मित्रों, हमारे पास सम्वेदना है, समाधान नहीं है. अपनी रोजी-रोटी में ही ऐसे फंसे हैं कि समाज की क्या देखें. पता लगा कि मुसहरों के पास कुछ भी सम्पत्ति नहीं है. पता नहीं वोट भी है या नहीं. जमीन तो मड़ई बनाने को भी नहीं है. इधर-उधर डेरा बना लेते हैं, वहां से कभी भी दुरदुरा कर अलग कर दिये जाते हैं. सबसे जरूरी है कि इन्हें जमीन का हक मिले. मायावती अकेले दम पर जीती हैं – क्या यह हक मिलेगा?
यह जानने को मैं पुन: अपने साले जी की शरण में गया. वह गांव में रहता है. अब ग्राम प्रधान भी है. इस बार चुनाव में उसे सांसदी का टिकट मिलते-मिलते रह गया. जमीनी हकीकत जानता है. उसने बताया – उसके क्षेत्र में दलितों के पास जमीन हो गयी है. गलीचा बुनकर कुछ ने खरीद ली है. कुछ को सरकार ने समय-समय पर पट्टे दिये हैं. करीब 40-50% के पास जमीन/पट्टे हैं. पर आगे और जमीन बांटने को है ही नहीं. कुल मिला कर इस इलाके में 50-60% व पूरी यूपी में इससे कहीं ज्यादा दलितों के पास जमीन/पट्टे नहीं हैं. ये दलित गांव मे रहेंगे. ओवरनाइट शहरी नहीं होंगे. कहां से मिलेगी जमीन? कैसे होगा उनका एम्पावरमेण्ट?
उत्तर प्रदेश चुनाव विषयक एक व्यंग पोस्ट जो मेरे छोटे भाई शिव कुमार मिश्र ने लिखी हैं, कृपया यहाँ देखें : उत्तरप्रदेश में आम आदमी जीता हैं क्या?
एक और पेंच है. जिस जमीन के केवल पट्टे मिले हैं, वह जमीन अगर वास्तव में दी गयी तो बसपा से जो सवर्ण जीते हैं; उनमें और दलितों में भी तनातनी होगी. सवर्ण जमीन शायद दे दें – वह जमीन इतनी नहीं है कि उससे सरकार में होने वाली मलाई छोड़ दी जाये. पर जमीन का मामला मूंछ की ऐंठ से जुड़ा होता है. उस ऐंठ का क्या होगा?
मुझे लगता है मायावती जीतना चाहती थीं; सो अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के चलते उन्होने वह जीत हासिल कर ली. पर उससे दलित जीता नहीं – टेक्टिकल लड़ाई हार गया है. समय के साथ दलित सेगमेंटेशन या दलित कार्ड सॉफ्ट होता जायेगा. आपने अडवानी के जिन्ना वाले स्टेटमेंट से देख ही लिया है. उनके हिन्दू सेगमेंटेशन या हिन्दू कार्ड सॉफ्ट करते ही अधोगति प्रारम्भ हो गयी भाजपा की. अडवानी शार्प पॉलिटीशियन हैं. वे भी कोई सोशल इंजीनियरिंग ले कर आ सकते हैं. पर अब अडवानी के जीतने से क्या हिन्दू जीतने वाला है?
उसी तरह मायावती जी के जीतने से (शायद) दलित जीता नहीं है. बाकी तो समय बतायेगा...
कब किसके जीतने से किसका भला हुआ है. बस देखते चलिये आगे आगे, होता है क्या.
ReplyDeleteआपने जिस तरह कम्बल बटवांये बस उसी तरह का छोटा छोटा योगदान हर सक्षम व्यक्ति करे तो काफी कुछ बदला जा सकता है. आपका साधुवाद.
दलितों ने जिसे अपना कहा,
ReplyDeleteवो अपना न रहा पराया हुआ।
चुनाव खत्म, बाते-वादें खत्म,
फिर पॉंच के बाद तुम बाप हम बेटे,
उसके बाद हम बाप तुम बेटें।
क्या होगा तो पता नहीं किन्तु मायावती के मुख्यमंत्री बनने से यह तो संभव है कि कुछ दलित बदलाव की आशा कर सकते हैं, कुछ यह सोच सकते हैं कि यदि वे मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो मैं भी कुछ न कुछ तो बन ही सकता हूँ । वे दलित शक्ति का प्रतीक तो हैं ही । हो सकता है कि आम जनता के मन में भी कुछ बदलाव आए । हो सकता है कि किसी दलित का अपमान करने से लोग कतराएँ । जो भी हो जितना बुरा अब तक चल रहा था उससे तो अधिक क्या बुरा होगा?
ReplyDeleteघुघूती बासूती
ऊपर उठने के लिए सीढ़ियों पर चढ़कर आगे बढ़ना पड़ता है, पिछली सीढ़ी को छोड़ना ही पड़ता है, न कि उसी सीढ़ी पर कदम जमाए ख़ड़े रहकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। माया जी, 'दलितों की मसीहा' के सहारे आगे बढ़ी हैं, पर राज्य-शासन के लिए तो सभी की जरूरत है न अगड़ों की भी।
ReplyDeleteयही तो माया जाल है।
ReplyDeleteनीला झंडा
ReplyDeleteएक दिन
लालकिले की प्राचीर से
लहराएगा नीला झंडा
फर फर फर........!
जलेंगे दीप घर-घर
हम होंगे इस देश के शासक
लिखेंगे हम यह नया विधान
मानव-मानव एक समान
नतमस्तक होगा बाबा का संविधान
कांशीराम का लक्ष्य विधान
सोशल इंजीनियरिंग की प्रीत पर
सर्वजन के हित पर
बनेगी निश्चित बहन मायावती प्रधानमंत्री
फलेगा-फूलेगा संबंध रोटी और बेटी का
टूटेगी जातियां, शिखर टूटेगा
समतामूलक समाज का सपना
देखों अब खिलेगा
लहराएगा जब नीला झंडा
लालकिले की प्राचीर से
घर-घर दीप जलेंगे
बीएसपी के स्वर्ण इतिहास से
अरुण गौतम
akgautam@indiatimes.com