इस मध्यम आकार के शहर इलाहाबाद में कम्यूटर (शहर में आने जाने वाले) के लिये मुख्य साधन है विक्रम टेम्पो। हड़हड़-खड़खड़ करते टेम्पो, जिनके पीछे लिखा रहता है – “स्क्रबर@ युक्त ~ प्रदूषण मुक्त”। पर वे सबसे ज्यादा अव्यवस्था फैलाते और सबसे ज्यादा प्रदूषण जनक हैं। फिर भी सबसे लोकप्रिय वाहन हैं। सड़क, चौराहे को चोक करने वाले मानव शरीरों से पैक वाहन।
इसके विपरीत मुझे अपने दफ्तर के पास झलवा से सुलेम सराय के बीच चलते इक्के दीखते हैं। पुरानी डिजाइन के, मरियल से सामान्य कद काठी के घोड़ों से युक्त। सड़क की दशा-दुर्दशा को देखते हुये उनकी और मेरे वाहन की चाल में विशेष अन्तर नहीं होता। वाहन खुली सड़क की अपेक्षतया ज्यादा तेल खाता है। इक्के इस ढ़ाई किलोमीटर के हिस्से में कम्यूटर यातायात के मुख्य साधन हैं। ये इक्के सवारी और सामान दोनों को लादने में काम आते हैं। इसके अलावा सामान लादने वाली बैल गाड़ी भी यदा कदा दिखती है, जिसपर सड़क निर्माण की सामग्री - बालू, सरिया या ईंट आदि लदे रहते हैं।
जब शहर में पशु पर निर्भर यातायात वाहन कम हो रहे हैं, सुलेम सराय और झलवा के बीच में उनकी दर्ज उपस्थिति अच्छी लगती है।
पेट्रोल डीजल के दामों में बढ़ोतरी की बड़ी चर्चा है। वैसे भी हर रोज प्रति बैरल पेट्रोलियम के दाम बढ़ते जा रहे हैं। अभी $१३२ प्रति बैरल हुआ है, पर इसी साल में वह $२०० प्रति बैरल तक जा सकता है। उस दशा में इन जीवों पर आर्धारित यातायात व्यवस्था व्यवसायिक रूप से तर्कसंगत बन सकती है।
ज्यादा अर्थशास्त्रीय गुणा भाग नहीं किया है मैने, पर लगता है कि शहर में मुख्य सड़कों के फीडर रास्तों पर इक्के और बैलगाड़ियों के लिये आरक्षण कर देना चाहिये। शेष मुख्य मार्गों पर रैपिड ट्रांजिट की प्रति वर्ग मीटर ज्यादा सवारियां ले जाने वाले वाहन चलाने चाहियें जिनपर प्रति व्यक्ति डीजल-पेट्रोल खर्च कम आये।
ऐसे में बोधिसत्व की पोस्ट का दर्द भी एक भाग में एड्रेस हो सकेगा जिसमें उन्होने कहा है कि लोग बछड़े और बेटियां मार डालते हैं। बेटियां नहीं तो कुछ बछड़े बचेंगे।
@ - स्क्रबर का डिजाइन मुझे नहीं मालुम। पर इतना पता है कि टेम्पो जैसे वाहन अपने उत्सर्जन (एग्झास्ट) में ढेर सारा अध जला हाइड्रो-कार्बन, कार्बन मोनोआक्साइड और नोक्सेज (NO, NO2, N2O) उत्सर्जित करते हैं। अगर इन वाहनों के उत्सर्जन स्थल पर स्क्रबर लगा दिया जाये तो वह इन प्रदूषक तत्वों को रोक लेता है। कहा जाता है कि इलाहाबाद में विक्रम टेम्पो इस स्क्रबर से युक्त हैं। पर उनकी कार्य क्षमता की कोई जांच होती है? जानकार लोग ही बता सकते हैं। |
ताज्जुब की बात है, आज आई पी एल में दिल्ली के हारने पर मैं और मेरे दोस्त बात कर रहे थे लखनऊ की भी एक टीम होती तो सपोर्ट करने का मजा आता | फ़िर दोस्त का कहा टीम का नाम होता "नखलऊ के नवाब" और उनका आइकन होता "विक्रम टेंपो" | आज ही आपने टेंपो पर एक पोस्ट ठेल दी | स्क्रबर से प्रदूषण कम होने में कुछ न कुछ तो योगदान मिलता ही होगा :-)
ReplyDeleteबाकी चलता रहे तेल ऐसी ही मनोहर चाल से :-)
इ्क्कों का बाज़ार के अर्थशास्त्र में बहुत बड़ा योगदान है ।
ReplyDeleteहाँ, ताँगे को अवश्य मिस करता हूँ, टक टुक टक टुक, टक टुक टक टुक
जिस दर से तेल के दाम बढ़ रहे हैं उससे लगता है कि हमें इसके विकल्प बनाये रखने चाहिये। :)
ReplyDeleteइक्के और बैलगाड़ियों के लिये आरक्षण की मांग न जाने क्यूं जायज सी लगती है. :)
ReplyDeleteअखिल नहीं तो उत्तर भारतीय तो है ही यह विक्रम टेम्पो, बिलकुल वही हाल है जैसा आप बता रहे हैं, इधर कोटा में भी। हम भी तांगा मिस करते हैं। पर तेल जैसे आसमान पर है, मुझे लगता है घोड़े बचाना शुरु कर देना चाहिए। तांगा ही विकल्प होगा।
ReplyDeleteबहुत जल्दी लोग इक्का गाड़ी और बैलगाड़ी की ओर उन्मुख होने वाले हैं। पेट्रोल के भाव पांच सौ रुपये लीटर पर यही सीन होगा।
ReplyDeleteअहाहा क्या पुरानी फिल्म वाले वैजयंती दिलीप कुमार वाले सीन होंगे, बालक आगे बैलगाड़ी हांक रहे हैं, बालिकाएं पीछे बैठी कुछ इस टाइप का गाना गा रही हैं-गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे।
पार्किंग प्लेस अस्तबल या बैलों के तबेले टाइप हो लेंगे। कैसा देसी माहौल बनेगा।
जमाये रहिये। आपकी कल्पना बस सच हुआ ही चाहती है।
सोच सकते है मगर ऐसा दिन नहीं आयेगा, जब पशू-वाहन शहरों में चलेंगे... वैसे घोड़ागाड़ी की अवाज मस्त लगती है...टक टूक.. :)
ReplyDeleteआपकी आज की पोस्ट पढ़कर साल पहले लिखी एक पोस्ट याद आ गई जिसमे डिटेल मे विस्तार से बताया था की ट्रक के पीछे कैसे कैसे शेर ओर टिपण्णी लिखी रहती है.....
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत है जी।
ReplyDeleteप्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की जांच समय-समय पर करने का दावा हर शहर की ट्रैफिक पुलिस करती तो है लेकिन सिर्फ़ खानापूर्ति के लिए, चाहे टेम्पो हो या दुपहिया-चौपहिया।
ReplyDeleteवैसे इक्के मस्त हैं, याद दिला दिया आपने। बनारस और इंदौर में अपन ने लुत्फ लिया है इक्के पे बैठने का। पता नही अब इंदौर में चलते हैं या नही ये इक्के।
अति उत्तम उपाय.
ReplyDeleteबड़ी समस्या का एक अच्छा हल दिया आपने.
आज ही कार्यवाही आरंभ करता हूँ.
बम्बई का हाल भी इतना ही बुरा है पर इक्को की तो कल्पना भी नही की जा सकती। ये टेम्पो वाले अपनी गाड़ियां सही हालत में रखे तो भी गनीमत है।
ReplyDeleteसंजीत भाई इंदौर में अब इक्के चलते हमने नहीं देखे वहां भी यही टेम्पो चलते है और ऑटो, वो भी इतनी धीमी गति से कि पैदल आदमी जल्दी पहुंच जाए।
बम्बई का हाल भी इतना ही बुरा है पर इक्को की तो कल्पना भी नही की जा सकती। ये टेम्पो वाले अपनी गाड़ियां सही हालत में रखे तो भी गनीमत है।
ReplyDeleteसंजीत भाई इंदौर में अब इक्के चलते हमने नहीं देखे वहां भी यही टेम्पो चलते है और ऑटो, वो भी इतनी धीमी गति से कि पैदल आदमी जल्दी पहुंच जाए।
आपकी आज की पोस्ट पढ़कर साल पहले लिखी एक पोस्ट याद आ गई जिसमे डिटेल मे विस्तार से बताया था की ट्रक के पीछे कैसे कैसे शेर ओर टिपण्णी लिखी रहती है.....
ReplyDeleteसोच सकते है मगर ऐसा दिन नहीं आयेगा, जब पशू-वाहन शहरों में चलेंगे... वैसे घोड़ागाड़ी की अवाज मस्त लगती है...टक टूक.. :)
ReplyDeleteताज्जुब की बात है, आज आई पी एल में दिल्ली के हारने पर मैं और मेरे दोस्त बात कर रहे थे लखनऊ की भी एक टीम होती तो सपोर्ट करने का मजा आता | फ़िर दोस्त का कहा टीम का नाम होता "नखलऊ के नवाब" और उनका आइकन होता "विक्रम टेंपो" | आज ही आपने टेंपो पर एक पोस्ट ठेल दी | स्क्रबर से प्रदूषण कम होने में कुछ न कुछ तो योगदान मिलता ही होगा :-)
ReplyDeleteबाकी चलता रहे तेल ऐसी ही मनोहर चाल से :-)
बहुत जल्दी लोग इक्का गाड़ी और बैलगाड़ी की ओर उन्मुख होने वाले हैं। पेट्रोल के भाव पांच सौ रुपये लीटर पर यही सीन होगा।
ReplyDeleteअहाहा क्या पुरानी फिल्म वाले वैजयंती दिलीप कुमार वाले सीन होंगे, बालक आगे बैलगाड़ी हांक रहे हैं, बालिकाएं पीछे बैठी कुछ इस टाइप का गाना गा रही हैं-गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे।
पार्किंग प्लेस अस्तबल या बैलों के तबेले टाइप हो लेंगे। कैसा देसी माहौल बनेगा।
जमाये रहिये। आपकी कल्पना बस सच हुआ ही चाहती है।