जळगांव में प्राइवेट नर्सिंग होम के बाहर, सन 2000 के प्रारम्भ में, मेरे साथी भीड़ लगाये रहते थे. मेरा लड़का सिर की चोटों और बदन पर कई स्थान पर जलने के कारण कोमा में इंटेंसिव केयर में भरती था. मैं व मेरी पत्नी हर क्षण आशंका ग्रस्त रहते थे कि अब कोई कर्मी या डाक्टर बाहर आ कर हमें कहेगा कि खेल खत्म हो गया. पैसे की चिन्ता अलग थी – हर दिन 10-20 हजार रुपये खर्च हो रहे थे. यद्यपि अंतत: रेलवे वह वहन करती पर तात्कालिक इंतजाम तो करना ही था एक अनजान जगह पर.
मै और मेरे पत्नी बैठने को खाली बेंच तलाशते थे. पर एक आदमी और उसकी पत्नी जमीन पर बैठे मिलते थे. उनका लड़का भी भर्ती था – कुयें में गिर कर सिर में चोट लगा बैठा था. शरीर में हड्डियां भी टूटी थीं. पर जिन्दगी और मौत के खतरे के बाहर था.
एक दिन वह व्यक्ति मुझे अकेले में लेकर गया. अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में मुझसे बोला – साहब मैं देख रहा हूं आपकी परेशानी. मै कुछ कर सकता हूं तो बतायें. फिर संकोच में बोला – अपने लड़के के लिये मैने पैसे का इंतजाम किया था. पर उनकी जरूरत नही है. आप परेशानी में हो. ये 20,000 रुपये रख लो.
कुछ मेरे अन्दर कौन्ध गया. ऊपर से नीचे तक मैने निहारा – पतला दुबला, सफेद पजामा कुरते में इंसान. लांगदार मराठी तरीके से साड़ी पहने उसकी औरत (जो बाद में पता चला हिन्दी नहीं समझती थीं). ये अति साधारण लगते लोग और इतना विराट औदार्य! मेरा अभिजात्य मुखौटा अचानक भहरा कर गिर पड़ा. लम्बे समय से रोका रुदन फूट पड़ा. मैं सोचने लगा – कृष्ण, इस कष्ट के अवसर पर हम तुम्हें पुकार रहे थे. तुमने अपनी उपस्थिति बताई भी तो किस वेष में. उस क्षण मुझे लगा कि कृष्ण साथ हैं और मेरा लड़का बच जायेगा.
भगवान जाधव कोळी मेरे लड़के को देखने बराबर आते रहे. पैसे मैने नहीं लिये. उनसे मिला मानवता की पराकाष्ठा का सम्बल ही बहुत बड़ा था . वे मेरे लड़के को देखने कालांतर में रतलाम भी आये. एक समय जब सब कुछ अन्धेरा था, उन्होने भगवान की अनुभूति कराई मुझे.
कुछ इस तरह के भगवान मिल जाते हैं जीवन में...
ReplyDeleteदद्दा! ऐसे ही मौकों पर तो यह एहसास होता है कि अभी इंसानियत खत्म नहीं हुई है और इसीलिए दुनिया चल रही है!
ReplyDeleteबिल्कुल ठीक कहा आपने ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था आप यहा देख सकते है
ReplyDeleteposthttp://pangebaj.blogspot.com/2007/05/blog-post.html
Firaq Gorakhpuri ka ek sher hai..
ReplyDeleteAadmiyon se bhari hai ye bhali duniya magar
Aadmi ko aadmi hota nahin hai dastyaab.
Wo nam se hi nahi karm se bhi bhagawan hain....
ReplyDeleteज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteशायद ये एक लम्बी टिप्पणी हो जाये लेकिन फ़िर भी लिख रहा हूँ । कल टी.वी. पर एक ईसाई पुजारी ने अपने आख्यान में बडी अच्छी बात की थी । उन्होनें कहा था कि अगर आप अपने जीवन में कोई चमत्कार चाहते हैं, तो खुद को किसी के जीवन का चमत्कार बना दीजिये ।
मसलन, आपका कोट और जूते किसी सडक पर रहने वाले व्यक्ति के लिये सर्दी में किसी चमत्कार से कम नहीं होगा ।
किसी वॄद्ध से १० मिनट मिलकर इत्मीनान से उसकी बाते सुनना हो सकता है उस वॄद्ध को चमत्कॄत कर दे ।
किसी गरीब विद्यार्थी के लिये पुस्तकों का दान और ऐसा ही बहुत कुछ । यहां तक कि आपके स्टोरेज में पडा बहुत सा फ़ालतू सामान किसी का चमत्कार बन सकता है ।
ईश्वर की लीला अजब होती है,
यह ईश्वर में आपकी आस्था और भक्ति का प्रताप है कि ईश्वर भगवान जाधव कोली जी के रुप में स्वयं पधारे. ईश्वर अपने भक्तों को इसी तरह अलग अलग रुप में दर्शन देते रहते है.
ReplyDeleteसच ही, भगवान जाधव कोली जी मात्र नाम से नहीं, सच में भगवान हैं. मैं नमन करता हूँ. ऐसे ही कुछ लोगों ने इंसानियत को जिंदा रखा है.
भगवान जाधव कोली जैसे व्यक्ति बीच-बीच में आते हैं हम पढे-लिखे दुनियादारों को यह बताने के लिए कि दुनिया उतनी खुदगर्ज़ और आदमी उतना कमज़र्फ़ नहीं है जितना हम उसे मान चुके हैं .
ReplyDeleteवे आते हैं और इतने आम आदमी के बीच से इतने साधारण ढंग से आते हैं कि मानवता के ऐसे अनमोल मोती की आब हमें पानी-पानी कर देती है .
वे आते हैं और हमें यह बताने आते हैं कि तमाम मक्कारियों-बेईमानियों और छल-छिद्र के बावजूद जीवन जीने लायक है . ईश्वर है और अपनी तमाम बदइंतजामियों के बावजूद वह डूबने वाले को तिनके का सहारा मुहैया करवा ही देता है .
वे आते हैं ताकि इस विपरीत समय में भी ईश्वर के प्रति हमारा विश्वास बना रह सके . वे आते हैं ताकि मनुष्य की स्वाभाविक भलमनसाहत के प्रति हमारा भरोसा कायम रह सके . वे आते हैं ताकि उस सहज-सवाभाविक मानवता की जोत हमारे दिल में जगे . और-और जगे . बारंबार अलग-अलग दिलों में जगे .
पृथ्वी का नमक हैं भगवान जाधव कोली जैसे लोग . वे हैं इसीलिए जीवन जीने लायक है .
तो लीजिए भगवान जाधव कोली के सम्मान में कवि भगवत रावत की एक कविता पढिये :
वे इसी पृथ्वी पर हैं
कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से
वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक-दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अन्देशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी ।