Friday, May 2, 2008

ब्लॉग का चरित्र चिंतन


Gyan D Pandey अब तक हम "मानसिक हलचल" से प्रेरित पोस्टें प्रस्तुत करते रहे। जब जो मन आया वह ठेला। अब समय आ गया है कि ऐसा लिखें, जो इस ब्लॉग को एक चरित्र प्रदान कर सके। यह निश्चय ही न जासूसी दुनियाँ है, न मनोहर कहानियां। हास्य - व्यंग में भी जो महारत आलोक पुराणिक, राजेन्द्र त्यागी या शिव कुमार मिश्र को है, वह हमें नहीं है। कविता ठेलने वाले तो बहुसंख्य हैं, और उनकी पॉपुलेशन में वृद्धि करने में न नफा है न उस लायक अपने में उत्कृष्टता।

अपने लेखन में केवल आस-पास के बारे में सीधे सीधे या न्यून-अधिक कोण से लिखने की थोड़ी बहुत क्षमता है। उस लेखन में अगर कुछ कमी-बेसी होती है तो उसे मेरा मोबाइल कैमरा समतल करता है।

क्या किया जाये? मेरे ख्याल से सारी हलचल आसपास से प्रारम्भ होनी चहिये। वहां से वह स्टीफन हांकिंस के पाले में जाये या हिलेरी क्लिन्टन के या हू जिन्ताओ के - वह उसके भाग्य पर छोड़ देना चाहिये। मूल बात यह होनी चाहिये कि उससे मानवता डी-ग्रेड नहीं होनी चाहिये। आदमी की मूलभूत अच्छाई पर विश्वास दृढ़ होना चाहिये और पोस्टों में व्यक्तिगत/सामुहिक सफलता के सूत्र अण्डरलाइन होने चाहियें। बस, यह अवश्य आशंका होती है कि पाठक शायद यही नहीं कुछ और/और भी चाहते हैं। यह कुछ और क्या है; चार सौ पोस्टें ठेलने के बाद भी समझ नहीं आया। शायद, जो पीढ़ी हिन्दी नेट पर आ रही है उसकी अपेक्षायें कुछ और भी हैं। पर यह भी नहीं मालुम कि वे अपेक्षायें क्या हैं और क्या उस आधार पर कुछ परोसा जा सकना मेरी क्षमताओं में है भी या नहीं!

चुहुल या पंगेबाजी की फ्रेंचाइसी अरुण पंगेबाज ने देने से मना कर दिया है, अत: उस विधा का प्रयोग यदा-कदा ही होना चाहिये, जिससे पंगेबाजी के © कॉपीराइट का उल्लंघन न हो!

लेखन में एक मॉडल फुरसतिया सुकुल का है। पर उस जैसा भी लिखने में एक तो मनमौजी बनना पड़ेगा - जो मुझमें स्थाई भाव के रूप में सम्भव नहीं है। दूसरा (मुझे लगता है कि) सुकुल का अध्ययन मुझसे अधिक स्तरीय और विस्तृत है। इस लिये कोई स्टाइल कॉपी करना हाराकीरी करना होगा। लिहाजा, रास्ता अपना ही हो और अपनी ही घास के रँग में रंगा जाये।

मत मारो पानी को पत्थर

चोट लगेगी किसी लहर को!

हरी घास रँगती है चुपके से -

अपने ही रंग में डगर को!

रमानाथ अवस्थी

इसके इम्पेरेटिव (imperative - निहितार्थ या आवश्यकता) हैं लिखा अपने स्टाइल से जाये। पर अधिक ध्येय-युक्त हो वह। क्या ख्याल है आपका? और यह भी है ब्लॉग केवल लेखन की विधा नहीं है, वह बहुत विस्तृत तरीके से व्यक्तित्व, सम्प्रेषण और अभिव्यक्ति को प्रकटित करता है।

खैर कुछ परिवर्तन होने चाहियें।

Dreaming


19 comments:

  1. हास्य व्यंग्य लिखने जितना पतन आपका नहीं ना हुआ है, सो उसमें हाथ ना आजमाइये।
    राखी सावंत में जब तक जेनुईन दिलचस्पी पैदा नहीं ना करेंगे, जब तक हर हफ्ते दो चार दिन विकट आवारागर्दी, मेले में ठेले में, चिरकुट से सिनेमा हाल की आगे की सीट के झमेले में नहीं लगायेंगे, तब तक हास्य व्यंग्य में हाथ ना आजमायें।
    बाकी आपकी यह बात भी ठीक ही है आदमी चरित्रविहीन ही शोभा पाता है और ब्लाग चरित्रयुक्त ही शोभा देता है।
    कविता में हाथ यूं ना आजमायें कि आत्ममुग्धता और चिरकुटई के आवश्यक तत्व भी आपमें नहीं हैं। प्रेम कविता आपसे यूं न सधेगी कि प्रेम करना इतना हार्ड हो गया है, सौ रुपये का एक आई लव यूं वैलंटाइन कार्ड हो गया है।
    आप तो वही रहें, जो आप हैं। जैसे हैं, ओरिजनल तौर पर।
    जिंदगी को देखें,अपने रंग में, ढंग में. कुत्ते से लेकर मणियावा तक।
    मन की मौज में रहिये।
    वैसे आपने इत्ती किताबें पढ रखी हैं, इत्तियों के नाम तो कईयों ने सुने भी ना होंगे।
    हफ्ते में एकाध दिन या ज्यादा बुक चिंतन पर भी रखिये।
    ज्ञान बांटिये। तमाम किताबों के मुख्य अंश पेश कीजिये।
    जो आपने लिखा है, उसका चरित्र बनता है।
    जिंदगी का कैमरा टाइप कुछ उसे कहा जा सकता है।
    जिंदगी का ज्ञानू बाइस्कोप टाइप भी कुछ उसे कहा जा सकता।
    साइडलाइन्स टाइप कुछ भी उसे कहा जा सकता है।
    दुनिया मेरे आगे टाइप भी कुछ उसे कहा जा सकता है।
    मतलब चरित्र तो बनता है।
    फिलोसोफी ठेलिये और। वह आपके नेचर के अनुकूल भी पड़ती है।
    मोटिवेशनल मामला भी जमाइये. सख्त जरुरत है उसकी।
    बाकी जो चाहे, सो जमाइये। अपना आग्रह यह है कि कविता छोडकर सब कर लीजिये। बाकी अगर वो भी करने पर आमादा हों, तो वह भी कर ही लीजिये। मन में ना रखिये।

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  2. स्टीफन हॉकिन्स कहते हैं, दर्शन विज्ञान को राह दिखाता है, लेकिन विज्ञान आगे बढ़ गया है, दार्शनिक पीछे छूट गया है, शायद कभी कोई पैदा हो जो विज्ञान को राह दिखाए।
    जरा हाथ आजमाइए। दुरूह है, लेकिन मनुष्य के लिए असम्भव नहीं।

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  3. क्या जरुरत है-यूँ भी तो आप ही छाये हुए हो...फिर क्या परेशानी आन खड़ी हुई कि इतना गहन चिन्तन??? बताईये न!! तो हम भी कुछ सोचें.

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  4. यह कहना दोहराव होगा लेकिन सच यह है कि आपको किसी को माडल बनाने की जरूरत ही नहीं है। हमको आप एक माडल बताये ये आपकी जर्रानवाजी है लेकिन हमें ऐसा लगता नहीं कि हम किसी के लिये माडल बनने चाहिये। :)

    आपके लेखन में जब से आपने लिखना शुरू किया तब से न जाने कितने, लगभग सभी धतात्मक और दूसरों के लिये जलन वाले, बदलाव आये हैं। शुरुआती पोस्टों से तुलना करें शायद आपको अंदाजा लगे। आपको आपकी भाषा वापस मिल गयी। :) पहले आप हिंदी शब्द कम प्रयोग करते थे और प्रवाह के लिये अंग्रेजी शब्द की शरण में चले जाते थे। आज धड़ाधड़ हिंदीगिरी कर रहे हैं। आपका ब्लाग आपके लिये जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी दूसरों के लिये हो गया है। सबेरे से ही लोग , कम से कम मेरे साथ ऐसा ही है, देखते हैं कि आज ज्ञानजी ने क्या लिखा ? आलोक पुराणिक ने क्या गुल खिलाये? लिखते रहें , लिखते रहेंगे यही कामना है और विश्वास भी।

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  5. आपकी अलग शैली बेवजह चरित्र बदलने के चक्कर में न पड़ें तो,बेहतर।

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  6. gyaan ji, chhotey muhh badi baat kah rahi huun[soch samjh kar saajish na kijey] arthaat jo mun aaye vahi likhiye.. mera blogging me aaney ke baad aapko niyamit padhna aur seekhna jaari hai....aabhaar

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  7. आपका फ़्रेन्चाईजी के लिये प्रार्थना पत्र और ड्राफ़्ट मिल गया है ,आपको फ़्रेन्चाईजी के बारे मे सभी प्रपत्र भारतीय डाक तार विभाग के सौजंन्य से भेजे जा रहे है
    आप हमारा (पंगेबाज का) मोनोग्राम अपने ब्लोग पर लगाकर पंगेबाजी जारी रख सकते है :)

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  8. अगर सबकी अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखने लगेंगे तो बडी मुश्किल हो जायेगी। ’सबकी’ अपेक्षाएं तो जीवन में भी पूरी नही होतीं।

    बाकि अंत में आपने खुद ही कह दिया है कि लिा अपने ही इस्टाइल से जाये..बस उसमें ’कंटेंट’ हो...ध्येय हो।

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  9. आप जैसा लिख रहे हैं ...जारी रखिये प्लीज़. वैसे यूं ही सोचा की आप भी आलोकजी या अरुणजी की तरह लिखने लग जायें तो......? आपके ब्लॉग का नाम बड़ा मज़ेदार हो जाएगा ...जैसे
    • जीपी की मानसिक अगड़म बगड़म.
    • पंगेबाज़ पण्डे जी
    वगैरह वगैरह

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  10. सही दिशा मे सोच रहे है आप। वैसे अभी भी अच्छी स्थिति है। पर उत्तरोत्तर सुधार मे जुटे रहना चाहिये। नये प्रयोग प्रयोग के तौर ही सही पर महिने मे एक बार तो आजमाये जा सकते है।

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  11. मुझे लगता है एक ब्लॉगर को इस सोच में नही पड़ना चाहिए, अगर इस सोच मे पड़े तो ब्रेक सा लगने लग जाता है पोस्ट डालने में।

    इसलिए जो पोस्ट मन मे आए बस डालते रहिए।

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  12. हम तो आपसे सीखने की कोशिश करते रहते हैं, अब हम क्या कहें? बस जैसा कि कई लोगो ने कहा है कि सबकुछ अच्छा चल रहा है और आपको बदलाव का नहीं सोचना चाहिए या जरूरत नहीं है. पर मैं ऐसा नहीं सोचता सुधार तो सतत चलते रहना चाहिए... आप सबसे अच्छे हैं तो भी हमेशा खुले दिमाग से सोच कर परिवर्तन तो होते ही रहना चाहिए.

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  13. आलोकजी और अनूप जी ने सब कह दिया, अब उनसे बेहतर कह पाना मुश्किल है, आप जैसे मुक्त प्रवाह में किचन से लेकर ब्राजील के तेल तक लिखते रहे हैं वैसा ही जारी रखें।

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  14. अरे पाण्डेय जी,
    आप दूसरों के लिए आदर्श है, आप दूसरों मे आदर्श काहे को ढूंढते है? आप भी कहाँ इत्ते सोच विचार मे पड़ गए, आप जैसे ही वैसे ही झकास है।

    वैसे यदि वैचारिक रुप से देखा जाए तो आप ब्लॉगिंग की दूसरी अवस्था: ब्लॉगिंग, क्यों, कैसी और किसके लिए? को प्राप्त हो रहे है। इस अवस्था मे पहुँचते पहुँचते कई ब्लॉगर, ब्लॉगिंग बन्द करके, चिंतन की अवस्था को प्राप्त होते है, लेकिन आप ऐसा कतई मत करिएगा।


    आप जैसा भी लिखते है, वैसा ही हम सभी को चाहिए। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

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  15. यह बैठे ठाले क्या सूझ गया आपको ,अच्छे भले चिट्ठाकारिता कर रहे हैं ,हाँ आलोक जी की हाँ मे हाँ मिलाते यह कह सकता हूँ कि अपनी पढी हुयी किताबों के सार संक्षेप से हिन्दी ब्लागरों क्या ज्ञान वर्धन कीजिये ..जहाँ तक व्यंग का सवाल है एक के रहते यहाँ आप की दाल नही गलने वाली है-रही कविता तो आप पहले से ही कवि ह्रदय हैं जो कवि होने से ज्यादा जरूरी है .
    हमे नए ज्ञान की आतुर प्रतीक्षा है .

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  16. जितू जी आप भडकाये मत, कही आपके कहने मे आकर ड्राफ़्ट वापस मांग लिया तो, आपको ब्लोग से कमाई नही हो रही है तो हमे तो कमाने दो जी जलो मत :)

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  17. आप की पोस्ट पढ़ कर मेरी छोटी सीइ बुद्धी में जो समझ आया है वो ये कि आप विचार कर रहे हैं कि ऐसा क्या लिखा जाए और किस शैली में लिखा जाए की ज्यादा से ज्यादा पाठकों को सन्तुष्टी हो। जहां तक शैली का सवाल है आप ने खुद ही सही जवाब दे दिया कि स्टाइल अपना मौलिक होना चाहिए। जहां तक कन्टेंट का सवाल है मुझे लगता है पहला सवाल तो ये है कि ब्लोग लेखन कर किस लिए रहे हैं ,क्या हम लेखक है क्या हमारी रोजी रोटी इस से चलती है और इस लिए ज्यादा से ज्यादा पाठकों की पसंद नापसंद का ख्याल रखना जरूरी है। मार्केटिंग की भाषा में कहूँ तो क्या हमारा ब्लोग एक प्रोडक्ट है जिसे हम मार्केट में बेचने उतरे हैं अगर हां तब तो खरीदने वाले को क्या चाहिए और किस दाम पर बेचना हमारे लिए फ़ायदेमंद होगा सोचना चाहिए , और अगर ऐसा नहीं है और हम लिखते है अपनी अभिव्यक्ती की इच्छा को पूरा करने के लिए तो ज्यादा से ज्यादा लोगों की पसंद नापसंद के बारे में क्या सोचना । हम जैसे हैं वैसे हैं और हमारी अभिव्यक्ति अपनी है। शायद मुझे भी इस विषय पर अभी और सोचना है पूरी तरह से क्लीअर थिकिंग के लिए। आप की पोस्ट पढ़ कर जो सवाल मन में है वो ये कि हम ब्लोगिंग कर रहे हैं किस के लिए अपने लिए या दूसरों के लिए।

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  18. आत्म मँथन भी मानसिक हलचल का ही प्रारुप है - आप जितना अपने आप से सच्चा वार्तालाप करेँगेँ जैसा कि आप करते हैँ वही दूसरोँ के मन तक भी पहुँचेगा ...जैसा कि अब तक हुआ है ..फिर उलझन कैसी ? आप सही दिशा मेँ आगे बढेँ ..शुभकामना सह्:
    - लावण्या

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  19. ऐसा लगता है जबसे आपने "मानसिक हलचल "ही पकड़ा है ...हलचल तेज शुरू हो गयीं है ,मैं जब लिखता हूँ बस दिल की आवाज से लिखता हूँ...इतनी गहरी सोचो मे नही पड़ता हूँ.. ब्लॉग इसलिए अलग है की यहाँ आपके विचारों को किसी संपादक की कैचियो से नही गुजरना पड़ता ,आपके बिहार मे लिखे गये एक विचार को कनाडा या अमेरिका मे बैठा भारतीय कही सिरे से महसूस कर सकता है....इसमे शब्दों की बाजीगिरी उतनी महत्वपूर्ण नही जितनी वो भावना जो लिखी गयीं है ,एक लेखक ओर आम इन्सान मे यही फर्क होता है की लेखक के पास अपनी भावनाये व्यक्त करने के लिए शब्दों के बेहतरीन जाल ,सयोंजन की कला ओर शब्द कौशल होता है पर ब्लॉग लेखन शायद एक ऐसी विधा है जहाँ कुशल चित्तेरे भी है ओर १४ -१५ साल की बच्ची भी ,जो मासूमियत से लिखती है की वो हीरो पुक चलाना सीख रही है ..मुझे दोनों ही भले लगते है .....महत्पूर्ण बात ये है की दोनों एक साथ है.......

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय