप सही हैं फिर काहे टेंन्शनिया रहे हैं, हम समझ नहीं पा रहे..जरा समझाये तो...और लिखते जरुर रहें अगर न भी समझायें तो... :)
यदि उपर्युक्त दुर्गुण सभी वर्ग में मिलते हैं.. तो किसी व्यक्ति में एक दुर्गुण देखकर उसे उसके वर्गदोष की तरह चिह्नित ही क्यों करें?
ReplyDeleteबाकी हलचल एक्सप्रेस सही टाइम पर आ गई.. और सही हलचल करती निकल गई..
धांसू च फांसू प्रवचन।
ReplyDelete"आप एक व्यक्ति को या उसके लेखन को पसन्द करते हैं. अचानक आप पाते हैं कि वह आपका पसन्दीदा आदमी एक ऐसी विचारधारा/व्यक्ति को भी पसन्द करता है जिसे आप तनिक भी नहीं करते."
ReplyDeleteसत्यवचन, ऐसा अनुभव कई बार हो चुका है।
कल की बात का असर अब तक है, सीरियस मू़ड में लग रहे हैं। जाइए पुराणिक जी की अगड़म-बगड़म पढ़ आइए। हम तो हाजिरी लगा आए। :)
@ अनूप- एक आस्था ब्लॉग आप शुरू करें - फुर्सत से. उसमें रेगुलर कण्ट्रीब्यूशन का वादा है मेरा.
ReplyDelete@ समीर लाल - आप निश्चिंत रहें. बाकी कभी-कभी मूड़ बदल जाता है - मूड ही तो है!
@ अभय - अवश्य, रेलवे में रहते पटरी पर लाना ही तो सीखे हैं हलचल एक्स्प्रेस को.
@ आलोक - अगड़म-बगड़म से 4 शब्दों की टरकाऊ टिप्पणी जमती नहीं.
@ श्रीश - अगड़म - बगड़म पढ़ आये. ये आलोक जी को बोलो न जो अज़दक जी के अन्दाज में "हूं हां" वाली टिप्पणी भर कर रहे हैं! वह भी सण्डे के दिन.
लो जी
ReplyDeleteहम फिर आ गये।
वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है
मानव मन बहुत पेचीदा आइटम है। हरिशंकर परसाईजी की एक व्यंग्य रचना है, जिसका आशय यह है कि अगर कोई आपसे कहे जी हें हे मैं आपके चरणों का सेवक, और अगर आप इसे फेस वैल्यू पर ले गये, तो मामला प्राबलमिया जायेगा। वह कहता कुछ है, उम्मीद कुछ करता है। हममें से अधिकांश व्यक्ति आत्ममुग्धता का शिकार होते हैं। दरअसल आप देखें, तो आत्मसमान और आत्ममुग्धता और उसके अपर वर्जन आत्मरति के फर्क को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। और खुद पकड़ पाना तो बहुत ही मुश्किल है। आपके आसपास लोग बतायें, तो ईमान से उसे आत्मसात करना आसान नहीं होता। हर बंदा छोटा-मोटा सिंकदर है। यूनीक पीस टाइप। और ऐसा मानना जीने के लिए एक हद तक जरुरी भी है। कुछ मुगालते अगर बंदा ना पाले, तो मर जाये। हां ये मुगालते औरों को बहुत कष्ट देने लग जायें, तो परिणाम सामने आने लगते हैं। लोग झेलू, बोर मानकर कटने लगते हैं। फिर परिवेश के असर को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते। अफसर चाहे जित्ता विनम्र हो ले, वह विनम्रता की उस श्रेणी तक कभी नहीं पहुंच सकता, जिस पर नान अफसर रहता है। परिवेश का असर है। नान अफसर नामक ऊंट को रोज पहाड़ पर आना पडता है। मतलब अफसर से मेरा आशय उस व्यक्ति है, जो किसी भी क्षेत्र में कुछ अधिकारों, हूकूमत करने के लिए एक आडियंस और कुछ सुविधाओं से लैस है। ये अफसर सिर्फ सरकार में ही नहीं होते, मीडिया से लेकर विश्वविद्यालयों में भी होते हैं। अफसर नामक ऊंट का पहाड़ उसका बड़ा अफसर होता है, या कभी कभार वह दूसरे पहाडों पर फंसता है। इसलिए आत्मालोचना भी एक हद तक ही कारगर होती है। अपने अपने फ्रेम से सच्ची में बाहर आना बहुत मुश्किल काम है। हम कितने ऊंट हैं, और कितने पहाड़ हैं, इसके लिए जरुरी है कि ज्यादा से ज्यादा वर्गों के लोगों से डायलाग रखा जाये, उनकी दुनिया में जाया जाये। वहां विभिन्न स्तरों पर अपना ऊंटत्व और दूसरों का पहाड़त्व सामने आता है। कोई खुद को भौत तोप राइटर समझे, तो वह बडे राइटरों के बीच जाकर समझ सकता है, बेटा तेरी औकात क्या है। या बड़े राइटरों को पढ़कर औकात को करेक्ट कर सकता है। पहाड़ सब जगह हैं, अफसरी, प्रोफेसरी, कंप्यूटरबाजी, कविता, कहानी, अगड़म-बगड़म सब जगह। पर उनसे मिलने सरोकार रखने से अपना ऊंटत्व पता लगता है।
वर्चुअल दुनिया थोड़ी खतरनाक इसलिए है कि यह मामला इंस्टेंट है। एक विचित्र सी सनसनी, गहमागहमी, मैने आज किला मार लिया, ओ बेट्टा बमचक हो लिया, देक्खा तेरी ऐसी तैसी फेर दी-टाइप स्थितियां बहुत ज्यादा और जल्दी बन जाती हैं। एक दिन में इतिहास बन जाते हैं और इतिहास के कई कूड़ेदान भी।
खैर, अंत में मामला पर्सन टू पर्सन का हो जाता है। अपने फ्रेमवर्क का हो जाता है। फ्रेमवर्क के पार जाना बहुत मुश्किल काम है। जितने फ्रेमवर्कों में बंदा जा पाये, उतना ही उसका ऊंटत्व ज्यादा सामने आता है।
देक्खाजी, आप आस्था चैनल खोलें, तो हम भी कभी कभी कुछ ठेल लेंगे।
ऊपर लिखे मसले को सीरियसली लें या न लें, आपकी मर्जी, वैसे मैं खुद भी अपने को सीरियसली नहीं लेता।
वाह दादा ये हुई ना बात कुछ नही कहा और सब कुछ कह दिया..आप मस्त लिखते रहिये ..आलू-चना का अपना टेस्ट है आने दीजीये,आखिर हमने इनको भी तो ट्रायल करने का स्थान उपल्ब्ध कराना है ना..बाकी रिटायरमेंट तक काहे पहुचते है आप..जब वो होगा तब देखियेगा...:)
ReplyDelete@ आलोक पुराणिक - आपने तो शिवराम कारंत की "मूकज्जी" की याद दिला दी. कहां तो मूक रहती थीं और बोला तो सैलाब.
ReplyDeleteखैर, आप सीरियसली लें न लें, हम तो आपको बहुत सीरियसली लेते हैं - तभी तो प्रोवोक किया बोलने के लिये. :)
@ अरुण - चलो, बात आयी, गयी, हो गयी. हम सभी समझदार बनें समय के साथ - यही होना चाहिये.
ReplyDeleteज्ञान दद्दा की ज्ञान गंगा!! पसंद आई ( नई तो अपन तो आस्था चैनल पे कभी टिकते ही नई, फ़टाक से बदल देते हैं)
ReplyDelete"आत्म मंथन, अपना सतत स्वमूल्यांकन स्वयम को बेहतर व्यक्ति बनायेगा. कम से कम मुझे अपने पर यह विश्वास होता जा रहा है।"
इस बात से पूर्णरुपेण सहमत हूं।
अहाहाहा वाह क्या भरी हुई ज्ञान बिड़ी है । खालिस मजेदार सुट्टा जो जिगर को दाग़ दाग कर दे । और दिल को जलाकर रख दे । ज्याेदा सुट्टा लगा लिया अब खांसी आ रही है । खों खों खों खों ।
ReplyDeleteआप ने सही फर्माया अच्छाई और बुराई किसी वर्ग विशेष की बपौती नहीं हैं। आप की पोस्ट की राह देखता हूँ।
ReplyDeleteहमें तो दो ही बातें ध्यान आ रही हैं। बुरा जो देखन मैं चला .....और प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो....
ReplyDeleteज्ञानगंगा का रस ले रहे हैं। आभार ...
ज्ञानदत्त जी बहुत सही लिखा । आप की बात से सहमत हैं ।
ReplyDelete"आप एक व्यक्ति को या उसके लेखन को पसन्द करते हैं. अचानक आप पाते हैं कि वह आपका पसन्दीदा आदमी एक ऐसी विचारधारा/व्यक्ति को भी पसन्द करता है जिसे आप तनिक भी नहीं करते."
श्री श्री १०८ स्वामी ज्ञानभारती जी की जय हो ।
ReplyDeleteगहन आत्ममंथन के पश्चात बहुत प्रेरक पोस्ट फटकारी है . निष्कर्षों से सहमति है .
बीच-बीच में सोमवार की सोमवार ऐसे प्रेरणात्मक प्रवचन/पोस्ट ठोक दिया करें . आभासी-रेवड़ का अहं कंट्रोल में रहेगा . तभी तो अहं के उत्तुंग शिखर पर बैठे हम रवीन्द्रनाथ की भाषा में कह पाएंगे : नामाओ नामाओ आमाय (हे प्रभु! मुझे नत करो . विनय दो .)
बहुत खूब
ReplyDeleteअतुल
श्री श्री १०८ स्वामी ज्ञानभारती जी की जय हो ।
ReplyDeleteगहन आत्ममंथन के पश्चात बहुत प्रेरक पोस्ट फटकारी है . निष्कर्षों से सहमति है .
बीच-बीच में सोमवार की सोमवार ऐसे प्रेरणात्मक प्रवचन/पोस्ट ठोक दिया करें . आभासी-रेवड़ का अहं कंट्रोल में रहेगा . तभी तो अहं के उत्तुंग शिखर पर बैठे हम रवीन्द्रनाथ की भाषा में कह पाएंगे : नामाओ नामाओ आमाय (हे प्रभु! मुझे नत करो . विनय दो .)
लो जी
ReplyDeleteहम फिर आ गये।
वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है
मानव मन बहुत पेचीदा आइटम है। हरिशंकर परसाईजी की एक व्यंग्य रचना है, जिसका आशय यह है कि अगर कोई आपसे कहे जी हें हे मैं आपके चरणों का सेवक, और अगर आप इसे फेस वैल्यू पर ले गये, तो मामला प्राबलमिया जायेगा। वह कहता कुछ है, उम्मीद कुछ करता है। हममें से अधिकांश व्यक्ति आत्ममुग्धता का शिकार होते हैं। दरअसल आप देखें, तो आत्मसमान और आत्ममुग्धता और उसके अपर वर्जन आत्मरति के फर्क को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। और खुद पकड़ पाना तो बहुत ही मुश्किल है। आपके आसपास लोग बतायें, तो ईमान से उसे आत्मसात करना आसान नहीं होता। हर बंदा छोटा-मोटा सिंकदर है। यूनीक पीस टाइप। और ऐसा मानना जीने के लिए एक हद तक जरुरी भी है। कुछ मुगालते अगर बंदा ना पाले, तो मर जाये। हां ये मुगालते औरों को बहुत कष्ट देने लग जायें, तो परिणाम सामने आने लगते हैं। लोग झेलू, बोर मानकर कटने लगते हैं। फिर परिवेश के असर को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते। अफसर चाहे जित्ता विनम्र हो ले, वह विनम्रता की उस श्रेणी तक कभी नहीं पहुंच सकता, जिस पर नान अफसर रहता है। परिवेश का असर है। नान अफसर नामक ऊंट को रोज पहाड़ पर आना पडता है। मतलब अफसर से मेरा आशय उस व्यक्ति है, जो किसी भी क्षेत्र में कुछ अधिकारों, हूकूमत करने के लिए एक आडियंस और कुछ सुविधाओं से लैस है। ये अफसर सिर्फ सरकार में ही नहीं होते, मीडिया से लेकर विश्वविद्यालयों में भी होते हैं। अफसर नामक ऊंट का पहाड़ उसका बड़ा अफसर होता है, या कभी कभार वह दूसरे पहाडों पर फंसता है। इसलिए आत्मालोचना भी एक हद तक ही कारगर होती है। अपने अपने फ्रेम से सच्ची में बाहर आना बहुत मुश्किल काम है। हम कितने ऊंट हैं, और कितने पहाड़ हैं, इसके लिए जरुरी है कि ज्यादा से ज्यादा वर्गों के लोगों से डायलाग रखा जाये, उनकी दुनिया में जाया जाये। वहां विभिन्न स्तरों पर अपना ऊंटत्व और दूसरों का पहाड़त्व सामने आता है। कोई खुद को भौत तोप राइटर समझे, तो वह बडे राइटरों के बीच जाकर समझ सकता है, बेटा तेरी औकात क्या है। या बड़े राइटरों को पढ़कर औकात को करेक्ट कर सकता है। पहाड़ सब जगह हैं, अफसरी, प्रोफेसरी, कंप्यूटरबाजी, कविता, कहानी, अगड़म-बगड़म सब जगह। पर उनसे मिलने सरोकार रखने से अपना ऊंटत्व पता लगता है।
वर्चुअल दुनिया थोड़ी खतरनाक इसलिए है कि यह मामला इंस्टेंट है। एक विचित्र सी सनसनी, गहमागहमी, मैने आज किला मार लिया, ओ बेट्टा बमचक हो लिया, देक्खा तेरी ऐसी तैसी फेर दी-टाइप स्थितियां बहुत ज्यादा और जल्दी बन जाती हैं। एक दिन में इतिहास बन जाते हैं और इतिहास के कई कूड़ेदान भी।
खैर, अंत में मामला पर्सन टू पर्सन का हो जाता है। अपने फ्रेमवर्क का हो जाता है। फ्रेमवर्क के पार जाना बहुत मुश्किल काम है। जितने फ्रेमवर्कों में बंदा जा पाये, उतना ही उसका ऊंटत्व ज्यादा सामने आता है।
देक्खाजी, आप आस्था चैनल खोलें, तो हम भी कभी कभी कुछ ठेल लेंगे।
ऊपर लिखे मसले को सीरियसली लें या न लें, आपकी मर्जी, वैसे मैं खुद भी अपने को सीरियसली नहीं लेता।
अपना सतत स्वमूल्यांकन स्वयम को बेहतर व्यक्ति बनायेगा. कम से कम मुझे अपने पर यह विश्वास होता जा रहा है
ReplyDelete-मगर अनर्गल प्रलापों के तहत नहीं, सिर्फ सही मूल्यांकनों के आधार पर...अब यह तय कौन करेगा..आप ही न?? तो अब तक भी तो आप सही हैं फिर काहे टेंन्शनिया रहे हैं, हम समझ नहीं पा रहे..जरा समझाये तो...और लिखते जरुर रहें अगर न भी समझायें तो... :)
"आप एक व्यक्ति को या उसके लेखन को पसन्द करते हैं. अचानक आप पाते हैं कि वह आपका पसन्दीदा आदमी एक ऐसी विचारधारा/व्यक्ति को भी पसन्द करता है जिसे आप तनिक भी नहीं करते."
ReplyDeleteसत्यवचन, ऐसा अनुभव कई बार हो चुका है।
कल की बात का असर अब तक है, सीरियस मू़ड में लग रहे हैं। जाइए पुराणिक जी की अगड़म-बगड़म पढ़ आइए। हम तो हाजिरी लगा आए। :)