हर रोज हम लोग लिख रहे हैं। हिन्दी लिखने की मूलभूत समस्या और जद्दोजहद के बावजूद हम लोग लिख रहे हैं। रोज लिखते हैं, छाप देते हैं। मुझे विश्वास है कि अपनी पोस्ट बरम्बार निहारते भी होंगे। और शायद अपनी पोस्ट जितनी बार खोलते हैं, वह औरों की पोस्टें खोलने-पढ़ने से कम नहीं होगा।
पोस्ट - पब्लिश - स्टैटकाउण्टर - टिप्पणी : इन सबके ऊपर नाचता एक मध्यवर्गीय ब्लॉगर है। आत्ममुग्ध और संतृप्त। बावजूद इसके कि जॉर्ज बुश और कॉण्डलिसा राइस की बफूनरी1 (buffoonery) को कोसता दीखता है वह; पर अपने मन के किसी कोने में यह संतुष्टि और मुदिता भी रखे है कि पिछली पीढ़ी से बेहतर टेंजिबल अचीवमेण्ट (ठोस अपलब्धियोंउपलब्धियों) से युक्त है वह। वह संतोष, दया, करुणा, समता, नारी उत्थान और ऐसे ही अनेक गुणों को रोज अपने ब्लॉग पर परोसता है। और जितना परोसा जा रहा है - अगर वह सच है तो भारत में क्यों है असमानता, क्यों है गरीबी और भुखमरी। हजार डेढ़ हजार रुपये महीने की आमदनी को तरसती एक विशाल जनसंख्या क्यों है?
हम जितनी अच्छी अच्छी बातें अपने बारे में परोस रहे हैं, उतना अपने में (मिसप्लेस्ड) विश्वास करते जा रहे हैं कि हम नेक इन्सान हैं। जितनी अच्छी "अहो रूपम - अहो ध्वनि" की टिप्पणियां हमें मिलती हैं, उतना हमें यकीन होता जाता है कि हम अपने इनर-कोर (inner core) में सन्त पुरुष हैं। भद्रजन। (बंगाल का मध्यवर्ग कभी इसी मुदिता में ट्रैप्ड रहा होगा, या शायद आज भी हो। वहीं का शब्द है - भद्र!)
पर यही मध्यवर्ग है - जो आज भी अपनी बहुओं को सांसत में डाल रहा है, अपने नौकरों को हेयता से देखता है। यही मध्यवर्ग है जो रिक्शेवाले से दस पांच रुपये के किराये पर झिक-झिक करता पाया जाता है। कल मैं एक बैठक में यह सुन रहा था कि रेलवे मालगोदाम पर श्रमिक जल्दी सवेरे या देर रात को काम नहीं करना चाहते। (इस तर्क से टाई धारी सीमेण्ट और कण्टेनर लदान के भद्र लोग रेलवे को मालगोदाम देर से खोलने और जल्दी बन्द करने पर जोर दे रहे थे।) पर असलियत यह है कि श्रमिक काम चाहता है; लेकिन जल्दी सवेरे या देर रात तक काम कराने के लिये मजदूर को जो पैसा मिलना चाहिये, वह देने की मानसिकता नहीं आयी है इस आत्ममुग्ध, सफल पर मूलत: चिरकुट मध्यवर्ग में। अपनी अर्थिक उन्नति को समाज के अन्य तबकों से बांटने का औदार्य दिखता नहीं। और भविष्य में अगर वह औदार्य आयेगा भी तो नैसर्गिक गुणों के रूप में नहीं - बढ़ते बाजार के कम्पल्शन के रूप मे!
बड़ा अप्रिय लग सकता है यह सुनना, कि बावजूद सफलताओं के, हममें मानसिक संकुचन, अपने आप को लार्जर देन लाइफ पोज करना, भारत की व्यापक गरीबी के प्रति संवेदन हीन हो जाना और अपनी कमियों पर पर्दा डालना आदि बहुत व्यापक है।
और यह छिपता नहीं; नग्न विज्ञापन सा दिखता है।
शायद सबसे एम्यूज्ड होंगे प्रियंकर जी, जो पहले मीक, लल्लू, चिरकुट और क्या जैसे लिखने वाले में इस समाजवादी(?!) टर्न अराउण्ड को एक अस्थिर मति व्यक्ति का प्रलाप समझें। पर क्या कहूं, जो महसूस हो रहा है, वह लिख रहा हूं। वैसे भी, वह पुराना लेख १० महीने पुराना है। उस बीच आदमी बदलता भी तो है।
और शायद मध्यवर्गीय ब्लॉगर्स को मध्यवर्गीय समाज से टैग कर इस पोस्ट में देखने पर कष्ट हो कि सब धान बाईस पंसेरी तोल दिया है मैने। पर हम ब्लॉगर्स भी तो उसी वृहत मध्यवर्ग का हिस्सा हैं।
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1. मेरी समझ में नहीं आता कि हम चुक गये बुश जूनियर पर समय बर्बाद करने की बजाय कृषि की उत्पादकता बढ़ाने की बात क्यों नहीं करते? हमारे कृषि वैज्ञानिक चमत्कार क्यों नहीं करते या बीमारू प्रान्त की सरकारें बेहतर कृषि के तरीकों पर जोर क्यों नहीं देतीं? शायद बुश बैशिंग ज्यादा बाइइट्स देती है।
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ReplyDeleteज्ञानजी
ReplyDeleteये तो एकदम सही बात है। मध्य और उच्च दोनों वर्गों की बात यही है कि वो मॉल में कितना भी माल खर्च कर दें। लेकिन, रिक्शे या ऑटो-टैक्सी वाले को या फिर सब्जी के लिए अठन्नी भी ज्यादा देने में नानी मरती है।
बहुत ही ज्यादा नग्न सत्य कह गये आप तो-ऐतना खुलापन तो अच्छा नहीं है न!!!
ReplyDeleteमैं आपसे पूरा का पूरा सहमत हूँ.
आभार इस पोस्ट का.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
ब्लागिंग के बारे में हम कह ही चुके हैं-हर सफल ब्लागर एक मुग्धा नायिका होता है | ब्लागर अपने लिखे पर रीझता है। नारदजी की तरह -पुनि-पुनि मुनि अकुसहिं अकुलाहीं।वाली हालत होती है ब्लागर की। समाज के बारे में कुछ कहना जटिल है। आपको लगता है मध्यवर्ग संतृप्त, मुदित और असंवेदनशील है भारतीय मध्यवर्ग| हमें लगता है मध्यवर्ग अतृप्त, बौराया सा कन्फ़्यूज्ड है मध्यवर्ग। इसीलिये असंवेदनशील भी। आज के समाज के बारे में अखिलेश जी का यह लेख पढ़ियेगा अगर समय मिले- मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं|
ReplyDeleteअनूप शुक्ल
मध्यवर्ग ऊपर उठ कर प्रभुवर्ग में सम्मिलित होना चाहता है। उस के लिए, वह सारे जुगाड़, जोड़-तोड़ करता है, उसूलों से गिरता है, क्षुद्र चोरियाँ करता है, छिपी कमाई के स्रोत तलाशता है। बड़ा दिखने लायक खर्च करता है, पर जरुरी खर्चों से मुहँ मोड़ता है। हर जगह बचत सोचता है। मुफ्त सुविधाओं के फेर में रहता है। आदि आदि। कुछ लोग जैसे तैसे प्रभुवर्ग में प्रवेश पा भी जाते हैं,लेकिन आदतें वैसी ही रहती हैं। पंकज मिश्र ऐसे ही लोगों का उल्लेख कर रहे हैं। इन से कहीं अधिक लोग वर्गच्युत हो कर नीचे खिसक जाते हैं, पर स्वीकार नहीं कर पाते, आने वाली पीढ़ी को मजबूरियाँ स्वीकार करा देती हैं। अधिकांश वहीं के वहीं बने रहते हैं, और जीवन भर कसमसाते रहते हैं। यह मध्यवर्ग का चरित्र है। आज से नहीं, सदैव से।
ReplyDeleteऔदार्य की अपेक्षा करना इस वर्ग से उचित नहीं। कुछ में आ सकती है,लेकिन वह ज्ञान या किसी आंदोलन के प्रभाव से। वरना परिस्थितियाँ ही उसे बनाती हैं।
व्यवस्था का जीर्ण होना विमानवीकरण करता है। उसकी सब से अधिक संभावनाएं इसी मध्यवर्ग में है। मुन्शी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' का स्मरण करें।
व्यवस्था की जीर्णता बदलाव के लिए प्रेरित करती है। पर बदलाव का मुख्य आधार बनना मध्यवर्ग के बूते का नहीं। उसे उसकी इतनी जरुरत भी नहीं। वह उस के लिए लेखन,भाषण, संगठन, प्रचार जैसे काम ही कर सकता है। बदलाव का आधार तो वही बनेगा जिसे सब से अधिक जरुरत है और जिस के पास खोने को कुछ नहीं बचा।
आप ने कोई यू-टर्न नहीं लिया है। यह तो ईमानदार सोच की स्वाभाविक प्रक्रिया है।
आत्म गरियाव भी मध्यवर्ग की ही खासियत है।
ReplyDeleteहफ्ते, महीने में एकाध बार आत्म गरियाव करके भी एक खास किस्म की संतुष्टि पाता है मध्यवर्ग।
चीजें जुड़ी हुई हैं। टूटते परिवार, टूटते रिश्ते, असुरक्षा बोध ने कहीं न कहीं सबके मन में यह डर या विश्वास पुख्ता कर दिया है कि जब हमारे साथ कोई अघटित होगा, तो कोई हमारी हेल्प के लिए नहीं होगा, जेब की रकम ही तब काम आयेगी।
सो सारा ध्यान जेब की रकम बढ़ाने पर फोकस करो। वही सहारा है। सारे रिश्ते क्षीण हो रहे हैं। आत्म से बढ़कर कुछ भी नहीं है। स्वकेंद्रित व्यक्तियों का समूह आत्मकेंद्रित समाज ही होगा। सो हो रहा है। कुछ नये इंस्टीट्यून्स निकलेंगे, इस नयी मारधाड़ से। जैसे मैं कल्पना करता हूं कि मेरी मृत्यु, जो अकाल न हो तो करीब चालीस साल बाद होगी, के टाइम तक मेरे मित्र परिचित इतने बिजी हो चुके होंगे या मेरी अंत्येष्टि के टाइम पर किसी को स्विमिंग पूल जाना होगा, या फ्लाइट पकड़नी होगी या आईपीएल का मैच देखना होगा, तब मेरा क्रिया कर्म एक कंपनी करेगी। जिसकी बुकिंग में अभी से करा दूंगा। फिर उस वक्त के हिसाब से टाप बुद्धिजीवी किराये पर, टाप की हीरोईनें किराये पर, टाप के लफ्फाज किराये पर आकर मुझे ब्रह्मांड का महानतम व्यक्ति बतायेंगे और फिर उस कंपनी से फीस ले जायेंगे। मुझे फूंक फांक कर कंपनी वाले एक विकट प्रेस विज्ञप्ति जारी करेंगे। डील खत्म।
अब संबंध नहीं, डील काम करेंगे।
रिश्ते नहीं कांटेक्ट काम करेंगे।
जो दुनिया हम सब बना रहे हैं,उसमें जल्दी ही ये सब होगा।
वैसे जो मैं बता रहा हूं कि वह इंडिया में चालीस साल बाद की तस्वीर है।
पर अमेरिका में यह पचास साल पुरानी तस्वीर है।
हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं।
सीधे हृदय पर चोट कर ही देते हैं आप।
ReplyDeleteज्ञान जी, विसंगतियाँ बहुत व्यापक हैं। लेकिन हमें इनकी ऐसी आदत पड़ चुकी है कि सामान्यतः हमें कुछ खास गड़बड़ दिखता ही नहीं है। एक बार गटर का ढक्कन खोलिये तो नाक पर हाथ रखना ही पड़ेगा। उपभोक्तावादी आपाधापी में किसे फुरसत है ठहर कर सोचने की? आपने सोचा तो उसे पढ़कर अपने आस-पास से ही घिन्न आने लगी। फिर कुछ और सोचा तो मुँह से निकल पड़ा- उफ्! ये मध्यम वर्ग।
ReplyDeleteभारतीय मध्य वर्ग एक बहुत ही स्वार्थी और पाखंडी (हाइपोक्रेट) समाज है. इसकी कारगुजारियाँ देखकर सिर्फ़ एक ही बात मुंह से निकलती है 'Ugly Indians'.
ReplyDeleteसत्यार्थमित्र जी का ब्लॉग पोस्ट जिसका वे हाइपरलिंक दे रहे हैं यहां देखें - उफ, ये मध्यम वर्ग।
ReplyDeleteआत्मुग्धता सबसे बड़ी बीमारी है ओर खामोश हो जाना उससे भी बड़ी .सवाल मध्यम या उच् वर्ग का नही सवाल सोच का आपके अन्दर के व्यक्तित्व का है........यही तो मैं काना चाह रहा था अपनी पिछली पोस्ट मे कि अच्छा लिखना भर काफी नही है उसे असल जिन्द्गिमे उतारना भी उतना जरूरी है ....पर मैंने अपनी जिंदगी मे उच्च वर्ग को भी उतनी ही छोटी सोच के साथ देखा है....जिनके पास पैसे है वो फीस नही देना चाहते ओर गरीब बेचारा मेडिकल स्टोर वाले से भी दावा का उचित दाम पूछने कि हिम्मत नही कर पाता...पर सोच किसी गरीब की भी ख़राब हो सकती है...... सब संस्कार का असर है.......ओर रही भारत के पिछड़ने की वजह.....वो है जो जानते बूझते है ,समझते है वो चुप रहते है.......उन्होंने पढ़ लिख कर चुप रहना ही सीखा है...........
ReplyDeleteआपकी हर पोस्ट में शब्दों की माटी तले सच का एक बीज छुपा रहता है . इस पोस्ट में तो सच के फल-फूल सब दिख रहे हैं . मध्यवर्ग-उच्च मध्यवर्ग के चाल-चलन और उसकी मनोवृत्ति की एकदम सही शिनाख्त की है आपने . पवन के. वर्मा की किताब 'ग्रेट इंडियन मिडल क्लास' की भी मूल स्थापना यही है .
ReplyDeleteदिनेशराय जी से शत-प्रतिशत सहमत हूं कि "आप ने कोई यू-टर्न नहीं लिया है। यह तो ईमानदार सोच की स्वाभाविक प्रक्रिया है।"
और अगर यह 'आत्मगरियाव' का सिनिसिज़्म है तो भी 'सौ-सौ जूता खाएं,तमाशा घुसइ कै देखें' वाले शेयर बाज़ार प्रेम से लाख गुना मुफ़ीद सिनिसिज़्म है . न जाने वह कैसा समाज होगा जिसमें बाप-बेटों में सम्बंध से नहीं 'डील' से काम हुआ करेगा और मियां-बीबी का रिश्ता नहीं उनके 'डील'-- उनके कॉन्टेक्ट -- काम करेंगे . मुझे तो लगता है ऐसे समय में कुछ भी ठीक-ठीक काम नहीं करेगा . और तब यह संतृप्त और असंवेदनशील मध्य वर्ग मुदित भी नहीं रह जाएगा . नकली रोने और नकली हंसने के उस धूसर समय में कैसा मोद सम्भव होगा ?
इस उपभोक्तावादी समय में पैसा नई भूख तैयार करता है . हाजमा दुरुस्त नहीं करता . मध्यवर्ग को यह समझना होगा . तभी कोई राह निकलेगी .
बढिया बहस चल पडी है, मध्यम-वर्ग,मध्यमवर्गिय मानसिकता और मध्यमवर्ग के करतूतों पर।सफ़ल ब्लाग के अलावा लेकिन होगा क्या? पुराणिक जी के शब्दों में सिर्फ़ ‘आत्मगरियाव’ या मेरे अनुसार आत्महंता प्रवृत्ति से होता क्या है? बढियाँ पढ्ने को मिला।
ReplyDeleteसहमत।
ReplyDelete:| मौन
ReplyDeleteआपसे अनजाने में हुई वर्तनी की अशुद्धि ने अर्थ के नए क्षितिज़ खोल दिए हैं . 'टेंजिबल अचीवमेण्ट (ठोस अपलब्धियों)' में मुझे नए और ज्यादा सार्थक आशय दिख रहे हैं . इस मध्यवर्ग की लब्धियां 'उपलब्धियां' कम हैं 'अपलब्धियां' ज्यादा हैं .
ReplyDelete@ प्रियंकर जी - धन्यवाद। मैने वर्तनी की अशुद्धि सुधार दी है। पर भूल वास्तव में कभी कभी अर्थ रखती है!:)
ReplyDeleteवाकई, आपने आज के कटु सच को बयां किया है।
ReplyDeleteखुदगर्जी, आत्मपरस्ती, येनकेनप्रकारेन दूसरों से आगे बढ़ने की अंधी होड़ में डूबे मध्य वर्ग की मौजूदा मानसिकता ही आज के दौर की सबसे बड़ी सचाई है। जो मध्य वर्ग पिछली सदी के पूर्वार्ध तक सारी दुनिया में सकारात्मक बदलावों की धुरी था, आज वही मध्य वर्ग नैतिक और सुसंस्कृत समाज की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है।
इस विषय पर मेरा एक आलेख भी द्रष्टव्य है -
बदलाव की धुरी नहीं रहा मध्य वर्ग
आपकी आज की पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है । यहां पर भी वही मानसिकता वाली बात लागू होती है।
ReplyDeleteबहुत बड़े-बड़े विचार आए हैं, मैं क्या लिख सकता हूँ इस पर. बस इतना कहना है कि घर में बैठे-बैठे ब्लॉग लिखने में क्या करना होता है... अच्छी-अच्छी बातें लिखो, जब काम करने की आए तो किनारा कर लो. यही तो होता है, दूसरो को गाली दो... और बुद्धिजीवी कहलाओ... जब तक पेट भर रहा है और जरूरतें पूरी हो रही हैं जरुरत क्या है कुछ करने की?
ReplyDeleteबढिया और प्रेरणास्पद चिँतन--
ReplyDeleteफिर भी,
हर एक छोटा सा ही सही,
कदम कदम बढाये जा ..
- लावण्या
आज की पोस्ट बहुत बड़िया है, आइना दिखाती हुई, कुछ खुद को देख मुग्ध होते हुए कुछ असंयत होते हुए। इस पोस्ट से असहमत होने का तो सवाल ही नहीं उठता, सिर्फ़ एक सवाल मन में उठता हुआ क्या ये सिर्फ़ मध्यम वर्ग पर ही लागू होता है, क्या ये मान कर नहीं चला जा रहा कि बाकि के दोनों वर्ग इस बिमारी के शिकार नहीं। अगर ऐसा मान कर चला जा रहा है तो पहले उसकी इन्वेस्टिगेशन कर लेनी चाहिए। बाकि आलोक जी के कहे से हम सहमत, डील का ही जमाना आने वाला है, नहीं,
ReplyDeleteआ गया है। जहां तक कनपुरिया जी के ब्लोगर के मुग्ध नायिका जैसे होने का सवाल है तो भाई उसमें क्या बुराई हैं। खुद को खुद का लिखा अच्छा न लगेगा तो दूसरे को क्युं लगेगा। लिजिए अब मुग्ध नायिका पर एक चुटकुला सुनिए( माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए- अन्यथा न लें)
एक पत्नी शीशे के सामने खड़े हो कर खुद को निहार रही थी और उसका पति वहीं पीछे बैठा अखबार पढ़ रहा था। पत्नी कह रही थी आखों के नीचे थोड़ी झाइंया आ गयी लगती है, सन लौशन लाना होगा, बाल भी थोड़े ज्यादा झड़ रहे हैं , तेल में मिलावट है, कमर कमरा हो रही है, लू के चलते हौंठ थोड़े सूखे सूखे रहते हैं । पति कोई टिप्पणी नहीं कर रहे थे। पत्नी तुनक कर बोली तुम कुछ कॉमप्लीमेंट नहीं दे सकते पहले तो कितने कसीदे पढ़ते थे। पति ने कॉमप्लीमेंट देते हुए कहा तुम्हारी आखें एकदम सही काम कर रही हैं…।:)
यह आम भारतीय मानसिकता है, गुरुवर ।
ReplyDeleteक्या मध्यवर्ग, और क्या उच्च वर्ग ?
अपना काम बनता-भाड़ में जाये जनता
जब यही है, तो गरियाने से कोई लाभ नहीं
आत्मचिंतन करने वाले किसी आवा्हन की प्रतीक्षा नहीं किया करते
आपकी पोस्ट ज़ायज़ है, किंतु जिनको पढ़ना चाहिये ,वह क्या पढ़ भी रहें हैं ? सोये को आप जगा सकते हो, जागते हुये भी सोने वालों को ? शायद नहीं !
Every word true to the core!
ReplyDeleteअविनाश वाचस्पति की ई-मेल से मिली टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत जरूरी है
रिक्शे वाले से की जाने वाली झिक झिक
सब्जी वाले से की जाने वाली चिक चिक
अपनी पोस्ट तो लिखते भी हैं, पढ़ते भी हैं
हम बार बार, हर बार, पोस्ट दूसरे की पढ़ते नहीं पूरी
पर टिप्पणी करते हैं भरपूर और होते हैं मुदित मन
लगता है यही है समय की अविरल तान टिक टिक.
अविनाश वाचस्पति
mujhe aapki pahal bahut santosjanak lagi. Hindustani pure vishwa main failey hue hai or un sabko matrbhasha hi mila sakti hai. main kamna karta hoon ki ek din ye 'kuch bhi likho daak' "blog post" vishwa vikyat hoga. dhanywaad.
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