पर शाम को वापस लौटते समय धुन्धलका होता है और अखबार या पुस्तक नहीं पढ़ी जा सकती. ड्राइवर यह जानता है और अपना टेप/रेडियो फुल वाल्यूम पर रखता है. कभी भोजपुरी (श्लीलाश्लील) गाने सुनाता है. कभी ऑल इण्डिया रेडियो का "आपकी फरमाइश – फोन इन कार्यक्रम". मुझे गानों में रुचि कम है, उसका मैं बन्धुआ श्रोता होता हूं. पर आपकी फरमाइश की बात-चीत बहुत एम्यूज़ करती है.
बेचारे श्रोता घंटों से फोन नम्बर घिस रहे होते हैं. फोन लगने पर उनकी खुशी केवल छलकती नहीं, बहती दीखती है. ऐसी खुशी नये-नये ब्लॉगरी में आये व्यक्ति को होती है जिसे समीर जी (या उनके जैसे जोश बढ़ाऊ टिपेरे) ने टिप्पणी दे कर कृतार्थ किया हो.
“जी मेर नाम सपना; माफ करें प्रीती है ... वो जी सपना स्कूल का नाम है; प्रीती घर का ... मेरी ये दोस्त रिंकी भी आप से बात करना चाहती है ... बड़ी देर से ट्राई कर रहे थे ... फोन लगने पर इत्ता अच्छा लग रहा है ... जी वो फलानी फिल्म का ढिमाका गाना सुनना है ... जी मेरी मम्मी भी आ गयी हैं ... वे भी बात करेंगी ... आपको रोज सुनते हैं ...”
“मेरा नाम गब्बर सिघ है जी ... मुझे तो आप पहचानती ही होंगी ... ये अजब इतिफाक है जी कि मैं जब भी फोन मिलाने में सफल होता हूं, आपकी ही ड्यूटी होती है (गब्बर के यह लपेटने पर उद्घोषिका लिपिड़ियाती है, वह उसकी नौकरी है. गली में यह डायलॉग बोलते गब्बर तो कहती - लगाऊं हरामी के पिल्ले दो चप्पल?) ...जी वो 2-3 साल पहले फलाने जी प्रोग्राम पेश करते थे, बतायेंगी वे आजकल कहां हैं ... उन्हे मेरी नमस्ते कहियेगा”
बिल्कुल हिन्दी ब्लॉगरी जैसा माहौल. यहां गदहा सम्मेलन की चर्चा किये चले जाते हैं अरुण जी. शादी का ब्लॉग-पत्र (ई-निमंत्रण) होता है चिठ्ठों पर. पुत्र-रत्न प्राप्ति की खबर होती है. प्राउड ताऊ जी भतीजे का फोटो पेश करते हैं. ये ही क्यों, हम भी भरतलाल की सगाई या कुल्फी लेकर उपस्थित रहते हैं. केवल कुछ ही हंसी को तलाक दिये ब्लॉगर हैं, जो विद्वतापूर्ण लिखते हैं और डिक्शनरी से लैस उनके बन्धुआ/पट्टीदार पाठक टिपेरते हैं.
बस इन विद्वतजनों को छोड़ दें तो हिन्दी ब्लॉगरी बहुत मस्त चीज है – बिल्कुल फोन इन प्रोगाम की तरह! यहाँ माहौल देसी है, अंग्रेजी ब्लॉगरी की तरह फार्मल नहीं।
बस इन विद्वतजनों को छोड़ दें तो हिन्दी ब्लॉगरी बहुत मस्त चीज है – बिल्कुल फोन इन प्रोगाम की तरह! यहाँ माहौल देसी है, अंग्रेजी ब्लॉगरी की तरह फार्मल नहीं।
ReplyDelete---बिल्कुल सहमत हूँ आपसे शत प्रतिशत. एक परिवार सा माहौल होता है, और क्या वजह है जो इसकी लत हो जाती है. इतना हसीन वातावरण कि जब मिलते हैं रुबरु तो लगता है कि वो हमारे परिवार का हिस्सा हैं. आज ही मैने अपनी रमन जी मुलाकात पर कुछ लिखा है.
वाह दद्दा क्या लिखियाया है (बतर्ज टिपियाया)बिल्कुल घरेलू माहौल है वही मस्ती वही जूतपैजार सब यही है जिसकी जो मरजी हो उसमे घुस ले बिल्कुल रेल के डब्बे जैसा हर कोई (उच्च श्रेणी नही)जिस्मे मरजी बतियीये जिसके मरजी खाने मे शामिल हो जिसका मर्जी अखबार उठा कर मांग कर जैसे भी कब्जे मे आये पढ ले,राह्गुजर के लिये राजनीतीयो पर बतियाले बस वही शुद्ध भारतीय माहौल
ReplyDeleteमैं इस अनुभव को दोनों तरफ से पहचानता हूं । क्योंकि रेडियो वाला भी हूं और ताज़ा ताज़ा ब्लॉगरी की लत भी लग गयी है । यानी देसी माहौल का डबल मज़ा है । भई बहुत सही बात कही है, कहना चाहिये कि दूर की कौड़ी लेकर आये हैं आप । जबलपुर के थियेटर वाले दिनों में हम कोई नयी ज्ञानपूर्ण बात बताने वाले से कहते थे, वाह क्या ज्ञान बिड़ी पिलाई है । तो भैया आपसे भी कह दूं कि बहुत बढिया ज्ञान बिड़ी पिलाई है आपने ।
ReplyDeleteव्यापारिक समाचारपत्र की तरह आपके ब्लोग का रंग भी गुलाबी है. हम भी सुबह सुबह इसे पढ़ रहे है. :)
ReplyDeleteसही कह रहे हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आपका चिट्ठा पढ़कर हम खुद को इलीट टाइप महसूस कर रहे हैं.
ReplyDeleteअब ई तो गल्त बात है पांड़े जी ..हम आपको इत्तो बढ़िया गधा गान सुनाए और हमार कोनो जिक्र ही नहीं..
ReplyDeleteवैसे सचमुच बहुत परिवारिक सा माहोल है...इसीलिये हमारा भी यहाँ खूब मन लग रहा है... हमने तीन साल पहले एक अंग्रेजी ब्लॉग शुरु किया था...एक महीने तक खूब लिखे ..अपनी टूटी फूटे अग्रेजी...एक महीने में हिट मिले करीब 3000 (3 साल पहले).. पर मजा नहीं आया ..इसलिये बन्द कर दिया....यहां 1 महीने में कोई 700-800 हिट मिलते हैं ..पर मजा यहीं आता है...इसलिये छुट्टी के दिन भी बीबी को नाराज किये बैठे रहते हैं...ईश्वर ऎसा ही माहोल सदियों तक बरकरार रखे...
पाण्डेय जी,
ReplyDeleteअंग्रेजी ब्लॉगिंग और हिन्दी चिट्ठाकारी मे यही फर्क है, यहाँ हम एक परिवार की तरह है, आपस मे लड़ते भिड़ते भी है, डांट डपट भी, प्यार और स्नेह भी भरपूर देते है। एक मुसीबत आने पर सभी लोग एक साथ खड़े रहते है। चाहे तो आजमा कर देख लीजिएगा। एक और बात, हिन्दी चिट्ठाकारों मे आप बस, अपने लेखन द्वारा, उनसे अपनी फ़्रिक्वेंसी जोड़ लीजिए, फिर देखिए आपके ब्लॉग पर आवाजाही कितनी बढ जाती है।
अब हिन्दी चिट्ठाकारी मे भी विविधता आ रही है, हर प्रान्त, क्षेत्र से लोग आने लगे है, अपने साथ विभिन्न विचारधाराएं, जानकारी और ज्ञान साथ लाने लगे है। आज इन सब को देखकर मन के बहुत सुखद अनुभूति होती है कि हिन्दी चिट्ठाकारी अब फल फूल रही है।
ज्ञानदत्त जी आज वक्त आ गया है आपके एक पुराने सवाल का जवाब देने का। आप जब हिन्दी ब्लॉगिंग में नए-नए आए थे तो आपने एक पोस्ट लिखी थी अपने नए-नए अनुभवों पर - ‘अहो रूपम – अहो ध्वनि’, चमगादड और हिन्दी के चिट्ठे
ReplyDeleteउस समय एक बार मैंने सोचा था कि आपकी बात का जवाब दूँ लेकिन फिर अपने अनुभव से सोचा कि एक दिन आप खुद ही इसका जवाब पा लेंगे। अतः समय की प्रतीक्षा की जाए। आज वह दिन आ गया, अब आपको जवाब मिल चुका है।
असल में जब भी कोई व्यक्ति नया-नया हिन्दी ब्लॉगिंग में आता है तो उसकी मनोस्थिति बहुत विचित्र सी होती है। एक तो उसे पहली बार पता चला होता है कि नैट पर हिन्दी लिखने वालों की भी एक दुनिया है, वह बड़ा सम्मोहित सा होकर हिन्दी चिट्ठों को पढ़ता जाता है। लेकिन साथ ही उसे ऐसा लगता है जैसे कि यह दुनिया एक सीमित सी हो जिसमें बस सब लोग आपस में ही परिचय रखते हैं। वह खुद को इस दुनिया से अजनबी सा महसूस करता है, खासकर विभिन्न चिट्ठों पर मीठी टिप्पणियाँ पढ़कर (ये तू तू मैं मैं तो हाल ही मैं शुरु हुई पहले नहीं थी)। शुरु में वह खुद को इन सब से अलग-थलग महसूस करता है। इसी तरह की मनोस्थिति मे आपने वह चमगादड़ों वाली पोस्ट लिखी थी। लेकिन धीरे-धीरे वह इस दुनिया में रमता जाता है, सबसे परिचय बढ़ता जाता है और उसे इस दुनिया में आनंद आने लगता है। तब वह खुद को यहीं का बाशिंदा महसूस करने लगता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बहुत से साथी पहले इंग्लिश में लिखा करते थे। हिन्दी की दुनिया में ऐसे रमना हुआ कि इंग्लिश में लिखना या तो छूट गया या कभी कभार लिखते हैं।
ऊपर काकेश भाई जैसे ही मेरे भी अनुभव हैं। कोई डेढ़ साल पहले अंग्रेजी ब्लॉग शुरु किया था। दो-तीन महीने सिर्फ गिनी-चुनी पोस्टें लिखकर छोड़ दिया। बाद में हिन्दी चिट्ठाजगत से परिचय हुआ। पहले इंटरनैट पर टैक फोरमों, ब्लॉगों से लेकर पता नहीं कहाँ-कहाँ तक घूमता था, फिर हिन्दी में ऐसा मन रमा कि सब छूट गया। मेरे उस भूतपूर्व अंग्रेजी चिट्ठे पर अब तक हजारों हिट्स आ चुके हैं , अब भी आते रहते हैं। लेकिन अब यहीं मन रम गया है, अंग्रेजी में लिखने का तो अब मन ही नहीं करता।
केवल कुछ ही हंसी को तलाक दिये ब्लॉगर हैं, जो विद्वतापूर्ण लिखते हैं और डिक्शनरी से लैस उनके बन्धुआ/पट्टीदार पाठक टिपेरते हैं.
ReplyDeleteपढ़कर हंसी आयी।
हिंदी या सच कहें कि किसी भी भारतीय भाषा में ब्लागिंग मजेदार है। जिस भाषा को दिन-रात बोलते-बतियाते हैं उसमें अभिव्यक्ति का मजा ही कुछ और है। श्रीश की टिप्पणी बहुत सटीक है। तमाम गलतफ़हमियां अनजाने में होती हैं। आपका लिखा नियमित पढ़ते जाने की आदत बन गयी है! :)
पंडिज्जी! आप व्यंग्य की बहुतै महीन मार मारे हैं .कौन-कौन चिट्ठाकार कहां-कहां चोटियाया है मुहें नहीं खोल रहा है मारे लाज के . किंतु समझ सब रहा है . धांसू लिखे हैं .
ReplyDeleteकेवल कुछ ही हंसी को तलाक दिये ब्लॉगर हैं, जो विद्वतापूर्ण लिखते हैं और डिक्शनरी से लैस उनके बन्धुआ/पट्टीदार पाठक टिपेरते हैं.
ReplyDeleteपढ़कर हंसी आयी।
हिंदी या सच कहें कि किसी भी भारतीय भाषा में ब्लागिंग मजेदार है। जिस भाषा को दिन-रात बोलते-बतियाते हैं उसमें अभिव्यक्ति का मजा ही कुछ और है। श्रीश की टिप्पणी बहुत सटीक है। तमाम गलतफ़हमियां अनजाने में होती हैं। आपका लिखा नियमित पढ़ते जाने की आदत बन गयी है! :)
पाण्डेय जी,
ReplyDeleteअंग्रेजी ब्लॉगिंग और हिन्दी चिट्ठाकारी मे यही फर्क है, यहाँ हम एक परिवार की तरह है, आपस मे लड़ते भिड़ते भी है, डांट डपट भी, प्यार और स्नेह भी भरपूर देते है। एक मुसीबत आने पर सभी लोग एक साथ खड़े रहते है। चाहे तो आजमा कर देख लीजिएगा। एक और बात, हिन्दी चिट्ठाकारों मे आप बस, अपने लेखन द्वारा, उनसे अपनी फ़्रिक्वेंसी जोड़ लीजिए, फिर देखिए आपके ब्लॉग पर आवाजाही कितनी बढ जाती है।
अब हिन्दी चिट्ठाकारी मे भी विविधता आ रही है, हर प्रान्त, क्षेत्र से लोग आने लगे है, अपने साथ विभिन्न विचारधाराएं, जानकारी और ज्ञान साथ लाने लगे है। आज इन सब को देखकर मन के बहुत सुखद अनुभूति होती है कि हिन्दी चिट्ठाकारी अब फल फूल रही है।
ज्ञानदत्त जी आज वक्त आ गया है आपके एक पुराने सवाल का जवाब देने का। आप जब हिन्दी ब्लॉगिंग में नए-नए आए थे तो आपने एक पोस्ट लिखी थी अपने नए-नए अनुभवों पर - ‘अहो रूपम – अहो ध्वनि’, चमगादड और हिन्दी के चिट्ठे
ReplyDeleteउस समय एक बार मैंने सोचा था कि आपकी बात का जवाब दूँ लेकिन फिर अपने अनुभव से सोचा कि एक दिन आप खुद ही इसका जवाब पा लेंगे। अतः समय की प्रतीक्षा की जाए। आज वह दिन आ गया, अब आपको जवाब मिल चुका है।
असल में जब भी कोई व्यक्ति नया-नया हिन्दी ब्लॉगिंग में आता है तो उसकी मनोस्थिति बहुत विचित्र सी होती है। एक तो उसे पहली बार पता चला होता है कि नैट पर हिन्दी लिखने वालों की भी एक दुनिया है, वह बड़ा सम्मोहित सा होकर हिन्दी चिट्ठों को पढ़ता जाता है। लेकिन साथ ही उसे ऐसा लगता है जैसे कि यह दुनिया एक सीमित सी हो जिसमें बस सब लोग आपस में ही परिचय रखते हैं। वह खुद को इस दुनिया से अजनबी सा महसूस करता है, खासकर विभिन्न चिट्ठों पर मीठी टिप्पणियाँ पढ़कर (ये तू तू मैं मैं तो हाल ही मैं शुरु हुई पहले नहीं थी)। शुरु में वह खुद को इन सब से अलग-थलग महसूस करता है। इसी तरह की मनोस्थिति मे आपने वह चमगादड़ों वाली पोस्ट लिखी थी। लेकिन धीरे-धीरे वह इस दुनिया में रमता जाता है, सबसे परिचय बढ़ता जाता है और उसे इस दुनिया में आनंद आने लगता है। तब वह खुद को यहीं का बाशिंदा महसूस करने लगता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बहुत से साथी पहले इंग्लिश में लिखा करते थे। हिन्दी की दुनिया में ऐसे रमना हुआ कि इंग्लिश में लिखना या तो छूट गया या कभी कभार लिखते हैं।
ऊपर काकेश भाई जैसे ही मेरे भी अनुभव हैं। कोई डेढ़ साल पहले अंग्रेजी ब्लॉग शुरु किया था। दो-तीन महीने सिर्फ गिनी-चुनी पोस्टें लिखकर छोड़ दिया। बाद में हिन्दी चिट्ठाजगत से परिचय हुआ। पहले इंटरनैट पर टैक फोरमों, ब्लॉगों से लेकर पता नहीं कहाँ-कहाँ तक घूमता था, फिर हिन्दी में ऐसा मन रमा कि सब छूट गया। मेरे उस भूतपूर्व अंग्रेजी चिट्ठे पर अब तक हजारों हिट्स आ चुके हैं , अब भी आते रहते हैं। लेकिन अब यहीं मन रम गया है, अंग्रेजी में लिखने का तो अब मन ही नहीं करता।
बस इन विद्वतजनों को छोड़ दें तो हिन्दी ब्लॉगरी बहुत मस्त चीज है – बिल्कुल फोन इन प्रोगाम की तरह! यहाँ माहौल देसी है, अंग्रेजी ब्लॉगरी की तरह फार्मल नहीं।
ReplyDelete---बिल्कुल सहमत हूँ आपसे शत प्रतिशत. एक परिवार सा माहौल होता है, और क्या वजह है जो इसकी लत हो जाती है. इतना हसीन वातावरण कि जब मिलते हैं रुबरु तो लगता है कि वो हमारे परिवार का हिस्सा हैं. आज ही मैने अपनी रमन जी मुलाकात पर कुछ लिखा है.